Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 8 : सूत्र 11

       (0 reviews)

    Vidyasagar.Guru

    अब नामकर्म की प्रकृतियाँ कहते हैं-

     

    गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्ववास-विहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वरशुभ-सूक्ष्म-पर्याप्ति-स्थिरादेययशः कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥११॥

     

     

    अर्थ - गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति तथा प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय, यश:कीर्ति और इन दसों के प्रतिपक्षी अर्थात् साधारण शरीर, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अशुभ, बादर, अपर्याप्ति, अस्थिर, अनादेय और अयश:कीर्ति एवं तीर्थङ्कर ये बयालीस भेद नामकर्म के हैं। इन्हीं के अवान्तर भेदों को मिलाने से नामकर्म के तिरानवें भेद हो जाते हैं।

     

    English - The name (physique-making) karmas comprise the state of existence, the class, the body, the chief and secondary parts, formation, binding (union), molecular interfusion, structure, joint, touch, taste, odor, color, movement after death, neither heavy body falls down nor light body flies away, self-annihilation, annihilation by others, emitting warm splendour, emitting cool lustre, respiration, gait, individual body, mobile being, amiability, a melodious voice, beauty of form, minute body, complete development of the organs, firmness, lustrous body, glory and renown, and the opposites of these (commencing from individual body), and Tirthankaratva.

     

    विशेषार्थ - जिसके उदय से जीव दूसरे भव में जाता है, उसे गति नामकर्म कहते हैं। उसके चार भेद हैं- नरक गति, तिर्यग्गति, मनुष्य गति और देव गति। जिसके उदय से जीव के नारक भाव हों वह नरक गति है। ऐसा ही अन्य गतियों का भी स्वरूप जानना। उन नरकादि गतियों में अव्यभिचारी समानता के आधार पर जीवों का एकीकरण, जिसके उदय से हो वह जाति नामकर्म है। उसके पाँच भेद हैं एकेन्द्रिय जाति नाम, दो इन्द्रिय जाति नाम, तेइन्द्रिय जाति नाम, चौइन्द्रिय जाति नाम और पंचेन्द्रिय जाति नाम। जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है, वह एकेन्द्रिय जाति नाम है। इसी तरह शेष में भी लगा लेना।

     

    जिसके उदय से जीव के शरीर की रचना होती है, वह शरीर नाम है। उसके पाँच भेद हैं- औदारिक शरीर नाम, वैक्रियिक शरीर नाम, आहारक शरीर नाम, तैजस शरीर नाम और कार्मण शरीर नाम। जिसके उदय से औदारिक शरीर की रचना हो. वह औदारिक शरीर नाम कर्म है। इस तरह शेष को भी समझ लेना। जिसके उदय से अंग उपाँग का भेद प्रकट हो, वह अंगोपांग नामकर्म है। उसके तीन भेद हैं- औदारिक शरीर अंगोपांग नाम, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग नाम, आहारक शरीर अंगोपांग नाम।

     

    जिसके उदय से अंग उपांग की रचना हो, वह निर्माण नामकर्म है। इसके दो भेद हैं- स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । निर्माण नामकर्म जाति के उदय के अनुसार चक्षु आदि की रचना अपने-अपने स्थान में तथा अपने अपने प्रमाण में करता है। शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किये हुए पुद्गलों का परस्पर में मिलन, जिस कर्म के उदय से होता है, वह बन्धन नामकर्म है। जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के प्रदेशों का परस्पर में छिद्र रहित एकमेकपना होता है, वह संघात नाम कर्म है।

     

    जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकृति बनती है, वह संस्थान नामकर्म है। उसके छह भेद हैं-समचतुरस्त्र संस्थान, न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, हुंडक संस्थान। जिसके उदय से ऊपर, नीचे तथा मध्य में शरीर के अवयवों की समान विभाग लिए, रचना होती है, उसे समचतुरस्र संस्थान नाम कहते हैं। जिसके उदय से नाभि के ऊपर का भाग भारी और नीचे का पतला होता है, जैसे वट का वृक्ष, उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान नाम कहते हैं। स्वाति यानि बाम्बी की तरह नाभि से नीचे का भाग भारी और ऊपर का दुबला जिस कर्म के उदय से हो, वह स्वाति संस्थान नाम है। जिसके उदय से कुबड़ा शरीर हो, वह कुब्जक संस्थान नाम है। जिसके उदय से बौना शरीर हो, वह वामन संस्थान नाम है। जिसके उदय से विरूप अंगोपांग हों, वह हुंडक संस्थान नाम है।

     

    जिसके उदय से हड्डियों के बन्धन में विशेषता हो, वह संहनन नामकर्म है। उसके भी छह भेद हैं- वज्रवृषभनाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलित संहनन और असंप्राप्तासृपाटिका संहनन नाम। जिसके उदय से वृषभ यानि वेष्टन, नाराच यानि कीलें और संहनन यानि हड्डियाँ वज्र की तरह अभेद्य हों, वह वज्रवृषभ नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से कील और हड्डियाँ वज्र की तरह हों और वेष्टन सामान्य हो, वह वज्रनाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों के जोड़ों में कीलें हों वह नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों की संधियाँ अर्ध कीलित हों, वह अर्धनाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ परस्पर में ही कीलित हों, अलग से कील न हो, वह कीलित संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ केवल नस, स्नायु वगैरह से बन्धे हों, वह असंप्राप्तासृपाटिका संहनन है।

     

    जिसके उदय से शरीर में स्पर्श प्रकट हो, वह स्पर्श नामकर्म है। उसके आठ भेद हैं-कर्कश नाम, मृदु नाम, गुरु नाम, लघु नाम, स्निग्ध नाम, रूक्ष नाम, शीत नाम, उष्ण नाम। जिसके उदय से शरीर में रस प्रकट हो, वह रस नामकर्म है। उसके पाँच भेद हैं-तिक्त नाम, कटुक नाम, कषाय नाम, आम्ल नाम, मधुर नाम। जिसके उदय से शरीर में गन्ध प्रकट हो, वह गन्ध नाम है। उसके दो भेद हैं- सुगन्ध नाम और दुर्गन्ध नामकर्म।

     

    जिसके उदय से शरीर में वर्ण यानि रंग प्रकट हो, वह वर्ण नाम है। उसके पाँच भेद हैं-कृष्ण वर्णनाम, शुक्ल वर्णनाम, नील वर्णनाम, रक्त वर्णनाम और हरित वर्णनाम। जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार बना रहे, वह आनुपूर्व्य नाम कर्म है। उसके चार भेद हैं-नरक गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम और देवगति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम। जिस समय मनुष्य या तिर्यञ्च मर करके नरक गति की ओर जाता है, तो मार्ग में उसकी आत्मा के प्रदेशों का आकार वैसा ही बना रहता है, जैसा उसके पूर्व शरीर का आकार था, जिसे वह छोड़कर आया है। यह नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म का कार्य है। इसी तरह अन्य आनुपूर्वियों का कार्य जानना। आनुपूर्वी कर्म का उदय विग्रह गति में ही होता है।

     

    जिसके उदय से शरीर न तो लोहे के गोले की तरह भारी हो और न आक की रुई की तरह हल्का हो, वह अगुरुलघु नामकर्म है। जिसके उदय से जीव स्वयं ही अपना घात करके मर जाये, वह उपघात नामकर्म है। जिसके उदय से दूसरे के द्वारा चलाये गये शस्त्र आदि से अपना घात हो, वह परघात नामकर्म है। जिसके उदय से आतपकारी शरीर हो, वह आतप नामकर्म है। इसका उदय सूर्य के बिम्ब में जो बादर पर्याप्त पृथ्वी कायिक जीव होते हैं, उन्हीं के होता है। जिसके उदय से उद्योत रूप शरीर हो, वह उद्योत नामकर्म है। इसका उदय चन्द्रमा के बिम्ब में रहने वाले जीवों के तथा जुगनु वगैरह के होता है।

     

    जिसके उदय से उच्छ्वास हो, वह उच्छ्वास नामकर्म है। विहाय यानी आकाश। आकाश में गमन जिस कर्म के उदय से होता है वह विहायोगति नामकर्म है। इसके दो भेद हैं-प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति । एक जीव के ही भोगने योग्य होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। जिसके उदय से बहुत से जीवों के भोगने योग्य साधारण शरीर होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है। अर्थात् साधारण शरीर नामकर्म के उदय से एक शरीर में अनन्त जीव एक अवगाहना रूप होकर रहते हैं। वे सब एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक साथ ही मरते हैं और एक साथ ही श्वास वगैरह लेते हैं। उन्हें साधारण वनस्पति कहते हैं।

     

    जिसके उदय से द्वीन्द्रिय आदि में जन्म हो, उसे त्रसनामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से एकेन्द्रियों में जन्म हो, वह स्थावर नामकर्म है। जिसके उदय से दूसरे जीव अपने से प्रीति करें वह सुभग नामकर्म है। जिसके उदय से सुन्दर सुरूप होने पर भी दूसरे अपने से प्रीति न करें अथवा घृणा करें, वह दुर्भग नामकर्म है। जिसके उदय से स्वर मनोज्ञ हो, जो दूसरों को प्रिय लगे, वह सुस्वर नामकर्म है। जिसके उदय से अप्रिय स्वर हो, वह दुस्वर नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों, वह शुभ नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों, वह अशुभ नामकर्म है। जिसके उदय से सूक्ष्म शरीर हो जो किसी से न रुके, वह सूक्ष्म नामकर्म है। जिसके उदय से स्थूल शरीर हो, वह बादर नामकर्म है।

     

    जिसके उदय से आहार आदि पर्याप्ति की पूर्णता हो, वह पर्याप्ति नामकर्म है। उसके छह भेद हैं- आहार पर्याप्ति नाम, शरीर पर्याप्ति नाम, इन्द्रिय पर्याप्ति नाम, प्राणापान पर्याप्ति नाम, भाषा पर्याप्ति नाम और मनः पर्याप्ति नाम। जिसके उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता नहीं होती, वह अपर्याप्ति नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर के धातु उपधातु स्थिर होते हैं जिससे कठिन श्रम करने पर भी शरीर शिथिल नहीं होता, वह स्थिर नामकर्म है।

    जिसके उदय से धातु उपधातु स्थिर नहीं होते, जिससे थोड़ा-सा श्रम करने से ही या जरा सी गर्मी-सर्दी लगने से ही शरीर म्लान हो जाता है, वह अस्थिर नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर प्रभासहित हो वह आदेय नामकर्म है और जिसके उदय से शरीर प्रभा रहित हो, वह अनादेय नामकर्म है।

     

    जिसके उदय से संसार में जीव का यश फैले, वह यशःकीर्ति नामकर्म है और जिसके उदय से संसार में अपयश फैले, वह अयशस्कीर्ति नामकर्म है। जिसके उदय से अपूर्व प्रभावशाली अर्हन्त पद के साथ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन होता है, वह तीर्थंकर नामकर्म है। इस तरह नामकर्म की बयालीस प्रकृतियों के ही तिरानवे भेद हो जाते हैं।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...