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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 9 : सूत्र 22

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    Vidyasagar.Guru

    अब प्रायश्चित्त के नौ भेद कहते हैं-

     

    आलोचन-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्गतपश्छेद

    रिहारोपस्थापनाः ॥२२॥

     

     

    अर्थ - आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय यानि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना-ये नौ भेद प्रायश्चित्त के हैं। गुरु से अपने प्रमाद को निवेदन करने का नाम आलोचना है। वह आलोचना दस दोषों को बचाकर करनी चाहिए। वे दोष इस प्रकार हैं आचार्य अपने ऊपर दया करके थोड़ा प्रायश्चित्त दें, इस भाव से आचार्य को पिच्छिका-कमण्डलु आदि भेंट करके दोष का निवेदन करना आकम्पित दोष है। गुरु की बातचीत से प्रायश्चित्त का अनुमान लगाकर दोष का निवेदन करना अनुमापित दोष है। जो दोष किसी ने करते नहीं देखा, उसे छिपा जाना और जो दोष करते देख लिया, उसे गुरु से निवेदन करना दृष्ट दोष है। केवल स्थूल दोष का निवेदन करना, बादर दोष है। महान् प्रायश्चित के भय से महानु दोष को छिपा लेना और छोटे दोष का निवेदन करना सूक्ष्म दोष है। दोष निवेदन करने से पहले गुरु से पूछना कि महाराज! यदि कोई ऐसा दोष करे तो उसका क्या प्रायश्चित्त होता है, यह छन्न दोष है। प्रतिक्रमण के दिन जब बहुत से साधु एकत्र हुए हों और खूब हल्ला हो रहा हो उस समय दोष का निवेदन करना, जिससे कोई सुन न सके, शब्दाकुलित दोष है। गुरु ने जो प्रायश्चित्त दिया है, वह उचित है या नहीं, ऐसी आशंका से अन्य साधुओं से पूछना बहुजन नाम का दोष है। गुरु से दोष न कहकर अपने सहयोगी अन्य साधुओं से अपना दोष कहना अव्यक्त नाम का दोष है। और गुरु से प्रमाद का निवेदन न करके, जिस साधु ने अपने समान अपराध किया हो, उससे जाकर पूछना कि तुझे गुरु ने क्या प्रायश्चित दिया है, क्योंकि तेरे समान ही मेरा भी अपराध है, जो प्रायश्चित्त तुझे दिया है, वही मेरे लिये भी युक्त है, यह तत्सेवी नाम का दोष है। इस तरह दस दोष रहित प्रमाद का निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त है।

     

    प्रमाद से जो दोष मुझसे हुआ है, वह मिथ्या हो इस तरह अपने किये हुए दोष के विरुद्ध अपनी मानसिक प्रतिक्रिया को प्रकट करना प्रतिक्रमण है। कोई अपराध तो केवल आलोचना से ही शुद्ध हो जाता है, कोई अपराध तो केवल प्रतिक्रमण से ही शुद्ध होता है और कोई आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से शुद्ध होता है, यही तदुभय प्रायश्चित है। सदोष आहार तथा उपकरणों का संसर्ग होने पर उसका त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त है। कुछ समय के लिए कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। अनशन आदि करना तप प्रायश्चित्त है। दीक्षा के समय को छेद देना, जैसे कोई बीस वर्ष का दीक्षित साधु है, अपराध करने के कारण उसकी दस वर्ष की दीक्षा छेद दी गई, अतः अब वह दस वर्ष का दीक्षित माना जायेगा और जो दस वर्ष से एक दिन अधिक के भी दीक्षित साधु हैं, उन्हें इसे नमस्कार करना होगा। यह छेद प्रायश्चित्त है। कुछ समय के लिए संघ से निकाल देना परिहार प्रायश्चित्त है। और पुरानी दीक्षा को छेदकर फिर से दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है।

     

    English - Confession, repentance, a combination of confession and repentance, discretion, giving up attachment to the body, penance, suspension, expulsion, and initiation are the nine types of expiration.


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