मंगलाचरण
सुर-नर ऋषि-वर से सदा, जिनके पूजित-पाद।
पूज्य-पाद को नित नमूँ, पाऊँ परम-प्रसाद ॥
जिस जीवन में पूर्ण रूप से, सब कर्मों का विलय हुआ,
उसी समय पर सहज रूप से, स्वभाव रवि का उदय हुआ।
जिसने पूरण पावन परिमल, ज्ञानरूप को वरण किया,
बार-बार बस उस परमातम, को इस मन ने नमन किया ॥१॥
स्वर्ण बने, पाषाण-स्वर्ण का, स्वर्ण-कार का हाथ रहा,
अनल-मिलन से जली मलिनता, समुचित-साधन साथ रहा।
योग्य-द्रव्य हो योग्य-क्षेत्र हो, योग्य-भाव के योग मिले,
आतम-परमातम बनता है भव-भव का संयोग टले ॥२॥
व्रत-पालन से सुर-पुर में जा, सुर-पद पाना इष्ट रहा,
पर व्रत बिन नरकों में गिरना, खेद! किसे वह इष्ट रहा।
घनी छाँव में, घनी धूप में, थित हो अन्तर पहिचानो,
अरे! हितैषी व्रताव्रतों में कितना अन्तर तुम मानो ॥३॥
जिन-भावों से नियम रूप से, मिलता है जब शिवपुर है,
उन भावों से भला! बता दो, क्या? ना मिलता सुर-पुर है।
द्रुतगति से जो वाहन यात्रा, कई योजनों की करता,
अर्ध-कोश की यात्रा करने, में भी क्या? वह है डरता ॥४॥
पंचेन्द्रिय-सुख होकर भी जो आतंकों से दूर रहा,
युग-युग तक अगणित वर्षों तक, लगातार भर-पूर रहा।
सुर-सुख तो बस सुरसुख जिसको, अनुभवते सुर-पुर-वासी,
कहे कहाँ तक? किस विध? किसको? आखिर हम तो वनवासी ॥५॥
तन-धारी जीवों का सुख तो, मात्र वासना का जल है,
दुख ही दुख है सुख-सा लगता, मृग-मरीचिका का जल है।
संकट की घड़ियों में जिस विध, रोग-भयंकर, उस विध हैं,
भोग सताते भोक्ताओं को, भोग हितंकर किस विध हैं? ॥६॥
पुरुष यहाँ उन्मत्त बना हो, जिसने मदिरापान किया,
निज-का पर-का हिताहितों का, उसे कहाँ? हो ज्ञान जिया।
मोह-भाव से घिरा हुआ यदि, जिसका भी वह ज्ञान रहा,
स्वभाव को फिर नहीं जानता, यथार्थ में अज्ञान रहा ॥७॥
धन-तन केतन वतन उपावन, मात-पिता सुत-सुता अरे!
परिजन पुरजन सहचर अनुचर, अग्रेचर रिपु तथा रहें।
सुन-सुन सब ये आतम से अति भिन्न-स्वभावी-ज्ञात रहे,
मूढ इन्हें नित निजी मानते भव में भटके भ्रान्त रहें ॥८॥
दिशा-दिशा से देश-देश से, उड़-उड़ पक्षी दल आते,
डाल-डाल पर पात-पात पर, पादप पर निशि बस जाते।
अपने-अपने कार्य साधने, उषा काल में फिर उड़ते,
दिशा-दिशा में देश-देश में, कहाँ देखते फिर मुड़के ॥९॥
हत्यारा यदि हत्या करता, तुम क्यों? उस पर क्रोध करो,
हत्यारे तो तुम भी हो फिर, कुछ तो मन में बोध धरो।
त्र्यंगुल को निज पैरों से जो, कोई मानव गिरा रहा,
उसी समय पर उसी दण्ड से, स्वयं धरा पर गिरा अहा ॥१०॥
दधिमन्थन के काल मथानी, मन्थन-भाजन में भ्रमती,
कभी इधर तो कभी उधर ज्यों, क्षण भर भी ना है थमती।
राग-द्वेष की लम्बी-लम्बी, डोरी से यह बँधा हुआ,
ज्ञान बिना त्यों भव में भ्रमता, रुदन करे गल सँधा हुआ ॥११॥
भरे रीतते कुछ भरते घट, तब तक यह क्रम चलता है,
घटी-यन्त्र का परिभ्रमण वह, जब तक रहता चलता है।
इसी भाँति भवसागर में भी, एक आपदा टलती है,
कई आपदायें आ सन्मुख, मोही जन को छलती हैं ॥१२॥
जिनका अर्जन बहुत कठिन है, संरक्षण ना सम्भव है,
स्वभाव जिनका मिटना ही है, ये धन-कंचन-वैभव हैं।
फिर भी निज को स्वस्थ मानते, धनपति धन पाकर वैसे,
ज्वर से पीड़ित होकर जो जन, घृत-मय भोजन कर जैसे ॥१३॥
वन में तरु पर बैठा जैसा, मन में चिंतन करता है,
वन्य-जन्तु अब जले मरे सब, आग लगी वन जरता है।
पर की चिन्ता जैसी करता, अपनी चिन्ता कब करता?
मूढ़ बना तन पुनि-पुनि धरता, मरता है पुनि-पुनि डरता ॥१४॥
काल बीतता ज्यों-ज्यों त्यों-त्यों आयु कर्म वह घटे बढे,
धन का वर्धन धनी चाहते, प्रतिदिन हम तो बनें बढ़े।
कहें कहाँ तक धनी लोग तो, जीवन से भी जड़ धन को,
परम-इष्ट परमेश्वर कहते, धन्यवाद धन-जीवन को ॥१५॥
निर्धन धन अर्जित करता है, दान हेतु यदि वह नाना,
दान कर्म का ध्येय बनाया, कर्म खपाना शिव पाना।
कार्य रहा यह ऐसा जैसा, अपने तन पर करता है
लेप पंक का कोई मानव, “स्नान करूंगा कहता है'' ॥१६॥
प्राप्त नहीं हो जब तक, तब तक, महा ताप कर काम-सभी,
किन्तु प्राप्त हो जाने पर तो, कभी तृप्ति का नाम नहीं।
अन्त-अन्त में तो क्या कहना? जिनका तजना सरल नहीं,
सुधी रचे फिर काम-भोग में? जिनका मन हो तरल कहीं ॥१७॥
मलयाचल का चन्दन चूरण, चमन चमेली चातुरता,
कुन्द पुष्प मकरन्द सुगन्धी, गन्ध-दार मन्दारलता।
पदार्थ सब ये तन संगति से, गन्ध-पूर्ण भी गन्दे हों,
सदा अहित कर तन का यदि तुम, राग करो तो, अन्धे हो ॥१८॥
तन का जो उपकारक है वह, चेतन का अपकारक है,
चेतन का उपकारक है जो तन का वह अपकारक है।
सब शास्त्रों का सार यही है चेतन का उद्धार करो,
अपकारक से दूर रहो तुम, तन का कभी न प्यार करो ॥१९॥
एक ओर तो चिन्तामणि है, दिव्य रही, मन हरती है,
और दूसरी ओर कांच की, मणिका जग को छलती है।
ध्यान-साधना से ये दोनों, मानो भ्राता! मिलती हैं,
आदर किसका बुधजन करते? आँखें किस पर टिकती हैं ॥२०॥
अपने-अपने संवेदन में, अमूर्त हो आतम भाता,
रहा रहेगा त्रिकाल में है, अतः अनश्वर है भ्राता!
तात्कालिक तन प्रमाण होता, अनन्त सुख का निलय रहा,
लोकालोकालोकित करता, सदा लोक का उदय रहा ॥२१॥
चपल-स्वभावी सभी इन्द्रियाँ, इनको संयत प्रथम करो,
मनोयोग से मनमाना मन, को भी मंत्रित तुरत करो।
अपने में स्थित हो अपने को, अपनेपन से आप तथा,
ध्याओ अपने आप भला फिर, ताप मिटे संताप व्यथा ॥२२॥
अज्ञानी की शरण-गहो तो, सुनो तुम्हें अज्ञान मिले,
ज्ञानी-जन की उपासना से, ज्ञान मिले वरदान फले।
जिसका स्वामी जो होता है, प्रदान उसको करता है,
लोक नीति यह सुनी सभी ने, प्रमाण विरला करता है॥२३॥
योगी जन अध्यात्म योग से, चेतन में निर्बाध रहे,
मनो-योग को वचन-योग को, काय-योग को साध रहे।
परीषहों को, उपसर्गों को, सहते विचलित कब होते?
कर्म-निर्जरा आस्रव-रोधक, संवर प्रचलित सब होते ॥२४॥
यू हि परस्पर दो दो में तो, होता है सम्बन्ध रहा,
कर्म रहा मम 'कट, कट का मैं, कर्ता हूँ प्रतिबन्ध रहा।
एकमेक जब ध्यान-ध्येय हो, आतम का ही आतम ओ!
फिर किस विध सम्बन्ध बन्ध हो, दोपन ही जब खातम हो ॥२५॥
इसीलिए तुम पूर्ण यत्न से, निर्ममता का मनन करो,
चिन्तन-मन्थन-आराधन भी, तथा उसी को नमन करो।
जीव कर्म से बंधता तब है, ममता से जब मण्डित हो,
बन्धन से भी मुक्त वही हो, निर्ममता में पण्डित हो ॥२६॥
एक अकेला निर्मम हूँ मैं, योगी को ही दिखता हूँ,
शुद्ध-शुभ्र हूँ ज्ञानी होता, ज्ञानामृत को चखता हूँ।
माया, ममता, मोह, मान, मद, संयोगज ये भाव अरे!
भिन्न सर्वथा मुझसे हैं यूं, इनमें हम समभाव धरे ॥२७॥
असहनीय दुःखों का फल है, यह संसारी बना हुआ,
संयोगज भावों का फल है, रागादिक में सना हुआ।
इसी बात को जान मानकर उपकृत हूँ गुरुवचनों से,
रागादिक को पूर्ण त्यागता, तन से, मन से, वचनों से ॥२८॥
मरण नहीं है मेरा मुझको, कहाँ भीति हो? किससे हो?
व्याधि नहीं है मुझमें, मुझको, वृथा व्यथा फिर किससे हो?
बाल नहीं हूँ, युवा नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ ज्ञात-रहे,
ये पुद्गल की रहीं दशायें, चेतन मेरा साथ रहे ॥२९॥
मोह-भाव से विगत-काल में, मुझसे ये पुद्गल-सारे,
बहुत बार भी, बार-बार भी, भोगे, छोड़े, उर धारे।
वमनरूप-सम भोगों में अब, मेरा मन यदि फिर जाता,
विज्ञ बना मुझको शोभा क्या? देता उत्तर लजवाता ॥३०॥
कर्म चाहता तभी कर्म-हित, कर्म-कर्म से जब बंधता,
जीव चाहता तभी जीवहित, जीवन जिससे है सधता।
अपने-अपने प्रभाव के वश, बलशाली हैं जब होते,
स्वार्थ सिद्धि में कौन-कौन फिर, तत्पर ना हो? सब होते ॥३१॥
पर को उपकारों का अब ना, पात्र बनाओ भूल कभी,
निज पर ही उपकार करो अब, पात्र रहा अनुकूल यही।
करते दिखते सदा परस्पर, लौकिक जन उपकार यथा,
करते दिखते अज्ञ निरन्तर, पर पर ही उपकार तथा ॥३२॥
गुरु का उपदेशामृत निज को, सर्वप्रथम तो पिला दिया,
तदनुसार अभ्यास बढ़ाया, प्रयोग करता चला गया।
निजानुभव से निज-पर अन्तर, तभी निरन्तर जान रहा,
जान रहा वह मोक्ष सौख्य भी, अब तक जो अनजान रहा ॥३३॥
प्रशस्त-तम है अपनेपन में, जो उसका अभिलाषक है,
स्वयं किसी उपदेश बिना भी इष्ट-तत्त्व का ज्ञापक है।
जो कुछ अब तक मिला मिलेगा, निज हित का भी भोक्ता है,
अतः समझ हूँ आतम का तो, आतम ही गुरु होता है ॥३४॥
अज्ञ रहा तो अज्ञ रहेगा, नहीं विज्ञता पा सकता,
विज्ञ रहा तो विज्ञ रहेगा, नहीं अज्ञता पा सकता।
केवल निमित्त धर्म द्रव्य है, गति में जैसा होता है,
एक अन्य के कार्य विषय में, समझो वैसा होता है ॥३५॥
रागादिक लहरें ना उठतीं, जिनका मानस शान्त रहा,
हेय तथा आदेय विषय में, तत्त्व-ज्ञान निर्भ्रांत रहा।
योगी-जन निर्जन वन में जा, निद्रा-विजयी तथा बने,
प्रमाद तज निज साधन कर ले, कालजयी फिर सदा बने ॥३६॥
तत्त्वों में जो परम तत्त्व है, आत्म तत्त्व जो सुख-दाता,
जैसे-जैसे अपने-अपने, संवेदन में है आता।
वैसे-वैसे भविकजनों को रुचते ना हैं भले-भले,
पुण्योदय से सुलभ हुए हैं, भोग सभी पीयूष घुले ॥३७॥
पुण्योदय से सुलभ हुए हैं, भोग सभी पीयूष घुले,
जैसे-जैसे भविकजनों को, रुचते ना हैं भले-भले।
वैसे-वैसे अपने-अपने, संवेदन में है आता,
तत्त्वों में जो परम तत्त्व है, आत्मतत्त्व जो सुख दाता ॥३८॥
इन्द्र-जाल सम स्वभाव वाला, पल-पल पलटन शीला है,
सार-शून्य-संसार सकल है, नील-निशा की लीला है।
इस विध चिन्तन करता योगी, आत्म-लाभ का प्यासा है,
पल-भर भी यदि बाहर जाता, खेद खिन्न हो खासा है॥३९॥
जन, मन, तन-रंजन में जिसको, किसी भांति ना रस आता,
अतः सदा एकान्त चाहता, मुनि बन वन में बस जाता।
निजी कार्य वश कभी किसी से, कुछ कहना हो कहता है,
कहकर भी झट विस्मृत करता, अपनेपन में रहता है॥४०॥
यदपि बोलते हुए दीखते, तदपि बोलते कभी नहीं,
चलते जाते हुए दीखते, फिर भी चलते कभी नहीं।
आत्म तत्त्व स्थिर जिनका उनकी, जाती महिमा कही नहीं,
दृश्य देखते हुए दीखते, किन्तु देखते कभी नहीं ॥४१॥
यह सब क्या है? क्यों हैं? किस विध? कब से? किसका? है किससे?
इस विध चिन्तन करता-करता, जो निज चिति में फिर-फिर से!
अपनी काया की भी सुध-बुध, भूल कहीं खो जाता है,
योग परायण योगी वह तो, एकाकी हो जाता है ॥४२॥
जो भी मानव निवास करता, जहाँ कहीं भी पाया है,
नियम रूप से उसने अपना वहाँ राग दिखलाया है।
भाव-चाव से जहाँ रम रहा, जीवन अपना बिता रहा,
उसे छोड़कर कहीं न जाता, छन्द यहाँ यह बता रहा ॥४३॥
बाहर योगी जब ना जाता, बाहर का फिर ज्ञान कहाँ?
बाहर का जब ज्ञान नहीं है, विषयों का फिर नाम कहाँ?।
विषयों का जब नाम नहीं है, रागादिक का काम कहाँ?
रागादिक का काम नहीं तो, बन्ध कहाँ? शिवधाम वहाँ ॥४४॥
पर तो पर है समझो भ्राता!, पर से अति दुख मिलता है,
आतम तो आतम है भाता, आतम से सुख मिलता है।
यही जानकर यही मानकर, महामना ऋषि सन्त यहाँ
आत्म-साधना में रत रहते, सुख पाने गुणवन्त महाँ ॥४५॥
कभी स्व-पर को नहीं जानता, रहा अचेतन यह तन है,
फिर तन का अभिनन्दन करता, मूढ़ बना तू चेतन है?।
साथ चलेगा तुझको फिर ना, चउगतियों में छोड़ेगा,
पापों से जोड़ेगा तुझको, भव-भव में हूँ रोयेगा ॥४६॥
बाहर के व्यवहार कृत्य से, तन-मन-वच से मुड़ता है,
भीतर के अध्यात्म वृत्त से चेतन-पन से जुड़ता है।
फलतः परमानन्द जागता, राग-भाग्य अब भाग चला,
योगी का यह योग योग है, वीतराग पथ लाग चला ॥४७॥
आतम में आनन्द उदित हो, साधक को सन्तुष्ट करे,
कर्मरूप ईन्धन को अविरल, जला जलाकर नष्ट करे ॥४८॥
जिसे अविद्या देख कांपती, पल-भर में बस नस जाती,
महा-बलवती ज्ञान-ज्योति वह, कहलाती है, सुख लाती।
बात करो तो करो उसी की, चाह उसी की करो सदा,
मुमुक्षु हो तुम उसी दृश्य को, देखो उर में धरो सदा ॥४९॥
जीव सदा से अन्य रहा है, अन्य रहा तन पुद्गल है,
तत्त्व ज्ञान बस यही रहा है, माना जाता मंगल है।
फिर भी जो कुछ और कथन यह, सुनने सन्तों से मिलता,
मात्र रहा विस्तार उसी का, तत्त्वज्ञान से तम मिटता ॥५०॥
सुधी सही इष्टोपदेश जै का, ज्ञान करे अवधान करे,
मानपने अपमानपने का, समान ही सम्मान करे।
निराग्रही मुनि बन वन में या, उचित भवन में वास करे,
पाले निरुपम मुक्ति सम्पदा, भव्य भवों का नाश करे ॥५१॥
दोहा
जहाँ अनेकों पूज्य जिन,-धाम एक से एक।
रवि निज किरणों से करे, प्रतिदिन सौ अभिषेक ॥१॥
रामटेक को देखते, प्रकटे स्व-पर विवेक।
विराम स्वातम में करो, विघटे विपद अनेक ॥२॥
ऋषि रसना रस गन्ध की, पौष शुक्ल गुरु तीज।
पूर्ण हुआ अनुवाद है भुक्ति-मुक्ति का बीज ॥३॥