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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • एकीभाव स्तोत्र (मन्दाक्रांता छंद)

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    एकीभाव स्तोत्र

    (मन्दाक्रांता छंद)

     

     

    मेरे द्वारा, अमित भव में, प्राप्त नो कर्म सारे,

    तेरी प्यारी, जबकि स्तुति से, शीघ्र जाते निवारे।

    मेरे को, क्या, फिर वह न ही, वेदना से बचाती?

    स्वामी! सद्यः लघु दुरित को क्या नहीं रे भगाती? ॥१॥

     

    वे ही हर्ता दुख तिमिर के दिव्य-भानू-जिनेश,

    ऐसे सारे गणधर कहें आपको ज्यों दिनेश।

    पै है मेरे मुदित मन में वास तेरा हमेशा,

    तो कैसी ओ! फिर हृदय में रे! रहे पाप दोषा ॥२॥

     

    जो कोई भी विमल मन से मन्त्र से स्तोत्र से या,

    भव्यात्मा ज्यों भजन करता आपका मोद से या।

    श्रद्धानी के अहह उसके देह वल्मीक से त्यों

    सारी नाना वर-विषमयी व्याधियाँ दौड़ती जो ॥३॥

     

    आने से जो अमर पुर से पूर्व ही मेदिनी भी,

    स्वामी! तेरे सुकृत बल से हेमता को वरी थी।

    पै मेरे तो मन-भवन में वास जो आपका है,

    कोढी काया कनक मय हो देव! आश्चर्य क्या है? ॥४॥

     

    तेरे में ही सब विषय संबंधिनी शक्ति भी है,

    स्वामी! जो है प्रतिहत नहीं, लोक बंधू तभी हैं।

    मैं कोढ़ी हूँ चिर हृदय में आप मेरे बसे हैं,

    कैसे काया-जनित-मल दुर्गन्ध को हा! सहे हैं ॥५॥

     

    जन्मों से मैं भ्रमण करता भाग्य से अत्र आया,

    कर्मों ने तो भव विपिन में हा! मुझे रो रुलाया।

    मैं तो तेरे नय-सरसि में देव! गोता लगाता,

    कैसे है औ! फिर अब मुझे दुःख दावा जलाता? ॥६॥

     

    होता तेरे चरण युग सान्निध्य से पद्म देख!

    लक्ष्मी-धामा, सुरभित तथा हेम जैसा सुरेख।

    पै मेरा जो मन तव करे स्पर्श सर्वांग को का,

    तो क्या पाऊँ न फिर अब मैं सौख्य मोक्षादिकों का? ॥७॥

     

    प्याला पीया वच अमृत का आपके भक्ति से है,

    जो पाया भी मनुज जब आशीष को आपसे है।

    प्रायः स्वामी! अतुल सुख में लीन भी है यहाँ पे,

    कैसे पीड़ा दुरित मय कांटे उसे दे वृथा पै ॥८॥

     

    व्योमस्पर्शी मणिमय तथा मान का स्तम्भ भाता,

    आँखों का ज्यों विषय बनता, मानको त्यों नशाता।

    आया ऐसा सुबल उसमें आपके संग से है,

    स्वामी! देखो वह इसलिए ही खड़ा ठाट से है॥९॥

     

    काया को छू तव जब हवा, जो लता को हिलाती,

    सद्यः ही है जन-निचयकी रोग धूली मिटाती।

    ध्यानी के तो उर जलज पे आप बैठे यदा हैं,

    पाता है तो वह स्वधन आश्चर्य भी क्या तदा है॥१०॥

     

    मेरे सारे भव भव दुखों को विभो जानते हैं,

    होती क्लांती सतत जिनकी याद से हा! मुझे हैं।

    विश्वज्ञाता सदय तुमको भक्ति से आज पाया,

    हूँ मैं तेरा मम हृदय में ठीक विश्वास लाया ॥११॥

     

    स्वामी-जीवं-धरवदन से आपके मंत्र को जो,

    कुत्ता पाता जबकि सुनके अंत में सौख्यको यों।

    मालाको ले सतत जपता आपके मंत्र को जो,

    आशंका क्या फिर अमर हो इंद्रता को वरे तो? ॥१२॥

     

    कोई ज्ञानी वर चरित में लीन भी जो सदा है,

    तेरी श्रद्धा यदि न उसमें तो सभी हा वृथा है।

    भारी है रे! शिव-सदन के द्वार पे मोह ताला,

    कैसे खोले, उस बिन उसे, हो सके जो उजाला ॥१३॥

     

    तेरा होता यह यदि न वाक्दीप तत्त्वावभासी,

    जो है स्वामी! वरसुखद औ मोक्षमार्ग प्रकाशी।

    छाई फैली शिवपथ जहाँ मोहरूपी निशा है,

    पाते कैसे फिर तब उसे हाय? मिथ्या दिशा है॥१४॥

     

    आत्मा की जो द्युति अमित है मोद दात्री तथा है,

    मोही को तो वह इह न ही प्राप्य हा! यो व्यथा है।

    पै सारे ही लघु समय में आपके भक्त लोग,

    पाते हैं तव स्तवन से जो उसे धार योग ॥१५॥

     

    भक्ती गंगा नय-हिमगिरी से समुत्पन्न जो है,

    पैरों को छु तव अरुशिवां बोधि में जा मिली है।

    मेरा स्वामी! सुमन उसमें स्नान भी तो किया है,

    तो काया में विकृति फिर भी क्यों रही देव! हा! है॥१६॥

     

    ध्याऊँ भाऊँ जब अचल हो, आपको ध्येय मान,

    ऐसी मेरी यह मति तदा आप औ मैं समान।

    मिथ्या ही पे मम मति विभो! कर्म का पाक रे है,

    तो भी दोषी तव स्तवन से मोक्ष लक्ष्मी वरे है॥१७॥

     

    वाणीरूपी जलधि जग में व्याप्त तेरा जहाँ पे,

    सप्ताभंगी लहर-मल-मिथ्यात्व को है हटाते।

    ज्ञानी ध्यानी मथकर उसे चित्तमंदार से वे,

    सारे ही हैं द्रुत परम पीयूष पी तृप्त होते ॥१८॥

     

    श्रृंगारों को वह पहनता जन्म से जो कुरूप,

    बैरीयों से परम डरता जो धरे शस्त्र भूप।

    अष्टांगों से मदन जब तू और बैरी न तेरे,

    तेरे में क्यों कुसुम पट हो शस्त्र तो नाथ! मेरे॥१९॥

     

    सेवा होती तव अमर से आपकी क्या प्रशंसा,

    सेवा पाती उस अमर की पे प्रशंसा जिनेशा।

    धाता, त्राता धगपति तथा मोक्षकांता-सुकांत,

    ऐसे गावे तव यश यहाँ तो प्रशंसा नितांत ॥२०॥

     

    तेरी वाणी तव चरण तू दूसरों सा न ईश,

    तो कैसा हो तव स्तवन में जो हमरा प्रवेश।

    तो भी स्वामी! यह स्तुति सदा आपके सेवकों को,

    होगी प्यारी अभिलषित को और देगी सुखों को ॥२१॥

     

    रागी द्वेषी जिनवर नहीं, ना किसी की अपेक्षा,

    मेरे स्वामी? वर सुखद है मार्ग तेरा उपेक्षा।

    तो भी तेरी वह निकटता कर्महारी यहाँ है,

    ऐसी भारी विशद महिमा दूसरों में कहाँ है? ॥२२॥

     

    कोई तेरा स्तवन करता भाव से है मनुष्य,

    होता ना ही शिवपथ उसे वाम स्वामी? अवश्य।

    जाते जाते शिव सदन की ओर जो आत्म ध्याता,

    मोक्षार्थी तो तव-समय में यो न संदेह लाता ॥२३॥

     

    जो कोई भी मनुज मन में आपको धार ध्याता,

    भव्यात्मा यों अविरल प्रभो! आप में लौ लगाता।

    जल्दी से है शिव सदन का श्रेष्ठ जो मार्ग पाता;

    श्रेयोमार्गी वह तुम सुनो! पंचकल्याण पाता ॥२४॥

     

    ज्ञानी योगी स्तुति कर सके ना यदा वे यहाँ हैं,

    तो कैसे मैं तव स्तुति करूं पै तदा रे मुधा है।

    तो भी तेरे स्तवन मिष से पूर्ण सम्मान ही है,

    आत्मार्थी को विमल सुख का, स्वर्ग का वृक्ष ही है ॥२५॥

     

    हैं वादिराज वर-लक्षण पारगामी,

    है न्याय-शास्त्र सब में बुध अग्रगामी।

    हैं विश्व में नव रसान्वित काव्य धाता,

    हैं आपसा न जग भव्य सहाय दाता ॥२६॥

     

    त्रैलोक्य पूज्य यतिराज सुवादिराज,

    आदर्श सादृश सदा वृष-शीश-ताज।

    वन्दूँ तुम्हें सहज ही सुख तो मिलेगा,

    ‘विद्यादिसागर' बनूं दुख तो मिटेगा ॥


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