योगसार
(वसंततिलका छंद)
ज्ञानी, वशी परम पावन ध्यान ध्याके, जो अष्ट कर्म-मय ईंधन को जला के।
सारे हुए परम आतम विश्वसार, वन्दूं उन्हें नमन मैं कर बार-बार ॥१॥
जो घाति कर्म रिपु को क्षण में भगाये, अर्हन्त होकर अनन्त चतुष्क पाये।
तो लाख बार नम श्री जिन के पदों में, पश्चात् कहूँ सरस श्राव्य सुकाव्य को मैं ॥२॥
है भद्र! भव्य भव से भयभीत भारी, जो चाहते परम सुन्दर मुक्तिनारी।
संबोधनार्थ उनको समचित्त साथ, पद्यावली रचित है मुझसे सुखार्थ ॥३॥
जो काल है वह अनादि, अनादि जीव, संसार सागर अनन्त व्यथा अतीव।
मिथ्यात्व से भ्रमित हो सुख को न पाया, संसारिजीव दुख जीवन ही बिताया ॥४॥
संसार के भ्रमण से यदि भीत है तू, शीघ्रातिशीघ्र तज तो, पर भाव को तू।
ध्या, स्वच्छ, अच्छवअतुच्छ निजात्म को तू, पाले अनन्त जिससे शिव सौख्य को तू ॥५॥
आत्मा यहाँ त्रिविध हैं बहिरंतरात्मा, आदेय ध्येय ‘परमातम' है महात्मा।
तू अंतरात्म बन के परमात्म ध्या रे, दे! दे! सुशीघ्र बहिरातम को विदा रे! ॥६॥
मिथ्यात्व से भ्रमित जो जिन धर्म द्रोही, है मानता परम आतम को न मोही।
होता वही नियम से बहिरात्म प्राणी, गाती सदैव इस भांति सुवीर वाणी ॥७॥
जो देखता परम आतम को यहाँ है, ओ रोष तोष पर को तजता अहा है।
होता सुपंडित वही अयि! वीर नाथ! संसार त्याग, रमता शिव नारि साथ ॥८॥
अत्यंत शांत गतक्लांत नितांत शुद्ध, जो है महेश, शिव, विष्णु, जिनेश, बुद्ध।
ज्ञानी उन्हें परम आतम हैं बताते, सिद्धांत के मनन में दिन जो बिताते ॥९॥
देहादि जो सकलभिन्न सुसर्वथा है, 'आत्मा' कहे मनुज तो उनको, व्यथा है!!
वे ही सभी अबुध हैं बहिरात्म जीव, संसार बीच दुख को सहते अतीव ॥१०॥
जो अत्र मित्र निज पुत्र, कलत्र सारे, ये तो कभी न मम हो सकते विचारे।
यों जान, ओ अयि सुजान! तथा च मान, तू आत्म को सतत आतम रूप जान ॥११॥
हे भव्य जीव! यदि तू निजको लखेगा, तो शीघ्र मुक्ति-ललना-पति तू बनेगा।
औ अन्यको हि यदि आतम' तू कहेगा, तो हा! अगाध भवसागर में गिरेगा ॥१२॥
इच्छा विहीन बन तू यदि योग धार, है आत्म को निरखता जग को विसार।
तो आशु मुक्ति रमणी तुझको वरेगी, क्या! क्या कहूँ वह कभी न तुझे तजेगी ॥१३॥
है जीव कर्म गहता परिणाम से ही, पाता निजीय पद को परिणाम से ही।
तो भव्य जीव किससे शिव सौख्य ढोता, तू जान ठीक! किससे वह बंध होता ॥१४॥
धिक्कार! हाय! यदि आतम को विसार, तू पुण्य का चयन हो करता अपार।
तो हंत! सातिशय सौख्य नहीं मिलेगा, संक्लेश भाव करता, दुख ही सहेगा ॥१५॥
आदर्श सादृश निजातम दर्श, त्याग, कोई न अन्य शिवकारण, भव्य! जाग।
ऐसा सदा समझ निश्चय से सुयोगी! तो शीघ्र ही सुख मिले भव-मुक्ति होगी ॥१६॥
जो मार्गणा व गुणधान विकल्पसारे, हैं शास्त्र से कथित वे व्यवहार से रे!
पे आत्म को समझ निश्चय से विशुद्ध, होगा सुखी सहन से, द्रुत सिद्ध, बुद्ध ॥१७॥
गार्हस्थ्य कार्य घर में करते हुए भी, जो जानते सतत हेय अहेय को भी।
ध्याते तथाऽनुदिन वीर जिनेंद्र को हैं, पाते सुशीघ्र सब वे शिव सौख्य को हैं ॥१८॥
चिंतो विशुद्ध मन से अविराम ध्याओ, हे भव्य! आप जिन को निज चित्त लाओ।
सारे अनन्त गुणधाम अहो! बनोगे, तो एक साथ जिससे सबको लखोगे ॥१९॥
शुद्धात्म में व जिन में कुछ भी न भेद, ऐसा सदा समझ तू द्रुत आत्म वेद।
संसार पार करना यदि चाहता है, भा भावना सहज की यह साधुता है ॥२०॥
जो हैं जिनेन्द्र सुन! आतम है वही रे! ‘सिद्धांतसार' यह जान सदा सही रे!
यों ठीक जानकर तू अयि भव्ययोगी! सद्यः अतः कुटिलता तज मोह को भी ॥२१॥
जो है यहाँ परमआतम हूँ वही मैं, वे ही विभो! परम आतम जो सुधी में।
ऐसा अरे! समझ नाम सदैव योगी? ला चित्त में क्षण न अन्य विकल्प को भी ॥२२॥
शुद्धप्रदेश युत जो त्रयलोकपूर्ण, आत्मा उसे समझ जान उसे न चूर्ण।
निर्वाण प्राप्त करले जिससे मुमुक्षु! आत्मीय सौख्य गह ले अयि! भव्य भिक्षु ॥२३॥
आत्मा त्रिलोक सम निश्चय से यहाँ है,देह प्रमाण, व्यवहारतया तथा है।
जो जानता सतत ईदृश आत्म को है, पाता सुशीघ्र भव-वारिधि तीर को है॥२४॥
चौरासि योनिगत दुःसह दु:ख पाया, औ दीर्घ काल भव में भ्रमता बिताया।
सम्यक्त्व दिव्य धन को इसने न पाया, देही, जिसे धरम ना अबलों सुहाया ॥२५॥
जो है सचेतन-निकेतन और शुद्ध, वे दिव्य ज्ञानमय श्री जिन नाथ बुद्ध।
आत्मा उन्हें समझ, जान अरे सदा तू, हे भव्य! बोल शिव को यदि चाहता तू ॥२६॥
होगा तुझे न सुख ओ तबलौं न मुक्ति, सानन्द तू न करता जबलौं स्वभक्ति।
जो दीखता अब तुझे वर सौख्य सार, तू धार शीघ्र उसको करके विचार ॥२७॥
जो हैं जिनेश, शिव हैं त्रैलोक ध्येय, आत्मा वही व उसकी महिमा अमेय।
ऐसा यहाँ कथन निश्चय से किया है, विश्वास धार इसमें, भ्रम तो वृथा है॥२८॥
चारित्र मूढ़ जन यद्यपि धारते हैं, प्रायः सभी व्रत तपादिक साधते हैं।
शुद्धात्म-ज्ञान जबलों गहते नहीं हैं, ना मोक्ष मार्ग तबलों तप व्यर्थ ही हैं ॥२९॥
जो भी दिगम्बर वशी बन योग धार, शुद्धात्म को यदि लखें जग को विसार।
संसार त्याग सब वे द्रुत मोक्ष पाते, ऐसे सदैव सब सन्मति शास्त्र गाते ॥३०॥
चारित्र, शील व्रत औ तप भी करारी, ये सर्व ही न तबलों शिव सौख्यकारी।
शुद्धात्म ध्यान जबलौं मुनि को न होता, जो आशु साधुकुल को सुख पूर्ण देता ॥३१॥
है पुण्य से अमर हो बहता विलास, औ पाप से नरक में करता निवास।
पै पुण्य पाप तज जीव निजात्म ध्याता, तो शीघ्र ही परम पावन मोक्ष पाता ॥३२॥
चारित्र शील व्रत संयम जो यहाँ हैं, वे सर्व ही कथित रे? व्यवहार से हैं।
हे! जीव, एक वह कारण मोक्ष का है, विज्ञान, जो परम सार त्रिलोक का है॥३३॥
जो आत्म भाव बल से निज को जनाते, स्वामी! कभी न मन में परभाव लाते।
वे सर्व मोक्ष-पुर को सहसा पधारे, धारे अनंत सुख को, सबको निहारे ॥३४॥
ये द्रव्य हैं छह यहाँ अरु नौ पदार्थ, हैं सात तत्त्व जिनदर्शित ये यथार्थ।
व्याख्यान तो यह हुआ व्यवहार मात्र, तू जानले अब उन्हें बन साम्य पात्र ॥३५॥
सारे अचेतन-निकेतन बोध रिक्त, तो जीव चेतन सुधा सम सार युक्त ।
सानन्द जान जिसको मुनि भव्य वृंद, संसार पार करते बनते अबंध ॥३६॥
है जानता यदि सुनिर्मल आत्म को तू, औ छोड़ता उस सभी व्यवहार को तू।
तो शीघ्र ही वह मिले भव का किनारा, ऐसे जिनेश कहते यह योग सारा ॥३७॥
जो भेद संनिहित जीव अजीव में है, जो भी मनुष्य उसको यदि जानते हैं।
है ज्ञात निश्चित उन्हें जग तत्त्व सर्व, ऐसे मुनीश्वर कहें जिनमें न गर्व ॥३८॥
आत्मा अहो! परम केवल-बोध-धाम, ऐसा सुजान! नित जान तथैव मान।
कल्याण-खान-शिव की यदि कामना है, हे भव्य! साधुजन की यह बोलना है॥३५॥
तो कौन पूजन, समाधि करे करावे, औ मित्रता हृदय में किस संग लावे।
संघर्ष कौन किस संग करे महात्मा, देखो जहाँ वह वहाँ दिखता निजात्मा ॥४०॥
स्वामी! यहाँ सुगुरु के परसाद द्वारा, जो आत्म को न लखता जबलों सुचारा।
हा! हा! कुतीर्थ करता, तबलों अहा है, तो धूर्तता, कुटिलता, करता वृथा है ॥४१॥
त्रैलोक्य संस्तुत जिनेश न तीर्थ में है, वे सिद्ध, शुद्ध न जिनालय में बसे हैं।
रे? जान तू जिनप तो तन गेह में है, ऐसा सदा श्रुत विशारद बोलते हैं ॥४२॥
है देव यद्यपि तनालय में यथार्थ, जाते तथापि जन मंदिर दर्शनार्थ।
वैसी विचित्र घटना यह है अभागो? जैसा सुसिद्ध बनने पर भीख माँगो ॥४३॥
हे मित्र! देव जिन मंदिर में नहीं है, पाषाण लेप लिपि कागद में नहीं है।
वे है अनादि तनमंदिर में प्रशान्त, या जान, मान तज, हो जिससे न क्लांत ॥४४॥
कोई कहे जिनप तो मठ तीर्थ में है, कोई कहे गिरि जिनालय में बसे हैं।
पै देव को बुध तनालय में बताते, ऐसे अभिज्ञ बिरले महि में दिखाते ॥४५॥
तू है जरा मरण से यदि भीत भारी, तो नित्य धर्म कर जो वर सौख्यकारी।
तू धर्म रूप रस का इक-घूट लेगा, जल्दी जरा, जीवन, मृत्यु विहीन होगा ॥४६॥
होता न धर्म वह पुस्तक पिच्छिका से, ना प्राप्त हो पठन पाठन की क्रिया से।
होता न धर्म मठ-मंदिर वास से भी, तो प्राप्त हो न कचकुंचन कर्म से भी ॥४७॥
जो राग रोष, पर को तज योग धार, है आत्म में ठहरता, जग को विसार।
होता वही धरम तो शिव सौख्य देता, ऐसे कहें जिनप जो अघ कर्म जेता ॥४८॥
है आयु तो गल रही, गलता न चित्त, आशा तथा न गलती दिन-रैन मत्त।
व्यामोह तो स्फुरित है हित आत्म का ना, मोही सदा दुख सहे निज को न जाना ॥४९॥
तल्लीन ज्यों विषय को मन भोगने में, त्यों हो सुलीन यदि आतम जानने में।
तो क्या कहें? यति-जनो? वह मोक्ष पाता, योगी समूह इस भाँति सदैव गाता ॥५०॥
जैसा सछिद्र वह जर्जर श्वभ्र गेह, वैसा अचेतन, घृणास्पद, निंद्य देह।
भा भावना इसलिए निज! आत्म की तू, संसार पार करके बन रे सुखी तू ॥५१॥
संसार में सकल हैं निज कार्य व्यस्त, ना आत्म को समझते अब दुःख त्रस्त।
निर्भ्रान्त कारण यही शिव को न पाते, ऐसा न हो तुम सभी दुख क्यों उठाते ॥५२॥
वे मूर्ख हैं समय को पढ़ते हुए भी, जो जानते समय मात्र न आत्म को भी।
सारे अरे! इसलिए बहिरात्म जीव, पाते न मोक्ष, सहते दुख ही अतीव ॥५३॥
हो जाय विज्ञ यदि मुक्त मनेन्द्रियों से, पृष्टव्य शेष न उन्हें कुछ भी किसी से।
हो जाय बंद यदि राग प्रवाह सारा! तो आत्म भाव प्रगटे स्वयमेव प्यारा ॥५४॥
मोहाभिभूत व्यवहार विपत्तिखान, तू जीव अन्य जड़ पुद्गल अन्य जान।
शुद्धात्म को गह अतः तन-मोह छोड़, विज्ञान-लोचन जरा अब? भव्य? खोल ॥५५॥
जो जीव को विमल धाम न मानते हैं, श्रद्धा समेत उसको नहिं जानते हैं।
होंगे न मुक्त, न मिले सुख, दुःख पाते, ऐसा सदैव जिनदेव हमें बताते ॥५६॥
घी दूध उत्तम दही अरु दीप माला, ज्योतिर्मयी स्फटिक औ रवि भी निराला।
पाषाण रत्न रजतानल हेम जो हैं, दृष्टांत वे समझ नौ अब जीव के हैं ॥५७॥
आकाश सादृश तनादिक को सदैव, जो भिन्न ही समझता अयि वीर देव!
तो शीघ्र ब्रह्म पद को वह यों गहेगा, आलोक से जग प्रकाशित ही करेगा ॥५८॥
आकाश है अमित जो वर शुद्ध जैसा, है शास्त्र में कथित आतम ठीक वैसा।
तू व्योम को जड़ अचेतन नित्य जान, पै आत्म को विमल चेतनधाम मान ॥५९॥
जो जीव दृष्टि रखके निज नासिका पे, शुद्धात्म को हृदय में लखता यहाँ पे।
लज्जामयी जनन को फिर ना धरेगा, तो देह धार स्तन पान नहीं करेगा ॥६०॥
शुद्धात्म को परम-सुन्दर-देह जानो, दुर्गंध-धाम तन को जड़, हेय मानो।
रे! मूर्तमान तन को अपना कहो न, व्यामोह को तज, रहो, निज में हि मौन ॥६१॥
जो आत्म को स्वबल से जब जानता है, तो कौनसी सफलता मिलती न हा! है।
होता अहो उदित केवल बोध भानु, स्थायी मिले सुख, उसे शिर मैं नमाऊँ ॥६२॥
योगीन्द्र! आशु तजके पर रूप भाव, जो जानते सहज से अपने स्वभाव।
अज्ञान नाशकर, केवल बोध पावें, सिद्धत्व छोड़ फिर वे भव में न आवें ॥६३॥
है धन्य विज्ञ वह पंडित धैर्यवान, जो राग रोष तज के पर हेय मान।
है जानता, निरखता निज आत्म को ही, जो है विशुद्धतम लोक अलोक बोधी ॥६४॥
हे भव्य जीव! सुन तू मुनि हो व गेही, जो भी निवास करता निज आत्म में ही।
तो शीघ्र सिद्धि सुख का वह लाभ लेता, ऐसा कहें जिनप जो शिव मार्ग नेता ॥६५॥
रे! तत्त्व को विरल मानव मानते हैं, तो तत्त्व का श्रवण भी बिरले करे हैं।
है लाख में इक मनुष्य सुतत्त्व ध्यानी, धारे उसे विनय से बिरले अमानी ॥६६॥
माता, पिता, सुत सुता, वनिता-कदंब, मेरे नये, दुरित कारण ही कुटुम्ब।
ऐसा विचार करता, यदि भव्य संत, संसार नाश कर के बनता अनन्त ॥६७॥
योगीन्द्र! इन्द्र व नरेन्द्र फणीन्द्र सारे, ना जीव को शरण वे सब हैं विचारे।
ऐसे विचार मुनि तो निज को जनाते, आधार आत्महित का निज को बनाते ॥६८॥
देही सदा जनमता मरता अकेला, होता दुखी, जब सुखी तब भी अकेला।
कोई न संग उसका जब श्वभ्र जाता, निस्संग होकर तथा शिव सौख्य पाता ॥६९॥
हे! मित्र बोल अब तू यदि नित्य एक, तो अन्य भाव तज हो निज एकमेक।
स्थायी अपूर्व सुख जो फलतः मिलेगा, विज्ञान सूर्य तुझको द्रुत ही दिखेगा ॥७०॥
ज्यों आप पाप कहते बस पाप को ही, प्रायः परन्तु सब त्यों कहते विमोही।
पै जो कुपाप कहते उस पुण्य को भी, वैसे मनुष्य बिरले बुध भव्य कोई ॥७१॥
ज्यों बंध-कारक तुझे वह लोह बेड़ी, त्यों बंध-कारक यहाँ यह हेम बेड़ी।
जो भी शुभाशुभ-विभाव-विहीन होता, होता विमुक्त भव से, शिव सौख्य ढोता॥७२॥
तेरा दिगम्बर यदा मन जो बनेगा, तू भी उसी समय-ग्रंथ विहीन होगा।
तू अन्तरंग बहिरंग निसंग नंगा, तो मोक्ष मार्ग मिलता, बन तू अनंगा ॥७३॥
सुस्पष्ट बीज दिखता वट वृक्ष में ज्यों, होता प्रतीत वट भी उस बीज में त्यों।
दीखे उसी तरह जो तन में जिनेश, त्रैलोक्य पूज्य, जिनकी महिमा विशेष ॥७४॥
मैं हूँ वही जिनप जो वर बोध कोष, यों भावना सतत भा तज क्रोध रोष।
ना अन्य मन्त्र इसको तज, मोक्ष पंथ, संसार का विलय हो जिससे तुरन्त ॥७५॥
दो, तीन, चार, छह, पाँच तथैव सात, ये सर्व लक्षण विभो! गुणसार साथ।
होते अवश्य जिनमें जब स्पष्ट रूप, तू जान नित्य उनको परमात्म रूप ॥७६॥
जो राग रोष तज के धर नग्न भेष, सद् ज्ञान दर्शन गुणान्वित हो जिनेश!
अध्यात्म लीन रहते शिव सौख्य पाते, ऐसे सदैव जिनदेव हमें बताते ॥७७॥
है तीन से विकल जो मुनि मौन युक्त, अर्थात् विमोह अरु राग प्रदोष रिक्त।
सद् ज्ञान आचरण दर्शन पा स्वलीन, पाता प्रमोक्ष इस भाँति कहें प्रवीन ॥७८॥
संज्ञाविहीन बन चार कषाय मार, जो धारता वर अनंत चतुष्क भार।
आत्मा उसे समझ तू भवभीत भिक्षु, होता अतः परम पावन हे! मुमुक्षुः ॥७९॥
जो पंच इन्द्रियजयी तज पंच पाप, औ सर्व प्राण युत है जिनमें न ताप।
होते क्षमादि दशलक्षण धर्म युक्त, आत्मा उन्हें समझ निश्चय वीर भक्त ॥८०॥
आत्मा हि दर्शन-मयी अरु ज्ञान-धाम, चारित्र का सदन है नयनाभिराम।
औ त्याग रूप व्रत-संयम शील-झील, ऐसा सदा समझ तू बन तू सुशील ॥८१॥
जो आत्म को वे पर को नित जानता है, नित शीघ्र पर को वह त्यागता है।
संन्यास-धारक वही गुरु ओ महान, ऐसे कहे जिनप केवलज्ञानवान ॥८२॥
रत्नत्रयान्वित वशी महि में पवित्र, होता वही सुखद तीर्थ सदैव अत्र।
तो मोक्ष का सुगम कारण भी वही है, ना अन्य मन्त्र शिव हेतु न तंत्र भी है॥८३॥
अर्थावलोकन सदा जिससे अहा! हो, योगी उसे कहत दर्शन वे यहाँ भो!
विज्ञान है सहज आतम जो पवित्र, तो बार-बार निज चिंतन ही चरित्र ॥८४॥
आत्मा जहाँ गुण वहीं सब विद्यमान, षड् केवली सब कहें जिनमें न मान।
योगी अतः परम उत्तम योग धार, है आत्म को निरखते जग को विसार ॥८५॥
व्यापार बन्द कर इन्द्रिय ग्राम का भी, निस्संग हो तज परिग्रह नाम का भी।
तू काय से वचन से मन शुद्धि साथ, ध्या आत्म, शीघ्र बन जा शिव-नारिनाथ ॥८६॥
है बद्ध को समझता यदि तू प्रमुक्त, होता सुनिश्चय अतः द्रुत बंध युक्त।
तू स्नान स्वीय सर में यदि रे! करेगा, तो आशु मुक्ति-ललना-पति तू बनेगा ॥८७॥
सम्यक्त्वभूषित सुधी न कुयोनि पाता, या तो यदा कुगति में यदि हाय! जाता।
सम्यक्त्व का पर न दोष वहाँ दिखाता, प्राचीन कर्म रिपु को वह तो नशाता ॥८८॥
जो भव्य सर्व व्यवहार विमोचता है, ओ आत्म में रमण भी करता रहा है।
सम्यक्त्वमंडित वही, मुनि मौन-धारी, संसार त्याग, वरता, वह मोक्षनारी ॥८९॥
सम्यक्त्व में प्रथम जो बुध भी वही है, औ तीन लोक भर में वह मुख्य भी है।
पाता वही परम केवल ज्ञान को है, आदेय, शाश्वत, अपूर्व प्रमाण जो है॥९०॥
आत्मा सुमेरु सम हो जब जो ललाम, वार्धक्य मृत्यु परिशून्य, गुणैक-धाम।
भाई! तदेव वह कर्म न बांधता है, प्राचीन कर्मरिपु को पर मारता है॥९१॥
हे! मित्र! जो हरित पूरित पद्म -पत्र, होता न लिप्त जल से जिस भाँति अत्र।
आत्मीय भाव रत है यदि जो सदीव, ना लिप्त कर्म रज से उस भाँति जीव ॥९२॥
जो विज्ञ होकर यहाँ शिव सौख्य लीन, है बार बार लखता निज को प्रवीन।
स्वामी वही सहज से वसु कर्म नाश, पाता अपूर्व अविनश्वर जो प्रकाश ॥९३॥
आत्मा पवित्रतम जो पुरुषानुरूप, आलोक पूर्ण वह है, गुण मुख्य स्तूप ॥
जाज्वल्यमान अपनी वर ज्योतिगम्य, मैं क्या कहूँ वचन से, वह दिव्य रम्य ॥९४॥
शुद्धात्म को, अशुचिधाम शरीर से जो, है भिन्न ही समझता, निज बोध से यों।
अत्यन्त लीन उस शाश्वत सौख्य में हो, है जानता वह समस्त जिनागमों को ॥ ९५॥
जो जानता न निज निर्मल आत्म को है, औ त्यागता दुखमयी न विभाव को है।
होगा विशारद जिनागम में भले ही, पाता न मोक्ष वह तो भव में रुले ही ॥९६॥
संकल्प-जल्प व विकल्प विकार-हीन, जो हैं यहाँ परम श्रेष्ठ समाधि-लीन।
आनन्द काऽनुभव वे करते नितांत, वे ही अतः परम सिद्ध सदा प्रशान्त ॥९७॥
पिंडस्थध्यान फिर दिव्य पदस्थध्यान, रूपस्थध्यान भजनीय त्रितीय जान।
तू रूपरिक्त उस अंतिम ध्यान को भी, निस्संग हो समझ तो भव-मुक्ति होगी ॥९८॥
हे मित्र! बोधगुण मंडित जीव सारे, जो लोग ईदृश सदा सम भाव धारे।
सामायिकी तुम सभी समझो उसी को, ऐसा जिनेश कहते महि में सभी को ॥९९॥
जो रोष-तोषमय सर्व विकार भाव, है, शीघ्र त्याग, धरता वर साम्य भाव।
सामायिकी नियम से वह ही कहाता, ऐसा निरंतर यहाँ ऋषि वृंद गाता ॥१००॥
हिंसादि पंच विध निंद्य कुपाप छोड़, जो आत्म को अचल मेरु रखे अडोल।
होता चरित्र उसका वह जो द्वितीय, देता प्रमोक्ष, सुख जो अति श्लाघनीय ॥१०१॥
मिथ्यात्व राग विमदादि कल्याण से जो? सम्यक्त्व की विमलता बढ़ती उसे भी।
जानो सदैव परिहार-विशुद्धिरूप, होता प्रमोक्ष जिससे सुख तो अनूप ॥१०२॥
जो सूक्ष्म लोभ हटने पर सूक्ष्मभाव, है आत्म का नियम से करता बचाव।
होता वही परम सूक्ष्म चरित्र शस्य, है धाम नित्य सुख का शिव का अवश्य ॥१०३॥
आत्मा सुसिद्ध शिव, निश्चय से महात्मा, होता वही विमल जो अरहंत नामा।
आचार्य वर्य, उवझाय सुपूजनीय, स्वामी! वही नियम से मुनि वंदनीय ॥१०४॥
आत्मा हि ईश्वर वही शिव, विष्णु बुद्ध, ब्रह्मा, महेश, परमातम, सिद्ध, शुद्ध।
होता अनंत, वृष, शंकर भी जिनेश, पूजूँ नमूं स्तव करूँ उसका हमेश ॥१०५॥
पूर्वोक्त सार्थक सुलक्षण युक्त जो हैं, संक्लेशहीन सुखरूप जिनेश ओ है।
है आत्म में न उनमें कुछ भी विभेद, निर्भीत ही सतत तू इस भाँति वेद ॥१०६॥
जो शुद्ध-बुद्ध अब लों जिन हो चुके हैं, ये सिद्ध जो विमल संप्रति हो रहे हैं।
होंगे भविष्य भर में निजदर्श से ही, तू जान ईदृश अतः तज मोह मोही! ॥१०७॥
पद्यावली रचित थी निज बोधनार्थ, योगींद्रदेव यति से वर चित्त साथ।
मैंने वसंत-तिलका वर वृत्त-द्वारा, भाषामयी अब उसे कर दी सुचारा ॥१०८॥
है योगसार श्रुतसार व विश्वसार, जो भी इसे बुध पढ़े, सुख तो अपार।
मैं भी इसे विनय से पढ़, आत्म ध्याऊँ, “विद्यादिसागर' जहाँ डुबकी लगाऊँ ॥१०९॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव