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  1. दूसरा भेद कहते हैं- विपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ अर्थ - पुत्र, धन, स्त्री आदि प्रिय वस्तुओं का वियोग हो जाने पर उनसे मिलन होने का बार-बार चिन्तन करना इष्ट-वियोग नामक आर्तध्यान है। English - Upon loss of a favorable object, thinking again and again for its repossession is the second kind of sorrowful meditation.
  2. आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३०॥ अर्थ - विष, काँटा, शत्रु आदि अप्रिय वस्तुओं का समागम होने पर उनसे अपना पीछा छुड़ाने के लिए बार-बार चिंतन करना अनिष्टसंयोग नामक आर्तध्यान है। English - Upon receipt of a harmful object, thinking again and again for its removal is the first kind of sorrowful meditation.
  3. यही बात कहते हैं- परे मोक्षहेतू ॥२९॥ अर्थ - अन्त के धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं। इससे यह मतलब निकला कि आदि के आर्त और रौद्रध्यान संसार के कारण हैं। अब आर्तध्यान के भेद और उनके लक्षण कहते हैं English - The last two (the virtuous and the pure) are the causes of liberation.
  4. अब ध्यान के भेद कहते हैं- आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ अर्थ - ध्यान के चार भेद होते हैं-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल इनमें से आदि के दो ध्यान अशुभ हैं, उनसे पाप का बन्ध होता है। शेष दो ध्यान शुभ हैं, उनके द्वारा कर्मों का नाश होता है ॥२८॥ English - The painful (sorrowful), the cruel, the virtuous (righteous) and the pure are the four types of meditation.
  5. अब ध्यान का वर्णन करते हैं- उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥ अर्थ - उत्तम संहनन के धारक मनुष्य का अपने चित्त की वृत्ति को सब ओर से रोक कर एक ही विषय में लगाना ध्यान है। यह ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। English - Concentration of thought on one particular object is meditation. In the case of a person with the best physical structure or constitution, it extends up to one muhurta. विशेषार्थ - आदि के तीन संहनन उत्तम हैं। वे ही ध्यान के कारण हैं। किन्तु उनमें से मोक्ष का कारण एक वज्रवृषभनाराच संहनन ही है। अन्य संहनन वाले का मन अन्तर्मुहूर्त भी एकाग्र नहीं रह सकता। शंका - यदि ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ही हो सकता है तो आदिनाथ भगवान् ने छह मास तक ध्यान कैसे किया ? समाधान - ध्यान की सन्तान को भी ध्यान कहते हैं। अतः एक विषय में लगातार ध्यान तो अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। उसके बाद ध्येय बदल जाता है। और ध्यान की सन्तान चलती रहती है, अस्तु | इस सूत्र में तीन बातें बतलायी हैं - ध्याता, ध्यान का स्वरूप और ध्यान का काल। सो उत्तम संहनन का धारी पुरुष तो ध्याता हो सकता है। एक पदार्थ को लेकर उसी में चित्त को स्थिर कर देना ध्यान है। जब विचार का विषय एक पदार्थ न होकर नाना पदार्थ होते हैं, तब वह विचार ज्ञान कहलाता है। और जब वह ज्ञान एक ही विषय में स्थिर हो जाता है, तब उसे ही ध्यान कहते हैं। उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त होता है।
  6. अब व्युत्सर्ग तप के भेद कहते हैं- बाह्याभ्यन्तरोपध्योः॥२६॥ अर्थ - त्याग को ही व्युत्सर्ग कहते हैं। उसके दो भेद हैं- बाह्य उपधि त्याग और अभ्यन्तर उपधि त्याग। आत्मा से जुदे धन-धान्य वगैरह का त्याग करना बाह्य उपधि त्याग है और क्रोध, मान, माया आदि भावों का त्याग करना अभ्यन्तर उपधि त्याग है। कुछ समय के लिए अथवा जीवन भर के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना भी अभ्यन्तरोपधि त्याग ही कहा जाता है। इसके करने से मनुष्य निर्भय हो जाता है, वह हल्कापन अनुभव करता है तथा फिर जीवन की तृष्णा उसे नहीं सताती। English - Giving up external and internal attachments are two types of renunciations.
  7. अब स्वाध्याय तप के भेद कहते हैं- वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशाः ॥२५॥ अर्थ - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश- ये पाँच स्वाध्याय के भेद हैं। धर्म के इच्छुक विनयशील पात्रों को शास्त्र देना, शास्त्र का अर्थ बतलाना वाचना तथा शास्त्र भी देना और उसका अर्थ भी बतलाना वाचना है। संशय को दूर करने के लिए अथवा निश्चय करने के लिए विशिष्ट ज्ञानियों से प्रश्न करना पृच्छना है। जाने हुए अर्थ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उसका बार-बार विचार करना अनुप्रेक्षा है। शुद्धता पूर्वक पाठ करना आम्नाय है। धर्म का उपदेश करना धर्मोपदेश है। इस तरह स्वाध्याय के पाँच भेद हैं। स्वाध्याय करने से ज्ञान बढ़ता है, वैराग्य बढ़ता है, तप बढ़ता है, व्रतों में अतिचार नहीं लगने पाता तथा स्वाध्याय से बढ़कर दूसरा कोई सरल उपाय मन को स्थिर करने का नहीं है। अतः स्वाध्याय करना हितकर है। English - Teaching, questioning, reflection, recitation, and preaching are the five types of study.
  8. अब वैय्यावृत्य तप के भेद कहते हैं- आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-संघ साधु-मनोज्ञानाम् ॥२४॥ अर्थ - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ- इन दस प्रकार के साधुओं की अपेक्षा से वैय्यावृत्य के दस भेद हैं।जिनके पास जाकर सब मुनि व्रताचरण करते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। जिनके पास जाकर मुनिगण शास्त्राभ्यास करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। जो साधु बहुत व्रत, उपवास आदि करते हैं, उन्हें तपस्वी कहते हैं। जो साधु श्रुत का अभ्यास करते हैं, उन्हें शैक्ष कहते हैं। रोगी साधुओं को ग्लान कहते हैं। वृद्ध मुनियों की परिपाटी में जो मुनि होते हैं, उन्हें गण कहते हैं। दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य परम्परा को कुल कहते हैं। ऋषि, यति, मुनि और अनगार के भेद से चार प्रकार के साधुओं के समूह को संघ कहते हैं। अथवा मुनि, आर्यिका और श्रावक, श्राविका के समूह को संघ कहते हैं। बहुत समय के दीक्षित मुनि को साधु कहते हैं। जिसका उपदेश लोकमान्य हो अथवा जो लोक में पूज्य हो उस साधु को मनोज्ञ कहते हैं। इनको कोई व्याधि हो जाये या कोई उपसर्ग आ जाये या किसी का श्रद्धान विचलित होने लगे तो उसका प्रतिकार करना, यानि रोग का इलाज करना, संकट को दूर करना, उपदेश आदि के द्वारा श्रद्धान को दृढ़ करना वैय्यावृत्य है। English - Respectful service to the Head (Acharya), the preceptor, the ascetic, the disciple, the ailing ascetic, the congregation of aged saints, the congregation of disciples of a common teacher, the congregation of the four orders (of ascetic, nuns, laymen and laywomen), the long-standing ascetic and the ascetic of high reputation are the ten kinds of service.
  9. अब विनय तप के भेद कहते हैं- ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः ॥२३॥ अर्थ - ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनयये चार भेद विनय के हैं। आलस्य त्यागकर आदरपूर्वक सम्यग्ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना आदि ज्ञान विनय है। तत्त्वार्थ का शंका आदि दोष रहित श्रद्धान करना दर्शन विनय है। अपने मन को चारित्र के पालन में लगाना चारित्र विनय है और आचार्य आदि पूज्य पुरुषों को देखकर उनके लिए उठना, सन्मुख जाकर हाथ जोड़कर वन्दना करना तथा परोक्ष में भी उन्हें नमस्कार करना, उनके गुणों का स्मरण वगैरह करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, यह सब उपचार विनय है। English - Reverence to knowledge, faith, conduct and the custom of homage are the four kinds of reverence.
  10. अब प्रायश्चित्त के नौ भेद कहते हैं- आलोचन-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्गतपश्छेद परिहारोपस्थापनाः ॥२२॥ अर्थ - आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय यानि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना-ये नौ भेद प्रायश्चित्त के हैं। गुरु से अपने प्रमाद को निवेदन करने का नाम आलोचना है। वह आलोचना दस दोषों को बचाकर करनी चाहिए। वे दोष इस प्रकार हैं आचार्य अपने ऊपर दया करके थोड़ा प्रायश्चित्त दें, इस भाव से आचार्य को पिच्छिका-कमण्डलु आदि भेंट करके दोष का निवेदन करना आकम्पित दोष है। गुरु की बातचीत से प्रायश्चित्त का अनुमान लगाकर दोष का निवेदन करना अनुमापित दोष है। जो दोष किसी ने करते नहीं देखा, उसे छिपा जाना और जो दोष करते देख लिया, उसे गुरु से निवेदन करना दृष्ट दोष है। केवल स्थूल दोष का निवेदन करना, बादर दोष है। महान् प्रायश्चित के भय से महानु दोष को छिपा लेना और छोटे दोष का निवेदन करना सूक्ष्म दोष है। दोष निवेदन करने से पहले गुरु से पूछना कि महाराज! यदि कोई ऐसा दोष करे तो उसका क्या प्रायश्चित्त होता है, यह छन्न दोष है। प्रतिक्रमण के दिन जब बहुत से साधु एकत्र हुए हों और खूब हल्ला हो रहा हो उस समय दोष का निवेदन करना, जिससे कोई सुन न सके, शब्दाकुलित दोष है। गुरु ने जो प्रायश्चित्त दिया है, वह उचित है या नहीं, ऐसी आशंका से अन्य साधुओं से पूछना बहुजन नाम का दोष है। गुरु से दोष न कहकर अपने सहयोगी अन्य साधुओं से अपना दोष कहना अव्यक्त नाम का दोष है। और गुरु से प्रमाद का निवेदन न करके, जिस साधु ने अपने समान अपराध किया हो, उससे जाकर पूछना कि तुझे गुरु ने क्या प्रायश्चित दिया है, क्योंकि तेरे समान ही मेरा भी अपराध है, जो प्रायश्चित्त तुझे दिया है, वही मेरे लिये भी युक्त है, यह तत्सेवी नाम का दोष है। इस तरह दस दोष रहित प्रमाद का निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त है। प्रमाद से जो दोष मुझसे हुआ है, वह मिथ्या हो इस तरह अपने किये हुए दोष के विरुद्ध अपनी मानसिक प्रतिक्रिया को प्रकट करना प्रतिक्रमण है। कोई अपराध तो केवल आलोचना से ही शुद्ध हो जाता है, कोई अपराध तो केवल प्रतिक्रमण से ही शुद्ध होता है और कोई आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से शुद्ध होता है, यही तदुभय प्रायश्चित है। सदोष आहार तथा उपकरणों का संसर्ग होने पर उसका त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त है। कुछ समय के लिए कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। अनशन आदि करना तप प्रायश्चित्त है। दीक्षा के समय को छेद देना, जैसे कोई बीस वर्ष का दीक्षित साधु है, अपराध करने के कारण उसकी दस वर्ष की दीक्षा छेद दी गई, अतः अब वह दस वर्ष का दीक्षित माना जायेगा और जो दस वर्ष से एक दिन अधिक के भी दीक्षित साधु हैं, उन्हें इसे नमस्कार करना होगा। यह छेद प्रायश्चित्त है। कुछ समय के लिए संघ से निकाल देना परिहार प्रायश्चित्त है। और पुरानी दीक्षा को छेदकर फिर से दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है। English - Confession, repentance, a combination of confession and repentance, discretion, giving up attachment to the body, penance, suspension, expulsion, and initiation are the nine types of expiration.
  11. इसके बाद इन अभ्यन्तर तपों के उप-भेदों की संख्या कहते हैं- नव-चतुर्दश-पञ्च-द्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥२१॥ अर्थ - प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं। विनय के चार भेद हैं। वैयावृत्य के दस भेद हैं। स्वाध्याय के पाँच भेद हैं और व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। इस तरह ध्यान से पहले पाँच प्रकार के तपों के ये भेद हैं। English - These are of nine, four ten, five and two kinds of expiation, reverence, service, study, and renunciation respectively.
  12. अब अभ्यन्तर तप के भेद कहते हैं- प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ अर्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यानये छह अभ्यन्तर तप हैं। ये तप मन को वश में करने के लिए किये जाते हैं, इसलिए उन्हें अभ्यन्तर तप कहते हैं। प्रमाद से लगे हुए दोषों को दूर करना प्रायश्चित्त तप है। पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। शरीर वगैरह के द्वारा सेवा सुश्रुषा करने को वैयावृत्य कहते हैं। आलस्य त्याग कर ज्ञान का आराधन करना स्वाध्याय है। ममत्व के त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। और चित्त की चंचलता के दूर करने को ध्यान कहते हैं। English - Expiation, reverence, service to ascetic, study, renunciation and meditation are the internal austerities.
  13. आगे तप का कथन करते हैं। तप के दो भेद हैं- बाह्यतप और अभ्यन्तर तप। इनमें से भी प्रत्येक के छह भेद हैं। पहले बाह्य तप के छह भेद कहते हैं- अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥१९॥ अर्थ - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, ये छह बाह्यतप के भेद हैं। ख्याति, पूजा, मन्त्र-सिद्धि वगैरह लौकिक फल की अपेक्षा न करके, संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का विनाश, ध्यान तथा स्वाध्याय की सिद्धि के लिए भोजन का त्याग करना अनशन तप है। संयम को जागृत रखने के लिए, विकारों की शान्ति के लिए, सन्तोष और स्वाध्याय आदि की सुखपूर्वक सिद्धि के लिए अल्प आहार करना अवमौर्य तप है। जब मुनि भिक्षा के लिए निकलें तो घरों का नियम करना कि मैं आहार के लिए इतने घर जाऊँगा अथवा अमुक रीति से आहार मिलेगा तो लूँगा, इसे वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं। यह तप भोजन की आशा को रोकने के लिए किया जाता है। इन्द्रियों के दमन के लिए, निद्रा पर विजय पाने के लिए तथा सुखपूर्वक स्वाध्याय करने के लिए घी, दूध, दही, तेल, मीठा और नमक का यथायोग्य त्याग करना रस परित्याग तप है। ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिए एकान्त में शयन करना तथा आसन लगाना विविक्त शय्यासन तप है। कष्ट सहने के अभ्यास के लिए, आराम तलबी की भावना को दूर करने के लिए और धर्म की प्रभावना के लिए ग्रीष्म ऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान लगाना, शीत ऋतु में खुले मैदान में सोना, अनेक प्रकार के आसन लगाना आदि कायक्लेश तप है। बाह्य द्रव्य खान-पान आदि की अपेक्षा से ये तप किये जाते हैं तथा इन तपों का पता दूसरे लोगों को भी लग जाता है, इसलिये इन्हें बाह्य तप कहते हैं। English - The external austerities are fasting, reduced diet, special restrictions while accepting food from a household, giving up stimulating and delicious dishes, lonely habitation and mortification of the body. शंका - परीषह में और कायक्लेश तप में क्या अन्तर है ? समाधान - कायक्लेश स्वयं किया जाता है और परीषह अचानक आ जाते हैं।
  14. अब चारित्र के भेद कहते हैं- सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमिति चारित्रम् ॥१८॥ अर्थ - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात, इस तरह पाँच प्रकार का चारित्र है। समस्त सावद्ययोग का एकरूप त्याग करना सामायिक चारित्र है। सामायिक चारित्र से डिगने पर प्रायश्चित के द्वारा सावद्य व्यापार में लगे हुए दोषों को छेदकर पुनः संयम धारण करना छेदोपस्थापना चारित्र है। अथवा समस्त सावद्य योग का भेद रूप से त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र है। अर्थात् मैंने समस्त पाप कार्यों का त्याग किया। यह सामायिक चारित्र का रूप है और मैंने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्याग किया, यह छेदोपस्थापना चारित्र का रूप है। जिस चारित्र में प्राणीहिंसा की पूर्णनिवृत्ति होने से विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है, उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं। जिसने अपने जन्म से तीस वर्ष की अवस्था तक सुखपूर्वक जीवन बिताया हो और फिर जिनदीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थंकर के निकट प्रत्याख्यान नाम के नौवें पूर्व को पढ़ा हो और तीनों सन्ध्या कालों को छोड़ कर दो कोस विहार करने का जिसके नियम हो, उस दुर्द्धर चर्या के पालक महामुनि को ही परिहार विशुद्धि चारित्र होता है। इस चारित्र वाले के शरीर से जीवों का घात नहीं होता, इसी से इसका नाम परिहार विशुद्धि है। अत्यन्त सूक्ष्म कषाय के होने से सूक्ष्म साम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में जो चारित्र होता है, उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से अथवा क्षय से जैसा आत्मा का निर्विकार स्वभाव है, वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। इस चारित्र को अथाख्यात भी कहते हैं, क्योंकि अथ शब्द का अर्थ अनन्तर है और यह समस्त मोहनीय के क्षय अथवा उपशम होने के अन्तर ही होता है। तथा इसे तथाख्यात भी कहते हैं, क्योंकि जैसा आत्मा का स्वभाव है, वैसा ही इस चारित्र का स्वरूप है। सूत्र में जो यथाख्यात के बाद इति शब्द है, वह यह बतलाता है कि यथाख्यात चारित्र से सकल कर्मों के क्षय की पूर्ति हो जाती है ॥१८॥ English - Equanimity, reinitiation in case of failure to keep the vow by taking to the vow again after penance, purity of non-injury, slight passion for greed and subsidence or dissociation of deluding karmas are the five kinds of conduct.
  15. एक व्यक्ति में एक साथ कितने परीषह हो सकते हैं- यह बतलाते हैं- एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतेः ॥१७॥ अर्थ - एक जीव के एक साथ एक से लेकर उन्नीस परीषह तक हो सकते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण में से एक समय में एक ही होगा। तथा चर्या, शय्या और निषद्या में से एक ही होगा। अतः तीन के कम हो जाने से शेष उन्नीस परीषह एक साथ एक व्यक्ति में हो सकते हैं। English - A maximum of nineteen afflictions can occur simultaneously since one out of cold and heat and one out of pain arising from roaming, the discomfort of postures and uncomfortable couch can occur at a time.
  16. वेदनीये शेषाः ॥१६॥ अर्थ - शेष ग्यारह परीषह अर्थात् क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल परीषह वेदनीय कर्म के उदय में होते हैं। English - The other afflictions are caused by feeling producing karmas.
  17. चारित्रमोहे नाग्न्यारति-स्त्री-निषद्याक्रोश-याचना सत्कारपुरस्काराः॥१५॥ अर्थ - चारित्र मोहनीय के उदय में नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार ये सात परीषह होते हैं। English - The affection of nakedness, the absence of pleasures, women, the discomfort of postures, scolding, begging and reverence and honor are caused by conduct-deluding karmas.
  18. दर्शन-मोहान्तराययो-रदर्शनालाभौ ॥१४॥ अर्थ - दर्शनमोह के होने पर अदर्शन परीषह होता है और अन्तराय कर्म के उदय से अलाभ परीषह होता है। English - Lack of faith and lack of gain are caused by faith-deluding and obstructive karmas.
  19. किस कर्म के उदय से कौन परीषह होता है। यह भी बतलाते हैं- ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥१३॥ अर्थ- ज्ञानावरण के होने पर प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं। English - Arrogance of learning and ignorance are caused by knowledge-covering karmas. शंका - ज्ञानावरण का उदय होने पर अज्ञान परीषह का होना तो ठीक है, परन्तु प्रज्ञा तो ज्ञानावरण के चले जाने पर होती है; क्योंकि प्रज्ञा का अर्थ है ज्ञान और ज्ञान आत्मा का स्वभाव है ? समाधान - प्रज्ञा परीषह का अर्थ है ज्ञान का मद हो तो उसे न होने देना । सो मद ज्ञानावरण के उदय में ही होता है; जिनके समस्त ज्ञानावरण नष्ट हो जाता है,उनके ज्ञान का मद नहीं होता। अतः प्रज्ञा परीषह ज्ञानावरण के उदय में ही होता है।
  20. अन्य गुणस्थानों में परीषह कहते हैं- बादर-साम्पराये सर्वे ॥१२॥ अर्थ - बादर साम्पराय अर्थात् छठे से लेकर नौवें गुणस्थान तक सब परीषह होते हैं। English - All the affections arise in the case of the ascetic with gross passions in sixth to ninth stage. विशेषार्थ - यद्यपि नौवें गुणस्थान का नाम बादर साम्पराय है। किन्तु यहाँ बादरसाम्पराय से नौवां गुणस्थान न लेकर ‘बादरसाम्पराय' शब्द का अर्थ लेना चाहिए। अर्थात् बादर यानि स्थूल और साम्पराय यानि कषाय जिनमें पायी जाती है ऐसे गुणस्थान छठे से नौवें तक हैं। उनमें कषाय का उदय होने से सभी परीषह होते हैं।
  21. एकादश जिने ॥११॥ अर्थ - चार घातिया कर्मों से रहित जिन भगवान् में वेदनीय कर्म का सद्भाव होने से ग्यारह परीषह होते हैं। English - From the point of pleasant feeling producing karmas eleven affections with the exception of lack of gain, the arrogance of learning and despair or uneasiness arising from ignorance described in the previous sutra, occur to the Omniscient Jina. However, in the absence of deluding karmas, these afflictions are ineffective as far as Omniscient Jina is concerned. शंका - यदि केवली भगवान् में ग्यारह परीषह होते हैं, तो उन्हें भूख-प्यास की बाधा भी होनी चाहिए। समाधान - मोहनीय कर्म का उदय न होने से वेदनीय कर्म में भूख-प्यास की वेदना को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रहती। जैसे मन्त्र और औषधि के बल से जिसकी मारने की शक्ति नष्ट कर दी जाती है। उस विष को खाने से मरण नहीं होता है, वैसे ही घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से अनन्त चतुष्टय से युक्त केवली भगवान् के अन्तराय कर्म का भी अभाव हो जाता है और लगातार शुभ नो-कर्म वर्गणाओं का संचय होता रहता है। इन कारणों से निःसहाय वेदनीय कर्म अपना काम नहीं कर सकता। इसी से केवली के भूख-प्यास की वेदना नहीं होती। फिर भी उनके वेदनीय का उदय है। अतः ग्यारह परीषह उपचार से कहे हैं।
  22. किस गुणस्थान में कितनी परीषह होते हैं, यह बतलाते हैं- सूक्ष्मसाम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥ अर्थ - सूक्ष्म साम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में और छद्मस्थवीतराग यानि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परीषह होते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले आठ परीषह नहीं होते, क्योंकि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का उदय ही नहीं है। दसवें में केवल लोभ संज्वलन कषाय का उदय है, वह भी अत्यन्त सूक्ष्म है। अत: दसवाँ गुणस्थान भी वीतराग छद्मस्थ के ही तुल्य है। इसलिए उसमें भी मोहजन्य आठ परीषह नहीं होते। English - There are fourteen stages of the transmigratory soul. Fourteen afflictions occur in the case of the saints in the tenth and twelth stages. These are hunger, thirst, cold, heat, insect bite, pain arising from roaming, uncomfortable couch, injury, lack of gain, illness, pain inflicted by blades of grass, dirt, the arrogance of learning and despair or uneasiness arising from ignorance.
  23. उद्देश्य बतलाकर परीषहों के स्वरूप को कहते हैं- क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंशमशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्यानिषद्या-शय्याक्रोश-वध-याचनाऽलाभ-रोग-तृणस्पर्श मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥९॥ अर्थ - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परीषह हैं। मोक्षार्थी को इन्हें सहना चाहिए। English - Hunger, thirst, cold, heat, insect-bites, nakedness, absence of pleasures, women, pain arising from roaming, discomfort of postures, uncomfortable couch, scolding, injury, begging, lack of gain, illness, pain inflicted by blades of grass, dirt, reverence and honour (good as well as bad reception), arrogance of learning, despair or uneasiness arising from ignorance and lack of faith are the twenty-two afflictions or hardships. अत्यन्त भूख की पीड़ा होने पर धैर्य के साथ उसे सहना क्षुधा परीषह जय है ॥१॥ प्यास की कठोर वेदना होते हुए भी प्यास के वश में नहीं होना पिपासा परीषह जय है ॥२॥ शीत से पीड़ित होते हुए भी शीत का प्रतिकार करने की भावना भी मन में न होना शीत परीषह जय है ॥३॥ ग्रीष्म ऋतु आदि के कारण गर्मी का घोर कष्ट होते हुए भी उससे विचलित न होना उष्ण परीषह जय है ॥४॥ डांस, मच्छर, मक्खी, पिस्सु वगैरह के काटने पर भी परिणामों में विषाद का न होना दंशमशक परीषह जय है ॥५॥ माता के गर्भ से उत्पन्न हुए बालक की तरह निर्विकार नग्न रूप धारण करना नाग्न्य परीषह जय है ॥६॥ अरति उत्पन्न होने के अनेक कारण होते हुए भी संयम में अत्यन्त प्रेम होना अति परीषह जय है ॥७॥ स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचायी जाने पर भी उनके रूप को देखने की अथवा उनका आलिंगन करने की भावना का भी न होना स्त्री परीषह जय है ॥८॥ पवन की तरह एकाकी विहार करते हुए भयानक वन में भी सिंह की तरह निर्भय रहना और नंगे पैरों में कंकर-पत्थर चुभने पर भी खेद-खिन्न न होना चर्या परीषह जय है ॥९॥ जिस आसन से बैठे हों उससे विचलित न होना निषद्या परीषहजय है ॥१०॥ रात्रि में ऊँची-नीची कठोर भूमि पर पूरा बदन सीधा रखकर एक करवट से सोना शय्या परीषह जय है ॥११॥ अत्यन्त कठोर वचनों को सुनकर भी शान्त रहना आक्रोश परीषह जय है ॥१२॥ जैसे चन्दन को जलाने पर भी वह सुगन्ध ही देता है, वैसे ही अपने को मारने-पीटने वालों पर भी क्रोध न करके उनका भला ही विचारना वध परीषह जय है ॥१३॥ आहार वगैरह के न मिलने से भले ही प्राण चले जायें। किन्तु किसी से याचना करना तो दूर, मुँह पर दीनता भी न लाना याचना परीषह जय है ॥१४॥ आहारादि का लाभ न होने पर भी वैसा ही सन्तुष्ट रहना, जैसा लाभ होने पर यह अलाभ परीषह जय है ॥१५॥ शरीर में अनेक व्याधियाँ होते हुए भी उनकी चिकित्सा का विचार भी न करना रोग परीषह जय है ॥१६॥ तृण काँटे वगैरह की वेदना को सहना तृणस्पर्श परीषह जय है ॥१७॥ अपने शरीर में लगे हुए मल की ओर लक्ष्य न देकर आत्म-भावना में ही लीन रहना मल परीषह जय है ॥१८॥ सम्मान और अपमान में समभाव रखना और आदर-सत्कार न होने पर खेद-खिन्न न होना, सत्कार पुरस्कार परीषह जय है ॥१९॥ अपने पाण्डित्य का गर्व न होना प्रज्ञा परीषह जय है ॥२०॥ यदि कोई तिरस्कार करे, तू अज्ञानी है, कुछ जानता नहीं है तो उससे खिन्न न होकर ज्ञान की प्राप्ति का ही बराबर प्रयत्न करते रहना, अज्ञान परीषह है ॥२१॥ श्रद्धान से च्युत होने के निमित्त उपस्थित होने पर भी मुनिमार्ग में बराबर आस्था बनाये रखना अदर्शन परीषह जय है ॥२२॥ इस तरह इन बाईस परीषहों को संक्लेश रहित चित्त से सहन करने से महान् संवर होता है।
  24. परीषह क्यों सहना चाहिए ? यह प्रश्न होने पर परीषहों को सहने का उद्देश्य बतलाते हैं- मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषहाः ॥८॥ अर्थ - संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिये परीषहों को सहना चाहिए। अर्थात् जो स्वेच्छा से भूख-प्यास वगैरह के परीषह को सहते हैं, उनके ऊपर जब कोई उपसर्ग आता है, तो कष्ट सहन करने का अभ्यास होने से वे उन उपसर्गों से घबरा कर अपने मार्ग से डिगते नहीं हैं। और इनके सहन करने से कर्मों की निर्जरा भी होती है। अतः विपत्ति के समय मन को स्थिर रखने के लिये परीषहों को सहना ही उचित है। English - The afflictions or hardships (22 types) are to be endured so as not to swerve from the path of stoppage of karmas and for the sake of dissociation of karmas.
  25. इसके बाद बारह अनुप्रेक्षाओं को कहते हैं- अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव-संवर-निर्जरालोकबोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ अर्थ - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि-दुर्लभ, धर्मस्वाख्यात इन बारहों के स्वरूप का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। इन्द्रियों के विषय, धन, यौवन, जीवन वगैरह जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं-ऐसा विचारना अनित्य अनुप्रेक्षा है। ऐसा विचारते रहने से इनका वियोग होने पर भी दु:ख नहीं होता ॥१॥ इस संसार में कोई शरण नहीं है। पालपोस कर पुष्ट हुआ शरीर भी कष्ट में साथ नहीं देता, बल्कि उल्टा कष्ट का ही कारण होता है। बन्धु-बान्धव भी मृत्यु से नहीं बचा सकते। इस प्रकार का विचार करना अशरण अनुप्रेक्षा है॥२॥ संसार के स्वभाव का विचार करना संसारानुप्रेक्षा है। संसार में मैं अनादिकाल से अकेला ही घूमता हूँ। न कोई मेरा अपना है और न कोई पराया। धर्म ही एक मेरा सहायक है। ऐसा विचारना एकत्व अनुप्रेक्षा है ॥४॥ शरीर वगैरह से अपने को भिन्न विचारना अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। शरीर की अपवित्रता का विचार करना अशुचित्व अनुप्रेक्षा है ॥६॥ आस्रव के दोषों का विचार करना आस्रव अनुप्रेक्षा है ॥७॥ संवर के गुणों का विचार करना संवर अनुप्रेक्षा है ॥८॥ निर्जरा के गुण-दोषों का विचार करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है ॥९॥ लोक के आकार वगैरह का विचार करना लोक अनुप्रेक्षा है। इसका विचार करने से ज्ञान की विशुद्धि होती है ॥१०॥ ज्ञान की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है, अत: ज्ञान को पाकर विषय सुख में नहीं डूबना चाहिए। इत्यादि विचारना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है ॥११॥ अर्हन्त भगवान् के द्वारा अनुप्रेक्षा है ॥१२॥ इन बारह अनुप्रेक्षाओं की भावना करने से मनुष्य उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों को भी अच्छी रीति से पालता है और आगे कही जाने वाले परीषहों को भी जीतने का उत्साह करता है। इसी से अनुप्रेक्षाओं को धर्म और परीषहों के बीच में रखा है। English - Reflection is meditating on transitoriness, helplessness, trans-migration, loneliness, distinctness, impurity, influx, stoppage, dissociation, the universe, rarity of enlightenment and the truth proclaimed by religion.
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