Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    893

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. भिन्न भिन्न कर बन्ध पुरुष को प्रज्ञामय उस आरे से, बिठा पुरुष को मोक्ष-धाम में उठा भवार्णव-खारे से! परम सहज निज चिदानन्दमय-रस से पूरित झील अहो! सकल कार्य कर विराम पाया ज्ञान सदा जय शील रहो ॥१८०॥ आत्म कर्म की सूक्ष्म संधि में प्रमाद तज जब मुनि झटके, प्रज्ञावाली पैनी छैनी पूर्ण लगाकर बल पटके। अबोध-विभाव में विधि, शुचि-ध्रुव चेतन में निज आतम को, स्थापित करती भिन्न भिन्न कर करे दूर वह हा! तम को ॥१८१॥ जो कुछ भिदने योग्य रहा था उसे भेद निज लक्षण से, अविभागी निज चेतन शाला नित ध्याऊँ मैं क्षण क्षण से। कारक गुण धर्मादिक से मुझ, में भले हि कुछ भेद रहे, तथापि शुचिमय विभुमय चिति में भेद नहीं गत-भेद रहे ॥१८२॥ अभेद होकर भी यदि चेतन तजता दर्शन-ज्ञान मनो, समान विशेष नहीं रह पाते तजता निज को तभी सुनो! निज को तजता भजता जड़ता बिना व्याप्य व्यापक चेतन, होगा विनष्ट अतः नियम से आत्म, ज्ञान - दृग का केतन ॥१८३॥ एक भाव वह द्युतिमय चिन्मय चेतन का नित लसता है, किन्तु भाव सब पर के पर हैं तू क्यों उनमें फँसता है? उपादेय है ज्ञेय ध्येय है केवल चेतन-भाव सदा, भाव हेय हैं पर के सारे सुखद-अचेतन-भाव कदा? ॥१८४॥ जिनकी मन की परिणति उजली मोक्षार्थी वे आराधे, छविमय द्युतिमय एक आपको शुचितम करके शिव, साधे। विविध भाव हैं जो कुछ लसते मुझसे विभिन्नपन धारे, मैं बस चेतन ज्ञान-निकेतन ये पर सारे हैं खारे ॥१८५॥ जड़मय-पुद्गल पदार्थ दल का पर का संग्रह करता है, वसुविध विधि से अपराधी वह बंधता विग्रह धरता है। निरपराध मुनि विराग बन के निज में रमता भज संवर, बँधता कदापि ना वो विधि से निज को नमता तज अंबर ॥१८६॥ मलिन भाव कर अपराधी मुनि अविरल निश्चित विधि पाता, विधि से बंधता निरपराध नहिं यतिवर निज की निधि पाता। शुद्धातम की सेवा करता निरपराध मुनि कहलाता, रागात्मा को भजने वाला सापराध बन दुख पाता ॥१८७॥ विलासतामय जीवन जीते प्रमत्त जन को धिक्कारा, क्रियाकाण्ड को छुड़ा मिटाया चंचलतम मन की धारा। शुद्ध-ज्ञान-घन की उपलब्धी जीवन में नहिं हो जब लौं, निश्चित निज में उनको गुरु ने विलीन करवाया तब लौं ॥१८८॥ प्रतिक्रमण ही विष है खारा गाया जिनने जब ऐसा, अप्रतिक्रमणा सुधासरस हो सकता सुखकर तब कैसा? बार-बार कर प्रमाद फिर भी नीचे नीचे गिरते हो, क्यों ना ऊपर- ऊपर उठते प्रमाद पीछे फिरते हो ॥१८९॥ प्रमाद मिश्रित भाव-प्रणाली शुद्ध-भाव नहिं वह साता, कषायरंजित पूर्ण रहा है अलस-भाव है कहलाता। सरस स्वरस परि-पूरित निज के स्वभाव में मुनिरत होवें, फलतः पावन शुचिता पावें शिव को, पर अविरत रोवें ॥१९०॥ विकृत विभावों के कारण पर-द्रव्यन को बस तजता है, रुचि लेता मुनि यथार्थ निज में, पर को कभी न भजता है। तोड़-तोड़ कर वसु-विध-बंधन पाप पंक को धोता है, चेतन जल से पूरित सर में स्नपित-पूर्ण शुचि होता है॥१९१॥ अतुल्य अव्यय शिवपद को वह पूर्ण-ज्ञान पा, राग हटा, जगमग जगमग करता निज को सहज दशा में जाग उठा। केवल! केवल, रस से पूरित नीर-राशि सम गंभीरा, ज्योति-धाम निज ओज- तेज से अगम अमित तम, समधीरा ॥१९॥ ॥ इति मोक्षाधिकारः ॥ दोहा वसु विध विधि का विलयमय, निलय, समय का मोक्ष। व्यक्त-रूप है सिद्ध में, तुझमें वही परोक्ष ॥१॥ दृग व्रत-समता धार के, द्रव्य- भव्य भज आप। निरा निरामय आत्म हो, रूप द्रव्य तज ताप ॥२॥
  2. बन्ध तत्त्व यह राग मद्य को घुला घुला कर पिला पिला, सकल विश्व को, मत्त बनाकर खेल रहा था खुला खिला। धीर निराकुल उदार मानस ज्ञान सहजता जगा रहा, चिदानन्दमय रस, पीकर अब बन्ध तत्त्व को भगा रहा ॥१६३॥ सचित अचित का वध नहिं विधि के बंध हेतु ना इन्द्रियगण, भरा जगत भी विधि से नहिं है चंचलतम भी ‘‘वच तन मन''। राग रंग में रचता पचता रागी का उपयोग रहा, केवल कारण विधि बन्धन को यों कहते मुनि लोग अहा! ॥१६४॥ यदपि भले ही इन्द्रियगण हो चिदचित् वध हो क्षण-क्षण हो, जग हो विधि से भरा रहा हो चंचलतर ये तन-मन हो। राग रंग से रंजित करता यदि नहिं शुचि उपयोगन को, निश्चय विराग दृढ़ धारक मुनि पाता नहिं विधि-योगन को॥१६५॥ परन्तु ज्ञानी मुनि को बनना स्वेच्छाचारी उचित नहीं, उच्छृन्खलपन बन्ध धाम है आत्म ज्ञान हो उदित नहीं। इच्छा करना तथा जानना युगपत् दो ये नहिं बनते , बिना राग के कार्य अतः हो मुनि के नहिं तो! विधि तनते ॥१६६॥ जो मुनि निज को जान रहा है वह ना करता विधि बन्धन, जो विधि करता नहिं निज लखता यही राग का अनुरंजन। राग रहा है अबोधमय ही अध्यवसायन का आलय, मिथ्यादर्शन बन्ध हेतु वह जिनवाणी का यह आशय ॥१६७॥ नियत रहे हैं सभी जगत में सुख-दुख मृतिभय जनना रे! अपने-अपने कर्म-पाक वश पाते जग जन तनधारे। सुख-दुख देता पर को जीवित करता मैं निज के बल से, तेरा कहना भूल रही यह फलतः वंचित केवल से ॥१६८॥ पर से जीवन जीता जग है सुख-दुख पाता मरता है, इस विध जड़ ही कहता रहता मूढ़पना बस धरता है। वसुविध विधि को करता फलतः अहंकार-मद पीता है, मिथ्यादृष्टी निजघातक है दानव-जीवन जीता है ॥१६९॥ जग के पोषण-शोषण का यह मिथ्यादृष्टी का आशय, बोध विनाशक नियम रूप से अबोध-तम-तम-का आलय। कारण! उसका आशय निश्चित भ्रम है भ्रम का कारण है, दुखत विविध वसुविध-विधि के बस, बन्धन है असु-मारण है॥१७०॥ दुखमय अध्यवसायन कर कर निज अनुभव से स्खलित हुआ, दीन-हीन मतिहीन हुवा है संमोहित है भ्रमित हुआ। मोही प्राणी सबको अपना कहता रहता भूल रहा, इसीलिये वह इन्द्रिय विषयों-में निशदिन जो झूल रहा ॥१७१॥ सकल विश्व से पृथक रहा वो यद्यपि आत्मा अपना है, तथापि पर को अपना कहता करता मोही सपना है। अध्यवसायन-दल यह केवल मोह मूल ही है इसका, स्वप्न दशा में भी ना यतिवर आश्रय लेते हैं जिसका ॥१७२॥ अध्यवसायन को कहते ‘जिन' त्याज्य त्याज्य बस निस्सारा, जिसका आशय मैं लेता बस छुड़वाया सब व्यवहारा। शुद्ध ज्ञान-घन में धृति फिर भी क्यों ना धारण करते हैं, निश्चल बन मुनि निज छवि में हा! क्या कारण नहिं चरते हैं ॥१७३॥ शुचिमय चेतन से हैं न्यारे रागादिक अघ ये सारे, वसुविध विधि के बंधन कारण यह तुम मत जिन! ए प्यारे। रागादिक का पर क्या कारण पर है अथवा आतम है, इस विध शंका यदि जन करते कहते तब परमातम है ॥१७४॥ रागादिक कालुष परिणतियाँ यद्यपि आतम में होती, स्वभाव से पर वे ना होती कर्म-हेतु वश ही होती। मोह पाक ही उसमें कारण वस्तु तत्त्व यह उचित रहा, सूर्य बिम्ब वश सूर्यकान्तमणि से ज्यों अगनी उदित अहा ॥१७५॥ इस विध पर की बिना अपेक्षा वस्तु-तत्त्व का अवलोकन, सहज स्वयं ही ज्ञानी मुनिजन करते पर का कर मोचन। रागादिक से अतः स्वयं को करते नहीं कलंकित हैं, कर्ता कारक बनते नहिं हैं फलतः सदा अशंकित हैं ॥१७६॥ वस्तु-तत्त्व का रूप कभी ना जिनके दृग में अंकित है, अज्ञानी वे कहलाते हैं निज के सुख से वंचित हैं। रागादिक से अतः स्वयं को करते सदा-कलंकित हैं, कर्ता कारक बनते जब हैं फलतः पामर शंकित हैं ॥१७७॥ इसविध विचार विविध विकल्पों को तजने निज भजते हैं, राग भाव का मूल परिग्रह मुनिवर जिसको तजते हैं। निजी निरामय संवेदन से भरित आत्म को पाते हैं, बन्ध मुक्त बन भगवन अपने में तब आप सुहाते हैं ॥१७८॥ बहु विध-वसुविध राग कार्य-विधि-बंध, मिटा बन निरा अदय, विधि बन्धन के कारण जिनको रागादिक के मिटा उदय। भ्रम-तम-तम को तथा भगाता, ज्ञान भानु अब उदित हुवा, जिसके बल को रोक सकेगा कोई ना यह विदित हुवा ॥१७९॥ दोहा मात्र कर्म के उदय से नहिं वसु विध विधि-बंध। रागादिक ही नियम से बंध-हेतु, सुन-अंध ॥१॥ बन्ध तत्त्व का ज्ञान ही केवल मोक्ष न देत। मोह त्याग ही मोक्ष का साक्षात् स्वाश्रित हेतु ॥२॥
  3. रागादिक सब आस्रव भावों को निज बल से विदारता, संवर था वह भावी विधि को सुदूर से ही निवारता। धधक रही अब सही निर्जरा पूर्व बद्ध विधि जला-जला, सहज मिटाती, रागादिक से ज्ञान न हो फिर चला चला ॥१३३॥ यह सब निश्चित अतिशय महिमा अविचल शुचितम ज्ञानन की, अथवा मुनि की विरागता की समता में रममानन की। विधि के फल को समय समय पर भोग भोगता भी त्यागी, तभी नहीं यह विधि से बँधता बँधे असंयत पर रागी ॥१३४॥ इन्द्रिय विषयों का मुनि सेवन करता रहता है प्रतिदिन, किन्तु विषय के फल को वह नहिं पाता, रहता है रति बिन। आत्म ज्ञान के वैभव का औ विरागता का यह प्रतिफल, सेवक नहिं हो सकता फिर भी विषय सेव कर भी प्रतिपल ॥१३५॥ ज्ञान शक्ति को विराग बल को सम्यक्-दृष्टी ढोता है, पर को तजने निज को भजने में जो सक्षम होता है। पर को पर ही निज को निज ही जान मान मुनि निश्चित ही, निज में रमता पर-रति तजता राग करे नहिं किंचित भी ॥१३६॥ दृग-धारक हम अतः कर्म नहिं बंधते हमसे बनते हैं, रागी मुनि ही इस विधि बकते वृथा गर्व से तनते हैं। यदपि समितियाँ पालें पालो फिर भी अघ से रंजित हैं, स्वपर भेद के ज्ञान बिना वे समदर्शन से वंचित हैं ॥१३७॥ चिर से रागी प्रमत्त बनके भ्रमवश करता शयन जहाँ, दुखकर परघर निजघर नहिं वो जान! खोल तू नयन अहा। निज-घर तो बस निज-घर ही है सुखकर है सुखकेतन है, शुद्ध शुद्धतर विशुद्धतम है अक्षय ध्रुव है चेतन है॥१३८॥ पद पद पर बहु पद मिलते हैं पर वे दुख पद परपद हैं, सब पद में बस पद ही वह पद सुखद निरापद निजपद है। जिसके सम्मुख सब पद दिखते अपद दलित-पद आपद हैं, अतः स्वाद्य है पेय निजीपद सकल गुणों का आस्पद है॥१३९॥ आदि आतमा निज अनुभव का जान ज्ञान को रख साता, भेद भिन्नता खेद खिन्नता घटा हटाकर इक भाता। ज्ञायक रस से पूरित रस को केवल निशिदिन चखता है, नीरस रस मिश्रित रस को नहिं चखता मुनि निज लखता है॥१४०॥ सकल अर्थमय रस पी पीकर मानो उन्मद सी निधियाँ, उजल उजल ये उछल उछलती निज संवेदन की छवियाँ। अभिन्न चिन्मय रस पूरित हैं भगवन-सागर एक रहे, अगणित लहरें उठती जिनमें इसीलिए भी नैक रहें ॥१४१॥ सूख सूखकर सोंठ भले हो-शिवपथ-च्युत व्रत भरणों से, तपन तप्त हो तापस गिरि पे केवल जपतप चरणों से। मोक्ष मात्र नित निरा निरामय निज संवेदन ज्ञान सही, ज्ञान बिना मुनि पा नहिं सकते शिव को इस विध जान सही ॥१४२॥ मोक्षधाम यह मिले न केवल क्रियाकाण्ड के करने से, परंतु मिलता सहज सुलभ निज बोधन में नित चरने से। सदुपयोग तुम करो इसी से स्वीय-बोध जब मिला तुम्हें, सतत यतन यति जगत! जगत में करो मिले शिव किला तुम्हें ॥१४३॥ ज्ञानी मुनि तो सहज स्वयं ही देव रूप है सुख-शाला, चिन्मय चिंतामणि चिंतित को पाता अचिंत्य बल-वाला। काम्य नहीं कुछ कार्य नहीं कुछ सब कुछ जिसको साध्य हुआ, पर संग्रह को अतः सुधी नहिं होगा था है बाध्य हुआ ॥१४४॥ स्वपर बोध का नाशक जो है बाधक तम है शिवमग को, तजकर इस विध विविध संग को दशविध बाहर के अघ को। भीतर घुस-घुस बनकर मुनि अब केवल ज्ञानावरणी को, पूर्ण मिटाने मिटा रहा है, मानस-कालुष-सरणी को ॥१४५॥ गत जीवन में अर्जित विधि के उदयपाक जब आता है, ज्ञानी मुनि को भी उसका रस चखना पड़ तब जाता है। विषयों के रस चखते पर वे रस के प्रति नहिं रति रखते, विगतराग हैं परिग्रही नहिं नियमित निज में मति रखते ॥१४६॥ भोक्ता हो या भोग्य रहा हो दोनों मिटते क्षण-क्षण से, इसीलिये ना इच्छित कोई भोगा जाता तन मन से। विराग झरना जिस जीवन में झर-झर झर-झर झरता है, विषय राग की इच्छा किस विध ज्ञानी मुनि फिर करता है? ॥१४७॥ विषय राग के रसिक नहीं मुनि ज्ञानी नित निज रस चखते, विग्रह-मूल परिग्रह ही है, भाव परिग्रह नहिं रखते। रंग लगाओ वसन रंगेगा किन्तु रंग झट उड़ सकता, हलदी फिटकरि लगे बिना ही गाढ़ रंग कब चढ़ सकता? ॥१४८॥ विषय-विषम-विष ज्ञानी जन ना कभी भूलकर भी पीते, निज रस समरस सहर्ष पीते पावन जीवन ही जीते। कर्म कीच के बीच रहे यति परंतु उससे ना लिपते, रागी द्वेषी गृही असंयत पाप पंक से पर लिपते ॥१४९॥ जिसका जिस विध स्वभाव हो, हो उसका तिस विध अपनापन, उसमें अंतर किस विध फिर हम ला सकते हैं अधुनापन। अज्ञ रहा वह विज्ञ न होता ज्ञान कभी अज्ञान नहीं, भोगो ज्ञानी पर वश विषयों तज रति, विधि बंधान नहीं ॥१५०॥ पर मम कुछ ना कहता पर तू भोग भोगता हूँ कहता, वितथ भोगता तब ए! ज्ञानी भोग बुरा क्यों दुख सहता। भोगत ‘बंध' न हो यदि कहता भोगेच्छा क्या है मन में,? ज्ञान लीन बन, नहिं तो!! रति वश जकड़ेगा विधि बंधन में ॥१५१॥ कर्ता को विधि बलपूर्वक ना कभी निजी-फल है देता, कर्ता विधि फल-चखना चाहे खुद ही विधि फल चख लेता। विधि को कर भी मुनि, विधिफल को, तजता परता सब जड़ता, विधि फल में ना रचता पचता ना बंधन में तब पड़ता ॥१५२॥ विधि फल तज भी विधि करते मुनि इस विध हम ना हैं कहते, परन्तु परवश विधिवश कुछ कुछ विधि आ गिरते हैं रहते। कौन कहें विधि ज्ञानी करते जब या रहते अमल बने, आ, आ गिरते विधि, रहते निज-ज्ञान भाव में अचल तने ॥१५३॥ वज्रपात भी मुनि पर हो पर धर दृढ़ दृग धृति जपता है, जबकि जगत यह कायर भय से पीड़ित कप कप कपता है। आत्म बोध से चिगता नहिं है, ज्ञान धाम निज लखता है, निसर्ग निर्भय निसंग बनकर भय ना उर में रखता है॥१५४॥ एक लोक है विरत आत्म का चेतन जो है शाश्वत है, उसी लोक को ज्ञानी केवल लखता विकसित भास्वत है। चिन्मय मम है लोक किन्तु यह पर है पर से डर कैसा? निशंक मुनि अनुभवता तब बस स्वयं ज्ञान बनकर ऐसा ॥१५५॥ भेद रहित निज सुवेद्य वेदक-बल से केवल संवेदन, विराग मन से आस्वादित हो अचल ज्ञानमय इक चेतन। परकृत परिवेदन पीड़न से ज्ञानी को फिर डर कैसा, सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५६॥ जो भी सत है वह ना मिटता स्पष्ट वस्तु की यह गाथा, ज्ञान स्वयं सत रहा कौन फिर उसका पर हो तब त्राता? अतः अरक्षाकृत भय ज्ञानी जन को होगा फिर कैसा? सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५७॥ वस्तु रूप ही गुप्ति रही बस उसमें नहिं पर घुसता है, उसी तरह वह ज्ञान सुधी का स्वरूप सुख कर लसता है, अतः अगुप्ति न ज्ञानी जन को हो फिर किससे डर कैसा? सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५८॥ प्राणों का हो कण कण खिरना मरण नाम बस वह पाता, ज्ञानी का पर ज्ञान न नश्वर कभी नहीं मिट यह जाता, मरण नहीं निज आतम का है अतः मरण से डर कैसा? सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५९॥ आदि अन्त से रहित अचल है एक ज्ञान है उचित सही, आप स्वतः है जब तक तब तक उसमें पर हो उदित नहीं। आकस्मिक निज में ना कुछ हो फिर तब उससे डर कैसा? सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१६०॥ समरस पूरित शुद्ध बोध का पावन भाजन बन जाता, विराग दृग धारक विधि-नाशक दृष्टि अंग वसु धन पाता। इस विध परिणति जब हो मुनि की पर परिणति की गंध न हो, पूर्व उपार्जित कर्म निर्जरा भोगत भी विधि बंध न हो ॥१६१॥ अष्ट अंग दृग संग संभाले नव्य कर्म का कर संवर, बद्ध कर्म को जर, जर कर क्षय करते तज मुनिवर अंबर। आदि अंत से रहित ज्ञान बन स्वयं मुदित हों दृगधारी, तीन लोक के रंग मंच पर नाच रहा है अघहारी ॥१६२॥ ॥ इति निर्जराधिकारः ॥ दोहा साक्षी बनकर विषय का करते मुनिवर भोग। पूर्व-कर्म की निर्जरा हो तब शुचि उपयोग ॥१॥ बंध किये बिन बंध का बंधन टूटे आप। महिमा यह सब साम्य की विराग- दृग की छाप ॥२॥
  4. संवर का रिपु आस्रव को यम मन्दिर बस दिखलाती है, दुख-हर, सुखकर वर संवर धन सहज शीघ्र प्रकटाती है। पर परिणति से रहित नियत नित निज में सम्यक् विलस रही, ज्योति-शिखा वहचिन्मय निज खर किरणावलि से विहस रही ॥१२५॥ ज्ञान राग ये चिन्मय जड़ है किन्तु मोह वश एक लगे, जिन्हें विभाजित निज बल से कर, स्व-पर बोध उर देख जगे। उस भेद-ज्ञान का आश्रय ले तुम बन कर पूरण गत रागी, शुद्ध ज्ञान-घन का रस चाखो सकल संग के हो त्यागी ॥१२६॥ धारा प्रवाह बहने वाला ध्रुव बोधन में सुरत यमी, किसी तरह शुद्धातम ध्याता विशुद्ध बनता तुरत दमी। हरित भरित निज कुसुमित उपवन में तब आतम रमता है। पर परिणति से पर द्रव्यन में पल भर भी नहिं भ्रमता है ॥१२७॥ अनुपम अपनी महिमा में मुनि भेद ज्ञानवश रमते हैं। शुद्ध तत्त्व का लाभ उन्हें तब हो हम उनको नमते हैं। उसको पावे पर यति निश्चल अन्य द्रव्य से दूर रहे, मोक्षधाम बस पास लसेगा सभी कर्म चकचूर रहे ॥१२८॥ विराग मुनि में जब जब होता भवहर, सुखकर संवर है, शुद्धातम के आलम्बन का फल कहते-दिग-अम्बर हैं। शुचितम आतम भेद-ज्ञान से सहज शीघ्र ही मिलता है, भेद-ज्ञान तू इसीलिये भज जिससे जीवन खिलता है ॥१२९॥ तब तक मुनिगण अविकल अविरल तन मन वच से बस भावे, भेद-ज्ञान को, जीवन अपना समझ उसी में रम जावे। ज्ञान ज्ञान में सहजरूप से जब तक स्थिरता नहिं पावें, पर परिणतिमय चंचलता को तज निज-पन को भज पावें ॥१३०॥ सिद्ध शुद्ध बन तीन लोक पर विलस रहे अभिराम रहे, तुम सब समझो भेद ज्ञान का मात्र अहो परिणाम रहे। भेद-ज्ञान के अभाव वश ही भव, भव, भव-वन फिरते हैं, विधि बंधन में बँधे मूढ़ जन भवदधि नहिं ये तिरते हैं ॥१३१॥ भेदज्ञान बल शुद्ध तत्त्व में निरत हुवा मुनि तज अम्बर, राग-दोष का विलय किया मुनि किया कर्म का वर संवर। उदित हुआ तब मुदित हुआ ध्रुव अचल बोध शुचि शाश्वत है, खिला हुआ है खुला हुआ है एक आप बस भास्वत है॥१३२॥ ॥ इति संवराधिकार ॥ दोहा रागादिक के हेतु को तजते अम्बर छाँव। रागादिक पुनि मुनि मिटा भजते संवर भाव ॥१॥ बिन रति-रस चख जी रहें निज घर में कर वास। निज अनुभव-रस पी रहें उन मुनि का मैं दास ॥२॥
  5. आस्रव भट झट कूद पड़ा है क्रुद्ध हुआ है अब रण में, महा मान का रस वह जिसके भरा हुआ है तन मन में। ज्ञान मल्ल भी धनुष्यधारी उस पर टूटा धृति-धर है, क्षण में आस्रव जीत विजेता यह बलधारी सुखकर है॥११३॥ राग-रोष से मोह-द्रोह से विरहित आतम भाव सही, ज्ञान सुधा से रचा हुआ है जिन आगम का भाव यही। नियम रूप से अभावमय है भावात्रव का रहा वही, तथा निवारक निमित्त से है द्रव्यास्रव का रहा सही ॥११४॥ भावास्रव के अभावपनपा व्रती विरागी वह ज्ञानी, द्रव्यास्रव से पृथक रहा हूँ बन के जाना मुनि ध्यानी। ज्ञान भाव का केवल धारी ज्ञानी निश्चित वही रहा, निरास्रवी है सदा निराला जड़ के ज्ञायक सही रहा ॥ ११५॥ सुबुद्धिपूर्वक सकल राग से होते प्रथम अछूते हैं, अबुद्धिपूर्वक राग मिटाने बार-बार निज-छूते हैं। यमी ज्ञान की चंचलता को तभी पूर्णतः अहो मिटा, निरास्रवी वे केवलज्ञानी बनते निज में स्वको बिठा ॥११६॥ जिसके जीवन में वह अविरल दुरित दु:खमय जल भरिता, जड़मय पुद्गल द्रव्यास्रव की बहती रहती नित सरिता। फिर भी ज्ञानी निरास्रवि वह कैसे इस विध हो कहते, ऐसी शंका मन में केवल शठजन भ्रमवश हो गहते ॥११७॥ उदयकाल आता नहिं जब तक, तब तक सत्ता नहिं तजते, पूर्व बद्ध विधि यद्यपि रहते, ज्ञानी जन के उर सजते। पर ना नूतन नूतन विधि आ उनके मन पे अंकित हो, रागादिक से रहित हुए हों जब मुनि पूर्ण-अशंकित हो ॥११८॥ ज्ञानी जन के ललित भाल पर रागादिक का वह लांछन, संभव हो न, असंभव ही है वह तो उज्ज्वलतम कांचन। वीतराग उन मुनिजन को फिर प्रश्न नहीं विधि-बंधन का रागादिक ही बंधन कारण कारण है मन-स्पन्दन का ॥११९॥ निर्मल विकसित बोधधाममय विशुद्ध नय का ले आश्रय, मन का निग्रह करते रहते मुनि-जन गुण-गण के आलय, राग मुक्त हैं रोष मुक्त हैं मुनि वे मुनि-जन-रंजन हैं, समरस पूरित समय सार का दर्शन करते वंदन हैं ॥१२०॥ जब यति विशुद्ध नय से चिगते, उलटे लटके वे झूले, विकृत विभावों निश्चित करते आत्म बोध ही तब भूले। विगत समय में अर्जित विधि के आस्रव वश बहु विकल्पदल, करते, बंधते विविध विधी के बंधन से खो अनल्प बल ॥१२१॥ यही सार है समयसार का छंद यहाँ है यह गाता, हेय नहीं है विशुद्ध नय पर ध्येय साधु का वह साता। तथापि उसको जड़ ही तजते भजते विधि के बंधन को, जो नहिं मुनि जन तजते इसको भजते नहिं विधि बंधन को ॥१२२॥ अनादि अक्षय अचल बोध में धृति बांधे विधि नाशक है, अतः शुद्ध नय उन्हें त्याज्य नहिं मुनि या मुनि जन शासक है। लखते इसमें स्थित मुनि निज बल आकुंचन कर बहिराता, एक ज्ञान-घन पूर्ण शांत जो अतुल अचल द्युतिमय भाता ॥१२३॥ रागादिक सब आस्रव विघटे जब निज मन्दर में अन्दर, झांक झांक कर देखा मुनि ने दिखता झग झग अति सुन्दर। तीन जगत के जहां चराचर निज प्रति-छवि ले प्रकट रहें, अतुल अचल निज किरणों सह वह बोध भानु मम निकट रहे ॥१२४॥ दोहा राग द्वेष अरु मोह से, रंजित वह उपयोग वसुविध-विधि का नियम से, पाता दुखकर योग ॥१॥ विराग समकित मुनि लिए, जीता जीवन सार। कर्मास्रव से बस बचे, निज में करें विहार ॥२॥
  6. भेद शुभाशुभ मिस से द्विविधा विधि है स्वीकृत यदपि रहा, उसको लखता निज अतिशय से बोध ‘एक विध' तदपि अहा ! शरद चन्द्र सम बोध चंद्रमा निर्मल निश्चल मुदित हुआ, मोह महातम दूर हटाता सहज स्वयं अब उदित हुआ ॥१००॥ ब्राह्मणता के मद वश इक है मदिरादिक से बच जीता, स्वयं शूद्र हूँ इस विध कहता मदिरा प्रतिदिन इक पीता। यद्यपि दोनों शूद्र रहे हैं युगपत् शूद्री से उपजे, किन्तु जाति भ्रम वश ही इस विध जीवन अपने हैं समझे ॥१०१॥ कर्म हेतु है पुद्गल-आश्रय पुद्गल, स्वभाव फल पुद्गल, अतः कर्म में भेद नहीं है अभेद नय से सब पुद्गल। और शुभाशुभ बंध अपेक्षा एक इष्ट है बंधन है, अतः कर्म है एक नियम से कहते जिन मुनि-रंजन हैं॥१०२॥ कर्म अशुभ हो अथवा शुभ हो भव बंधन का साधक है, मोक्षमार्ग में इसीलिए वह साधक नहिं है बाधक है। किन्तु ज्ञान निज विराग, शिव का साधक है दुखहारक है, वीतराग सर्वज्ञ हितंकर कहते शिव-सुख साधक हैं ॥१०३॥ पूर्ण शुभाशुभ करणी तज बन निष्क्रिय निज में निरत रहे, मुनिगण अशरण नहिं पर सशरण अविरत से वे विरत रहें। ज्ञान ज्ञान में घुल मिल जाना मुनि की परम शरण बस है, निशि-दिन सेवन करते रहते तभी सुधामय निज रस हैं ॥१०४॥ अमिट अतुल है अनुपम आतम शान-धाम वह सचमुच है, मोक्षमार्ग है मोक्षधाम है स्वयं ज्ञान ही सब कुछ है। उससे न्यारा सारा खारा बंध हेतु है बंधन है, ज्ञान-लीनता वही स्वानुभव शिवपथ उसको वंदन है॥१०५॥ ज्ञान ज्ञान में स्थिर हो जाता अन्य द्रव्य में नहिं भ्रमता, वही ज्ञान का ज्ञानपना है जिसको यह मुनि नित नमता। आत्म द्रव्य के आश्रित वह है, आश्रय जिसका आतम है, मोक्षमार्ग तो वही ज्ञान है, कहते जिन परमातम है॥१०६॥ कर्म मोक्ष का नियम रूप से हो नहिं सकता कारण है, स्वयं बन्धमय कर्म रहा है भव बंधन का कारण है। तथा मोक्ष के साधन का भी अवरोधक औ नाशक है, अतः यहाँ पर निषेध उसका करते जिन, मुनि शासक हैं ॥१०७॥ कर्म रूप में यदि ढलता है मनो ज्ञान वह भूल अहा, ज्ञान ज्ञान नहिं हो सकता वो ज्ञानपने से दूर रहा। पुद्गल आश्रित कर्म रहा है मृण्मय मूर्त अचेतन है, अतः कर्म नहिं मोक्ष हेतु नहिं हो सकता सुख केतन है॥१०८॥ मोक्षार्थी को मोक्ष मार्ग में कर्म त्याज्य जड़ पुद्गल है, पाप रहो या पुण्य रहो फिर सब कुछ कर्दम दलदल है। दृग व्रत आदिक निजपन में दल मोक्ष हेतु तब बन जाते, निष्क्रिय विबोध रस झरता, मुनि स्वयं सुखी तब बन पाते ॥१०९॥ कर्ता नहिं पर मोह उदय वह होता मुनि में जब तक है, समीचीन नहिं ज्ञान कहाता अबुद्धिपूर्वक तब तक है। सराग मिश्रित ज्ञान सुधारा बहती समाधिरत मुनि में, राग बंध का, ज्ञान मोक्ष का कारण हो भय कुछ नहिं पै ॥११०॥ ज्ञान बिना रट निश्चय निश्चय निश्चयवादी भी डूबे, क्रियाकलापी भी ये डूबे डूबे संयम से-ऊबे। प्रमत्त बन के कर्म न करते अकम्प निश्चल शैल रहे, आत्म-ध्यान में लीन किन्तु मुनि तीन लोक पे तैर रहे ॥१११॥ भ्रमवश विधि में प्रभेद करता मोह मद्य पी नाच रहा, राग-भाव जो जड़मय जड़ से निज बल से झट काट अहा। सहज मुदित शुचि कला संग ले केली अब प्रारंभ किया, भ्रम-तम-तम को पूर्ण मिटाकर पूर्ण ज्ञान शशि जन्म लिया ॥११२॥ ॥ इति पुण्यपापाधिकार ॥ दोहा विभाव परिणति यह सभी पुण्य रहो या पाप। स्वभाव मिलता, जब मिटे पाप-पुण्य परिताप ॥१॥ पाप प्रथम मिटता प्रथम, तजो पुण्य-फल भोग। पुनः पुण्य मिटता, धरो आतम-निर्मल योग ॥२॥
  7. चेतनकर्ता मैं क्रोधादिक कर्म रहें मम ‘जड़' गाता, उसके कर्तृ-कर्मपन को जो शीघ्र नष्ट है कर पाता। लोकालोकालोकित करता ज्ञानभानु द्युति पुंज रहा, निर्विकार है, निजाधीन है, दीन नहीं दृग मंजु रहा ॥४६॥ पर परिणति को भेदभाव को विभाव भावों विदारता, ज्ञान दिवाकर उदित हुआ हो समकित किरणें सुधारता। कर्तापन-तम कुकर्मपनतम फिर क्या वह रह पायेगा? विधि बंधन का गीत पुराना पुद्गल अब ना गायेगा ॥४७॥ जड़मय पुद्गल परपरिणति से पूर्ण रूप से विरत बना, निश्चय निर्भय बनकर मुनि जब सहज ज्ञान में निरत तना, ऊपर उठ सुख-दुख से तजता कर्ता कुकर्म-कारणता, ज्ञाता-द्रष्टा साक्षी जग का पुराण पुरुषोत्तम बनता ॥४८॥ व्याप्यपना औ व्यापकता वह पर में नहिं निज द्रव्यन में, व्याप्य और व्यापकता बिन नहिं कर्तृकर्म पर-जीवन में, बार-बार मुनि विचार इस विध करें सदा वे जगा विवेक, पर कर्तापन तजते लसते अंधकार का भगाऽतिरेक ॥४९॥ ज्ञानी निज पर परिणति लखता लखता पर नहीं पुद्गल है। निरे निरे हैं अतः परस्पर मिले न चेतन पुद्गल हैं। जड़ चेतन में कर्तृ-कर्म का भ्रम धारें जड़ शठ तब लौं आरे सम निर्दय बन काटत बोध उन्हें नहिं झट जब लौं ॥५०॥ स्वतंत्र होकर परिणमता है होता स्वतंत्र कर्ता हैं, उसका जो परिणाम कर्म है कहते जिन, विधि हर्ता हैं। जो भी होती परिणति अविरल पदार्थ में है वहीं क्रिया, वैसे तीनों एकमेक हैं यथार्थ से सुन सही जिया! ॥५१॥ सतत एक ही परिणमती है इक का इक परिणाम रहा, इक की परिणति होती है यह वस्तु-तत्त्व अभिराम रहा। इस विध अनेक होकर के भी वस्तु एक ही भाती है, निर्मल-गुण-धारक जिनवर की वाणी इस विध गाती है ॥५२॥ कदापि मिलकर परिणमते नहिं, दो पदार्थ नहिं, संभव हो, तथा एक परिणाम न भाता दो पदार्थ में उद्भव हो। उभय-वस्तु में उसी तरह ही कभी न परिणति इक होती, भिन्न-भिन्न जो अनेक रहती एकमेक ना, इक होती ॥५३॥ एक वस्तु के कर्ता दो नहिं इसविध मुनिगण गाते हैं, एक वस्तु के कर्म कभी भी दो नहिं पाये जाते हैं। एक वस्तु की परिणतियाँ भी दो नहिं कदापि होती है, एक एक ही रहती सचमुच अनेक नहिं नहिं होती है ॥५४॥ भव-भव भव-वन भ्रमता-भ्रमता जीव भ्रमित हो यह मोही, पर कर्तापन वश दुख सहता-मदतम-तम में निज द्रोही। वीतरागमय निश्चय धारे एक बार यदि द्युति शाला, फैले फलतः प्रकाश परितः कर्म बंध पुनि नहिं खारा ॥५५॥ पूर्ण सत्य है आतम करता अपने-अपने भावों को, पर भी करता पर-भावों पर, पर ना आतम भावों को। सचमुच सब कुछ पर का पर है आतम का बस आतम है, जीवन भी संजीवन पीवन, आतम ही परमातम है ॥५६॥ विज्ञा होकर अज्ञ बनी तू पर पुद्गल में रमती है, गज सम गन्ना खाती पर, ना तृण को तजती भ्रमती है। मिश्री मिश्रित दधि को पी पी पीने पुनि मति! मचल रही, रसानभिज्ञा पय को पीने गो दोहत भी विफल रही ॥५७॥ रस्सी को लख सर्प समझ जन निशि में भ्रम से डर जाते, जल लख मृग मृगमरीचिका में पीने भगते, मर जाते। पवनाहत सर सम लहराता विकल्प जल्पों का भर्ता, यदपि ज्ञान-घन व्याकुल बनता तदपि भूल में पर कर्ता ॥५८॥ सहज ज्ञान से स्वपर भेद को परम हंस यह मुनि नेता, दूध दूध को नीर नीर को जैसा हंसा लख लेता। केवल अलोल चेतन गण को अपना विषय बनाता है, कुछ भी फिर ना करता मुनि बन मुनिपन यही निभाता है॥५९॥ शीतल जल है अनल उष्ण है ज्ञान कराता यह निश्चय, है अथवा ना लवण अन्न में ज्ञान कराता यह निश्चय। सरस स्वरस परिपूरित चेतन क्रोधादिक से रहित रहा, यह भी अवगम, मिटा कर्तृपन ज्ञान मूल हो उदित अहा ॥६०॥ मूढ़ कुधी या पूर्ण सुधी भी निज को आतम करता है, सदा सर्वथा शोभित होता धरे ज्ञान की स्थिरता है। स्वभाव हो या विभाव हो पर कर्ता अपने भावों का, परंतु कदापि आतम नहिं है कर्ता पर के भावों का ॥६१॥ आतम लक्षण ज्ञान मात्र है स्वयं ज्ञान ही आतम है, किस विध फिर वह ज्ञान छोड़कर पर को करता आतम है। पर भावों का आतम कर्ता इस विध कहते व्यवहारी, मोह मद्य का सेवन करते भ्रमते फिरते भव-धारी ॥६२॥ चेतन आतम यदि जड़ कर्मों को करने में मौन रहे, फिर इन पुद्गल कर्मों के हैं कर्ता निश्चित कौन रहे। इसी मोह के तीव्र वेग के क्षयार्थ आगम गाता है, पुद्गल पुद्गल-कर्मों कर्ता जड़ से जड़ का नाता है॥६३॥ स्वभावभूता परिणति है यह पुद्गल की बस ज्ञात हुई, रही अतः ना कुछ भी बाधा प्रमाणता की बात हुई। जब जब इस विध निज में जड़ है विभाव आदिक करे वही, तब तब उसका कर्ता होता जिन श्रुति आशय धरे यही ॥६४॥ स्वभावभूता परिणति यह है चेतन की बस ज्ञात हुई, रही अतः ना कुछ भी बाधा प्रमाणता की बात हुई। जब जब इस विध निज में चेतन विभाव आदिक करे वही, तब तब उसका कर्ता होता जिन श्रुति आशय धरे यही ॥६५॥ विमल ज्ञान रस पूरित होते ज्ञानी मुनि का आशय है, ऐसा कारण कौन रहा है क्यों ना हो अघ आलय है। अज्ञानी के सकल-भाव तो मूढ़पने से रंजित हो, क्यों ना होते गत-मल निर्मल, ज्ञानपने से वंचित हो ॥६६॥ राग रंग सब तजने नियमित ज्ञानी मुनि-ले निज आश्रय, अतः ज्ञान जल सिंचित सब ही भाव उन्हीं के हों, भा-मय। राग रंग में अंग संग में निरत अतः वे अज्ञानी, मूढ़पने के भाव सुधारे कलुषित पंकिल ज्यों पानी ॥६७॥ निर्विकल्प मय समाधिगिरि से गिरता मुनि जब अज्ञानी, प्रमत्त बन अज्ञान भाव को करता क्रमशः नादानी। विकृत विकल्पों विभाव भावों को करता तब निश्चित है, द्रव्य कर्म के निमित्त कारण जो है सुख से वंचित है ॥६८॥ कुनय सुनय के पक्षपात से पूर्ण रूप से विमुख हुए, निज में गुप लुप छुपे हुए हैं निज के सम्मुख प्रमुख हुए। विकल्प जल्पों रहित हुए हैं प्रशांत मानस धरते हैं, नियम रूप से निशिदिन मुनि-“निज-अमृत-पान''वे करते हैं॥६९॥ इक नय कहता जीव बंधा है, इक नय कहता नहीं बंधा, पक्षपात की यह सब महिमा दुखी जगत है तभी सदा। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है ॥७०॥ भिन्न-भिन्न नय क्रमशः कहते आत्मा मोही निर्मोही, इस विध दृढ़तम करते रहते अपने-अपने मत को ही। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७१॥ इक नय मत है आत्मा रागी इक कहता है गत-रागी, पक्षपात की निशा यही है केवल ज्योत न वो जागी। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७२॥ इक नय कहता आत्मा द्वेषी इक कहता है ना द्वेषी, पक्षपात को रखने वाली सुखदात्री मति हो कैसी? पक्षपात से रहित बना है मुनिमन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७३॥ इक नय रोता आत्मा कर्ता कर्ता नहिं है इक गाता, पक्षपात से सुख नहिं मिलता पक्षपात की यह गाथा। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है। स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७४॥ इक नय कहता आत्मा भोक्ता भोक्ता नहिं है इक कहता, पक्षपात का प्रवाह जड़ में अविरल देखो वह बहता। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७५॥ इक नय मत में जीव रहा है इक कहता है जीव नहीं, पक्षपात से घिरा हुवा मन! सुख पाता नहिं जीव वही। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७६॥ जीव सूक्ष्म है सूक्ष्म नहीं है भिन्न-भिन्न नय कहते हैं, इस विध पक्षपात से जड़ जन भव-भव में दुख सहते हैं। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७७॥ इक नय कहता जीव हेतु है हेतु नहीं है इक गाता, इस विध पक्षपात कर मन है वस्तुतत्त्व को नहिं पाता। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७८॥ जीव कार्य है कार्य नहीं है भिन्न-भिन्न नय हैं कहते, इस विध पक्षपात जड़ करते परम तत्व को नहिं गहते। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७९॥ इक नय कहता जीव भाव है भाव नहीं है इक कहता, इस विध पक्षपात कर मन है वस्तुतत्व को नहिं गहता। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८०॥ एक अपेक्षा जीव एक है एक अपेक्षा एक नहीं, ऐसा चिंतन जड़ जन करते दुखी हुए हैं देख यहीं। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८१॥ जीव सान्त है सान्त नहीं है इस विध दो नय हैं कहते ऐसा चिंतन जड़ जन करते पक्षपात कर दुख सहते। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८२॥ जीव नित्य है नित्य नहीं है भिन्न-भिन्न नय दो कहते, इस विध चिंतन पक्षपात है पक्षपात को जड़ गहते। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन-चेतन है॥८३॥ अवाच्य आत्मा वाच्य रहा है भिन्न-भिन्न नय हैं कहते, इस विध चिंतन पक्षपात है करते जड़ जन दुख सहते। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८४॥ इक नय कहता आत्मा नाना, नाना ना है इक कहता, इस विध चिन्तन पक्षपात है करता यदि तू दुख सहता। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है ॥८५॥ जीव ज्ञेय हैं ज्ञेय नहीं है भिन्न-भिन्न नय हैं कहते, इस विध चिंतन पक्षपात है, करते जड़ जन दुख सहते। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८६॥ जीव दृश्य है जीव दृश्य नहिं भिन्न-भिन्न नय हैं कहते, इस विध चिंतन पक्षपात है, करते जड़ जन दुख सहते। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८७॥ जीव वेद्य है वेद्य जीव नहिं भिन्न-भिन्न नय हैं कहते, इस विध चिंतन पक्षपात है करते जड़ जन दुख सहते। पक्षपात से रहित बना है मुनि मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८८॥ जीव आज भी प्रकट स्पष्ट है प्रकट नहीं दो नय गाते, इस विध चिंतन पक्षपात है करते जड़जन दुख पाते। पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है, स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८९॥ पक्षपात-मय नय-वन जिसने सुदूर पीछे छोड़ दिया, विविध विकल्पों जल्पों से बस चंचल मन को मोड़ दिया। बाहर भीतर समरस इक रस महक रहा है, अपने को, अनुभवता मुनि मूर्तरूप से स्वानुभूति के सपने को ॥९०॥ रंग बिरंगी तरल तरंगे क्षणरुचि सम झट उठ मिटती, विविध नयों की विकल्प माला मानस तल में नहिं उठती। शत शत सहस्र किरण संग ले झग झग करता जग जाता, निजानुभव केवल मम चेतन भ्रम-तम लगभग भग जाता ॥९१॥ स्वभाव भावों विभाव भावों भावाभाव रहित रहा, केवल निर्मल चेतनता से खचित रहा है भरित रहा। उसी सारमय समयसार को अनुभवता कर वंदन मैं, विविध विधी के प्रथम तोड़ के तड़ तड़ तड़ तड़ बंधन मैं ॥९२॥ निर्भय निश्चल निरीह मुनि जब पक्षपात बिन जीता है, समरस पूरित समयसार को सहर्ष सविनय पीता है। पुण्य पुरुष है परम पुरुष है पुराण पावन भगवंता, ज्ञान वही है दर्शन भी है सब कुछ वह जिन अरहन्ता ॥९३॥ विकल्पमय घन कानन में चिर भटका था वह धूमिल था, मुनि का विबोधरस निज घर में विवेक पथ से आ मिलता। खुद ही भटका खुद ही आत्मा लौटा निज में घुल जाता, फैला जल भी निचली गति से बह बह पुनि वह मिल जाता ॥९४॥ विकल्प करने वाला आत्मा कर्ता यथार्थ कहलाता, विकल्प जो भी उर में उठता कर्म नाम वह है पाता। जब तक जिसका विकल्प दल से मानस तल वो भूषित है, तब तक कर्तृ-कर्म-पन मल से जीवन उसका दूषित है॥९५॥ विराग यति का कार्य स्वयं को केवल लखना लखना है, रागी जिसका कार्य, कर्म को केवल करना करना है। सुधी जानता इसीलिए मुनि कदापि विधि को नहिं करता, कुधी जानता कभी नहीं है चूंकि निरंतर विधि करता ॥९६॥ ज्ञप्ति क्रिया में शोभित होती कदापि करोति क्रिया नहीं, उसी तरह बस करण-क्रिया में ज्ञप्ति क्रिया वह जिया! नहीं। करण क्रिया औ ज्ञप्ति क्रिया ये भिन्न-भिन्न हैं अतः यदा, ज्ञाता कर्ता भिन्न-भिन्न ही सुसिद्ध होते स्वतः सदा ॥९७॥ कर्म न यथार्थ कर्ता में हो, नहीं कर्म में कर्ता हो, हुए निराकृत जब ये दो, क्या कर्तृ-कर्मपन सत्ता हो? ज्ञान ज्ञान में कर्म कर्म में अटल सत्य बस रहा यही, खेद! मोह नेपथ्य किन्तु ना तजता, नाचत रहा वहीं ॥९८॥ चिन्मय द्युति से अचल उजलती ज्ञान ज्योति जब जग जाती, मुनिवर अंतर्जगतीतल को परितः उज्वल कर पाती। ज्ञान ज्ञान तब केवल रहता रहता पुद्गल पुद्गल है, ज्ञान कर्म का कर्ता नहिं है ढले न विधि में पुद्गल है॥९९॥ ॥इति कर्तृकर्माधिकारः समाप्तः ॥ दोहा निज गुण कर्ता आत्म है पर कर्ता पर आप। इस विध जाने मुनि सभी निज-रत हो तज पाप ॥१॥ प्रमाद जब तक तुम करो, पर-कर्तापन मान। तब तक विधि बन्धान हो, हो न 'समय' का ज्ञान ॥२॥
  8. ज्ञानोदय- छन्द मणिमय, मनहर निज अनुभव से झग झग झग झग करती है। तमो रजो अरु सतोगुणों के गण को क्षण में हरती है। समय समय पर समयसारमय चिन्मय निज ध्रुव मणिका को, नमता मम निर्मम मस्तक, तज मृणमय जड़मय मणिका को ॥१॥ गाती रहती गुरु की गरिमा अगणित धारे गुणगण हैं, मोह मान मद माया मद से रहित हुए हैं ये जिन हैं। अनेकान्तमय वाणी जिनकी जीवित जग में तब लौं हो, रवि शशि उडुगण लसते रहते विस्तृत नभ में जब लौं हो ॥२॥ समयसार की व्याख्या करता, चाहूँ कुछ नहिं विरत रहूँ, चिदानन्द का अनुभव करता निशिदिन निज में निरत रहूँ। मोह भाव मम बिखर-बिखर कर क्षण-क्षण कण-कण मिट जावे, पर परिणति का मूल यही बस मोह मूल झट कट जावे ॥३॥ स्यात् पद भूषित, दूषित नहिं है जिन वच मुझे सुहाते हैं, उभय-नयों के आग्रह कर्दम इकदम स्वच्छ धुलाते हैं। जिन वच रमता, सकल मोह का मुनि बन वन में वमन किया, समकित अमित 'समय' लख मुनि ने शत शत वन्दन नमन किया ॥४॥ निर्विकल्पमय समाधि जब तक साधक मुनिगण नहिं पाते, तब तक उनको प्रभु का आश्रय समयोचित है मुनि गाते। निश्चय नयमय नभ में लखते चम चम चमके चेतन ज्योत, अन्तर्विलीन मुनिवर को पर,प्रभु आश्रय तो जुगनू ज्योत ॥५॥ विशुद्ध नय का विषयभूत उस विरागता का पूरा-पन, पूर्ण ज्ञान का अवलोकन औ सकल संग से सूना-पन। निश्चय सम्यग्दर्शन है वह वही निजामृत है प्यारा, वही शरण है वहीं शरण लूँ तज नव-तत्त्वों का भारा ॥६॥ निर्मल निश्चय-नय का तब-तब आश्रय ऋषि अवधारत हो, अन्तर्जगती-तल में जब तक जगमग जगमग जागृत हो। फलतः निश्चित लगता नहिं वो मुनि के मन में मैलापन, नव तत्त्वों में भला ढला हो चला न जाता उजला-पन ॥७॥ नव तत्त्वों में ढलकर चेतन मृण्मय तन के खानन में, अनुमानित है चिर से जैसा कनक कनकपाषाणन में। वही दीखता समाधि रत को शोभित द्युतिमय शाश्वत है, एक अकेला तन से न्यारा ललाम आतम भास्वत है॥८॥ निजानुभव का उद्भव उर में विराग मुनि में हुआ जभी, भेदभाव का खेदभाव का प्रलय नियम से हुआ तभी। प्रमाण नय निक्षेपादिक सब पता नहीं कब मिट जाते, उदयाचल पर अरुण उदित हो उडुगण गुप लुप छुप जाते ॥९॥ आदि रहित हैं मध्य रहित हैं अन्त रहित हैं अरहन्ता, विकल्प जल्पों संकल्पों से रहित अवगुणों गुणवन्ता। इस विध गाता निश्चय नय है पूरण आतम प्रकटाता, समरस रसिया ऋषि उर में हो उदित उजाला उपजाता ॥१०॥ क्षणिक भाव है तनिक काल लौं ऊपर ऊपर दिख जाते, तन मन वच विधि दृग चरणादिक जिसमें चिर नहिं टिक पाते। निजमें निज से निज को निज ही निरख निरख तू नित्यालोक, सकल मोह तज फिर झट करले अवलोकित सब लोकालोक ॥११॥ विशुद्ध नय आश्रय ले होती स्वानुभूति है कहलाती, वही परम ज्ञानानुभूति है। वाणी जिनकी बतलाती। जान मान कर इस विध तुमको निज में रमना वांछित है, निर्मल बोध निरंतर प्यारा परितः पूर्ण प्रकाशित है ॥१२॥ आत्मध्यान में विलीन होकर मोह भाव का करे हनन, विगत अनागत आगत विधि के बन्धन तोड़े झट मुनिजन। शाश्वत शिव बन शिव सुख पाते लोक अग्र पर बसते हैं, निज अनुभव से जाने जाते कर्म-मुक्त, ध्रुव लसते हैं ॥१३॥ चिन्मय गुण से परिपूरित है परम निराकुल छविवाली, बाहर भीतर सदा एकसी लवण डली सी अति प्यारी। सहज स्वयं बस लस लस लसती ललित-चेतना उजयाली, पीने मुझको सतत मिले बस समता-रस की वह प्याली ॥१४॥ ज्ञान सुधा रस पूर्ण भरा है आतम नित्य निरंजन है, यदपि साध्य साधक वश द्विविधा तदपि एक मुनि रंजन हैं। ऋद्धि सिद्धि को पूर्ण वृद्धि को यदि पाने मन मचल रहा, स्वातम साधन करलो करलो चंचल मन को अचल अहा ॥१५॥ द्रव्य दृष्टि से निरखो । आतम एक एक आकार बना, पर्यय दृष्टी बनती दिखता अनेक नैकाकारतना। चंचल मन में वही उतरता विद्या-दृग-व्रत धरा हुआ, दिखता समाधिरत मुनियों को सचमुच चिति से भरा हुआ ॥१६॥ दृग-व्रत-बोधादिक में साधक नियम रूप से ढलता है, पल-पल पग-पग आगे बढ़ता अविरल शिवपथ चलता है। एक यदपि वह तदपि इसी से बहुविध स्वभाव धारक है, इस विध यह व्यवहार कथन है कहते मुनि व्रत पालक हैं ॥१७॥ पूर्ण रूप से सदा काल से व्यक्त पूर्ण है उचित रहा, ज्ञान-ज्योति से विलस रहा है एक आप से रचित रहा। वैकारिक-वैभाविक भावों का निज आतम नाशक है, इसीलिये वह माना जाता एक भाव का शासक है ॥१८॥ एक स्वभावी नैक स्वभावी द्रव्य गुणों से खिलता है, ऐसा आतम चिन्तन से वह मोक्षधाम नहिं मिलता है। समकित-विद्या-व्रत से मिलती मुक्ति हमें अविनश्वर है, सच्चा साधन साध्य दिलाता इस विध कहते ईश्वर हैं ॥१९॥ रत्नत्रय में ढली घुली पर मिली खिली इक सारा है, धारा प्रवाह बहती रहती जीवित चेतन धारा है। कुछ भी हो पर स्वयं इसी में अवगाहित निज करता हूँ, नहिं-नहिं इस बिन शांति, तृप्ति हो आत्म-ताप सब हरता हूँ ॥२०॥ स्वपर बोध का मूल स्वानुभव जहाँ जगत प्रतिबिम्बित हो, जिन-मुनिवर को मिला स्वतः या सुन गुरु वचन अशंकित हो। पर न विभावों से वे अपना कलुषित करते निजपन है, कई वस्तुयें झलक रही हैं तथापि निर्मल दर्पण है ॥२१॥ मोह मद्य का पान किया चिर अब तो तज जड़मति! भाई, ज्ञान सुधारस एक घूट लें मुनिजन को जो अति भाई। किसी समय भी किसी तरह भी चेतन तन में ऐक्य नहीं, ऐसा निश्चय मन में धारो, धारो मन में दैन्य नहीं ॥२२॥ खेल खेलता कौतुक से भी रुचि ले अपने चिन्तन में, मर जा ‘पर कर निजानुभव कर' घड़ी घड़ी-मत रच तन में। फलतः पल में परम पूत को द्युतिमय निज को पायेगा, देह-नेह तज, सज-धज निजको निज से निज घर जायेगा ॥२३॥ दशों दिशाओं को हैं करते स्नपित सौम्य शुचि शोभा से, शत शत सहस्र रवि शशियों को कुन्दित करते आभा से। हित मित वच से कर्ण तृप्त हैं करते दश-शत-अठ गुण-धर, रूप सलोना धरते, हरते जन मन जिनवर हैं मुनिवर ॥२४॥ गोपुर नभ का चुम्बन लेता ढलती वन-छवि वसुधातल, गहरी खाई मानो पीती निरी तलातल रासातल। पुर वर्णन तो पुर वर्णन है पर नहिं पुर-पति की महिमा, मानी जाती इसीलिये वह केवल जड़मय पुर महिमा ॥२५॥ अनुपम अद्भुत जिनवर मुख है रग-रग में है रूप भरा, जय हो सागर सम गंभीरा शम यम दम का कूप निरा। रूपी तन का रूप रूप' भर तन से जिनवर हैं न्यारे, इसीलिए यह तन की स्तुति है मुनिवर कहते हैं प्यारे ॥२६॥ तन की स्तुति से चेतन-स्तुति की औपचारिकी कथनी है, यथार्थ नहिं तन चेतन नाता यह जिन-श्रुति, अघ-मथनी है। चेतन स्तुति पर चेतन गुण से निर्विवाद यह निश्चित है, अतः ऐक्य तन चेतन में वो नहीं सर्वथा किंचित है ॥२७॥ स्वपर तत्त्व का परिचय पाया निश्चय नय का ले आश्रय, जड़ काया से निज चेतन का ऐक्य मिटाया बन निर्भय। स्वरस रसिक वर बोध विकासित क्या नहिं उस मुनिवर में हो, भागा बाधक! साधा साधक! साध्य सिद्ध बस पल में हो ॥२८॥ संयम बाधक सकल संग को मन-वच-तन से त्याग दिया, बना सुसंयत, अभी नहीं पर प्रमत्त पर में राग किया। तभी सुधी में निजानुभव का उद्भव होना संभव है, पर भावों से रहित परिणती अविरत में ना संभव है॥२९॥ सरस स्वरस परिपूरित परितः सहज स्वयं शुचि चेतन का, अनुभव करता मन हर्षाता अनुपम शिवसुख केतन का। अतः नहीं है कभी नहीं है मान मोह-मद कुछ मेरा, चिदानन्द का अमिट धाम हूँ द्वैत नहीं अद्वैत अकेला ॥३०॥ राग द्वेष से दोष कोष से सुदूर शुचि उपयोग रहा, शुद्धातम को सतत अकेला बिना थके बस भोग रहा। निश्चय रत्नत्रय का बाना, धरता नित अभिराम रहा, विराम-आतम उपवन में ही करता आठों याम रहा ॥३१॥ परम शान्त रस से पूरित वह बोध सिन्धु बस है जिनमें, उज्ज्वल-उज्ज्वल उछल रहा है पूर्ण रूप से त्रिभुवन में। भ्रम विभ्रम नाशक है प्यारा इसमें अवगाहन करलो, मोह ताप संतप्त हुए तो हृदय ताप को तुम हरलो ॥३२॥ भव बन्धन के हेतुभूत सब कर्म मिटाकर हर्षाता, जीव देहगत भेद-भिन्नता भविजन को है दर्शाता। चपल पराश्रित आकुल नहिं पर उदार धृतिधर गत आकुल, हरा-भरा निज उपवन में नित ज्ञान खेलता सुख संकुल ॥३३॥ राग रंग से अंग संग से शीघ्र दूर कर वच तन रे! सार हीन उन जग कार्यों से विराम ले अब अयि! मन रे! मानस-सर में एक स्वयं को मात्र मास छह देख जरा, जड़ से न्यारा सबसे प्यारा शिवपुर दिखता एक खरा ॥३४॥ तन-मन-वच से पूर्ण यत्न से चेतन का आधार धरो, संवेदन से शून्य जड़ों का अदय बनो संहार करो। आप आप का अनुभव करलो अपने में ही आप जरा, अखिल विश्व में सर्वोपरि है अनुपम अव्यय आत्म खरा ॥३५॥ विश्वसार है सर्वसार है समयसार का सार सुधा, चेतन रस आपूरित आतम शत शत वन्दन बार सदा। असार-मय संसार क्षेत्र में निज चेतन से रहे परे, पदार्थ जो भी जहाँ तहाँ है मुझसे पर हैं निरे निरे ॥३६॥ वर्णादिक औ रागादिक ये पर हैं पर से हैं उपजे, समाधि-रत को केवल दिखते सदा पुरुष जो शुद्ध सजे, लहरें सर में उठती रहती झिलमिल झिलमिल करती हैं, अन्दर तल में मौन-छटा पर निश्चित मुनिमन हरती हैं ॥३७॥ जग में जब जब जिसमें जो जो जन्मत हैं कुछ पर्यायें, वे वे उसकी निश्चित होती समझ छोड़ दो शंकायें। बना हुआ जो कांचन का है सुन्दरतम असि कोष रहा, विज्ञ उसे कांचनमय लखते, कभी न असि को, होश रहा ॥३८॥ वर्णादिक हैं रागादिक हैं। गुणस्थान की है सरणी, वह सब रचना पुद्गल की है जिन-श्रुति कहती भवहरणी। इसीलिए ये रागादिक हैं मल हैं केवल पुद्गल हैं, शुद्धातम तो जड़ से न्यारा ज्ञानपुंज है निर्मल है ॥३९॥ मृण्मय घटिका यदपि तदपि वह घृत की घटिका कहलाती, घृत संगम को पाकर भी पर घृतमय वह नहिं बन पाती। वर्णादिक को रागादिक को तन मन आदिक को ढोता, सत्य किन्तु यह, यह भी निश्चित तन्मय आत्मा नहिं होता ॥४०॥ आदि हीन है अन्तहीन है अचल अडिग है अचल बना, आप आप से जाना जाता प्रकट रूप से अमल तना। स्वयं जीव ही सहज रूप से चम चम चमके चेतन है। समयसार का विश्व सार का शुचिमय शिव का केतन है॥४१॥ वर्णादिक से रहित सहित हैं धर्मादिक हैं ये पुद्गल, प्रभु ने अजीव द्विधा बताया जिनका निर्मल अन्तस्तल। अमूर्तता की स्तुति करता पर जड़ आतम ना लख पाता, चिन्मय चितिपण अचल अत: है आतम लक्षण चख! साता ॥४२॥ निरा जीव है अजीव न्यारा अपने-अपने लक्षण से, अनुभवता ऋषि जैसा हंसा जल-जल पय-पय तत् क्षण से। फिर भी जिसके जीवन में हा! सघन मोहतम फैला है, भाग्यहीन वह कुधी भटकता भव-वन में न उजेला है॥४३॥ बोध-हीन उस रंग मंच पर सुचिर काल से त्रिभुवन में, रागी द्वेषी जड़ ही दिखता रस लेता नित नर्तन में। वीतराग है वीत-दोष है जड़ से सदा-विलक्षण है, शुद्धातम तो शुद्धातम है चेतन जिसका लक्षण है ॥४४॥ चेतन तन से भिन्न भिन्न नहिं पूर्ण रूप से हो जब लौं, कर, कर, कर, कर रहो चलाते आरा ज्ञानमयी तब लौं। तीन लोक को विषय बनाता ज्ञाता द्रष्टा निज आतम, रण-विकसित चिन्मय बल से निर्मलतम हो परमातम ॥४५॥ ॥ जीवाजीवाधिकारः समाप्तः ॥ दोहा रग रग में चिति रस भरा खरा निरा यह जीव। तनधारी दुख सहत, सुख तन बिन सिद्ध सदीव ॥१॥ प्रीति भीति सुख दुखन से धरे न चेतन-रीति। अजीव तन धन आदि ये तुम समझो भव-भीत ॥२॥
  9. दोहा देवशास्त्र गुरु स्तवन सन्मति को मम नमन हो, मम मति सन्मति होय। सुर-नर-पशु-गति सब मिटे, गति पंचम -गति होय ॥१॥ चन्दन चन्दर-चाँदनी, से जिन-धुनि, अति शीत। उसका सेवन मैं करूं मन-वच-तन कर नीत ॥२॥ सुर, सुर-गुरु तक गुरु चरण-रज सर पर सुचढ़ाय। यह मुनि, मन गुरु भजन में, निशि-दिन क्यों न लगाय? ॥३॥ श्री कुन्दकुन्दाय नमः ‘कुन्दकुन्द' को नित नमू, हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥४॥ श्री अमृतचन्द्राय नमः ‘अमृतचन्द्र' से अमृत हैं झरता जग अपरूप। पी पी मम मन मृतक भी, अमर बना सुख कूप ॥५॥ श्री ज्ञानसागराय नमः तरणि ‘ज्ञानसागर' गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो, कर से दो आशीष ॥६॥ प्रयोजन अमृत-कलश का मैं करूँ, पद्यमयी अनुवाद। मात्र कामना मम रही, मोह मिटे परमाद ॥७॥
  10. ‘समयसार' का पद्यानुवाद ‘कुन्दकुन्द का कुन्दन' और अध्यात्मरस से भरपूर ‘समयसारकलश' का पद्यानुवाद ‘निजामृतपान' ('कलशागीत' नाम से भी) है। यह ग्रन्थ संस्कृत में मूलरूप में है। इसमें अनुष्टुप्, आर्या, द्रुतविलम्बित, मन्दाक्रान्ता, शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, स्रग्धरा, वसन्ततिलका एवं मालिनी आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है, परन्तु निजामृतपान में छन्दों के अनुसार अनुवाद न होकर समस्त ग्रन्थ को अपने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के नाम पर ही ‘ज्ञानोदय छन्द' में अनूदित किया गया है। नाटक समयसार कलश' की कठिन भाषा को ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री ने लिखा है कि-मनोगत भावों को भाषा का रूप देना तो कठिन है ही, उन्हें लेखबद्ध करना उससे भी कठिन है, किन्तु भाषा को काव्य के साँचे में ढालना तो कठिन से कठिनतम कार्य है। निजामृतपान' के अनुवाद तथा उद्देश्य के सम्बन्ध में उनका कहना है -“यह अनुवाद कहीं-कहीं पर शब्दानुवाद बन पड़ा है तो कहीं-कहीं पर भाव निखर आया है। आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि ‘निजामृतपान' का पानकर भव्य मुमुक्षु पाठकगण भावातीत ध्यान में तैरते हुए अपने आपको उत्सर्गित पाएँगे, चेतना में समर्पित पायेंगे।'' आचार्यश्री ने अनुवाद से पूर्व मंगलाचरण के अन्तर्गत आचार्यत्रय-श्री कुन्दकुन्द, श्री अमृतचन्द्र एवं श्री ज्ञानसागरजी को नमस्कार करने के पश्चात् इस अनुवाद के प्रयोजन को इस प्रकार बतलाया है ‘अमृत-कलश' का मैं करू, पद्यमयी अनुवाद। मात्र कामना मम रही, मोह मिटे परमाद॥ अर्थात् मैं मोह और प्रमाद मिटाने की कामना से अमृत कलश का पद्यानुवाद कर रहा हूँ। इसके अतिरिक्त प्रस्तावना में वे इसका उद्देश्य भव्य मुमुक्षु पाठकों का आत्म-चेतना में समर्पित होना भी लिख चुके हैं। इसमें देव-शास्त्र-गुरु स्तवन के बाद, ‘ज्ञानोदय छन्द' में कलशों का पद्यबद्ध रूपान्तर प्रस्तुत हुआ है। इसका लक्ष्य है जैन चिन्तन में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली की गाँठे खुल जायें ताकि पाठक उसका भरपूर आस्वाद ले सके। इसमें कई अधिकार हैं-जीवाजीवाधिकार, कर्तृकर्माधिकार, पुण्यपापाधिकार, आस्रवाधिकार, संवराधिकार, निर्जराधिकार, बन्धाधिकार, मोक्षाधिकार, सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार, स्याद्वादाधिकार तथा साध्यसाधकाधिकार। अन्ततः मंगलकामना के साथ यह भाषान्तर सम्पन्न हुआ है।
  11. होते अनन्य अपने-अपने गुणों से, उत्पद्यमान सब द्रव्य युगों-युगों से। ज्यों पीलिमा व मृदुता तजता न सोना, लो कुण्डलादिमय ही लसता सलोना ॥३३०॥ वो जीव लक्षण अनन्य स्वचेतना है, है जीव जीवित तभी जिन देशना है। एवं अजीव अपने गुण-पर्ययों से, जीते त्रिकाल चिर से निज लक्षणों से ॥३३१॥ उत्पन्न जो न परकीय पदार्थ से है, आत्मा अतः न परकार्य यथार्थ से है। उत्पन्न भी कर रहा पर को नहीं है, आत्मा अतः कि पर कारण भी नहीं है ॥३३२॥ कर्त्ता हमें विदित हो लख कर्म को है, कर्त्ता लखो कि अनुमानित कर्म ही है, कर्त्ता व कर्म इनकी विधि बोलती है, ऐसी कहीं न मिलती दृग खोलती है ॥३३३॥ आत्मा विमोहवश ही निज को विसारा, उत्पन्न हो विनशता अघभाव द्वारा। रागादिमान इस चेतन का सहारा-ले कर्म भी उपजता मिटता विचारा ॥३३४॥ एवं परस्पर निमित्त बने सकाम, रागी व कर्म बँधते बनते गुलाम। संसार का तब प्रवाह अबाध भाता, रागादि भाव मिटता भवनाश पाता ॥३३५॥ मोहादि से यदि प्रभावित हो रहा है, आत्मा अरे स्वयम के प्रति सो रहा है। मिथ्यात्व मंडित असंयत है कहाता, अज्ञान जन्य दुख की वह गंध पाता ॥३३६॥ होता न लीन उदयागत कर्म में है, ज्ञानी वही निरत आतम धर्म में है। शीघ्रातिशीघ्र मुनि केवल ज्ञान-दर्शी, होता विमुक्त भव से शिव सौख्य-स्पर्शी ॥३३७॥ मक्खी बना मुदित मानस हो मलों में, है मूर्ख मूढ़ रमता विधि के फलों में। साक्षी बना, न विधि के फल भोगता है, ज्ञानी वशी न तजता निज योगता है॥३३८॥ निश्चिंत हो निडर हो निज को निहारे, निर्दोष वे निरपराधक साधु प्यारे। आराधना स्वयम की करते सुहाते, न तो स्वयं, न पर को, डरते डराते ॥३३९॥ हे भव्य! पूर्ण पढ़ भी जिन-दिव्य वाणी, त्यागे अभव्यपन को न अभव्य प्राणी। मिश्री मिला पय पिलाकर हा अही भी, क्या कालकूट तजता जग में कभी भी? ॥३४०॥ निर्वेग भाव मुनि होकर धारता है, जो मात्र कर्मफल मौन निहारता है। साता रहो सुखद, दुःखद हो असाता, ज्ञानी उन्हें न चखता यह साधु-गाथा ॥३४१॥ संभोगते न करते विधि को कदापि, ज्ञानी समाधिरत हो मुनि वे अपापी। पै पाप-पुण्य विधि बंधन के फलों को, हैं जानते नमन हो उनके पदों को ॥३४२॥ द्रष्टा बने युगल लोचन देखते हैं, ना दृश्य-स्पर्श करते न हि हर्षते हैं। ज्ञानी अकारक अवेदक जानता है, त्यों बंध मोक्ष विधि को तज मानता है॥३४३॥ विख्यात लोकमत है सुर-मानवों का, निर्माण विष्णु करता पशु-नारकों का। स्वीकारते श्रमण चूंकि चराचरों को, आत्मा जगाय जगजंगम जन्तुओं को ॥३४४॥ माना कि एक मत में वह विष्णु कर्त्ता, आत्मा रहा इतर में जग जीव कर्त्ता। दोनों समा श्रमण-लौकिकवादियों में, पाया न भेद फिर भी इन दो मतों में ॥३४५॥ हाँ मोक्ष की महक ही इनमें न आती, कर्तृत्व की विषम गंध सही न जाती। कोई विशेष इनमें न हि भेद भाता, ऐसा सुनों समयसार सदैव गाता ॥३४६॥ मेरे खरे धन मकाँ परिवार आदि, पी मोह मद्य बकता व्यवहारवादी। लेते विराम मुनि निश्चय का सहारा, गाते सदा, न पर का अणु भी हमारा ॥३४७॥ कोई यहाँ पुरुष हैं कहते हमारे,ये देश खेट पुर गोपुर प्रान्त प्यारे। ये वस्तुतः न उनके बनते कदापि, व्यामोह से जड़ प्रलाप करें तथापि ॥३४८॥ है काय भिन्न पर जानत भी अमानी, शुद्धोपयोग तज के यदि काश! ज्ञानी। मानो मदीय तन है इस भाँति बोले, मिथ्यात्व पा नियम से भव बीच डोले ॥३४९॥ ऐसा विचार, पर को अपना न मानो, औ राग त्याग पर को पर रूप जानो। कर्त्तरत्ववाद धरते इन दो मतों को, मिथ्यात्व मण्डित लखों उन पामरों को ॥३५०॥ आत्मा सदा मिट रहा निज पर्ययों से, शोभे वही ध्रुव किन्हीं ध्रुव सद्गुणों से। एकान्त है यह नहीं ध्रुव दृष्टि द्वारा-कर्ता वही इतर पर्यय दृष्टि द्वारा ॥३५१॥ पर्याय से मिट रहा गुण से नहीं है, आत्मा त्रिकाल ध्रुव भी रहता वही है। एकान्त है नहिं, वही ध्रुव भाव द्वारा, भोक्ता, निरा क्षणिक पर्यय भाव द्वारा ॥३५२॥ भोक्ता वही न बनता बन कर्म कर्त्ता, यों बौद्ध लोक कहते निज धर्म हर्त्ता। सिद्धान्त जो कि क्षण-भंगुर वादियों का, उद्भ्रान्त है वितथ मात्र कुदृष्टियों का ॥३५३॥ भोक्ता निरा बस निरा बन जाय कर्त्ता, सिद्धान्त बौद्ध यह है अघकार्य कर्त्ता। जो भी सहर्ष इसका गुण गीत गाते, सद्धर्म से सरकते विपरीत जाते ॥३५४॥ मिथ्यात्व की प्रकृति पापिन जो कहाती, मिथ्यात्व मण्डित हमें यदि है कराती। तो कारिका वह बनी कि अचेतना हो, स्वीकार किन्तु नहिं वो जिन देशना को ॥३५५॥ सम्यक्त्व की प्रकृति पुद्गल को सुहाती, सम्यक्त्व मंडित हमें यदि है कराती। तो कारिका वह बनी कि अचेतना हो, स्वीकार पै न यह है जिन देशना को ॥३५६॥ किं वा कहो यदि निजातम ही जड़ों को, मिथ्यात्व रूप करता इन पुद्गलों को, मिथ्यात्व पात्र फिर पुद्गल ही बनेगा, आत्मा त्रिकाल फिर शुद्ध बना तनेगा ॥३५७॥ आत्मा तथा प्रकृति ये मिल के जड़ों को, मिथ्यात्वरूप करते इन पुद्गलों को, ऐसा कहो यदि तदा जड़के-दलों का, दोनों हिस्वाद चखले विधि के फलों का ॥३५८॥ आत्मा तथा प्रकृति भी न कभी जड़ों को, मिथ्यात्वरूप कहते इन पुद्गलों को। ऐसा कहो तदपि पुद्गल ही हुआ है, मिथ्यात्व क्या मत त्वदीय नहीं हुआ है॥३५९॥ अज्ञान का सदन पुद्गल कर्म द्वारा, होता विबोध घर आतम पूर्ण प्यारा। है कर्म से विवश होकर गाढ़ सोता, है कर्म के वश सुजागृत पूर्ण होता ॥३६०॥ पा कर्म के फल अतीव सदीव रोते, मिथ्यात्व मंडित असंयत जीव होते। हैं डूबते भव पयोनिधि में दुखी हैं, होते कभी क्षणिक पा सुख को सुखी हैं॥३६१॥ आत्मा शुभाशुभ कभी पशु योनियों में, पाता निवास कुछ काल सुरालयों में। है कर्म ही नरक में इसको गिराता, संसार के विपिन में सबको भ्रमाता ॥३६२॥ जो भी करे करम ही करता कराता, संसार का रचयिता बस कर्म भाता। ऐसा हि सांख्य मत'सा' यदि तू कहेगा, आत्मा अकारक रहा, भव क्या रहेगा ॥३६३॥ स्त्रीवेद को पुरुष वेद सदैव चाहे, पुंवेद को नियम से तियवेद चाहे। आचार्य की परम पूत परंपरा है, जो जैन से जबकि स्वीकृत सुन्दर है॥३६४॥ लो बार-बार हम तो कहते इसी से, है ब्रह्मलीन सब जीव सदा रुची से। है कर्म-कर्म भर को बस चाहता है, आत्मा जिसे सतत मात्र निहारता है॥३६५॥ होती विनष्ट पर से पर को मिटाती,एकान्त से प्रकृति ही नव जन्म पाती। भाई अतः प्रकृति भी परघातवाली, है सर्व सम्मत रही जड़-गात-वाली ॥३६६॥ आत्मा रहा अमर वो मरता नहीं है, औ मारता न पर को कहना सही है। तो कर्म-कर्म भर को बस मारता है, यों मात्र सांख्यमत आशय धारता है॥३६७॥ ऐसा हि सांख्यमत से यदि बोलते हो, साधू हुए अमृत में विष घोलते हो। रागादि का करन ही बन जाय कर्ता, तो सर्वथा सकल जीव बने अकर्ता ॥३६८॥ आत्मा मदीय करता निज को निजी से, ऐसा त्वदीय मत स्वीकृत हो सदी से। तो भी रहा मत नितान्त असत्य तेरा, कूटस्थ नित्य निज में न हि हेर फेरा ॥३६९॥ है एक हेतु इसमें सुन ए हितैषी, आत्मा रहा अमर नित्य असंख्य देशी। वो एकसा, न घटता बढ़ता नहीं है, ऐसा रहा कथन आगम का सही है ॥३७०॥ हो केवली समुद्धात त्रिलोक व्यापी, आत्मा प्रमाण तन के, तन में तथापि। ऐसी दशा फिर भली उसको बढ़ाता, वो कौन सक्षम उसे क्रमशः घटाता ॥३७१॥ आत्मा त्रिकाल यदि ज्ञायक ही रहा हो, वैराग्य राग किसको कब हो कहाँ हो? आत्मा कथंचित अत: विधि से सरागी, हो बोध-धाम तज राग बने विरागी ॥३७२॥ पंचेन्द्रि के विषय चेतन से परे हैं, सम्यक्त्व-बोध-व्रत से नहिं वे भरे हैं। हे साधु चेतन, अचेतन का तथापि, कैसा विघात करता ? नहिं वो कदापि ॥३७३॥ दुष्टाष्ट कर्म शुचि चेतन से परे हैं, सम्यक्त्व-बोध-व्रत से नहिं वे भरे हैं। हे साधु चेतन, अचेतन कर्म का भी, कैसा विघात करता, नहिं वो कदापि ॥३७४॥ काया अचेतन निकेतन हो तभी है, सम्यक्त्व-बोध-व्रत से न हि वो बनी है। हे! साधु चेतन, अचेतन काय का भी, कैसा विघात करता नहिं हा कदापि ॥३७५॥ विज्ञान-चारित-सुदर्शन ये भले ही, संमोह के वश मिटे क्षण में टले ही। होता न घात पर पुद्गल का इसी से, गाता यही समयसार सुनो रुची से ॥३७६॥ ज्ञानादि दिव्य गुण आतम में अनेकों, दीखे परन्तु पर पुद्गल में न देखो। सम्यक्त्व की मुनि विराग, पराग पीते, पीते न राग विष, सो चिरकाल जीते ॥३७७॥ है जीव की यह अनन्य विभाववाली, संमोह रोष रति की दुखदा प्रणाली। रागादि ये इसलिए जड़ में नहीं है, हे साधु तेल, मिलता तिल में सही है ॥३७८॥ भाई बना न सकता पर के गुणों को, कोई पदार्थ, कहते जिन सज्जनों को। प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुणों से, उत्पन्न हो लस रहे कि युगों-युगों से ॥३७९॥ शिल्पी स्वयं मुकुट आदिक को बनाते, होते न तन्मय नहीं पररूप पाते। मोहादि कर्म करता रहता निराला, आत्मा कभी न तजता निज चित्त-शाला ॥३८०॥ हस्तादि से मुकुट आदिक को बनाते, शिल्पी न शिल्पमय किन्तु हुए दिखाते। है जीव कर्म करता निज इन्द्रियों से, तादात्म्य पै न रखता उन पुद्गलों से ॥३८१॥ शस्त्रास्त्र शिल्प करने गहता अनेकों, शिल्पी न तन्मय बना वह भिन्न देखो। स्वीकारता यदपि कर्म तथापि, पापी, आत्मा न कर्ममय आप बना कदापि ॥३८२॥ है शिल्प कार्य करता धन-धान्य पाता, शिल्पी अनन्य बनता नहिं अन्य भाता। नाना प्रकार फल भोग शुभाशुभों के, आत्मा न पुद्गल बना निज बोध खो के ॥३८३॥ आत्मा कुकर्म करता फल चाखता है, ऐसी अवश्य कहती व्यवहारता है। पै भोगता व करता परिणाम को ही, ऐसा सुनिश्चय कहे सुन ए विमोही ॥३८४॥ मैं कुण्डलादिक करूँ मन भाव लाता, शिल्पी उसी समय तन्मय हो सुहाता। रागादिभाव करता जब जीव ऐसा, तद्रूप आप बन जाय तदीव ऐसा ॥३८५॥ ऐसा विकल्प कर आकुल हो उठेगा, शिल्पी सुनिश्चित दुखी बन वो मिटेगा। रागाभिभूत बनना निज भूल जाता, जो जीव दुःखमय हो प्रतिकूल जाता ॥३८६॥ दीवार के वश नहीं खटिका सफेदी, दीवार भिन्न वह भिन्न स्वयं सफेदी। है ज्ञेय, ज्ञेय वश ज्ञेय प्रकाशता है, वो ज्ञान, ज्ञान रह ज्ञायक भासता है ॥३८७॥ दीवार के वश नहीं खटिका सफेदी, दीवार भिन्न वह भिन्न स्वयं सफेदी। है दृश्य, दृश्य वश दृश्य दिखा रहा है, आत्मा सुदर्शक सुदर्शक भा रहा है ॥३८८॥ दीवार के वश नहीं खटिका सफेदी, दीवार भिन्न वह भिन्न स्वयं सफेदी। त्यों त्याज्य त्याज्य पर त्याग न तन्मयी है, साधू स्वयं सहज संयत संयमी है॥३८९॥ दीवार के वश नहीं खटिका सफेदी, दीवार भिन्न वह भिन्न स्वयं सफेदी। श्रद्धेय के वश नहीं समदृष्टिवाला, साधू स्वदृष्टि वश ही समदृष्टिवाला ॥३९०॥ ऐसे विबोध-व्रत-दर्शन तीन प्यारे, होते सुनिश्चय सदा अघ हीन सारे। संक्षेप में अब सुनो व्यवहार गाता, सन्मार्ग साधक सुनिश्चय का विधाता ॥३९१॥ चूना निसर्ग धवला शशि-सी सुहाती, दीवार को उजल रंग यही दिलाती। विज्ञान से विशद विश्व सुजानता है, ज्ञाता बना सहज भाव सुधारता है॥३९२॥ चूना निसर्ग धवला शशि-सी सुहाती, दीवार को उजल रूप यही दिलाती। आलोक से सकल लोक-अलोक देखा, द्रष्टा बना विमल दर्शन पा सुरेखा ॥३९३॥ चुना निसर्ग धवला शशि-सी सुहाती, दीवार को उजल रूप यही दिलाती। यों जान मान पर को पररूप ज्ञानी, है त्यागता व भजता निजरूप ध्यानी ॥३९४॥ चूना निसर्ग धवला शशि-सी सुहाती, दीवार को उजल रूप यही बनाती। जीवादि तत्त्व भर में रख पूर्ण आस्था, सम्यक्त्व धारक चले अनुकूल रास्ता ॥३९५॥ ज्ञानादि जो न निज की करते उपेक्षा, भाई तथापि पर की रखते अपेक्षा। सिद्धान्त में बस यही व्यवहार माना, सर्वत्र यों समझना भवपार जाना ॥३९६॥ अज्ञान से विगत में निजभाव बाना, भूला किया अशुभ या शुभ भाव नाना। शुद्धात्म को सजग हो उनसे छुड़ाना, माना प्रतिक्रमण आज उसे निभाना ॥३९७॥ भावी शुभाशुभ विभाव विकार देखो! होंगे प्रमादवश आतम में अनेकों। आत्मा स्वयं यदि उन्हें निज से हटाता, है प्रत्यख्यान वह है सुख का विधाता ॥३९८॥ तत्काल जो कलुषराग तरंगमाला, है जन्मती हृदय में दुख पूर्ण हाला। विज्ञान से बस उसे झट से हटाना, आलोचना वह रही प्रभु का बताना ॥३९९॥ जो प्रत्यख्यान करता रुचिसंग साता, साधू प्रतिक्रमण धार, सदा सुहाता। आलोचना सरसि में डुबकी लगाता, चारित्र निश्चय जिसे शिर मैं नवाता ॥४००॥ निन्दामयी स्तुतिमयी वचनावली है, चैतन्य शून्य जड़ पुद्गल की कली है। हो रुष्ट तुष्ट उसको सुन मूढ़ ऐसा, मैं निंद्य पूज्य खुद हूँ कर भूल ऐसा ॥४०१॥ जो शब्दरूप ढल पुद्गल द्रव्य भाता, बोला मुझे न कुछ भी मुझसे न नाता। हे! मूढ़ क्यों न इस भाँति विचारता है, क्यों रोष-तोष कर होश विसारता है॥४०२॥ वो शब्द हो अशुभ हो शुभ हो ‘सुनो' रे, ऐसा कभी न कहता कि मुझे गुणों रे। जो कर्ण का विषय मात्र बना हुवा है, होता गृहीत न, स्वतन्त्र तना हुवा है॥४०३॥ वो रूप! हो अशुभ हो, शुभ हो, लखो रे! ऐसा कहे न कि मुझे दुग से चखो रे! वो नेत्र का विषय मात्र बना हुवा है, होता गृहीत न स्वतंत्र तना हुवा है॥४०४॥ वो गंध हो अशुभ या शुभ सूंघ लेना, ऐसा कहे न कि मुझे कुछ मूल्य देना। पै नासिका विषय केवल वो बनी है, आती नहीं पकड़ में यह तो सही है॥४०५॥ ऐसा तुम्हें न कहता रस वो कदापि, चाखो मुझे अशुभ या शुभ हो तथापि। जिह्वेन्द्रि का विषय हो पर स्वाश्रयी है, आता नहीं पकड़ में न पराश्रयी है॥४०६॥ बोले न स्पर्श कि शुभाशुभ यों किसी से, संस्पर्श तू कर मुझे कर से रुची से। पै स्पर्श-स्पर्श रहता वश में न आता, हो काय का विषय वो पर भिन्न भाता ॥४०७॥ जानों हमें गुण शुभा-शुभ ये कदापि, ऐसा न बाध्य करते तुमको अपापी। वे बुद्धि के विषय मात्र बने हुए हैं, होते नहीं वश स्वतंत्र तने हुए हैं ॥४०८॥ अच्छे बुरे सब पदार्थ हमें पिछानो, ऐसा कभी न कहते कि हमें सुजानो। वे बुद्धि के विषय मात्र बने हुए हैं, होते नहीं वश स्वतंत्र तने हुए हैं ॥४०९॥ यों तत्त्व की पकड़ से रह मूढ़ रीता, जीता पिपासु बन, साम्य सुधा न पीता। सम्भोग का रसिक मात्र परानुरागी, विज्ञान से विरत है विधि से सरागी ॥४१०॥ आए हुए उदय में विधि के फलों को, आत्मीय मान, चखता जड़ के दलों को। मोही नवीन विधि के दुख बीज बोता, खोता विवेक चिर औ भव बीच रोता ॥४११॥ आए हुए उदय में विधि के फलों को, है भोगता तज कुधी निज में गुणों को। मैंने किया यह सभी जब मान लेता, मोही नवीन दुख को पुनि माँग लेता ॥४१२॥ आए हुए उदय में विधि के फलों को, जो भोगता तज कुधी निज के गुणों को। मोही दुखी यदि सुखी नित हो रहा है, हा! दुःख बीज विधि के पुनि बो रहा है ॥४१३॥ है जानता स्वपर को न कभी निजी से, वो शास्त्र, ज्ञान नहिं हो सकता इसी से। पै शास्त्र शास्त्र जड़' केवल नाम पाता, पै ज्ञान, ज्ञान बस चेतनधाम भाता ॥४१४॥ ये शब्द ज्ञान नहिं हो सकते इसी से, वे जानते न पर को निज को निजी से। पै शब्द शब्द पर पुद्गल है निराला, पै ज्ञान ज्ञान बस चेतन है निहाला ॥४१५॥ रे! रूप, ज्ञान नहिं है जिन हैं बताते, वे क्योंकि आप-पर को नहिं जान पाते। तो रूप रूप जड़कूप निरा निरा है, औ ज्ञान ज्ञान जगभूप निरा खरा है॥४१६॥ ना जानता वह कभी कुछ भी यतः है, रे वर्ण ज्ञान नहिं हो सकता अतः है। हो वर्ण वर्ण, यह वर्णन वर्ण का है, हो ज्ञान ज्ञान, मत दिव्य जिनेन्द्र का है॥४१७॥ जो जानता न कुछ भी जड़ की निशानी, है ‘गंध' ज्ञान नहिं है यह वीर वाणी। हो ‘गंध' ‘गंध' भर ही यह गंध गाथा, हो ज्ञान ज्ञान ध्रुव जीवन संग-नाता ॥४१८॥ ना जानता रस कभी रस को यतः है, होता न ज्ञान रस वो रस ही अतः है। है ज्ञान भिन्न रस भिन्न निरे निरे हैं, ऐसा कहें जिन हुए अघ से परे हैं ॥४१९॥ वो स्पर्श ज्ञान नहिं है कहते यमी है, हो जानता स्वपर को न यही कमी है। हो स्पर्श स्पर्श भर हो जड़ मात्र न्यारा, हो ज्ञान ज्ञान गुण चेतन पात्र प्यारा ॥४२०॥ ना कर्म जान सकता कुछ भी यतः है, वो कर्म, ज्ञान नहिं हो सकता अतः है। है कर्म कर्म पर पुद्गल धर्म-वाला, है ज्ञान ज्ञान शुचिचेतन-शर्मशाला ॥४२१॥ धर्मास्तिकाय वह ज्ञान नहीं अतः है, वो जानता स्वपर को न कभी यतः है। धर्मास्तिकाय वह भिन्न सदा रहा है, है ज्ञान भिन्न मत यों जिनका रहा है॥४२२॥ होता न ज्ञान यह द्रव्य अधर्म ज्ञाता-औचित्य है न कुछ भी वह जान पाता। अत्यन्त भिन्न चिर द्रव्य अधर्म भाता, है ज्ञान भिन्न पर से रखता न नाता ॥४२३॥ वो काल ज्ञान नहिं हो सकता अतः है, वो काल जान सकता कुछ भी यतः है। पै काल काल जड़ ही चिरकाल भाता, लो ज्ञान ज्ञान मणिमाल निहाल साता ॥४२४॥ आकाश जान सकता कुछ भी नहीं है, आकाश ज्ञान नहिं हो सकता सही है। आकाश भिन्न यह ज्ञान विभिन्न प्यारा, देते जिनेश जग को उपदेश सारा ॥४२५॥ होता ना ज्ञान यह अध्यवसान सारा, वो जानता न कुछ भी जड़ का पिटारा। बोले जिनेश वह अध्यवसान न्यारा, चैतन्यधाम यह ज्ञान प्रमाण प्यारा ॥४२६॥ है जानता सतत जीव अतः प्रमाणी, है शुद्ध ज्ञान घन ज्ञायक पूर्ण ज्ञानी। होता न ज्ञान उस ज्ञायक से निराला, जैसा अनन्य इस दीपक से उजाला ॥४२७॥ विज्ञान-संयम-सुदर्शन है सुहाता, औ द्वादशांग श्रुत पूर्ण वही कहाता। विज्ञान साधुपन धर्म अधर्म भी है, ऐसा सदैव कहते बुध ये सभी है ॥४२८॥ आत्मा अमूर्त वह मूर्त कभी नहीं है, आहार ग्राहक अतः बनता नहीं है। आहार मूर्त जड़ पुद्गल धर्मवाला, पीते मुनीश कहते शिव शर्म-प्याला ॥४२९॥ होता सदोष गुण है पर द्रव्य ग्राही, ऐसा सदा समझते शिवराह राही। निर्दोष आत्म गुण निश्चय से किसी को, पै त्यागता न गहता, गहता निजी को ॥४३०॥ ना तो चराचर सजाति विजातियों को, जो छोड़ती न गहती, पर वस्तुओं को। आदर्श-सी विमल निर्मल चेतना है, पूजूं उसे विनशती चिर वेदना है॥४३१॥ ये दीखते जगत में मुनि-साधुवों के, हैं भेष, नैक विधि भी गृहवासियों के। वे अज्ञ मूढ़ इनको जब धारते है, है मोक्षमार्ग यह यों बस मानते हैं ॥४३२॥ पर्याप्त केवल नहीं तन नग्नता है, तू मान पंथ शिव का निज मग्नता है। होते निरीह तन से अरिहन्त तातें, चारित्र-बोध-दृग लीन स्वगीत गाते ॥४३३॥ पाखंडिलिंग गृहिलिंग धरो तथापि, वो मोक्षमार्ग नहिं हो सकता कदापि। तीनों मिले चरित-दर्शन-बोध सोही, है मोक्ष-मार्ग कहते जिन वीत-मोही ॥४३४॥ सागार और अनगार पदानुराग, वाक्काय से मनस से झट त्याग जाग। सम्यक्त्व-बोध-व्रत में शिवपंथ में ही, भाई विहार कर तो सुख हाथ में ही ॥४३५॥ ध्याओ निजात्म नित ही निज को निहारो, अन्यत्र छोड़ निज को न करो विहारो। संबंध मोक्ष पथ से अविलंब जोड़ो, तो आपको नमन हो मम ये करोड़ों ॥४३६॥ गार्हस्थ्यलिंग भर में मुनिलिंग में ही, जो मुग्ध साधक रहा बहिरंग में ही। अज्ञात ही समयसार उसे रहेगा, संसार में भटकता दुख ही सहेगा ॥४३७॥ दो द्रव्य-भावमय लिंग नितान्त पाये-जाते विमोक्ष पथ में ‘व्यवहार' गाये। पै लिंग का न शिव के पथ में सहारा, 'आत्मा' अलं सहज निश्चय ने पुकारा ॥४३८॥ साधू स्वयं समयसार सुना सुनाता, सारांश सादर सदा गुणता गुणाता। पीता सदा समयसार-सुधा-सुधारा, सानन्द शीघ्र तिरता भवसिंधु-धारा ॥४३९॥ गुरुस्मृति हे! कुन्दकुन्द गुरु कुन्दनरूपधारी, स्वीकार हो कृति तुम्हें कृति है तुम्हारी। दो ज्ञानसागर गुरो! मुझको सुविद्या, विद्यादिसागर बनू तज दूँ अविद्या ॥
  12. मैं पाश से कस कसा करके कसा हूँ? बंधानुभूति करता चिर से लसा हूँ। यों बंध बंधफल बंधित गीत गाता, कोई मनो पुरुष है तुमको दिखाता ॥३०८॥ पै बंध को यदि नहीं वह छोड़ता है, हा! जान बूझकर भी नहिं तोड़ता है। पाता न मुक्ति उस बंधन से कदापि, दुस्सह्य दुःख सहता चिर काल पापी ॥३०९॥ त्यों कर्म कर्म-स्थिति, कर्म प्रदेश जाने, औ कर्म की प्रकृति औ अनुभाग माने। छोड़े न बंध यदि जान सराग होते, होते न मुक्त, मुनि मुक्त विराग होते ॥३१०॥ जो पाश बद्ध, बस बंधन चिंतता है, होता न मुक्त उससे वह अंधता है। तू कर्म बंध भर को यदि चिंतता है, होगा न मुक्त विधि से, मति मंदता है ॥३११॥ जो पाश से कस बँधे यदि पाश तोड़े, तो पाश से झट विमुक्त नितान्त हो ले। तू कर्म बंध झट से यदि काटता है, पाता विमुक्त बन शीघ्र विराटता है ॥३१२॥ जो बंधबद्ध यदि बंधन भेद डाले, वो बंध से झट विमुक्ति सदैव पाले। तू कर्म बंध झट से यदि काटता है, पाता विमुक्त बन शीघ्र विराटता है ॥३१३॥ जो पाश से कस बँधा यदि पाश छोड़े, तो पाश से झट मुक्ति नितान्त पा ले। तू कर्म बंध झट से यदि काटता है, पाता विमुक्त बन शीघ्र विराटता है ॥३१४॥ शुद्धात्म का परम निर्मल धर्म क्या है, क्या बंध लक्षण विलक्षण कर्म क्या है। यों जान, मान मतिमान प्रमाण द्वारा, छोड़े कुबंध गहते शिवधाम द्वारा ॥३१५॥ ये जीव, बंध अपने-अपने गुणों से, है भिन्न भिन्न मोहवश एक हुए युगों से। भिन्न-भिन्न कहती इनको, सुपैनी, तो एकमात्र वर बोधमयी सुछैनी ॥३१६॥ यों स्वीय-स्वीय गुण लक्षण भेद द्वारा, तू भिन्न-भिन्न कर बंध निजात्म सारा। शुद्धात्म है समयसार-मयी सुधा पी, हे भव्य! बंध विष पै मत पी कदापि ॥३१७॥ कैसा निजातम मिले यदि भावना हो, विज्ञान की सतत सादर साधना हो। जाता किया पृथक बंधन से निजात्मा, विज्ञान से हि मिलता बनता महात्मा ॥३१८॥ संवेदनामय निजी वह चेतना ‘मैं', यों जान, लीन रहना निज चेतना में। जो भी अचेतन-निकेतन शेष सारे, हैं हेय ज्ञेय मुझसे चिर से निराले ॥३१९॥ विज्ञान से विदित निश्चित शर्म द्रष्टा, मैं ही रहा वह स्वयं निजधर्म स्रष्टा। जो भी अचेतननिकेतन शेष सारे, हैं हेय ज्ञेय मुझसे चिर से निराले ॥३२०॥ विज्ञान से विदित चेतन राम ज्ञाता, मैं ही रहा वह निजी गुणधाम धाता। जो भी अचेतननिकेतन शेष सारे, हैं हेय ज्ञेय मुझसे चिर से निराले ॥३२१॥ विज्ञान से विदित चेतन धर्मवाला, मैं ही रहा वह मिला सुख-धर्मशाला। जो भी अचेतननिकेतन दोष सारे, हैं हेय ज्ञेय चिर से मुझसे निराले ॥३२२॥ साधू जिसे स्वपर बोध भला मिला है, सौभाग्य से दृग सरोज खुला खिला है। वो क्या कदापि पर को अपना कहेगा, ज्ञानी न मूढ़सम भूल कभी करेगा ॥३२३॥ ऐसा न हो कि मुझको कहिं मार देवे, तू चोर है कह मुझे जन बाँध देवे। ऐसा विचार करता नहिं ठीक सोता, चौर्यादि पापकर चोर सभीत होता ॥३२४॥ चौर्यादि कार्य करता नहिं है कदापि, निर्भीक हो विचरता जग में अपापी। होता जिसे कि भय भी अघगैल से है, चिंता उसे न फिर बंधन जेल से है ॥३२५॥ त्यों संग संकलन लीन असंयमी है, हो बंध भीति उसको कहते यमी है। साधू जिसे भय भला किस बात का है, है राग भी न जिसको निज गात का है ॥३२६॥ संसिद्धि राध अरु साधित सिद्ध सारे, आराधिता वचन आशय एक धारे। आराधिता रहित आतम ही कहाता, है दोष-धाम अपराधक पाप पाता ॥३२७॥ निश्चिंत हो निडर हो निज को निहारे, निर्दोष वे निरपराधक साधु प्यारे। आराधना स्वयम की करते सुहाते, ना तो स्वयं न पर को डरते डराते ॥१॥ निंदा निवृत्ति परिहार-सुधारणाएँ, गर्दा प्रतिक्रमण शुद्धि प्रसारणाएँ। पीयूष कुम्भ तब ही मुनि मत्त होते, शुद्धोपयोग जब हो विषकुंभ होते ॥३२८॥ आठों अनिंदन अशुद्धि-अधारणादि-पीयूष कुम्भ जब साधु सधे समाधि। ऐसा सुजान समयोचित कार्य साधो, एकान्तवाद तजदो अयि आर्य साधो ॥३२९॥
  13. फैली जहाँ मलिन धूलि अमेय राशि, कोई सशस्त्र नर जाकर के विलासी। लो! अंग अंग तिल तेल लगा-लगाके, आयाम नित्य करता बल को जगाके ॥२५२॥ स्वच्छन्द हो सरस नीरस पादपों को, बाँसों तमाल कदली तरु के दलों को। वो तोड़-तोड़ टुकड़े-टुकड़े बनाता, आमूलतः कर उखाड़ उन्हें मिटाता ॥२५३॥ नाना प्रकार इस ताण्डव नृत्य द्वारा, लो देह में चिपकती रज आ अपारा। क्यों वस्तुतः चिपकती रज आ वहाँ है? क्या जानते तुम कि कारण क्या रहा है॥२५४॥ वो तेल लेप वश ही रज आ लगी है, भाई अकाट्य ध्रुव सत्य यही सही है। व्यायाम कारण नहीं उस कार्य में है, ऐसा जिनेश कहते निज कार्य में है ॥२५५॥ मिथ्यात्व मंडित कुधी त्रय योग द्वारा, चेष्टा निरंतर किया करता विचारा। ज्यों रागरंग रँगता उपयोग को है, पाता स्वयं नियम से विधि योग को है ॥२५६॥ फैली जहाँ मलिन धूली अमेय राशि, कोई सशस्त्र नर जाकर के विलासी। लो! अंग-अंग तिल तेल बिना लगाया, व्यायाम नित्य करता बल को जगाया ॥२५७॥ स्वच्छन्द हो सरस नीरस पादपों को, बाँसों तमाल कदली तरु के दलों को। वो तोड़-तोड़ टुकड़े-टुकड़े बनाता, आमूलतः कर उखाड़ उन्हें मिटाता ॥२५८॥ नाना प्रकार इस ताण्डव नृत्य द्वारा, है देह में न चिपकी रज आ अपारा। क्यों वस्तुत: चिपकती रज ना वहाँ है, क्या जानते तुम कि कारण क्या रहा है? ॥२५९॥ ना तेल लेप तन पे उसने किया है, भाई नितान्त यह कारण ही रहा है। व्यायाम कारण नहीं उस कार्य में है, ऐसा जिनेश कहते निज कार्य में है॥२६०॥ होता इसी तरह ही समदृष्टिवाला, चेष्टा अनेक विध है करता निहाला। रागाभिभूत उपयोग नहीं बनाता, पाता न बंध, उसको शिर मैं नवाता ॥२६१॥ मारूँ उसे वह मुझे जब मारता है, मोही कुधी मनमना यह मानता हैं। मेरा नहीं मरण, हूँ ध्रुव शीलवाला, ज्ञानी कहे मुनि, निरा जड़ में निराला ॥२६२॥ देहावसान जब आयु विलीन होती, है भारती जिनप की सुख को सँजोती। तू जीव की जब न आयु चुरा सकेगा, कैसा भला सहज मार उसे सकेगा? ॥२६३॥ देहावसान जब आयु विलीन होती, है भारती जिनप की सुख को सँजोती। कोई त्वदीय नहिं आयु चुरा सकेगा, तेरा भला मरण क्या कि करा सकेगा? ॥१॥ मैं आपकी मदद से बस जी रहा हूँ, जीता तुम्हें सहज आज जिला रहा हूँ। ऐसा सदैव कहता वह मूढ़ प्राणी, ज्ञानी विलोम चलता जड़ से अमानी ॥२॥ है आयु के उदय पा जग जीव जीता, ऐसा कहें जिन जिन्हें मद ने न जीता। कोई न आयु तुझमें जब डाल देता, कैसे तुझे फिर सुजीवित पाल लेता? ॥३॥ है आयु के उदय पा जग जीव जीता, ऐसा कहें जिन जिन्हें मद ने न जीता। तू जीव में यदपि आयु न डाल देता, कैसा उसे तदपि जीवित पाल लेता ॥२६४॥ मैंने तुझे धन दिया कि सुखी बनाया, मारा, चुरा धन अपार, दुखी बनाया। मोही प्रमत्त जड़ की यह धारणा है, ज्ञानी चले न इस भाँति महामना है॥२६५॥ साता यदा उदय में अथवा असाता, होता सुखी जग दुखी, यह छंद गाता, तू डालता न पर में जब कर्म वैसा, भाई दुखी जग सुखी बन जाय कैसा? ॥२६६॥ लो कर्म का उदय जीवन में जभी हो, औचित्य है जग दुखी व सुखी तभी हो। देता न कर्म जग है तुमको कदापि, कैसे हुए तुम अपार दुखी तथापि ॥२६७॥ लो कर्म का उदय जीवन में जभी हो, सिद्धांत है जग दुखी व सुखी तभी हो। ता न कर्म जग है तुमको कदापि, कैसे अकारण सुखी तुम हो तथापि ॥२६८॥ दुःखानुभूति करता यम धाम जाता, संसारिजीव उदया-गत कर्म पाता। मारा तुम्हें दुखित पूर्ण किया कराया, वो मान्यता तव मृषा जिनदेव गाया ॥२६९॥ मानो दुखी नहिं हुवा न मरा सदेही, जो भी हुवा वह सभी विधिपाक से ही। मैंने दुखी मृत नहीं तुमको बनाया, ऐसा विचार भ्रम है जिन ने बताया ॥२७०॥ मैं शीघ्र ही अति दुखी पर को बनाता, किंवा उसे सहज शीघ्र सुखी बनाता। ऐसा कहो भ्रमित ही मति आपकी है, बाँधे शुभाशुभ विधी खनि पाप की है॥२७१॥ ऐसा विकल्प यदि हो जग को दुखी ही, सामर्थ्य है कर सकें अथवा सुखी ही। वो पापका मलिन संग दिला सकेगा, या पुण्य का मुख तुम्हें दिखला सकेगा ॥२७२॥ मैं मित्र में सदय हो कर प्राण डालूँ, औ शत्रु को अदय होकर मार डालूँ। ऐसा विभाव मन में यदि धारते हो, तो पुण्य पाप क्रमशः तुम बाँधते हो ॥२७३॥ प्राणों हरो मत हरो जग जंगमों के, संकल्प बंध करता विधि-बंधनों के। लो बंध का विधि-विधान यही रहा है, ऐसा सहर्ष नय निश्चय गा रहा है॥२७४॥ एवं असत्य अरु स्तेय व ब्रह्महानी, औ संग संकलन में रुचि की निशानी। माने गये अशुभ अध्यवसाय सारे, ये पाप बंध करते दुख के पिटारे ॥२७५॥ अस्तेय सत्य सुमहाव्रत को निभाना, जो ब्रह्मचर्य धर, संग सभी हटाना। ये हैं अवश्य शुभ अध्यवसाय सारे, हैं पुण्य बंधक कथंचित, पाप टारें ॥२७६॥ पंचेद्रि के विषय को लखता जभी से, रागादिमान यह आतम हो तभी से। पै वस्तुतः विषय बंधक वे नहीं हैं, रागादिभाव विधिबंधक हैं, सही है ॥२७७॥ मैं आपको अति दुखी व सुखी बनाता, या बाँधता झटिति बंधन से छुड़ाता। ऐसी त्वदीय मति सन्मति-हारिणी है, मिथ्यामयी विषमयी दुखकारिणी है ॥२७८॥ रागादि से जबकि बंधन जीव पाते, आरूढ़ मुक्ति पथ पे मुनि मुक्ति जाते। मैं बाँधता जगत को अथवा छुड़ाता, तेरा विकल्प फिर वो किस काम आता? ॥२७९॥ रे काय से जगत को दुख हैं दिलाते, ऐसा कहीं तुम कहो बलधार पाते। निर्भ्रान्त! भ्रान्त तब तो मति है तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्योंकि भारी ॥२८०॥ लो विश्व को वचन से दुख हैं दिलाते, ऐसा कहीं तुम मनो मति धार पाते। निर्भ्रांत! भ्रान्त मति है तब तो तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्यों कि भारी ॥२८१॥ संसार को दुखित हैं मन से कराते, ऐसा कहो तुम मनो मति धार पाते। निर्भ्रान्त! भ्रान्त मति है तब तो तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्योंकि भारी ॥२८२॥ या विश्व को दुखित आयुध से कराते, ऐसा कहीं तुम मनो मति धार पाते। निर्भ्रान्त! भ्रान्त मति है तब तो तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्योंकि भारी ॥२८३॥ या काय से वचन से मन से कराते, हैं विश्व को हम सुखी करुणा दिखाते। ऐसा कहो मति मृषा फिर भी तुम्हारी, पा कर्म का फल सुखी जग क्योंकि भारी ॥२८४॥ ज्यों जीव राग रति की कर आरती है, होता सुरेश नर वानर नारकी है। है पाप-पुण्य परिपाक जु आप पाता, ऐसा वसंततिलका यह छंद गाता ॥२८५॥ शुद्धात्म से पृथक द्रव्य छहों निराले, हैं भिन्न-भिन्न गुण लक्षण धर्म धारे। संसारि-जीव पर, अध्यवसान द्वारा, संसार को हि अपना करता विचारा ॥२८६॥ ऐसे अनेक विध अध्यवसाय छोड़े, नीराग भाव धर के मन को मरोड़े। ज्ञानी मुनीश्वर शुभाशुभ रेणुओं से, होते नहीं मलिन, शोभित हो गुणों से ॥२८७॥ संकल्प जन्य सविकल्प अरे! करेगा, तो पाप-पुण्य विधिबंध नहीं टरेगा। ना बोध दीप दिल में उजला जलेगा, फैला विमोहतम ना तबलौं टलेगा ॥२८८॥ जो पारिणाम मति अध्यवसाय भाव, विज्ञान बुद्धि व्यवसाय चिती विभाव। हे भव्य ये वसु जिनोदित शब्द सारे, हैं भिन्न-भिन्न पर आशय एक धारे॥२८९॥ है नित्य निश्चय निषेधक मोक्षदाता, होता निषिद्ध व्यवहार मुझे न भाता। लेते सुनिश्चय नयाश्रय संत योगी, निर्वाण प्राप्त करते तज भोग भोगी! ॥२९०॥ भाई अभव्य व्रत क्यों न सदा निभा ले, लेते भले हि तप संयम गीत गा ले। औ गुप्तियाँ समितियाँ कल शील पाले, पाते न बोध दृग वे न बने उजाले ॥२९१॥ एकादशांग श्रुत पा न स्व-में रुची से, श्रद्धान मोक्ष सुख का जिसको नहीं है। ऐसा अभव्य जन का श्रुत पाठ होता, रे राम! राम! रटता दिन-रात तोता ॥२९२॥ सद्धर्म धार उसकी करते प्रतीति, श्रद्धान गाढ़ रखते रुचि और प्रीति। चाहे अभव्य फिर भी भव भोग पाना, ना चाहते धरम से विधि को खपाना ॥२९३॥ तत्त्वार्थ में रुचि हुई दृग हो वहीं से, सज्जान हो मनन आगम का सही से। चारित्र, पालन चराचर का सुहाता, संगीत ईदृश सदा व्यवहार गाता ॥२९४॥ विज्ञान में चरण में दृग संवरों में, औ प्रत्यख्यान गुण में लसता गुरो मैं। शुद्धात्म की परम-पावन भावना का, है पाक मात्र सुख, है दुख वासना का ॥२९५॥ अध्वादि कर्म कृत भोजन दोष सारे, जाते अजीव पर-पुद्गल के पुकारे। साधू करे फिर उन्हें किस भाँति ज्ञानी ? वे अन्य द्रव्य गुण हैं यह वीर-वाणी ॥२९६॥ अध्वादि कर्म कृत भोजन दोष सारे, जाते अजीव जड़ पुद्गल के पुकारे। है अन्य से रचित ये गुण देख लेता, ज्ञानी उन्हें अनुमती किस भाँति देता? ॥२९७॥ औद्देशिकादि सब कर्म निरे-निरे हैं, चैतन्य से रहित हैं जड़ता धरे हैं। हूँ ज्ञानवान जब मैं मुझसे कराया, कैसा गया वह ? नहीं कुछ जान पाया ॥२९८॥ औद्देशिकादि सब कर्म निरे-निरे हैं, चैतन्य से रहित है जड़ता धरे हैं। ज्ञानी विचार करते मुनिराज ऐसा, वो अन्य कर्म जड़कर्म मदीय कैसा ॥२९९॥ ज्योतिर्मयी स्फटिक शुभ्रमणी सुहाती, आत्मीयता तज स्वयं न विरूप पाती। पै पार्श्व में मृदुल फूल गुलाब होती, आश्चर्य क्या फिर भला मणि लाल होती ॥३००॥ ज्ञानी मुनीश इस भाँति निरा निहाला, होता स्वयं नहिं कदापि विकार वाला। मोहादि के वश कभी प्रतिकूलता में, रंजायमान बनता निज भूलना में ॥३०१॥ संमोहराग करते नहिं रोष ज्ञानी, होते प्रभावित नहीं पर से अमानी। कर्ता अतः, नहिं कषाय उपाधियों के, साधू उपास्य जब हैं हम प्राणियों के ॥३०२॥ क्रोधादियों विकृतभाव-प्रणालियों में, मोही उदीरित कुकार्मिक-नालियों में। होता प्रवाहित तभी निज-भूल जाता, है कर्म कीच फँसता प्रतिकूल जाता ॥३०३॥ अज्ञान की कलुष-राग तरंग माला, काषायिकी परिणती भव दुःख-शाला। भावी नवीन विधिबंधन हेतु होती, आत्मा सबंध बनता मिट जाय ज्योति ॥३०४॥ होता द्विधा परम पाप अप्रत्यख्यान, हे भव्य दो क्रमण-अप्रति ही सुजान! माना गया इसलिए मुनि वीतरागी, है कर्म का वह अकारक संग-त्यागी ॥३०५॥ है द्रव्य भावमय दोय अप्रत्यख्यान, एवं द्विधा क्रमण-अप्रति भी सुजान। ये निंद्य निंद्यतर निंद्यतमा रहे हैं, ज्ञानी इन्हें तज सदा निज में रहे हैं ॥३०६॥ आत्मा समाधिगिरि से गिर के सरागी, मानो इन्हें कर रहा मुनि दोष भागी। तो धूलि-धूसरित भूपर आ हुवा है? कर्माभिभूत बन के पर को छुवा है॥३०७॥
×
×
  • Create New...