अब मोहनीय के भेद कहते हैं-
दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः
सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्यकषायकषायौहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदाअनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमाया लोभाः ॥९॥
अर्थ - मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् -मिथ्यात्व। चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं- अकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय। अकषाय वेदनीय के नौ भेद हैं- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद। कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान-माया-लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ और संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ । इस तरह मोहनीय के अट्ठाईस भेद हैं।
English - The deluding karmas are of twenty-eight kinds. These are the three subtypes of faith-deluding karmas - wrong belief, right belief and mixed belief, and twenty five subtypes of conduct-deluding karmas which cause and which are caused by the passions (sixteen types - each of the four passions i.e. anger, pride, deceitfulness, and greed is divided into four classes i.e. very intense, intense, mediocre and weak) and the quasi-passions (nine types - laughter, liking for certain objects, dislike for other objects, grief or sorrow, fear, disgust, hankering after men, hankering after women and hankering after both men and women).
विशेषार्थ - दर्शन मोहनीय कर्म के तीन भेदों में से बंध तो केवल एक मिथ्यात्व का ही होता है। किंतु जब जीव को प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है, तो उस मिथ्यात्व के तीन भाग हो जाते हैं। अतः सत्ता और उदय की अपेक्षा दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं। जिसके उदय से जीव सर्वज्ञ के द्वारा कहे गये मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थ के श्रद्धान के प्रति उदासीन और हित अहित के विचार से शून्य मिथ्यादृष्टि होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। जब शुभ परिणाम के द्वारा उस मिथ्यात्व की शक्ति घटा दी जाती है और वह आत्मा के श्रद्धान को रोकने में असमर्थ हो जाता है, तो उसे सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं और जब उसी मिथ्यात्व की शक्ति आधी शुद्ध हो पाती है, तब उसे सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। उसके उदय से जीव के श्रद्धान और अश्रद्धान रूप मिले हुए भाव होते हैं, चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं अकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय। अकषाय का अर्थ ईर्ष्या कषाय यानि किञ्चित् कषाय है, इसी से अकषाय को नोकषाय भी कहते हैं, क्रोध आदि कषाय का बल पाकर ही हास्य आदि होते हैं, उसके अभाव में नहीं होते। इसलिए इन्हें अकषाय कहा जाता है। जिसके उदय से हँसी आती है, उसे हास्य कहते हैं। जिसके उदय से किन्हीं विषयों में आसक्ति होती है, उसे रति कहते हैं। जिसके उदय से, किन्हीं विषयों में द्वेष होता है, उसे अरति कहते हैं। जिसके उदय में रंज होता है, उसे शोक कहते हैं। जिसके उदय से डर लगता है, उसे भय कहते हैं। जिसके उदय से जीव अपने दोषों को ढांकता है और दूसरों को दोष लगाता है, उसे जुगुप्सा कहते हैं। जिसके उदय से स्त्रीत्व सूचक भाव होते हैं, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। जिसके उदय से पुरुषत्व सूचक भाव होते हैं, उसे पुरुष-वेद कहते हैं। जिसके उदय से स्त्रीत्व और पुरुषत्व दोनों से रहित एक तीसरे प्रकार के भाव होते हैं, उसे नपुंसक-वेद कहते हैं। ये नौ भेद अकषाय वेदनीय के हैं।
कषाय वेदनीय के सोलह भेद इस प्रकार हैं- मूल कषाय चार हैं क्रोध, मान, माया और लोभ। इनमें से प्रत्येक की चार-चार अवस्थायें होती हैं। मिथ्यात्व के रहते हुए संसार का अन्त नहीं होता, इसलिए मिथ्यात्व को अनन्त कहते हैं और जो क्रोध, मान, माया या लोभ अनंत यानि मिथ्यात्व से बंधे हुए हैं, उन्हें अनंतानुबंधी कहते हैं। जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से थोड़ा-सा भी देशचारित्र रूप भाव प्रकट नहीं हो सकता, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से जीव के सकलचारित्र रूप भाव नहीं होते, उन्हें प्रत्याख्यानावरण कहते हैं और जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से शुद्धोपयोग रूप यथाख्यात चारित्र नहीं प्रकट होता, उसे संज्वलन कहते हैं। ये कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं। इस तरह मोहनीय के कुल अट्ठाईस भेद हैं।