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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • श्री कुन्थु जिन-स्तवन

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    चक्री बन शासित नरपों को प्रथम किया यश सुख पाने।

    तीर्थंकर बन धर्म-चक्र, फिर चला दिया निज-घर जाने ॥

    जरा जनन मृति रोग मिटाने सदय स्वजीवन बना लिया।

    कुन्थु कृमी आदिक जीवों पर, कुन्थु जिनेश्वर दया किया ॥१॥

     

    स्वभाव से ही तृष्णा-ज्वाला सदा धधकती वह जलती।

    भोग्य वस्तुएँ भले भोग लो तृष्णा बुझती नहिं बढ़ती ॥

    विषय-सौख्य तो निमित्त केवल, हर सकते! तन-ताप भले।

    विमुख हुए हैं अतः विषय से, मुनि बन, शिव-पथ आप चले ॥२॥

     

    कष्ट साध्य बहु बाह्य तपों से तन को मन को जला दिया।

    आभ्यंतर तप उद्दीपित हो यही प्रयोजन बना लिया ॥

    आर्त ध्यान को, रौद्र ध्यान को, पूर्ण ध्यान से हटा दिया।

    धर्म ध्यान में, शुक्ल ध्यान में, क्रमशः निज को बिठा दिया ॥३॥

     

    रत्नत्रयमय होम-कुण्ड को योग अनल से तेज किया।

    होमा जिसमें घाति कर्म को यम-पुर रिपु को भेज दिया।

    अतुल वीर्य पा सकल ज्ञेय के प्रतिपादक आगम-कर्ता।

    विलस रहे प्रभु मेघ-रहित नभ में जिस विध रवि तम-हर्ता ॥४॥

     

    विद्या-धन का निधान दुर्लभ मुनिवर! तुममें अहा खुला।

    ब्रह्मा महेश आदिक को पर जिसका कण भी कहाँ मिला ॥

    अमित-अमिट हो स्तुत्य बने हो जन्म-रहित जिन देव! तभी।

    निज हित-इच्छुक अतः सुधी ये तुम्हें भजे स्वयमेव सभी ॥५॥

     

    (दोहा)

     

    ध्यान-अग्नि से नष्ट कर, प्रथम पाप परिताप।

    कुन्थुनाथ पुरुषार्थ से, बने न अपने-आप ॥१॥

    ऐसी मुझपे हो कृपा, मम मन मुझमें आय।

    जिस विध पल में लवण है, जल में घुल मिल जाय ॥२॥


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