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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • श्री नमिनाथ जिन-स्तवन

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    स्तुत्य रहे या नहीं रहे, फल उसे मिले या नहीं मिले।

    स्तुति जब करता सज्जन मन में पुण्य-भाव की कली खिले ॥

    निजाधीन औ सुलभ मोक्षपथ जग में इस विध बनता हो।

    पूज्य ईश नमि जिन फिर क्यों ना तव थुति रत बुध जनता हो ॥१॥

     

    परम ब्रह्म रत हो तोड़ा भव-बंधन प्रभु कृत-काम बने।

    इसीलिए जिन सुधीजनों के बोध-धाम शिव-धाम बने ॥

    ज्ञान-ज्योति अति प्रखर किरण ले उदित हुई फलतः तुम में।

    पर-मत जुगनू सम कुंदित हैं तेज उदित हो रवि नभ में ॥२॥

     

    अस्ति नास्ति औ उभय रूप भी अवक्तव्य भी तत्त्व रहा।

    अवक्तव्य भी तीन रूप यों सप्त भंगमय तत्त्व रहा ॥

    आपस में आपेक्षित बहुविध धर्मों से जो भरित रहा।

    गौण-मुख्य कर बहुनय-वश वह लोक ईश से कथित रहा ॥३॥

     

    अणु-भर भी यदि षडारम्भ हों वहाँ दया वह नहीं रहे।

    जीव-दया सो परम ब्रह्म है जग में बुधजन यही कहें ॥

    अतः दया की प्राप्ति हेतु प्रभु करुण भाव से पूर रहे।

    उभय संग तज बने दिगंबर विकृत वेष से दूर रहे ॥४॥

     

    भूषण वसनादिक से रीता नग्न काय तव यों गाता।

    जीता तुमने काम-बली को जितइन्द्रिय हो, हो धाता॥

    तीक्ष्ण शस्त्र बिन निज उर में थित अदय क्रोध का नाश किया।

    निर्मोही हो अतः शरण दो शान्ति-सदन में वास किया ॥५॥

     

    (दोहा)

     

    अनेकान्त का दास हो अनेकान्त की सेव।

    करूं गहूँ मैं शीघ्र से अनेक गुण स्वयमेव ॥१॥

    अनाथ मैं जगनाथ हो नमीनाथ दो साथ।

    तव पद में दिन-रात हूँ, हाथ जोड़ नत-माथ ॥२॥


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