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  1. आगे जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र बतलाते हैं- भरत-हैमवत-हरि-विदेह-रम्यक-हैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ अर्थ - उस जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। English - Bharata, Haimavata, Hari, Videha, Ramyaka, Hairanyavata and Airavata are the seven regions. विशेषार्थ - भरत क्षेत्र के उत्तर में हिमवन् पर्वत है, पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में लवण समुद्र है। भरत क्षेत्र के बीच में विजयार्ध पर्वत है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है तथा पच्चीस योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है। भूमि से दस योजन ऊपर जाने पर उस विजयार्ध पर्वत के दक्षिण तथा उत्तर में दो श्रेणियाँ हैं, जिनमें विद्याधरों के नगर बसे हुए हैं। वहाँ से और दस योजन जाने पर पर्वत के ऊपर दोनों ओर पुनः दो श्रेणियाँ हैं, जिनमें व्यन्तर देव बसते हैं। वहाँ से पाँच योजन ऊपर जाने पर विजयार्ध पर्वत का शिखर तल है, जिस पर अनेक कूट बने हुए हैं। इस पर्वत में दो गुफाएँ हैं, जो आर-पार हैं। हिमवन् पर्वत से गिरकर गंगा-सिन्धु नदी इन्हीं गुफाओं की देहली के नीचे से निकल कर दक्षिण भरत में आती है। विजयार्ध पर्वत तथा इन दोनों नदियों के कारण ही भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं। तीन खण्ड विजयार्ध के उत्तर में हैं और तीन खण्ड दक्षिण में है। दक्षिण के तीन खण्डों के बीच का खण्ड आर्य खण्ड कहलाता है। शेष पाँचों म्लेच्छ खण्ड हैं। उक्त गुफाओं के द्वारा ही चक्रवर्ती उत्तर के तीन खण्डों को जीतने जाता और लौटकर वापस आता है। इसी से इस पर्वत का नाम विजयार्ध है क्योंकि इस तक पहुँचने पर चक्रवर्ती की आधी विजय हो जाती है। उत्तर के तीन खण्डों के बीच के खण्ड में वृषभाचल पर्वत है, उस पर चक्रवर्ती अपना नाम खोद देता है। भरत क्षेत्र की तरह ही अन्त का ऐरावत क्षेत्र भी है। उसमें भी विजयार्ध पर्वत वगैरह हैं। तथा विजयार्ध पर्वत और रक्ता-रक्तोदा नदी के कारण उसके भी छह खण्ड हो गये हैं। सब क्षेत्रों के बीच में विदेहक्षेत्र है। यह क्षेत्र निषध और नीलपर्वत के मध्य स्थित है। वहाँ मनुष्य आत्मध्यान के द्वारा कर्मों को नष्ट करके देह के बन्धन से सदा छूटते रहते हैं। इसी से उसका ‘विदेह' नाम पड़ा हुआ है। उस विदेह क्षेत्र के बीच में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु के पूर्व दिशा वाले भाग को पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा वाले भाग को पश्चिम विदेह कहते हैं। नील पर्वत से निकलकर सीता नदी पूर्व विदेह के मध्य से होकर बहती है और निषध पर्वत से निकलकर सीतोदा नदी पश्चिम विदेह के मध्य से होकर बहती है। इससे इन नदियों के कारण पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह के भी दो-दो भाग हो गये हैं। इस तरह विदेह के चार भाग हैं। प्रत्येक भागों में आठ-आठ उप विभाग हैं। यह प्रत्येक उपविभाग एक-एक स्वतन्त्र देश है। अतः विदेहक्षेत्र में ८x४=३२ देश हैं, वे सब विदेह कहलाते हैं। सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है। जिसमें एक हजार योजन तो पृथ्वी के अन्दर उसकी नींव है और निन्यानवे हजार योजन पृथ्वी के ऊपर उठा हुआ है। उसके चारों ओर पृथ्वी पर भद्रशाल नाम का वन है। उसमें पाँच सौ योजन ऊपर जाने पर सुमेरु पर्वत के चारों ओर की कटनी पर दूसरा नन्दन वन है। नन्दन वन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाकर पर्वत के चारों ओर की कटनी पर तीसरा सौमनस वन है। सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन ऊँचाई पर पर्वत का शिखर तल है। उसके बीच में चालीस योजन ऊँची चूलिका है और चूलिका के चारों ओर पाण्डुक वन है। इस वन में चारों दिशाओं में चार शिलायें हैं। उन शिलाओं पर पूर्व विदेह, पश्चिम विदेह, भरत और ऐरावत क्षेत्र में जन्म लेने वाले तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
  2. तत्त्वार्थसूत्र आगे जम्बूद्वीप का आकार वगैरह बतलाते हैं- तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः॥९॥ अर्थ - उन सब द्वीप-समुद्रों के बीच में जम्बूद्वीप है। यह जम्बूद्वीप सूर्य मण्डल की तरह गोल है और उसका विस्तार एक लाख योजन है। उसके बीच में मेरुपर्वत है। English - Jambudvipa continent, which is round and one hundred thousand yojanas in diameter, is at the center of these oceans and the continents. Mount Meru is at the center of this continent like the navel in the body. विशेषार्थ - उत्तर-कुरु भोगभूमि में एक जम्बूवृक्ष (जामुन का पेड़) है। वह वृक्ष पार्थिव है, हरा-भरा वनस्पतिकायिक नहीं है। इसी से वह अनादिनिधन है। उसी के कारण यह द्वीप जम्बूद्वीप कहा जाता है।
  3. आगे इन द्वीप समुद्रों का विस्तार वगैरह बतलाते हैं द्विर्द्धिर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः॥८॥ अर्थ - इन द्वीप और समुद्रों का विस्तार, आगे आगे दूना दूना होता गया है तथा प्रत्येक द्वीप और समुद्र अपने से पूर्व के द्वीप समुद्रों को घेरे हुए चूड़ी के आकार का है। English - Each of the continents is encircled by an ocean and each ocean is encircled by a continent. Each continent and ocean is circular and has a diameter twice that of the immediately preceding ocean or continent. अर्थात् पहले द्वीप का जितना विस्तार है, उससे दूना विस्तार पहले समुद्र का है। उससे दूना विस्तार दूसरे द्वीप का है और उससे दूना विस्तार दूसरे समुद्र का है। इस तरह द्वीप से दूना विस्तार समुद्र का है और समुद्र से दूना विस्तार आगे के द्वीप का है। तथा जम्बूद्वीप को लवण समुद्र घेरे हुए हैं, लवण समुद्र को धातकीखण्ड घेरे हुए है, धातकीखण्ड को कालोदधि समुद्र घेरे हुए है। इस तरह जम्बूद्वीप के सिवा शेष सब द्वीप और समुद्र चूड़ी के आकार वाले हैं।
  4. इसी से मध्य लोक का वर्णन प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार पहले इसी बात की चर्चा करते हैं जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः॥७॥ अर्थ - मध्यलोक में जम्बूद्वीप और लवण समुद्र वगैरह अनेक द्वीप और समुद्र हैं। English - Jambudvipa etc. and Lavanoda etc. are the auspicious names of the continents and the oceans respectively. अर्थात् पहला द्वीप जम्बूद्वीप है और उसके बाद पहला समुद्र लवणसमुद्र है। लवण समुद्र के बाद दूसरा द्वीप धातकीखण्ड है। और धातकी खण्ड के बाद दूसरा समुद्र कालोदधि है। कालोदधि के बाद तीसरा द्वीप पुष्करवर है और उसके बाद तीसरे समुद्र का नाम भी पुष्करवर है। इसके आगे जो द्वीप का नाम है, वही उसके बाद के समुद्र का नाम है। सबसे अन्तिम द्वीप और समुद्र का नाम स्वयंभूरमण है।
  5. अब नारकियों की आयु बतलाते हैं- तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां पर स्थितिः ॥६॥ अर्थ - नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयु पहली पृथ्वी में एक सागर, दूसरी में तीन सागर, तीसरी में सात सागर, चौथी में दश सागर, पाँचवीं में सत्रह सागर, छठी में बाईस सागर और सातवीं में तैंतीस सागर होती है। English - The maximum lifespan of the infernal beings in the first to seventh infernal earth is one, three, seven, ten, seventeen, twenty-two and thirty-three sagar respectively. इस तरह अधोलोक का वर्णन किया। आगे मध्य लोक का वर्णन करते हैं। मध्य लोक को तिर्यग्लोक भी कहते हैं, क्योंकि स्वयंभूरमण समुद्र तक एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक् (आजू-बाजू) रूप से स्थित हैं। इस तरह अधोलोक का वर्णन किया। आगे मध्य लोक का वर्णन करते हैं। मध्य लोक को तिर्यग्लोक भी कहते हैं, क्योंकि स्वयंभूरमण समुद्र तक एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक् (आजू-बाजू) रूप से स्थित हैं।
  6. दुख के और भी कारण बतलाते हैं संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्-चतुर्थ्याः॥५॥ अर्थ - संक्लेश परिणाम वाले जो अम्बावरीष जाति के असुरकुमार देव हैं, वे तीसरी पृथ्वी तक जाकर नारकियों को दुःख देते हैं, उन्हें आपस में लड़ाते हैं। English - Pain is also caused by the incitement of malevolent asura-kumaras prior to the fourth earth i.e. in the first to the third earth.
  7. परस्परोदीरित-दु:खाः॥४॥ अर्थ - इसके सिवा नारकी जीव आपस में ही एक-दूसरे को दुःख देते हैं। English - They cause pain and suffering to one another. विशेषार्थ - जैसे यहाँ कुत्तों में जातिगत वैमनस्य देखा जाता है, वैसे ही नारकी जीव भी कुअवधि ज्ञान के द्वारा दूर से ही नारकियों को देखकर और उनको अपने दुःख का कारण जानकर दुःखी होते हैं। फिर निकट आने पर परस्पर एक-दूसरे को देखने से उनका क्रोध भड़क उठता है। और अपनी विक्रिया के द्वारा बनाये गये अस्त्र-शस्त्रों से आपस में मार काट करने लगते हैं। इस तरह एक-दूसरे के टुकड़े-टुकड़े कर डालने पर भी उनका मरण अकाल में नहीं होता।
  8. नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदना विक्रियाः ॥३॥ अर्थ - नारकी जीवों के सदा अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर वेदना और अशुभतर विक्रिया होती है। English - The thought coloration, thought activity, body, suffering, and shape of the body are incessantly more and more inauspicious in succession among the infernal beings in the first infernal earth to the seventh infernal earth. विशेषार्थ - पहली और दूसरी पृथ्वी के नारकियों के कापोत लेश्या होती है, तीसरी में ऊपर के बिलों में कापोत और नीचे के बिलों में नील लेश्या होती है। चौथी में नील लेश्या ही है। पाँचवीं में ऊपर के बिलों में नील और नीचे के बिलों में कृष्ण लेश्या होती है। छठी में कृष्ण लेश्या ही है और सातवीं में परम कृष्ण है। इस तरह नीचे - नीचे अधिक - अधिक अशुभ लेश्या होती है। उनका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दों का परिणमन भी वहाँ के क्षेत्र की विशेषता के निमित्त से अति दु:ख का ही कारण होता है। उनका शरीर भी अत्यन्त अशुभ होता है, हुण्डक संस्थान के होने से देखने में बड़ा भयंकर लगता है। पहली पृथ्वी के अन्तिम पटल में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ, छह अँगुल होती है। नीचे-नीचे प्रत्येक पृथ्वी में दूनी-दूनी ऊँचाई होती जाती है। इस तरह सातवें नरक में पाँच सौ धनुष ऊँचाई होती है। तथा शीत-ऊष्ण की भयंकर वेदना भी है। पहली से लेकर चौथी पृथ्वी तक सब बिल गर्म ही हैं। पाँचवीं में ऊपर के दो लाख बिल गर्म हैं और नीचे के एक लाख बिल ठण्डे हैं। छठी और सातवीं के बिल भयंकर ठण्डे ही हैं। ये नारकी विक्रिया भी बुरी से बुरी ही करते हैं।
  9. तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ॥२॥ अर्थ - उन रत्नप्रभा आदि भूमियों में नरकों की संख्या इस प्रकार है - पहली पृथ्वी के अब्बहुल भाग में तीस लाख, दूसरी पृथ्वी में पच्चीस लाख, तीसरी पृथ्वी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं पृथ्वी में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवीं में पाँच नरक अर्थात् बिल हैं। नरकवास (कुल ८४ लाख बिल) हैं। English - In these earth there are thirty lakh, twenty-five lakh, fifteen lakh, ten lakh, three lakh, one lakh less five and only five infernal abodes respectively. विशेषार्थ - जैसे पृथ्वी में गड्डे होते हैं, वैसे ही नारकियों के बिल होते हैं। कुछ बिल संख्यात योजन और कुछ असंख्यात योजन लम्बे चौड़े हैं। पहले नरक की पृथ्वी में तेरह पटल हैं और नीचे नीचे प्रत्येक पृथ्वी में दो दो पटल कम होते गये हैं। अर्थात् दूसरी में ग्यारह, तीसरी में नौ, चौथी में सात,पाँचवीं में पाँच, छठी में तीन और सातवीं में एक ही पटल है। इस तरह कुल पृथ्वियों में उनचास पटल हैं, जो नीचे-नीचे हैं। इन पटलों में इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इस तरह तीन प्रकार के बिल होते हैं। प्रत्येक पटल के बीच में जो बिल है, उसे इन्द्रक बिल कहते हैं। उस इन्द्रक बिल की चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में जो पंक्ति-वार बिल हैं, वे श्रेणीबद्ध कहे जाते हैं। और दिशा-विदिशाओं के अन्तराल में बिना क्रम के जो बिल हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। प्रथम पटल की चारों दिशाओं में उनचास-उनचास और विदिशाओं में अड़तालीसअड़तालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं। आगे, नीचे-नीचे प्रत्येक पटल की चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में एक-एक बिल घटता जाता है। इस तरह प्रत्येक पटल में, आठ-आठ बिल घटते जाते हैं। घटते-घटते सातवें नरक के पटल में, जो कि उनचासवां पटल है, केवल दिशाओं में ही एकएक बिल है। विदिशाओं में बिल नहीं है। अतः वहाँ केवल पाँच ही बिल हैं। सातों नरकों में कुल बिल चौरासी लाख हैं। जिनमें उनचास इन्द्रक बिल और नौ हजार छह सौ चार श्रेणीबद्ध बिल हैं। शेष तिरासी लाख नब्बे हजार तीन सौ सैंतालीस प्रकीर्णक बिल हैं। उनचास इन्द्रक बिलों में से प्रथम नरक का पहला इन्द्रक पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाला है जो अढ़ाईद्वीप के बराबर है, और उसी के ठीक नीचे है। नीचे क्रम से घटते घटते सातवें नरक का इन्द्रक एक लाख योजन विस्तार वाला है। सभी इन्द्रक संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, सभी श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और प्रकीर्णकों में से कुछ संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। और कुछ असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं।
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