उद्देश्य बतलाकर परीषहों के स्वरूप को कहते हैं-
क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंशमशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्यानिषद्या-शय्याक्रोश-वध-याचनाऽलाभ-रोग-तृणस्पर्श
मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥९॥
अर्थ - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परीषह हैं। मोक्षार्थी को इन्हें सहना चाहिए।
English - Hunger, thirst, cold, heat, insect-bites, nakedness, absence of pleasures, women, pain arising from roaming, discomfort of postures, uncomfortable couch, scolding, injury, begging, lack of gain, illness, pain inflicted by blades of grass, dirt, reverence and honour (good as well as bad reception), arrogance of learning, despair or uneasiness arising from ignorance and lack of faith are the twenty-two afflictions or hardships.
अत्यन्त भूख की पीड़ा होने पर धैर्य के साथ उसे सहना क्षुधा परीषह जय है ॥१॥ प्यास की कठोर वेदना होते हुए भी प्यास के वश में नहीं होना पिपासा परीषह जय है ॥२॥ शीत से पीड़ित होते हुए भी शीत का प्रतिकार करने की भावना भी मन में न होना शीत परीषह जय है ॥३॥ ग्रीष्म ऋतु आदि के कारण गर्मी का घोर कष्ट होते हुए भी उससे विचलित न होना उष्ण परीषह जय है ॥४॥ डांस, मच्छर, मक्खी, पिस्सु वगैरह के काटने पर भी परिणामों में विषाद का न होना दंशमशक परीषह जय है ॥५॥ माता के गर्भ से उत्पन्न हुए बालक की तरह निर्विकार नग्न रूप धारण करना नाग्न्य परीषह जय है ॥६॥ अरति उत्पन्न होने के अनेक कारण होते हुए भी संयम में अत्यन्त प्रेम होना अति परीषह जय है ॥७॥ स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचायी जाने पर भी उनके रूप को देखने की अथवा उनका आलिंगन करने की भावना का भी न होना स्त्री परीषह जय है ॥८॥ पवन की तरह एकाकी विहार करते हुए भयानक वन में भी सिंह की तरह निर्भय रहना और नंगे पैरों में कंकर-पत्थर चुभने पर भी खेद-खिन्न न होना चर्या परीषह जय है ॥९॥ जिस आसन से बैठे हों उससे विचलित न होना निषद्या परीषहजय है ॥१०॥ रात्रि में ऊँची-नीची कठोर भूमि पर पूरा बदन सीधा रखकर एक करवट से सोना शय्या परीषह जय है ॥११॥ अत्यन्त कठोर वचनों को सुनकर भी शान्त रहना आक्रोश परीषह जय है ॥१२॥ जैसे चन्दन को जलाने पर भी वह सुगन्ध ही देता है, वैसे ही अपने को मारने-पीटने वालों पर भी क्रोध न करके उनका भला ही विचारना वध परीषह जय है ॥१३॥ आहार वगैरह के न मिलने से भले ही प्राण चले जायें। किन्तु किसी से याचना करना तो दूर, मुँह पर दीनता भी न लाना याचना परीषह जय है ॥१४॥ आहारादि का लाभ न होने पर भी वैसा ही सन्तुष्ट रहना, जैसा लाभ होने पर यह अलाभ परीषह जय है ॥१५॥ शरीर में अनेक व्याधियाँ होते हुए भी उनकी चिकित्सा का विचार भी न करना रोग परीषह जय है ॥१६॥ तृण काँटे वगैरह की वेदना को सहना तृणस्पर्श परीषह जय है ॥१७॥ अपने शरीर में लगे हुए मल की ओर लक्ष्य न देकर आत्म-भावना में ही लीन रहना मल परीषह जय है ॥१८॥ सम्मान और अपमान में समभाव रखना और आदर-सत्कार न होने पर खेद-खिन्न न होना, सत्कार पुरस्कार परीषह जय है ॥१९॥ अपने पाण्डित्य का गर्व न होना प्रज्ञा परीषह जय है ॥२०॥ यदि कोई तिरस्कार करे, तू अज्ञानी है, कुछ जानता नहीं है तो उससे खिन्न न होकर ज्ञान की प्राप्ति का ही बराबर प्रयत्न करते रहना, अज्ञान परीषह है ॥२१॥ श्रद्धान से च्युत होने के निमित्त उपस्थित होने पर भी मुनिमार्ग में बराबर आस्था बनाये रखना अदर्शन परीषह जय है ॥२२॥ इस तरह इन बाईस परीषहों को संक्लेश रहित चित्त से सहन करने से महान् संवर होता है।