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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री 

(आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)

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हमारी आँखों देखी बात

हमारी आँखों देखी बात   एक बहिनजी थीं जिनके विचार बड़े उदार थे। उनके यहां खेती का। धंधा होता था। सभी आवश्यक चीजें प्रायः खेती से प्राप्त हो जाया करती थीं। अतः प्रथम तो किसी सो चीज लेने की वहां जरूरत ही नहीं होती थी, फिर भी कोई चीज किसी से लेनी हो तो बदले में उससे भी अधिक परिणाम की कोई दूसरी चीज अपने यहां की उसे दिये बिना नहीं लेती थी। वह सोचती थी कि मेरी यहां की चीज मुझे जिस तरह से प्यारी है उसी प्रकार दूसरे को भी उसकी अपनी चीज मुझसे भी कहीं अधिक प्यारी लगती है। हां, जब कोई भी भाई आकर उ

न्यायोचित वृत्ति

न्यायोचित वृत्ति   सबसे पहले तो वह है कि जमीन में हल जोतकर अन्न पैदा किया जाय, वह इसी विचार से कि मैंने जिसका अन्न कर्ज लेकर खाया है वह ब्याज बाढ़ी सुदा चुका दिया जावे एवं बाल बच्चों सहित मेरा उदर पोषण हो जावे और द्वार पर आये हुये अतिथि का स्वागत भी हो जावे। हां कहीं- मैं खेती तो करता हूं परन्तु इसमें उत्पन्न हो गया हुआ अन्न यदि अधिकांश उसी के यहां चला जावेगा जिसके यहां का अन्न मैंने पहले से लेकर रखा है, ठीक तो जब हो कि वह मर जावे ताकि मुझे उसे न देना पड़े और सारा अन्न मेरे ही पास में

दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।

दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।   यह बात है कि ठीक क्योंकि कमाई करने के योग्य होकर भी जो दूसरों की ही कमाई खाता है वह औरों को भी ऐसा ही करने का पाठ सिखाता है एवं जब और सब लोग भी ऐसा ही करने लग जावें तो फिर कमाने वाला कौन रहे? ऐसी हालत में फिर सभी भूखे मरें, निर्वाह कैसे हो? इसीलिये न्यायवृत्ति वाला महानुभाव औरों की कमाई की तो बात ही क्या खुद अपने पिता की कमाई पर भी निर्भर होकर रहना अपने लिये कलंक की बात मानता है। जैसा कि   उत्तमं स्वार्जित वित्त मध्यमम् पितुरर्जितं

न्यायोपात्त धन

न्यायोपात्त धन   ऊपर बताया गया है कि परिग्रह अनर्थ का मूल है और धन है वह परिग्रह है। अतः वह त्याज्य है परन्तु याद रहे कि इसमें अपवाद है क्योंकि पारिवारिक जीवन बिताने वाले गृहस्थों को अभी रहने दिया जाय, उनका तो निर्वाह बिना धन के हो ही नहीं सकता परन्तु मैं तो कहता हूं कि परिवार से दूर रहने वाले त्यागी तपस्वियों के लिए भी किसी न किसी रूप में वह अपेक्षित ठहरता है क्योंकि उनको भी जब तक यह शरीर है तब तक इसे टिका रखने के लिए भोजन तो लेना पड़ता ही है जो कि धन के आधार पर निर्धारित है। यह बात द

अहिंसा में अपवाद

अहिंसा में अपवाद   पीछे बताया गया है कि त्रसों की हिंसा कभी नहीं करना चाहिए, फिर भी साधक के सम्मुख ऐसी विषम परिस्थिति कभी-कभी आ उपस्थित होती है। कि वह उसे हिंसा करने के लिए बाध्य करती है। मान लीजिये कि आप यात्रा को जा रहे हैं। एक कुलीन बहिन भी आपके भरोसे पर आपके साथ चल रही है। रास्ते में कोई लुटेरा आकर उस पर बलात्कार करना चाहता है। क्या आप उसे ऐसा करने देंगे? कभी नहीं। जहां तक हो सकेगा उसका हाथ भी उस बहिन को नहीं लगने देने के लिए आप डटकर उस डाकू का मुकाबला करेंगे और उसे मार लगायेंगे।

परिग्रह ही सब पापों का मूल है

परिग्रह ही सब पापों का मूल है   मनुष्य अपने पतनशील शरीर को स्थायी बनाये रखने के लिये इसे हष्टपुष्ट कर रखना चाहता है। अत: जिन चीजों को इस शरीर को पोषण के लिए साधकस्वरूप समझता है उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में संग्रह कर रखने का और जिनको उसके बाधक समझता है उन्हें दूर हटाने के लिए एडी से चोटी तक का पसीना बहा देने में संलग्न हो रहने का अथक प्रयत्न करता है। इसी दुर्भाव का नाम ही परिग्रह है।   अर्थात् इस शरीर के साथ मोह और शरीर की सहायक सामग्री के साथ ममत्व होने का नाम परिग्रह है।

गरीब कौन है

गरीब कौन है   जिसके पास कुछ नहीं है वह। ऐसा कहना भूल से खाली नहीं है। जिसके पास भले ही कुछ न हो परन्तु उसे किसी बात की चाह भी न हो तो वह गरीब नहीं, वह तो अटूट धन का धनी है। गरीब तो वही है जिसके पास में अपने निर्वाह से भी अधिक सामग्री मौजूद है फिर भी उसकी चाह पूरी नहीं हुई है। जिसके पास खाने को कुछ भी नहीं है और उसने खाया भी नहीं मगर भूख बिल्कुल नहीं है तो क्या उसे भूखा कहां जावे? नहीं। हां जिसने दो लडडू तो खा लिए हैं और चार लडडू उसकी पत्तल में धरे हैं जिसको कि वह खाने लग रहा है किन्तु

सन्तोष ही सच्चा धन है

सन्तोष ही सच्चा धन है   जिस चीज से हमें आराम मिले, जिस किसी चीज की मदद से हम अपनी जीवन यात्रा के उस छोर तक आसानी से पहुंच सकें उसे धन समझना चाहिए। इस दुनिया के लोगों ने कपड़ा-लत्ता, रुपया पैसा आदि बाह्य चीजों में ही आराम समझा अत: इन्हीं के जुटाने में अपनी प्रज्ञा का परिचय देना शुरू किया। कपड़े के लिए सबसे पहले लोगों ने अपने हाथों से अपने खेत में कपास पैदा की, उसे पींज कर अपने हाथ के चरखे से सूत कातकर अपने हाथ से उसका कपड़ा बुनकर अपना तन ढकना शुरू किया फिर जब और आगे बढ़ा तो मिलों को जन्

विवाह का मूल उद्देश्य

विवाह का मूल उद्देश्य   सामाजिकता को अक्षुण्ण बनाये रखना है और दुराचार से दूर रहकर भी वैषयिक सुख की मिठास को चखते रहना है जैसे कि हमारे पूर्व विद्वान् श्रीमदाशाधर के ‘‘रति वृत कलोन्नति'' इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है। यह जभी बन सकता है कि विवाहित दम्पतियों में परस्पर सौहार्दपूर्ण प्रेमभाव हो। इसके लिए दोनों के सौहार्द रहन-सहन, शील-स्वभाव में प्रायः हरबात में समकक्षता होनी चाहिए। अन्यथा तो वह दाम्पत्य पथ कण्टकाकीर्ण होकर सदा के लिए क्लेश का कारण हो जाता है। जैसा कि सोमा सती आदि में आख्य

विवाह की उपयोगिता

विवाह का मूल उद्देश्य   आजकल के नव विचारक लोगों का कहना है कि विवाह की क्या आवश्यकता है वह भी तो एक बन्धन ही तो है। बन्धन से मुक्त हो रहना मानवता का ध्येय है। फिर जानबूझकर बन्धन में पड़ा रहना कहां की समझदारी है। स्त्री और पुरुष दोनों को दाम्पत्य जीवन में विहीन होकर सर्वथा स्वतंत्र रहना चाहिए। ठीक है, विवाह वास्तव में बन्धन है परन्तु विचार यह है कि उससे मुक्त हो रहने वाला जावेगा कौन से मार्ग से? अगर वह ब्रह्मचर्य से ही रहता है जब तो ठीक है, उसे विवाह करने के लिए कौन बाध्य करता है? मगर ऐ

काम पर विजय श्रेयस्कर है

काम पर विजय श्रेयस्कर है   काम पर संस्कृत भाषा में इच्छा का पर्यायवाची माना गया है। वैसे तो मनुष्य नाना प्रकार की इच्छाओं का केन्द्र होता है किन्तु उन इच्छाओं में तीन तरह की इच्छायें प्रसिद्ध हैं। खाने की, सोने की, और स्त्री प्रसंग की। इसमें से दो इच्छायें बालकपन से ही प्रादुर्भूत होती हैं तो स्त्री प्रसंग की इच्छा युवावस्था में विकसित हुआ करती है। पहले वाली दोनों इच्छाओं को सम्पोषण देना एक प्रकार से शरीर के सम्पोषण के लिये होता है किन्तु स्त्री प्रसंग को कार्यान्वित करना केवल शरीर के

आज कल के लोगों का दृष्टिकोण

आज कल के लोगों का दृष्टिकोण   भूतल पर दो चीजें मुख्य हैं, शरीर और आत्मा। शरीर नश्वर और जड़ है। तो आत्मा शाश्वत और चेतन। इन दोनों का समायोग विशेष मानव-जीवन है। अत: शरीर को पोषण देने के लिए धन की जरूरत होती है तो आत्मा के लिए धर्म की, एवं साधक दशा में मनुष्य के लिए यद्यपि दोनों ही अपेक्षणीय हैं फिर भी हमारे बुजुर्गों की निगाह में धर्म का प्रथम स्थान था। हां, उसके सहायक साधन रूप में धन को भी स्वीकार किया जाता था। परन्तु जहां पर वह धन या उसके अर्जन करने की तरकीब यदि धर्म की घातक हुई तो उस

अदत्तादान का विवेचन

अदत्तादान का विवेचन   बलात्कार या धोखेबाजी से किसी दूसरे के धन को हड़प जाना सो अदत्तादान है। बलात्कार से दूसरे के धन को छीन लेने वाला डाकू कहलाता है, तो बहानाबाजी से किसी के धन को ले लेने वाला चोर कहलाता है। चोरी या डकैती करना किसी का जातीय धन्धा नहीं है, जो ऐसा करता है वही वैसा बना रहता है। डाकू को तो प्रायः लोग जान जाते हैं अतः उससे सावधान होकर भी रह सकते हैं मगर चोर की कोई पहचान नहीं है। अत: उससे बचना कठिन है। जो कि चोर अनेक तरह का होता है जिसके प्रचलन को चोर्य कहना चाहिये। वह भी डा

सत्य परमेश्वर है

सत्य परमेश्वर है   मैं जब बालबोध कक्षा में पढ़ रहा था तो एक दोहा मेरी किताब में आया।   साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप। जाके मन में साँच है, वाके मन में आप॥   इसमें आये हुए आप शब्द का अर्थ अध्यापक महोदय ने परमेश्वर बतलाया जो कि मेरी समझ में नहीं आया। मैं सोचने लगा साँच तो झूठ का प्रतिपक्षी है, बोलचाल की चीज है, उसका ईश्वर के साथ में क्या संबंध हुआ? परन्तु अब देखता हूं कि उनका कहना ठीक था। क्योंकि दुनियां के जितने भी कार्य हैं वे सब सत्य के भरोसे पर ही चल रह

सत्यवादी के स्मरण रखने योग्य बातें

सत्यवादी के स्मरण रखने योग्य बातें   जो सत्य का प्रेमी हो, सचाई पर भरोसा रखता हो, उसे चाहिये कि वह किसी भी की तरफदारी कभी न करे। अपने गुण अपने आप न गावे। दूसरे के अवगुण कभी प्रकट न करे। किसी की कोई गोपनीय बात कभी देखने जानने में आ जावे तो औरों के आगे कभी न कहे। हमेशा नपे तुले शब्द कहे एवं अपने आप पर काबू पाये हुए रह तभी वह अपने काम में सफल हो सकता है।   उदाहरण स्वरूप हमें यहां सत्यवादी श्री हरिश्चन्द्र का स्मरण हो आता है जो कि शयन दशा में दे डाले हुए अपने राज्य को भी त्याज्य

सत्य की पूजा

सत्य की पूजा   आमतौर पर जैसा का तैसा कहने को सत्य समझा जाता है। परन्तु भगवान महावीर ने वाचनिक सत्य की अपेक्षा मानसिक सत्य को अधिक महत्त्व दिया। हम देखते हैं कि काणे को काणा कहने पर वह चिढ़ उठता है, उसके लिये काणा कहना यह सत्य नहीं, किन्तु झूठ बन जाता है क्योंकि उसमें वह अपनी अवज्ञा मानता है। है भी सचमुच ऐसा ही। जब उसे नीचा दिखाना होता है तभी कोई उसे काणा कहता है। मानो अन्धे को अन्धा कहने वाले का वचन तो सत्य होता है फिर भी मन असत्य से घिरा हुआ होता है। क्षुद्रता को लिए हुए होता है। अन्य

अहिंसा का महात्म्य

अहिंसा का महात्म्य   जो किसी को भी कभी नहीं मारना चाहता उसे भी कोई क्यों मार सकता है। जिसकी आन्तरिक भावना निरन्तर यही रहती है कि किसी को भी कोई तरह का कष्ट कभी भी न होवे तथा इसी विचारानुसार जिसकी बाहरी चेष्टा भी परिशुद्ध होती है उसकी उस पुनीत परिणति का प्रभाव होता है कि उसके सम्मुख में आ उपस्थिति हुआ एक खूख्वार प्राणी भी जरासी देर में शान्त हो जाता है। उसके ऊपर आयी हुई आपत्ति भी उसके आत्मबल से क्षण भर में सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इस बात के उदाहरण हमारे पुरातन में भरे हुए ह

हिंसा के रूपान्तर

हिंसा के रूपान्तर   चीन देश में बौद्धों का निवास है, उन लोगों को विश्वास है कि किसी भी प्राणी को मार कर नहीं खाना चाहिये। मुर्दा माँस के खाने में कोई दोष नहीं है। वहां ऐसी प्रवृत्ति चल पड़ी है कि जिस बकरे वगैरह को खाने की जिसकी दृष्टि होती है वह उसके मकान में ढकेल कर कपाट बन्द कर देता है और दो चार दिन में तड़फड़ा करके जब वह मर जाता है तो उसे खा लिया जाता है। कहने को कहा जाता है कि मैंने इसे नहीं मारा है, यह तो अपने आप मर गया हुआ है। परन्तु उस भले आदमी को सोचना चाहिए कि यदि वह उसे बन्द

राजनीति और धर्मनीति

राजनीति और धर्मनीति   इन दोनों में परस्पर विरोध है। क्योंकि धर्म तो अहिंसा का पालन करने एवं इसे अन्त तक अक्षुण्ण रूप निभा दिखलाने को कहते हैं। परन्तु राजाओं का काम अपने राज्य शासन को बनाये रखना होता है। अत: उसके लिए येनकेन रूपेण अपने पक्ष को प्रबल बनाते चले जाना और अपने विरोधियों का का दमन करते रहना होता है। इसलिए राज्यसत्ता हिंसापूर्ण पापमय हुआ करती है। ऐसा कुछ लोग समझ बैठे हैं, किन्तु विचार करने पर यह ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि धर्म जो कि विश्व के कल्याण की चीज है उसे अपने जीवन

अहिंसा की निरूक्ति

अहिंसा की निरूक्ति   हिंसा के अभाव का नाम अहिंसा है। हनन हिंसा, इस प्रकार हन धातु से हिंसा शब्द निष्पन्न हुआ है जो कि हन धातु सकर्मक है। यानी किसी को भी मार देना, कष्ट पहुंचाना, सताना हिंसा है। परन्तु किसी भी अबोध बालक का पिता, गलती करते हुऐ अपने उस बच्चे की गलती सुधारने के लिए उसे डराता, धमकाता है और फिर भी नहीं मानने पर उसे मारता, पीटता है। अब शब्दार्थ के ऊपर ध्यान देने से पिता का यह काम हिंसा में आ जाता है   एवं यह हिंसक बनकर पापी ठहरता है जो कि किसी भी प्रकार किसी को भी

एक भील का अटल संकल्प

एक भील का अटल संकल्प   महाभारत में एक जगह आया है कि बाण-विद्या की कुशलता के बारे में द्रोणाचार्य की प्रसिद्धि सुनकर एक भील उनके पास आया और बोला कि प्रभो ! मुझको बाण विद्या सिखा देवें। द्रोणाचार्य ने जवाब दिया कि मैं अपनी विद्या क्षत्रिय को ही सिखाया करता हूं यह मेरा प्रण है। अत: मैं तुझे सिखाने के लिए लाचार हूं। इस भील ने कहा प्रभो ! मेरा भी यह दृढ़ संकल्प है कि मैं आप से ही विद्या सीखूंगा ऐसा बोलकर चला गया और द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उसके आगे बाण चलाना सीखने लगा।   कुछ द

कुलक्रम निश्चित नहीं है

कुलक्रम निश्चित नहीं है   कश्यपु के प्रहल्लाद हो, अग्रसेन के कंश। फिर कोई कैसे कहै, किसका कैसा वंश॥ चिरन्तर काल से चली आई हुई इस मनुष्य परम्परा में कोई आदमी सरल स्वभाव का होता है, किन्तु उसका लड़का बिलकुल वक्र स्वभाव वाला दीख पड़ता है। और अज्ञानी बाप का लड़का अतिशय तीक्ष्ण बुद्धि वाला पाया जाता है। हिरण्यकश्यपु एकान्त नास्तिक विचार वाला था किन्तु उसी का लड़का प्रहल्लाद परम आस्तिक था। एवं महाराज उग्रसेन जो कि परम क्षत्रिय थे, प्रजा वत्सल थे उनका लड़का कंस उनके बिलकुल विपरीत उग

राम और रावण

राम और रावण   ये दोनों ही यद्यपि महाकुलोत्पन्न थे। महाशक्तिशाली थे। अनेक प्रकार के हथियारों को धारण करने वाले थे। फिर भी दोनों के कर्तव्य कार्य में बड़ा भारी अन्तर था। राम की शक्ति और उनके हथियारों का प्रयोग सदा परमार्थ, परोपकार के लिये हुआ करता था। किन्तु रावण की सारी चेष्टायें स्वार्थ भरी थीं। क्योंकि राम सुपथगामी के साथ दृढ़मना महापुरुष थे किन्तु रावण दुराभिलाषी था, मनचलेपन को लिये हुए था। श्री रामचन्द्र जी की शक्ति और हथियारों का प्रयोग सदा विश्वकल्याण के लिए हुआ करता था। किन्तु रा

अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र

अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र   जो अहिंसक होता है वह स्वयं तो वीर बहादुर होता है। उसे किसी से भी किसी प्रकार का डर नहीं होता। परन्तु उसने जिन बुजदिलों या बाल वृद्ध आदि लोगों को संभाल रखने का संकल्प ले रखा है, उन लोगों पर यदि कोई मनचला आदमी अनुचित आक्रमण करके गड़बड़ी मचाना चाहता है तो उसे सहन कर लेना उसके आत्मत्व से बाहर की बात हो जाती है। अतः वह उसे उस गड़बड़ी को करने से रोकता है कहता सुनता है। यदि करने सुनने से मान जावे जब तो ठीक ही है। और नहीं तो फिर बल प्रयोग द्वारा भी उसका उसे प्

जैन कौन होता है?

जैन कौन होता है?   ‘पक्षपातं जयतीति जिनः जिन एव जैनः' अर्थात् कोई भी महाशय यह तेरा है और यह मेरा, यह अच्छा है और यह बुरा। इस प्रकार के विच्छिन्न भावों को अपने मन में से निकाल बाहर कर देता है वें जो सदा सब तरफ सबके साथ एक-सी माध्यमिक व्यापक दृष्टि से देखने लगता है वह जैन कहलाता है। यह दुनियादारी का पामर प्राणी अनाया ही अपने शरीर और इन्द्रियों के सम्पोषण रूप स्वार्थ में संलग्न पाया जाता है जो कि शरीर नश्वर है। तथापित आत्मा अविनश्वर, किन्तु इसकी विचारधारा इस और नहीं जाती। यह तो अपनी मोटी
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