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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 2 : सूत्र 32

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    Vidyasagar.Guru

    आगे योनि के भेद बतलाते हैं-

     

    सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥३२॥

     

    अर्थ- सचित्त, शीत, संवृत, इनके उल्टे अचित्त, उष्ण, विवृत और इन तीनों का मेल अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतविवृत, ये योनि के नौ भेद होते हैं। जीवों के उत्पन्न होने के स्थान विशेष को योनि कहते हैं।

     

    English - Living matter, cold, covered, their opposites and their combinations are the nuclei severally.

     

    जो योनि चेतना सहित हो उसे सचित्त योनि कहते हैं, अचेतन हो तो अचित्त कहते हैं, और दोनों रूप हो तो सचित्ताचित्त योनि कहते हैं। शीत स्पर्श रूप हो तो शीत योनि कहते हैं, उष्ण स्पर्श रूप हो तो उष्ण योनि कहते हैं, और दोनों रूप हो तो शीतोष्ण योनि कहते हैं। योनि स्थान ढका हुआ हो, स्पष्ट दिखायी न देता हो तो उसे संवृत योनि कहते हैं। स्पष्ट दिखायी देता हो तो उसे विवृत योनि कहते हैं और कुछ ढका हुआ तथा कुछ खुला हुआ हो तो उसे संवृत-विवृत्त कहते हैं। योनि और जन्म में आधार और आधेय का भेद है। योनि आधार है और जन्म आधेय है; क्योंकि सचित्त आदि योनियों में जीव सम्मूर्छन आदि जन्म लेकर उत्पन्न होता है।

     

    विशेषार्थ - उदाहरण के रूप में यहाँ कुछ जीवों की योनियाँ बतलाते हैं उक्त नौ योनियों में से देव, नारकियों की योनि अचित्त, शीत और उष्ण तथा संवृत होती है। गर्भ जन्म वालों की योनि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण तथा संवृतविवृत होती है। सम्मूर्छन जन्म वालों की योनि सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण होती है। इतना विशेष है कि तेजस्कायिक जीवों की उष्ण योनि ही होती है। तथा एकेन्द्रियों की संवृत योनि और विकलेन्द्रियों की विवृत योनि होती है। इस तरह सामान्य से नौ योनियाँ होती हैं और विस्तार से चौरासी लाख योनियाँ कही हैं।


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