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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 9 : सूत्र 20

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    Vidyasagar.Guru

    अब अभ्यन्तर तप के भेद कहते हैं-

     

    प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय

    व्युत्सर्ग ध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥

     

     

    अर्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यानये छह अभ्यन्तर तप हैं। ये तप मन को वश में करने के लिए किये जाते हैं, इसलिए उन्हें अभ्यन्तर तप कहते हैं। प्रमाद से लगे हुए दोषों को दूर करना प्रायश्चित्त तप है। पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। शरीर वगैरह के द्वारा सेवा सुश्रुषा करने को वैयावृत्य कहते हैं। आलस्य त्याग कर ज्ञान का आराधन करना स्वाध्याय है। ममत्व के त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। और चित्त की चंचलता के दूर करने को ध्यान कहते हैं।

     

    English - Expiation, reverence, service to ascetic, study, renunciation and meditation are the internal austerities.


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