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  1. अब जीवों का आधार बतलाते हुए पहले अधोलोक का वर्णन करते हैं- रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातम:प्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः ॥१॥ अर्थ - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातम:प्रभा ये सात भूमियाँ नीचे-नीचे हैं। ये भूमियाँ घनोदधि वातवलय के आधार हैं; घनोदधि वातवलय घन वातवलय के आधार है, घन वातवलय तनु वातवलय के आधार है और तनु वातवलय आकाश के आधार है। तथा आकाश अपने ही आधार है; क्योंकि आकाश सबसे बड़ा और अनन्त है। इसलिए उसका आधार कोई दूसरा नहीं हो सकता। English - The lower world consists of seven infernal earths namely Ratnaprabha, Sharkaraprabha, Baluprabha, Pankaprabha, Dhumaprabha, Tamahprabha and Mahatamahprabha, one below the other, surrounded by three kinds of air and space. विशेषार्थ - रत्नप्रभा नाम की पहली पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है। उसकी मोटाई के तीन भाग हैं। ऊपर का खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है। उसके नीचे का पंक भाग चौरासी हजार योजन मोटा है और उसके नीचे का अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है। खर भाग के ऊपर और नीचे एक एक हजार योजन छोड़ कर बीच के चौदह हजार मोटे और एक राजू प्रमाण लम्बे चौड़े भागों में राक्षसों के सिवा शेष सात प्रकार के व्यन्तर और असुर कुमारों के सिवा शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव रहते हैं। पंक भाग में राक्षस और असुर कुमार रहते हैं। और अब्बहुल भाग में प्रथम नरक है, जिसमें नारकी रहते हैं। पहली पृथ्वी के नीचे कुछ कम एक राजू अन्तराल छोड़ कर दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी है, उसकी मोटाई बत्तीस हजार योजन है। उसके नीचे कुछ कम एक राजू अन्तराल छोड़कर तीसरी बालुका प्रभा पृथ्वी है। वह अट्ठाईस हजार योजन मोटी है। उसके नीचे कुछ कम राजू अन्तर देकर चौथी पृथ्वी चौबीस हजार योजन मोटी है। इसी तरह नीचे नीचे कुछ कमएक राजू का अन्तर देकर बीस हजार योजन मोटी पाँचवीं पृथ्वी और सोलह हजार योजन मोटी छठी पृथ्वी है। फिर कुछ कम एक राजू का अन्तर देकर आठ हजार योजन मोटी सातवीं पृथ्वी है। सातवीं पृथ्वी से एक राजू नीचे लोक का अन्त है। इन सातों पृथ्वियों की लम्बाई और चौड़ाई लोक के अन्त तक है। जिस पृथ्वी का जैसा नाम है वैसी ही उसमें प्रभा है।
  2. अब आगे यह बतलाते हैं कि कौन कौन जीव पूरी आयु भोग कर ही मरण करते है- औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥५३॥ अर्थ - औपपादिक अर्थात् देव नारकी, चरमोत्तम-देह अर्थात् उसी भव से मोक्ष जाने वाले और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिया जीव पूरी आयु भोगकर ही शरीर छोड़ते हैं, विष, शस्त्र वगैरह से इनकी आयु नहीं छिदती। इसके सिवा शेष जीवों की आयु का कोई नियम नहीं है। English - The lifetime of living beings born in special beds, those with absolute superior bodies and those with innumerable years, cannot be cut short. विशेषार्थ - कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यचों की भुज्यमान आयु की उदीरणा होती है। उदीरणा के होने से आयु की स्थिति जल्दी पूरी हो कर अकाल में ही मरण हो जाता है। जैसे आम वगैरह को पाल देकर समय से पहले ही पका लिया जाता है। एक उदाहरण के द्वारा इसे स्पष्ट किया जाता है किसी जीव ने मनुष्यायु का बन्ध किया और उसकी स्थिति सौ वर्ष की बाँधी। सो आयु-कर्म का जितना प्रदेश बन्ध किया, सौ वर्ष के जितने समय होते हैं, उतने समयों में उन कर्म परमाणुओं की निषेक रचना तत्काल हो गयी। जब वह मर कर मनुष्य पर्याय में उत्पन्न हुआ तो प्रति समय आयु कर्म का एक एक निषेक उदय में आ कर खिरने लगा। यदि इसी तरह क्रम से एक एक समय में एक एक आयु का निषेक उदय में आता रहता तो सौ वर्ष में जा कर पूरे निषेक खिरते और इस तरह वह जीव पूरे सौ वर्ष तक मनुष्य पर्याय में रह कर मरण करता। किन्तु बावन वर्ष की उम्र तक तो एक-एक समय में एक-एक निषेक की निर्जरा होती रही। बाद में पापकर्म का उदय आ जाने से किसी ने उसे जहर दे दिया अथवा उसने स्वयं जहर खा लिया, या कोई भयानक रोग हो गया, अथवा किसी ने मार डाला तो अड़तालीस वर्षों में उदय आने वाले निषेकों की अन्तर्मुहूर्त में उदीरणा हो जाती है। यह अकाल मरण कहलाता है। किन्तु यदि किसी ने बावन वर्ष की ही आयु बाँधी हो और वह बावन वर्ष की आयु पूरी करके मरे तो वह अकाल मरण नहीं है। शंका - जैसे कर्मभूमि के मनुष्यों और तिर्यञ्चों की आयु घट जाती है वैसे ही आयु बढ़ भी सकती है या नहीं ? समाधान - जो आयु हम भोग रहे हैं, वह बढ़ नहीं सकती, क्योंकि उस आयु का बन्ध पूर्व जन्म में हो चुका है। अतः उसमें अब बढ़ने की गुंजाइश नहीं है, हाँ, घट जरूर सकती है। ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
  3. शेषास्त्रिवेदाः॥५२॥ अर्थ - नारकी, देव तथा सम्मुर्छन जीवों के सिवा शेष जीव अर्थात् गर्भज तिर्यञ्च और मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं। इतना विशेष है कि भोगभूमि तथा म्लेच्छ-खण्ड के मनुष्यों में स्त्री-पुरुष वेद ही होते हैं। English - The rest of the transmigratory souls can have any of the three sexes.
  4. न देवाः॥५१॥ अर्थ - देव नपुंसक लिंग वाले नहीं होते। देवगति में पुरुष वेद और स्त्री वेद, दो ही वेद होते हैं। English - The celestial beings are not of neuter sex.
  5. इस तरह चौदह सूत्रों के द्वारा पाँच शरीरों का कथन करके अब सूत्रकार लिंग का कथन करते हैं- नारकसम्मूर्च्छिनो नपुंसकानि॥५०॥ अर्थ - नारकी और सम्मूर्छन जीव नपुंसक लिंग वाले ही होते हैं। English - The infernal beings and the spontaneously generated are of the neuter sex.
  6. आगे आहारक शरीर का स्वरूप कहते हैं- शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥४९॥ अर्थ - आहारक शरीर शुभ है, विशुद्ध है, व्याघात रहित है और प्रमत्तसंयत मुनि के ही होता है। English - The projectable body, which is auspicious and pure and without impediment, originates in the ascetic of the sixth stage only for clearing any doubts. विशेषार्थ - आहारक शरीर का रंग सफेद, और ऊँचाई एक हाथ होती है। समचतुरस्र संस्थान होता है, धातु उपधातु से रहित होता है। न किसी से रुकता है और न किसी को रोकता है। प्रमत्त-संयत मुनि के मस्तक से उत्पन्न होता है। कभी तो ऋद्धि का सद्भाव जानने के लिए आहारक शरीर की रचना होती है। कभी सूक्ष्म पदार्थ का निर्णय करने के लिए सो मुनि के मस्तक से निकल कर वह केवली भगवान् के पास जाता है और सूक्ष्म पदार्थ का निर्णय करके अन्तर्मुहूर्त में लौटकर मुनि के शरीर में ही प्रवेश कर जाता है, तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से भी निकलता है।
  7. तप के प्रभाव से वैक्रियिक शरीर ही होता है या अन्य शरीर भी होते हैं ? इस आशंका का समाधान करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- तैजसमपि ॥४८॥ अर्थ - तैजस शरीर भी लब्धिप्रत्यय होता है। English - The luminous body is also caused by attainment. विशेषार्थ - तैजस शरीर दो प्रकार का होता है- एक शरीर से निकलकर बाहर जाने वाला और दूसरा शरीर में ही रहकर उसको कान्ति देने वाला, जो सब संसारी जीवों के पाया जाता है। निकलने वाला तैजस शुभ भी होता है और अशुभ भी। किसी क्षेत्र के लोगों को रोग, दुर्भिक्ष वगैरह से पीड़ित देखकर यदि तपस्वी मुनि के हृदय में अत्यन्त करुणा उत्पन्न हो जाये तो दाहिने कन्धे से शुभ तैजस निकलकर बारह योजन क्षेत्र के मनुष्यों का दु:ख दूर कर पुनः मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। और यदि तपस्वी मुनि किसी क्षेत्र के मनुष्यों पर अत्यन्त क्रुद्ध हो जाते हैं, तो उनके तप के प्रभाव से बाएँ कन्धे से सिन्दूर के समान लाल अशुभ तैजस निकलता है और उस क्षेत्र में जाकर बारह योजन के भीतर के जीवों को जलाकर राख कर देता है। पीछे मुनि को भी जला डालता है।
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