आचार्य पूज्यपाद कृत संस्कृत भाषाबद्ध ‘इष्टोपदेश' ग्रन्थ का आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा भाषान्तरण ('वसन्ततिलका' एवं 'ज्ञानोदय' छन्द में पृथक्-पृथक् पद्यबद्ध) दो बार किया गया है। सर्वप्रथम सन् १९७१ के मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज) के चातुर्मासकाल में वसंततिलका छन्द में तथा द्वितीय पद्यानुवाद श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र रामटेक, नागपुर (महाराष्ट्र) में जहाँ स्व-पर विवेक जागृत होता है तथा स्वात्म में ध्यान करने से अनेक संकट विनष्ट हो जाते हैं, वीर निर्वाण संवत् २५१७ की पौष शुक्ला तृतीया, गुरुवार, २० दिसम्बर, १९९० के दिन यह अनुवाद पूर्ण हुआ।
अनुवाद के आरम्भ में मंगलाचरण है जिसमें सुर-नर-मुनियों से पूजित पूज्यपाद स्वामी को नमस्कार किया गया है। जिससे अनुवादकर्ता अनुवाद के साफल्य रूप परम प्रसाद को प्राप्त कर सकें। अनुवाद सर्वथा सटीक है। भाषा, भाव, पादानुक्रम आदि सभी दृष्टियों से इसमें हम निर्दोषता पाते हैं।
सत्-शास्त्र के मनन, श्रीगुरु के भाषण, विज्ञानात्मा स्फुट नेत्रों की सहायता से जो साधक यहाँ स्व-पर के अन्तर को जान लेता है वही मानों सभी प्रकार से परमात्मा रूप शिव को जान लेता है। सुधी वही होता है जो इष्टोपदेश का ज्ञान प्राप्त करे और अवधानपूर्वक उसे जीवन में उतारे। मान-अपमान में समान रहे। वन हो या भवन-सर्वत्र साधक को निराग्रही होना चाहिए। उसे चाहिए कि वह निरुपम मुक्ति-सम्पदा पा ले और भवों का नाश कर भव्यता प्राप्त करे। इस प्रकार इसमें अनिष्टकर स्थितियों से निवृत्ति और इष्टकर स्थितियों में प्रवृत्ति की बात है।