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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 9 : सूत्र 27

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    Vidyasagar.Guru

    अब ध्यान का वर्णन करते हैं-

     

    उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥

     

     

    अर्थ - उत्तम संहनन के धारक मनुष्य का अपने चित्त की वृत्ति को सब ओर से रोक कर एक ही विषय में लगाना ध्यान है। यह ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है।

     

    English - Concentration of thought on one particular object is meditation. In the case of a person with the best physical structure or constitution, it extends up to one muhurta.  

     

    विशेषार्थ - आदि के तीन संहनन उत्तम हैं। वे ही ध्यान के कारण हैं। किन्तु उनमें से मोक्ष का कारण एक वज्रवृषभनाराच संहनन ही है। अन्य संहनन वाले का मन अन्तर्मुहूर्त भी एकाग्र नहीं रह सकता।

     

    शंका - यदि ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ही हो सकता है तो आदिनाथ भगवान् ने छह मास तक ध्यान कैसे किया ?

    समाधान - ध्यान की सन्तान को भी ध्यान कहते हैं। अतः एक विषय में लगातार ध्यान तो अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। उसके बाद ध्येय बदल जाता है। और ध्यान की सन्तान चलती रहती है, अस्तु |

     

    इस सूत्र में तीन बातें बतलायी हैं - ध्याता, ध्यान का स्वरूप और ध्यान का काल। सो उत्तम संहनन का धारी पुरुष तो ध्याता हो सकता है। एक पदार्थ को लेकर उसी में चित्त को स्थिर कर देना ध्यान है। जब विचार का विषय एक पदार्थ न होकर नाना पदार्थ होते हैं, तब वह विचार ज्ञान कहलाता है। और जब वह ज्ञान एक ही विषय में स्थिर हो जाता है, तब उसे ही ध्यान कहते हैं। उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त होता है।


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