चक्री बन शासित नरपों को प्रथम किया यश सुख पाने।
तीर्थंकर बन धर्म-चक्र, फिर चला दिया निज-घर जाने ॥
जरा जनन मृति रोग मिटाने सदय स्वजीवन बना लिया।
कुन्थु कृमी आदिक जीवों पर, कुन्थु जिनेश्वर दया किया ॥१॥
स्वभाव से ही तृष्णा-ज्वाला सदा धधकती वह जलती।
भोग्य वस्तुएँ भले भोग लो तृष्णा बुझती नहिं बढ़ती ॥
विषय-सौख्य तो निमित्त केवल, हर सकते! तन-ताप भले।
विमुख हुए हैं अतः विषय से, मुनि बन, शिव-पथ आप चले ॥२॥
कष्ट साध्य बहु बाह्य तपों से तन को मन को जला दिया।
आभ्यंतर तप उद्दीपित हो यही प्रयोजन बना लिया ॥
आर्त ध्यान को, रौद्र ध्यान को, पूर्ण ध्यान से हटा दिया।
धर्म ध्यान में, शुक्ल ध्यान में, क्रमशः निज को बिठा दिया ॥३॥
रत्नत्रयमय होम-कुण्ड को योग अनल से तेज किया।
होमा जिसमें घाति कर्म को यम-पुर रिपु को भेज दिया।
अतुल वीर्य पा सकल ज्ञेय के प्रतिपादक आगम-कर्ता।
विलस रहे प्रभु मेघ-रहित नभ में जिस विध रवि तम-हर्ता ॥४॥
विद्या-धन का निधान दुर्लभ मुनिवर! तुममें अहा खुला।
ब्रह्मा महेश आदिक को पर जिसका कण भी कहाँ मिला ॥
अमित-अमिट हो स्तुत्य बने हो जन्म-रहित जिन देव! तभी।
निज हित-इच्छुक अतः सुधी ये तुम्हें भजे स्वयमेव सभी ॥५॥
(दोहा)
ध्यान-अग्नि से नष्ट कर, प्रथम पाप परिताप।
कुन्थुनाथ पुरुषार्थ से, बने न अपने-आप ॥१॥
ऐसी मुझपे हो कृपा, मम मन मुझमें आय।
जिस विध पल में लवण है, जल में घुल मिल जाय ॥२॥