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  1. अब मुक्त जीवों में परस्पर में भेदव्यवहार का कारण बतलाते हैं- क्षेत्र-काल-गति-लिंग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधितज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्प-बहुत्वतः साध्याः ॥९॥ अर्थ - क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व-इन बारह अनुयोगों के द्वारा सिद्धों में भेद का विचार करना चाहिए। English - The emancipated souls can be differentiated with reference to the region, time, state, sign, type of Arhant, conduct, self-enlightenment, enlightened by others, knowledge, stature, interval, number, and numerical comparison. विशेषार्थ - प्रत्युत्पन्न नय और भूतप्रज्ञापन नय की विवक्षा से बारह अनुयोगों का विवेचन किया जाता है। जो नय केवल वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है अथवा यथार्थ वस्तुस्वरूप को ग्रहण करता है, उसे प्रत्युत्पन्न नय कहते हैं। जैसे ऋजुसूत्र नय या निश्चय नय। और जो नय अतीत पर्याय को ग्रहण करता है, उसे भूतप्रज्ञापन नय कहते हैं। जैसे व्यवहार नय। क्षेत्र में इस बात का विचार किया जाता है कि मुक्त जीव की मुक्ति किस क्षेत्र से हुई। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से सिद्ध क्षेत्र में, अपने आत्मप्रदेशों में अथवा जिस आकाश प्रदेशों में मुक्त होने वाला जीव मुक्ति से पूर्व स्थित था, उन आकाशप्रदेशों में मुक्ति होती है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में से किसी भी कर्मभूमि के मनुष्य को यदि कोई हर कर ले जाये तो समस्त मनुष्य लोक के किसी भी स्थान से उसकी मुक्ति हो सकती है। काल की अपेक्षा यह विचार किया जाता है कि किस काल में मुक्त हुई-सो प्रत्युपन्न नय की अपेक्षा तो एक समय में ही मुक्ति होती है। और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा सामान्य से तो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों ही कालों में मुक्ति होती है। विशेष से अवसर्पिणी काल के सुखमा-दुखमा नामक तीसरे काल के अन्त में जन्मे जीव और दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्में जीव मोक्ष जाते हैं। गति में यह विचार किया जाता है कि किस गति से मुक्ति हुई? सो प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो सिद्धगति में ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा मनुष्य गति से ही मुक्ति मिलती है। लिंग में विचार किया जाता है कि किस लिंग से मुक्ति हुई ? सो प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा तो वेद रहित अवस्था में ही मुक्ति होती है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा तीनों ही भाव वेदों से मुक्ति होती है। किन्तु द्रव्य से पुल्लिंग ही होना चाहिए। अथवा प्रत्युत्पन्ननय से निर्ग्रन्थ लिंग से ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नय से सग्रंथ लिंग से भी मुक्ति होती है। तीर्थ का विचार करते हैं- कोई तो तीर्थंकर होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। कोई सामान्य केवली होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उनमें भी कोई तो तीर्थंकर के विद्यमान रहते हुए मोक्ष जाते हैं, कोई तीर्थंकर के अभाव में मोक्ष जाते हैं। चारित्र में विचार करते हैं कि किस चारित्र से मुक्ति मिलती है? प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो जिस भाव से मुक्ति होती है, उस भाव को न तो चारित्र ही कहा जा सकता है और न अचारित्र ही कहा जा सकता है। और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा अव्यवहित रूप से तो यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है और व्यवहित रूप से सामायिक, छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है और जिनके परिहार विशुद्धि चारित्र भी होता है, उनको पाँचों ही चारित्रों से मोक्ष प्राप्त होता है। जो अपनी शक्ति से ही ज्ञान प्राप्त करते हैं। उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं। और जो पर के उपदेश से ज्ञान प्राप्त करते हैं, उन्हें बोधितबुद्ध कहते हैं। सो कोई प्रत्येकबुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं और कोई बोधितबुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। किस ज्ञान से मुक्ति होती है? प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो केवलज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त होती है और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा किन्हीं को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पूर्वक केवलज्ञान होता है और किन्हीं की मति, श्रुत और अवधिज्ञानपूर्वक केवलज्ञान होता है। किन्हीं को मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ज्ञानपूर्वक केवलज्ञान होता है, तब मोक्ष जाते आत्मप्रदेशों के फैलाव का नाम अवगाहना है। उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष होती है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ होती है। मध्यम अवगाहना के बहुत से भेद हैं। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा से इन अवगाहनाओं में से किसी एक अवगाहना से मुक्ति प्राप्त होती है। और प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा इससे कुछ कम अवगाहना से मुक्ति होती है, क्योंकि मुक्त जीव की अवगाहना उसके अन्तिम शरीर से कुछ कम होती है। अन्तर पर विचार करते हैं कि-मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव लगातार भी मुक्ति प्राप्त करते हैं और बीच-बीच में अन्तर दे देकर भी मुक्ति प्राप्त करते हैं। यदि जीव लगातार मोक्ष जायें तो कम से कम दो समय तक और अधिक से अधिक आठ समय तक मुक्त होते रहते हैं। इसके बाद अन्तर पड़ जाता है। सो यदि कोई भी जीव मुक्त न हो तो कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह माह का अंतर पड़ता है। संख्या पर विचार करते हैं कि-एक समय में कम से कम एक जीव मुक्त होता है और अधिक से अधिक १०८ जीव मुक्त होते हैं। क्षेत्र आदि की अपेक्षा से जुदे जुदे मुक्त जीवों की संख्या को लेकर परस्पर में तुलना करना अल्प-बहुत्व है। सो बतलाते हैं-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से सब जीव सिद्धक्षेत्र से ही मुक्ति प्राप्त करते हैं, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा जो किसी के द्वारा हरे जाकर मुक्त हुए, ऐसे जीव थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुणे जन्म सिद्ध हैं। तथा ऊर्ध्व लोक से मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। उनसे असंख्यात गुणे जीव अधोलोक से मुक्त हुए हैं और उनसे भी असंख्यात गुणे जीव मध्यलोक से मुक्त हुए हैं। तथा समुद्र से मुक्त हुए जीव सबसे कम हैं। उनसे संख्यात गुणे जीव द्वीप से मुक्त हुए हैं। यह तो हुआ सामान्य कथन। विशेष कथन की अपेक्षा लवण समुद्र से मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुणे जीव कालोदधि समुद्र से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे जम्बूद्वीप से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे धातकीखण्ड से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे पुष्करार्ध से मुक्त हुए हैं। यह क्षेत्र की अपेक्षा अल्पबहुत्व हुआ। काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। अवसर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव उनसे अधिक हैं। और बिना उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं; क्योंकि पाँचों महाविदेहों में न उत्सर्पिणी काल है और न ही अवसर्पिणी काल है। फिर भी वहाँ से जीव सदा मुक्त होते हैं। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा एक समय में ही मुक्ति होती है, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। गति की अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो अल्पबहुत्व नहीं है! भूतप्रज्ञापन नय से तिर्यञ्च गति से आकर मनुष्य हो, मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। मनुष्य गति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। नरक गति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और देवगति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। वेद की अपेक्षा विचार करते हैं कि-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो वेद रहित जीव ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा नपुंसक लिंग से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। स्त्रीवेद से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव संख्यात गुणे हैं। और पुरुषवेद के उदय से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। तीर्थ की अपेक्षा-तीर्थंकर होकर मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। सामान्य केवली होकर मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। चारित्र की अपेक्षा-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो अल्पबहुत्व नहीं है। भूतग्राही नय की अपेक्षा भी अव्यवहित चारित्र सबके यथाख्यात ही होता है, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। अन्तर सहित चारित्र की अपेक्षा पाँचों चारित्र धारण करके मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं और चार चारित्र धारण करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। प्रत्येकबुद्ध थोड़े होते हैं। बोधितबुद्ध उनसे संख्यात गुणे हैं। ज्ञान की अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा सब जीव केवलज्ञान प्राप्त करके ही मुक्त होते हैं, अत: अल्पबहुत्व नहीं है। भूतग्राही नय की अपेक्षा दो ज्ञान से मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। चार ज्ञान से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। विशेष कथन की अपेक्षा मति, श्रुत और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। मति, श्रुत ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। मति, श्रुति, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और मति, श्रुत और अवधि ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। अवगाहना अपेक्षा से जघन्य अवगाहना से मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। उत्कृष्ट अवगाहना से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और मध्यम अवगाहना से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। संख्या अपेक्षा से एक समय में एक सौ आठ की संख्या में मुक्त हुए जीव थोड़े हैं, एक समय में एक सौ सात से लेकर पचास तक की संख्या में मुक्त हुए जीव उनसे अनन्त गुणे हैं। एक समय में उनचास से लेकर पच्चीस तक की संख्या में मुक्त हुए जीव असंख्यात गुणे हैं। एक समय में चौबीस से लेकर एक तक की संख्या में मुक्त हुए जीव संख्यात गुने हैं। इस प्रकार मुक्त हुए जीवों में वर्तमान की अपेक्षा तो कोई भेद नहीं है। जो भेद है वह भूतपर्याय की अपेक्षा ही है। ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे दशमोऽध्यायः ॥१०॥
  2. अब प्रश्न यह होता है कि जब जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है तो फिर मुक्त जीव लोक के अन्त तक ही क्यों जाता है? आगे क्यों नहीं जाता? इस प्रश्न का समाधान करते हैं- धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ अर्थ - गतिरूप उपकार करने वाला धर्मास्तिकाय द्रव्य लोक के अन्त तक ही है, आगे नहीं है। अतः मुक्त जीव लोक के अन्त तक ही जाकर ठहर जाता है, आगे नहीं जाता। English - The soul is not able to go beyond the universe since there is no medium of motion.
  3. इसमें दृष्टान्त देते हैं- आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्ड बीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ अर्थ - ऊपर के सूत्र में कहे हुए हेतुओं को और इस सूत्र में कहे गये दृष्टान्तों को क्रम से लगाना चाहिए। जो इस प्रकार हैं - जैसे कुम्हार हाथ में डण्डा लेकर और उसे चाक पर रख कर घुमाता है तो चाक घूमने लगता है। उसके बाद कुम्हार डण्डे को हटा लेता है फिर भी चाक जब तक उसमें पुराना संस्कार रहता है, घूमता है। इसी तरह संसारी जीव मुक्ति की प्राप्ति के लिए बार-बार प्रयत्न करता था कि कब मुक्ति गमन हो। मुक्त हो जाने पर वह भावना और प्रयत्न नहीं रहा फिर भी पुराने संस्कारवश जीव मुक्ति की ओर गमन करता है। जैसे मिट्टी के भार से लदी हुई तुम्बी जल में डूबी रहती है। किन्तु मिट्टी का भार दूर होते ही जल के ऊपर आ जाती है। वैसे ही कर्म के भार से लदा हुआ जीव कर्म के वश होकर संसार में डूबा रहता है। किन्तु ज्यों ही उस भार से मुक्त होता है तो ऊपर को ही जाता है। जैसे एरण्ड के बीज एरण्ड के ढोडा में बन्द रहते हैं। और ढोडा सूखकर फटता है तो उछलकर ऊपर को ही जाते हैं। वैसे ही मनुष्य आदि भवों में ले जाने वाले गति नाम, जाति नाम आदि समस्त कर्मबन्ध के कट जाने पर आत्मा ऊपर को ही जाता है। जैसे वायु के न होने पर दीपक की लौ ऊपर को ही जाती है, वैसे ही मुक्त जीव भी अनेक गतियों में ले जाने वाले कर्मों के अभाव में ऊपर को ही जाता है; क्योंकि जैसे आग का स्वभाव ऊपर की जाने का है, वैसे ही जीव का स्वभाव भी ऊर्ध्वगमन ही है। English - Like the potter's wheel once rotated, keeps rotating, like a gourd with the mud sinks, but comes up once mud is removed, like castor seed goes upwards on the flower-like flame goes upwards, the same way upon liberation from the karmas, the soul goes upwards.
  4. अब ऊपर की जाने का कारण बतलाते हैं- पूर्वप्रयोगादसंगत्वाबन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥ अर्थ - पहले के संस्कार से, कर्म के भार से हल्का हो जाने से, कर्म बन्धन के कट जाने से और ऊपर को जाने का स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊपर को ही जाता है। English - As the soul is previously impelled, as it is free from ties or attachment, as the bondage has been snapped and, as it is of the nature of darting upwards, the liberated soul moves upwards.
  5. इसका समाधान करने के लिए आगे के सूत्र कहते हैं- तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ अर्थ - समस्त कर्मों से छूटने के बाद ही जीव लोक के अन्त तक ऊपर को जाता है। English - Immediately upon complete destruction of all karmas the soul darts up to the end of the universe.
  6. क्षायिक भाव शेष रहते हैं, सो ही कहते हैं- अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥४॥ अर्थ - क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व को छोड़कर अन्य भावों का मुक्त जीव के अभाव हो जाता है। English - Upon liberation infinite faith, infinite knowledge, infinite perception, and infinite perfection are not destroyed. शंका - यदि मुक्त जीव के ये चार ही क्षायिक भाव शेष रहते हैं, तो अनन्त वीर्य, अनन्त सुख आदि भावों का भी अभाव कहलाया ? समाधान - नहीं कहलाया, क्योंकि अनन्त वीर्य आदि भाव अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के अविनाभावी हैं। अर्थात् अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के साथ ही अनन्त वीर्य होता है। जहाँ अनन्त वीर्य नहीं होता, वहाँ अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन भी नहीं होते। रहा अनन्त सुख, सो वह अनन्त ज्ञानमय ही है; क्योंकि बिना ज्ञान के सुख का अनुभव नहीं होता। शंका - मुक्त जीवों का कोई आकार नहीं है, अतः उनका अभाव ही समझना चाहिए, क्योंकि जिस वस्तु का आकार नहीं है वह वस्तु नहीं ? समाधान - जिस शरीर से जीव मुक्त होता है, उस शरीर का जैसा आकार होता है, वैसा ही मुक्त जीव का आकार रहता है। शंका - यदि जीव का आकार शरीर के आकार के अनुसार ही होता है, तो शरीर का अभाव हो जाने पर जीव को समस्त लोकाकाश में फैल जाना चाहिए, क्योंकि उसका स्वाभाविक परिमाण तो लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर बतलाया है ? समाधान - यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के प्रदेशों में संकोच और विस्तार का कारण नामकर्म था। नामकर्म के कारण जैसा शरीर मिलता था उसी के अनुसार आत्म प्रदेशों में संकोच और विस्तार होता था। मुक्त होने पर नाम कर्म का अभाव हो जाने से संकोच और विस्तार का भी अभाव हो गया। शंका - यदि कारण का अभाव होने से मुक्त जीव में संकोच विस्तार नहीं होता तो गमन का भी कोई कारण न होने से ; जैसे मुक्त जीव नीचे को नहीं जाता या तिरछा नहीं जाता, वैसे ही ऊपर को भी उसे नहीं जाना चाहिए, बल्कि जहाँ मुक्त हुआ है, वहीं सदा उसे रहना चाहिए ? इसका समाधान करने के लिए आगे के सूत्र कहते हैं-
  7. अब प्रश्न यह है कि पौद्गलिक द्रव्य कर्मों के नाश से ही मोक्ष होता है या भाव कर्मों के नाश से भी? इसका उत्तर देते हैं- औपशमिकादि-भव्यत्वानां च॥३॥ अर्थ - जीव के औपशमिक आदि भाव तथा पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव के अभाव से मोक्ष होता है। आशय यह है कि औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव तो पूरे नष्ट हो जाते हैं और पारिणामिक भावों में से अभव्यत्व भाव तो मोक्षगामी जीव के पहले से ही नहीं होता, जीवत्व नाम का पारिणामिक भाव मुक्तावस्था में भी रहता है। अतः केवल भव्यत्व का अभाव हो जाता है। English - Emancipation is attained on the destruction of psychic factors also like quietism and potentiality.
  8. अब मोक्ष का लक्षण और मोक्ष के कारण बतलाते हैं- बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म-विप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ अर्थ - बन्ध के कारणों का अभाव होने से तथा निर्जरा से समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना मोक्ष है। English - Owing to the absence of the cause of bondage and with the functioning of the dissociation of karmas, the annihilation of all karmas leads to liberation. विशेषार्थ - मिथ्यादर्शन आदि कारणों का अभाव हो जाने से नये कर्मों का बन्ध होना रुक जाता है और तप वगैरह के द्वारा पहले बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है। अतः आत्मा समस्त कर्मबन्धनों से छूट जाता है। इसी का नाम मोक्ष है। सो कर्म का अभाव दो प्रकार से होता है। कुछ कर्म तो ऐसे हैं, जिनका अभाव चरम शरीरी के स्वयं हो जाता है। जैसे नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायु का सत्त्व चरम शरीरी के नहीं होता, अतः इन तीनों प्रकृतियों का अभाव तो बिना यत्न के ही रहता है। शेष के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। सो चौथे पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी एक गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों का क्षय करके जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसके बाद क्षपक श्रेणी पर चढ़कर नौवें गुणस्थान में क्रम से १६+८+१+१+६+१+१+१+१=३६ (छत्तीस) प्रकृतियों को नष्ट करके दसवें गुणस्थान में आ जाता है। वहाँ सूक्ष्म लोभ संज्वलन को नष्ट करके बारहवें गुणस्थान में जा पहुँचता है। बारहवें में ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की ६ और अन्तराय की ५ प्रकृतियों को नष्ट करके केवली हो जाता है। इस तरह उसके ३+७+३६+१+१६६३ (तिरेसठ) प्रकृतियों का अभाव हो जाता है जिनमें ४७ घाति कर्मों की और १६ अघाति कर्मों की प्रकृतियाँ हैं। शेष ८५ प्रकृतियाँ रहती है, जिनमें से ७२ प्रकृतियों का विनाश तो अयोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में करता है। १३ का विनाश उसी के अन्तिम समय में करके मुक्त हो जाता है ॥२॥
  9. अब अन्तिम तत्त्व मोक्ष का कथन किया जाता है क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति केवलज्ञान पूर्वक होती है, अत: पहले केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण बतलाते है- मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम् ॥१॥ अर्थ - मोहनीय कर्म के क्षय से फिर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का एक साथ क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है। सारांश यह है कि पहले मोहनीय कर्म का क्षय करके अन्तर्मुहूर्त तक क्षीणकषाय नाम के गुणस्थान में जीव रहता है। फिर उसके अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को एक साथ नष्ट करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इसी से ‘मोहक्षयात्’ पद अलग लिखा है। English - Omniscience (perfect knowledge) is attained on the destruction of deluding karmas, and on the destruction of knowledge and perception-covering karmas and obstructive karmas.
  10. इन पुलाक आदि मुनियों की और भी विशेषता बतलाते हैं- संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थ-लिंग-लेश्योपपाद-स्थान विकल्पतः साध्याः ॥४७॥ अर्थ - संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद और स्थान के भेद से पुलाक आदि मुनियों के भेद जानना चाहिए। English - The saints are to be described (differentiated) on the basis of differences in self-restraint, scriptural knowledge, transgression, the period of Tirthankara, the sign, the thought coloration, birth, and the place. विशेषार्थ - पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील मुनि के सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होता है। कषाय कुशील मुनि के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म साम्पराय संयम होता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक यथाख्यात संयम ही होता है। पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि अधिक से अधिक पूरे दस पूर्व के ज्ञाता होते हैं। कषाय-कुशील और निर्ग्रन्थ चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। और कम से कम पुलाक मुनि आचारांग के ज्ञाता होते हैं; बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ पाँच समिति और तीन गुप्तियों के ज्ञाता होते हैं। स्नातक तो केवलज्ञानी होते हैं, अतः उनके श्रुताभ्यास का प्रश्न ही नहीं है। प्रतिसेवना का मतलब व्रतों में दोष लगाना है। पुलाक मुनि पाँच महाव्रतों में तथा रात्रि में भोजन त्याग व्रत में से किसी एक में परवश होकर कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं। बकुश मुनि के दो भेद हैं-उपकरण-बकुश और शरीर-बकुश। उपकरण बकुश मुनि को सुन्दर उपकरणों में आसक्ति रहने से विराधना होती है। और शरीर बकुश मुनि की अपने शरीर में आसक्ति होने से विराधना होती है। प्रतिसेवना कुशील मुनि उत्तर गुणों में कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं। कषाय-कुशील निर्ग्रन्थ और स्नातक के प्रतिसेवना नहीं होती; क्योंकि त्यागी हुई वस्तु का सेवन करने से प्रतिसेवना होती है। सो ये करते नहीं हैं। तीर्थ यानि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थ पाये जाते हैं। लिंग के दो भेद हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग। भावलिंग की अपेक्षा तो पाँचों ही निर्ग्रन्थ भावलिंगी हैं-क्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि और संयमी होते हैं। द्रव्यलिंग की अपेक्षा सभी निर्ग्रन्थ दिगम्बर होते हुए भी स्नातक के पिच्छिका-कमण्डलु उपकरण नहीं होते, शेष के होते हैं। अतः द्रव्य लिंग में थोड़ा अन्तर पड़ जाता है। पुलाक के तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील के छह लेश्याएँ भी होती हैं, क्योंकि उपकरणों में आसक्ति होने से कभी अशुभ लेश्याएँ भी हो सकती हैं। कषाय कुशील के कृष्ण और नील के सिवा बाकी की चार लेश्याएँ होती हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोग केवली के लेश्या नहीं होती। उपपाद-पुलाक मुनि अधिक से अधिक सहस्रार स्वर्ग में उत्कृष्ट स्थिति के धारक देव होते हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील बाईस सागर की स्थिति वाले आरण और अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। कषाय कुशील और ग्यारहवें गुणस्थान वाले निर्ग्रन्थ तैंतीस सागर की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होते हैं। इन सबकी उत्पत्ति कम से कम सौधर्म कल्प में होती है। और स्नातक तो मोक्ष जाता है। इसी तरह संयम के स्थानों की अपेक्षा भी इनमें अन्तर होता है ॥४७॥ ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे नवमोऽध्यायः ॥९॥
  11. अब निर्ग्रन्थों के भेद कहते हैं- पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्थाः ॥४६॥ अर्थ - पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पाँचों निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। जिनके उत्तरगुणों की तो भावना भी न हो और मूलगुणों में भी कभी-कभी दोष लगा लेते हों, उन साधुओं को पुलाक कहते हैं। पुलाक नाम पुवाल सहित चावल का है। पुवाल सहित चावल की तरह मलिन होने से ऐसे साधु को पुलाक कहते हैं। जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने के लिए सदा तत्पर हों और जिनके मूलगुण निर्दोष हों; किन्तु शरीर, पिच्छिका वगैरह उपकरणों से जिन्हें मोह हो, उन मुनि को बकुश मुनि कहते हैं। बकुश का अर्थ चितकबरा है। जैसे सफेद पर काले धब्बे होते हैं, वैसे ही उन मुनियों के निर्मल आचार में शरीर आदि का मोह धब्बे की तरह होता है। इसी से वे बकुश कहे जाते हैं। कुशील साधु के दो भेद हैं- प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील। जिनके मूलगुण और उत्तर गुण दोनों ही पूर्ण हों किन्तु कभी-कभी उत्तर गुणों में दोष लग जाता हो उन साधुओं को प्रतिसेवना कुशील कहते हैं। जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को तो वश में कर लिया है किन्तु संज्वलन कषाय के उदय को वश में नहीं किया है, उन साधुओं को कषाय-कुशील कहते हैं। जिनके मोहनीय कर्म का तो उदय ही नहीं है और शेष घाति कर्मों का उदय भी ऐसा है जैसे जल में लाठी से खींची हुई लकीर तथा अन्तर्मुहूर्त के बाद ही, जिन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट होने वाला है, उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं। जिनके घाति कर्म नष्ट हो गये हैं, उन केवलियों को स्नातक कहते हैं। ये पाँचों ही सम्यग्दृष्टि होते हैं और बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी होते हैं। इसलिए चारित्र की हीनाधिकता होने पर भी इन पाँचों को ही निर्ग्रन्थ कहा है। English - Pulakah (observes primary vows, but lapses sometimes), Bakusha (observes primary vows perfectly, but cares adornment of the body and implements), Kushila (observes primary vows perfectly, but lapses in secondary vows or has controlled all passions except the gleaming ones), Nirgrantha (will attain omniscience within Antarmuhurta) and Snataka (Omniscient-Kevali) are the passionless saints.
  12. आगे बतलाते हैं कि सब सम्यग्दृष्टियों के समान निर्जरा नहीं होती- सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४५॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टि, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक, महाव्रती मुनि, अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले, दर्शन मोह का क्षय करने वाले, चारित्र मोह का उपशम करने वाले, उपशान्तमोह यानि ग्यारहवें गुणस्थान वाले, क्षपक श्रेणी में चढ़ने वाले, क्षीणमोह यानि बारहवें गुणस्थान वाले और जिन भगवान् के परिणामों की विशुद्धता अधिक-अधिक होने से प्रतिसमय क्रम से असंख्यात गुणी-असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। English - The dissociation of karmas increases innumerable-fold from stage to stage in the ten stages of the right believer, the householder with partial vows, the ascetic with great vows, the separator of the passion leading to infinite births, the destroyer of faith-deluding karmas, the suppressor of conduct-deluding karmas, the saint with quiescent passions, the destroyer of delusion, the saint with destroyed delusion and the spiritual victor (Jina). विशेषार्थ - जब मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए तीन करण करता है, उस समय उसके आयुकर्म के सिवा शेष सात कर्मों की बहुत निर्जरा होती है। वह जब सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तो उसके पहले से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वह जब श्रावक हो जाता है तो उसके सम्यग्दृष्टि से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। श्रावक से जब वह सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि हो जाता है तो उसके श्रावक से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। जब वह मुनि होकर अनन्तानुबन्धी कषाय को शेष कषाय रूप परिणमा कर उसका विसंयोजन करता है तो उसके मुनि से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। उसके बाद वह जब दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय करता है तो उसके विसंयोजन काल से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। जब वह उपशम श्रेणी चढ़ता है तो उसके दर्शन मोह क्षपक से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। उसके बाद वह समस्त मोहनीय कर्म का उपशम करके उपशान्त कषाय गुणस्थान वाला हो जाता है तो उसके उपशम अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वही जीव जब उपशम श्रेणी से गिरने के बाद क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है। तो उसके ग्यारहवें गुणस्थान से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वही जब समस्त मोहनीय कर्म का क्षय करके क्षीणकषाय हो जाता है तो उसके क्षपक अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वही जब समस्त घातिया कर्मों को नष्ट करके केवली हो जाता है तो उसके क्षीणकषाय से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। सारांश यह है कि इन दस स्थानों को प्राप्त होने वाले जीवों के परिणाम उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्ध होते हैं, अतः इनके कर्मों की निर्जरा भी असंख्यात गुणी होती है। इतना ही नहीं, जहाँ उत्तरोत्तर निर्जरा असंख्यात गुणी असंख्यात गुणी हो जाती है, वहाँ निर्जरा का काल असंख्यातवें भाग असंख्यातवें भाग घटता जाता है। जैसे जिनेन्द्र भगवान् के निर्जरा काल सबसे कम है, उससे संख्यात गुणा काल क्षीणकषाय का है। इस तरह यद्यपि निर्जरा का काल सातिशय मिथ्यादृष्टि तक अधिक अधिक होता है, किन्तु सामान्य से प्रत्येक का निर्जरा काल अन्तर्मुहूर्त ही है। इस उत्तरोत्तर कम कम काल में कर्मों की निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती है।
  13. अब वीचार का लक्षण कहते हैं- वीचारोऽर्थ-व्यञ्जन-योग-सङ्क्रान्तिः ॥४४॥ अर्थ - अर्थ से मतलब उस द्रव्य या पर्याय से है, जिसका ध्यान किया जाता है। व्यंजन का अर्थ वचन है और मन-वचन-काय की क्रिया को योग कहते हैं तथा संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है। ध्यान करते समय द्रव्य को छोड़कर पर्याय का ध्यान करना और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का ध्यान करना अर्थात् ध्यान के विषय का बदलना अर्थ संक्रान्ति है। श्रुत के किसी एक वाक्य को छोड़कर दूसरे वाक्य का सहारा लेना, उसे भी छोड़कर तीसरे वाक्य का सहारा लेना, इस तरह ध्यान करते समय वचन के बदलने को व्यंजनसंक्रान्ति कहते हैं। काययोग को छोड़कर अन्य योग का ग्रहण करना, उसे भी छोड़कर काययोग को ग्रहण करना योगसंक्रान्ति है। इन तीनों प्रकार की संक्रान्ति को वीचार कहते हैं। और जिस ध्यान में इस तरह का वीचार होता है, वह वीचार सहित है और जिसमें यह वीचार नहीं होता, वह वीचार रहित है। English - Vichara is shifting with regard to objects, words, and activities. विशेषार्थ - अभ्यस्त साधु ही इस चार प्रकार के शुक्लध्यान को संसार से छूटने के लिए ध्याते हैं। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है सबसे प्रथम ध्यान के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जो एकदम एकान्त हो, जहाँ न मनुष्य का संचार हो, न सर्प, सिंह आदि पशुओं का उत्पात हो, जो न अति गरम हो और न अति शीतल, हवा और वर्षा की भी बाधा जहाँ न हो। सारांश यह है कि चित्त को चंचल करने का कोई साधन जहाँ न हो, ऐसे स्थान पर किसी साफ सुथरी जमीन में पर्यंकासन लगाकर अपने शरीर को सीधा रखें और अपनी गोदी में बाँए हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रक्खे। नेत्र न एकदम बन्द हों और न एकदम खुले हों। दृष्टि सौम्य और स्थिर हो। दाँत से दाँत मिले हों। मुख थोड़ा उठा हुआ हो, प्रसन्न हो। श्वासोच्छ्वास मन्द मन्द चलता हो। ऐसी स्थिति में मन को नाभि देश में, हृदय में अथवा मस्तक वगैरह में एकाग्र करके मुमुक्षु को शुभ ध्यान करना चाहिए। सो जब साधु सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में जाता है, तब द्रव्य परमाणु अथवा भाव परमाणु का ध्यान करता है। उस समय उसका मन ध्येय में और वाक्य में तथा काययोग और वचनयोग में घूमता रहता है। अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति रूप वीचार चलता रहता है। जैसे कोई बालक हाथ में ठूठी तलवार लेकर उसे ऐसे उत्साह से चलाता है, मानो वृक्ष को काटे डालता है, वैसे ही वह ध्याता भी मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम के शुक्लध्यान को करता है। वही ध्याता जड़मूल से मोहनीय कर्म को नष्ट करने की इच्छा से पहले से अनन्त गुना विशुद्ध ध्यान का आलम्बन लेकर अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति को हटाकर मन को निश्चय करके जब बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है तो फिर ध्यान लगाकर पीछे नहीं हटता, इसलिए उसे एकत्व वितर्क वीचार ध्यान वाला कहते हैं। इस एकत्व वितर्क ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी ईंधन को जला देने पर, जैसे मेघ पटल के हट जाने पर मेघों में छिपा हुआ सूर्य प्रकट होता है, वैसे ही कर्मों का आवरण हट जाने पर केवलज्ञान रूपी सूर्य प्रकट हो जाता है। उस समय वह तीर्थंकर केवली अथवा सामान्य केवली होकर अपनी आयुपर्यन्त देश में विहार करते हैं। जब आयु अन्तर्मुहर्त बाकी रहती है और वेदनीय, नाम तथा गोत्र कर्म की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त ही शेष होती है, तो वह समस्त वचन योग मनोयोग और बादर काययोग को छोड़कर सूक्ष्म काययोग का आलंबन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को करते हैं। किन्तु यदि आयुकर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष हो और शेष तीन कर्मों की स्थिति अधिक हो तो केवली समुद्धात करते हैं। उसमें आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्मप्रदेशों को फैलाकर दण्ड के आकार करते हैं, दूसरे समय में कपाट के आकार करते हैं, तीसरे समय में प्रतररूप करते हैं और चौथे समय में अपने आत्म प्रदेशों से लोक को पूर देते हैं। पाँचवें समय में लोकपूरण से प्रतररूप, छठे में प्रतर से कपाट रूप और सातवें में कपाट से दण्ड रूप करते हैं आठवें समय में बाहर निकले हुए आत्मप्रदेश फिर शरीर में प्रविष्ट होकर ज्यों के त्यों हो जाते हैं। इस तरह चार समय में प्रदेशों का विस्तार और चार समय में प्रदेशों का संकोच करने से शेष तीन कर्मों की स्थिति भी आयु के समान अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है। उस समय वे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नाम का तीसरा शुक्लध्यान करते हैं। इसके बाद समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति नाम का चौथा शुक्लध्यान करते हैं। इस ध्यान के समय श्वासोच्छ्वास का संचार, समस्त मनोयोग, वचनयोग, काय योग और समस्त प्रदेशों का हलन-चलन आदि क्रिया रुक जाती है। इसीलिए इसे समुच्छिन्नक्रिया-निवर्ति कहते हैं। इसके होने पर समस्त बन्ध और आस्रव रुक जाता है और समस्त बचे हुए कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। अतः मोक्ष के साक्षात् कारण यथाख्यात चारित्र, दर्शन और ज्ञान पूर्ण हो जाते हैं। तब वह अयोग केवली समस्त कर्मों को ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर किट्टकालिमा से रहित शुद्ध सुवर्ण की तरह निर्मल आत्म रूप होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। इस तरह दोनों प्रकार के तप नवीन कर्मों के आस्रव को रोकने के कारण संवर का भी कारण है और पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने का कारण होने से निर्जरा का भी कारण है।
  14. अब वितर्क का लक्षण कहते हैं- वितर्कः श्रुतम् ॥४३॥ अर्थ - विशेषरूप से तर्क अर्थात् विचार करने को वितर्क कहते हैं। वितर्क नाम श्रुतज्ञान का है। English - Vitarka is scriptural knowledge through reasoning.
  15. इस कथन में थोड़ा अपवाद करते हैं- अवीचारं द्वितीयम् ॥४२॥ अर्थ - किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वीचार रहित है। अर्थात् पहला शुक्लध्यान तो वितर्क और वीचार दोनों से सहित है। किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वितर्क से सहित है, पर वीचार से रहित है। English - The second type is free from shifting.
  16. अब आदि के दो शुक्लध्यानों का विशेष कथन करते हैं- एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१॥ अर्थ - आदि के दोनों शुक्लध्यान पूर्ण श्रुतज्ञानी के ही होते हैं, अतः दोनों का आधार एक ही है। तथा दोनों वितर्क और वीचार से सहित हैं। English - The first two types are based on one substratum and are associated with scriptural knowledge and shifting.
  17. अब शुक्लध्यान का आलम्बन बतलाते हैं- त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥४०॥ अर्थ - पहला शुक्लध्यान तीनों योगों में होता है। दूसरा शुक्लध्यान तीनों योगों में से एक योग में होता है। तीसरा शुक्लध्यान काय योग में ही होता है। English - These four types of pure concentrations are achieved by those having all the three activities (the mind, the speech, and the body), one activity, body activity, and no activity respectively.
  18. अब शुक्ल ध्यान के भेद बतलाते हैं- पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि ॥३९॥ अर्थ - पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति ये चार शुक्लध्यान के भेद हैं। ये सब नाम सार्थक हैं। इनका लक्षण आगे कहेंगे। English - The four types of pure concentration are that of many substances through the activity of mind, speech and body, that of one substance through the activity of mind, speech and body, that of subtle activity and that of complete destruction of activity.
  19. अब बाकी के दो शुक्लध्यान किसके होते हैं, यह बतलाते हैं- परे केवलिनः ॥३८॥ अर्थ - अन्त के दो शुक्लध्यान सयोग केवली और अयोग केवली के होते हैं। English - The last two types of pure meditation arise in the omniscient.
  20. अब शुक्लध्यान के स्वामी बतलाते हैं- शुक्लेचाद्धेपूर्वविदः ॥३७॥ अर्थ - आदि के दो शुक्लध्यान सकल श्रुत के धारक श्रुतकेवली के होते हैं। ‘च' शब्द से धर्मध्यान भी ले लेना चाहिए। अतः श्रेणी पर चढ़ने से पहले धर्मध्यान होता है और श्रेणी चढ़ने पर क्रम से दोनों शुक्लध्यान होते हैं। English - The first two types of pure meditation are attained by the saints well-versed in the purvas, the Shrutkevali.
  21. अब धर्मध्यान का स्वरूप व भेद बतलाते हैं- आज्ञापायविपाक-संस्थान-विचयायधर्म्यम् ॥३६॥ अर्थ - आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं। अच्छे उपदेष्टा के न होने से, अपनी बुद्धि के मन्द होने से और पदार्थ के सूक्ष्म होने से जब युक्ति और उदाहरण की गति न हो तो ऐसी अवस्था में सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे गये आगम को प्रमाण मानकर गहन पदार्थ का श्रद्धान कर लेना कि “यह ऐसा ही है, आज्ञा विचय है। अथवा स्वयं तत्त्वों का जानकार होते हुए भी दूसरों को उन तत्त्वों को समझाने के लिये युक्ति दृष्टान्त आदि का विचार करते रहना, जिससे दूसरों को ठीक ठीक समझाया जा सके, आज्ञा विचय है; क्योंकि उसका उद्देश्य संसार में जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का प्रचार करना है। जो लोग मोक्ष के अभिलाषी होते हुए भी कुमार्ग में पड़े हुए हैं, उनका विचार करना कि कैसे वे मिथ्यात्व से छूटे, इसे अपाय विचय कहते हैं। कर्म के फल का विचार करना विपाक विचय है। लोक के आकार का तथा उसकी दशा का विचार करना संस्थान विचय है। ये धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले जीव के होते हैं। English - The virtuous meditation is of four types - concentration on realities (tattva) through pramana and naya, ways and means to help living beings to take the right belief, knowledge and conduct, fruition of karmas and the reasons thereof, and state of the universe.
  22. अब रौद्रध्यान के भेद और उनके स्वामियों को बताते हैं- हिंसानृत-स्तेय-विषय-संरक्षणेभ्योरौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३५॥ अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह संचय करने की चिन्ता करते रहने से रौद्रध्यान होता है। यह रौद्रध्यान पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान वालों के तथा देशविरत श्रावकों के होता है। किन्तु संयमी मुनि के नहीं होता; क्योंकि यदि कदाचित् मुनि को भी रौद्रध्यान हो जाये तो फिर वे संयम से भ्रष्ट समझे जायेंगे। English - Cruel meditation relating to injury, untruth, stealing and safeguarding of possessions occurs in the case of laymen with and without partial vows. शंका - जो व्रती नहीं हैं, उनके रौद्रध्यान भले ही हो, किन्तु देशव्रती श्रावक के कैसे हो सकता है? समाधान - श्रावक पर अपने धर्मायतनों की रक्षा का भार है, स्त्री, धन वगैरह की रक्षा करना अभीष्ट है, अत: इनकी रक्षा के लिए जब कभी हिंसा के आवेश में आ जाने से रौद्रध्यान हो सकता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि होने के कारण उसके ऐसा रौद्रध्यान नहीं होता, जो उसको नरक में ले जाये।
  23. अब आर्तध्यान किसको होता है, यह बतलाते हैं- तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् ॥३४॥ अर्थ - वह आर्तध्यान अविरत यानि पहले, दूसरे, तीसरे और चतुर्थ गुणस्थान वालों के, देशविरत श्रावकों के और प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के होता है। परन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के निदान नहीं होता। बाकी के तीन आर्तध्यान प्रमाद के उदय से जब कभी हो जाते हैं। English - These sorrowful meditations occur in the case of laymen with and without small vows and non-vigilant ascetics.
  24. अब चौथा भेद कहते हैं- निदानं च ॥३३॥ अर्थ - भोगों की तृष्णा से पीड़ित होकर रात-दिन आगामी भोगों को प्राप्त करने की ही चिन्ता करते रहना निदान आर्तध्यान है। इस तरह आर्तध्यान के चार भेद हैं। English - Thinking about the fulfillment of the wishes for enjoyment is the fourth sorrowful meditation.
  25. तीसरा भेद कहते हैं- वेदनायाश्च ॥३२॥ अर्थ - वात आदि के विकार से शरीर में कष्ट होने पर रात-दिन उसी की चिन्ता करना वेदना नामक आर्तध्यान है। English - In the case of suffering from pain thinking continuously for its removal is the third type of sorrowful meditation.
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