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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 8 : सूत्र 25

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    Vidyasagar.Guru

    अब कर्मों की पुण्य प्रकृतियों को बतलाते हैं-

     

    सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२५॥

     

     

    अर्थ - सातावेदनीय, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु ये तीन आयु, एक उच्च गोत्र और नामकर्म सैंतीस प्रकृतियाँ ये ब्यालीस पुण्य प्रकृतियाँ हैं। नामकर्म की सैंतीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं- मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, देव गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर । ये सब पुण्य प्रकृतियाँ हैं।

     

    English - The good variety of feeling-producing karmas and the auspicious life, name and status-determining karmas constitute merit (Punya).


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