तव गुण-गण की फैल रही है विमल कीर्ति वह त्रिभुवन में।
तभी हो रहे शोभित ऐसे वीर देव बुध जन-जन में ॥
कुन्द पुष्प की शुक्ल कान्ति-सम कान्तिधाम शशि हो भाता।
घिरा हुआ हो जिससे उडुदल गीत-गगन में हो गाता ॥१॥
सत युग में था कलियुग में भी तव शासन जयवन्त रहा।
भव्यजनों के भव का नाशक मम भव का भी अन्त रहा ॥
दोष चाबु को निरस्त करते पर मत खण्डन करते हैं।
निज-प्रतिभा से अतः गणी ये जिनमत मण्डन करते हैं ॥२॥
प्रत्यक्षादिक से ना बाधित अनेकान्त मत तव भाता।
स्याद्-वाद सब वाद-विवादों का नाशक मुनिवर! साता ॥
प्रत्यक्षादिक से हैं बाधित स्यावाद से दूर रहे।
एकान्ती मत इसीलिए सब दोष धूल से पूर रहे ॥३॥
दुष्ट दुराशय धारक जन से पूजित जिनवर रहे कदा।
किन्तु सुजन से सुरासुरों से पूजित वंदित रहे सदा ॥
तीन लोक के चराचरों के परमोत्तम हितकारक हैं।
पूर्ण ज्ञान से भासमान शिव को पाया अघहारक हैं ॥४॥
समवसरण थित भव्यजनों को रुचते मन को लोभ रहे।
सामुद्रिक औ आत्मिक गुण से हे प्रभुवर अति शोभ रहे ॥
चमचम चमके निजी कान्ति से ललित मनोहर उस शशि को।
जीत लिया तब काय कान्ति ने प्रणाम मम हो जिन ऋषि को ॥५॥
मुमुक्षु-जन के मनवांछित फलदायक! नायक! जिन तुम हो।
तत्त्व-प्ररूपक तव आगम तो श्रेष्ठ रहा अति उत्तम हो ॥
बाहर-भीतर श्री से युत हो माया को नि:शेष किया।
श्रेष्ठ श्रेष्ठतम कठिन कठिनतम यम-दम का उपदेश दिया ॥६॥
मोह-शमन के पथ के रक्षक अदया तज कर सदय हुए।
किया जगत में गमन अबाधित सभय सभीजन, अभय हुए ॥
ऐसा लगते तब, गज जैसा मद-धारा, मद बरसाता।
बाधक गिरि की गिरा कटिनियाँ अरुक अनाहत बस जाता ॥७॥
एकान्ती मत-मतान्तरों में वचन यदपि श्रुति-मधुर सभी।
किन्तु मिले ना सुगुण कभी भी नहीं सकल-गुण प्रचुर कभी॥
तव मत समन्तभद्र देव है सकल गुणों से पूरण है।
विविध नयों की भक्ति-भूख को शीघ्र जगाता चूरण है ॥८॥
(दोहा)
नीर-निधी से धीर हो वीर बने गंभीर।
पूर्ण तैर कर पा लिया भवसागर का तीर ॥१॥
अधीर हूँ मुझ धीर दो सहन करूँ सब पीर।
चीर-चीर कर चिर लखें अन्तर की तस्वीर ॥२॥