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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. मैं (क्षमासागर जी) उस दिन पहली बार आचार्य महाराज के दर्शन करने कुण्डलपुर गया था।आचार्य महाराज छोटे से कमरे में बैठे थे। इतना बड़ा व्यक्तित्व इतने छोटे स्थान में समा गया, इस बात ने मुझे चकित ही किया। उनके ठीक पीछे खुली हुई एक बड़ी सी खिड़की और उससे झाँकता आकाश, उस दिन पहली बार बहुत अच्छा लगा। खिड़की से आती रोशनी में दमकती आचार्य- महाराज की निरावरित देह से निरन्तर झरते वीतराग-सौन्दर्य ने मेरा मन मोह लिया। क्षण भर के लिए मैं वीतरागता के आकर्षण में खो गया और कमरे के बाहर ही ठिठका खड़ा रह गया। फिर लगा कि भीतर जाना चाहिए। दर्शन तो भीतर से ही संभव है। बाहर से दर्शन नही हो पाता, पर भीतर पहुँचना आसान भी नही था। दरवाजे पर भीड़ बहुत थी ही पर में स्वयं भी तो भीड़ से घिरा था। यह सोच कर की कभी संभव हुआ तो एकाकी होकर आऊँगा, मै वापस लौट आया, लेकिन सचमुच में आज तक लौट नही पाया। अब तो यही चाहता हूं कि-जीवन भर उन "श्रीचरणों में बना रहूँ, वहाँ से कभी दूर ना होऊँ।" उनके दर्शन करके मुझे वीतरागता के जीवन्त सौन्दर्य की जो अनुभूति हुई है वह सदा बनी रहे, यही मेरी प्रथम दर्शन की उपलब्धि है। सच मे जो एक बार आचार्य महाराज को देख लेता है, वह जीवन पर्यन्त उन्ही का हो जाता हैं। यह उनकी वीतरागता, साधना और तपस्या का प्रभाव ही है। कुण्डलपुर(1976) आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार
  2. धर्म संस्कृति 9 - पर्व विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भारतीय पर्व जहाँ सामाजिक, राष्ट्रीय और ऐतिहासिक महत्ता को लिये होते हैं तो वहीं प्राचीन संस्कृति से भी वह अत्यधिक सम्बद्ध रहते हैं। पर्व का अर्थ है सन्धिकाल। एक ऐसा अवसर जिसमें हमारा मन धर्म-ध्यान की ओर सहज ही प्रेरित होता है। पर्व, सिर्फ खाने-पीने और मनोरंजन के लिये ही नहीं आते किन्तु जीवन में परिवर्तन और आदर्श स्थापित करने के लिये आते हैं। अष्टमी और चतुर्दशी जैन परम्परा में ऐसे शाश्वत पर्व माने गये हैं जिनका सम्बन्ध प्रकृति, तत्व विज्ञान और सौरमंडल से है। यही वजह है कि इन दिनों में गृहस्थ और साधुओं को तन-मन और चेतन को स्वस्थ सौम्य बनाये रखने के लिये उपवास आदि तपों के विधान बनाये गये। पर्व आने का अभिप्राय ही सिर्फ इतना है कि हम जागें और अतीत में घटी हुई घटनाओं को आदर्श बनाकर उस राह पर चलने का प्रयास करें। दीपावली का पर्व सामाजिक और ऐतिहासिक होते हुए भी अत्यधिक धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है। इस दिन ऐसा कोई भी घर नहीं रहता जहाँ संस्कृति से जुड़े हुए महापुरुषों की पुरातन गाथा न दुहराई जाती हो। कार्तिक कृष्णा अमावस्या की प्रत्यूष बेला में भगवान महावीर स्वामी इस संसार से मुक्त हुए और शाम को गणधर गौतमस्वामी ने केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्हीं प्रसंगों की पावन स्मृति स्वरूप आज भी जन-जन प्रात: निर्वाण लाडू चढ़ाता है एवं शाम को अज्ञान तिमिर नाशक भावना से दीपक जलाकर दीपावली पर्व मनाता है। इस पर्व के सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी है कि श्री रामचंद्र जी जब लंका विजय के पश्चात् अयोध्या नगरी में पधारे तब नगर वासियों ने उनके स्वागत में खुशियों के दीप जलाये थे। इसे ऐसा समझना चाहिए कि यह पर्व विजयी सत्य के स्वागत का पर्व है। जिस तरह आदिनाथ को धर्मतीर्थ का कर्ता कहा जाता है उसी तरह राजा श्रेयांस को भी दान तीर्थ का कर्ता कहना चाहिए, क्योंकि मुनिराज आदिनाथ को प्रथम आहार दान देकर राजा श्रेयांस ने सर्वस्व त्यागी पात्रों को दान देने की परम्परा प्रारंभ की। श्रुत पंचमी का पर्व, जिनवाणी आराधना का वह पावन स्मृति दिवस है जिस दिन आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम सूत्र ग्रन्थों की रचना पूर्ण की थी तथा श्रावकों ने उन सिद्धान्त ग्रन्थों की भक्ति-भाव से पूजा की थी। रक्षाबन्धन का पर्व वात्सल्य का पर्व है, रक्षा का पर्व है। इसी भावना से प्रेरित होकर जब विष्णुकुमार जैसे तपस्वी मुनिराज भी आगे आये और ७०० मुनियों का उपसर्ग दूर किया तब हमें भी सोचना चाहिए और धर्म संस्कृति की रक्षा के लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिए। स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना ही रक्षाबन्धन मनाने का वास्तविक रहस्य है। चाहे अष्टान्हिका पर्व हो या दशलक्षण, श्रावकों को चाहिए कि वह इन दिनों में हिंसा, आरंभादिक पाप कार्यों से ज्यादा से ज्यादा बचें तथा अहिंसाव्रत का पालन करते हुए सादगी-सात्विकता से समय बिताकर धर्मध्यान करें। जो राग-द्वेष कर्मादि विभावों को जलाता है, नष्ट करता है, जीवन में प्रभात लाता है वह पर्युषण कहलाता है। ऐसा महान् पर्वराज पर्युषण न कभी आता है न कभी जाता है, वह तो सदा विद्यमान रहता है। इसका हम अनुभव भी कर सकते हैं, होनी चाहिए सिर्फ जिज्ञासा और समझ |
  3. धर्म संस्कृति 8 - साहित्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जैन साहित्य के बिना भारतीय साहित्य सम्पदा अधूरी ही मानी जायेगी। साहित्य तो वह सेतु है जो साधक और साधना के दो किनारों को जोड़ता है। हित से जो युक्त है वह है सहित और सहित का भाव ही साहित्य है। श्रमण संस्कृति श्रुत साहित्य की अविच्छिनता पर निर्भर है क्योंकि इस विषम काल में श्रुत साहित्य ही आदित्य का काम करता है। सन्तों के मानस पटल पर उठी संवेदनाओं से प्रेरित स्वपर हित के लिये चली हुई लेखनी साहित्य का निर्माण करती है। जैनाचार्यों ने लोकभाषा एवं जनभावनाओं को दृष्टिगत कर साहित्य को भाषा और प्रान्त की सीमा से परे रखा है। हमारा साहित्य उस भारतीय मनीषा से सम्बद्ध है जिसने जगत् और जीवन के रहस्य सूत्रों को जाना और परखा है। सृजन के क्षेत्र में उन्हीं सूत्रों के शिलालेख हमें अपने आगम साहित्य के पृष्ठों को समझना चाहिए। लेखक और शिल्पकार अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस युग के जनजीवन में रहकर वह सृजन करते हैं उस युग के प्रचलित रीति-रिवाजों की छाप उनके साहित्य और शिल्प पर पड़ती ही है। अत: इस बात को हमें स्वीकार करना चाहिए कि साहित्य और शिल्प इतिहास को दिखलाने के लिये दर्पण की तरह है। आचार्यों की लेखनी में क्या नहीं आया? जगत् और जीवन से संबंधित ऐसा कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा जो उनकी लेखनी में न आया हो। श्रमण आचार्यों ने अध्यात्म के सहारे जहाँ साधना की चरम ऊँचाइयों को छुआ है तो वहीं साहित्य का सृजन भी कम नहीं किया। रात यदि साधना में गुजरी है तो सारा दिन सूरज के साथ साहित्य सृजन में। आचार्य कुन्दकुन्द का वाङ्गमय जहाँ अध्यात्म से भरपूर है तो वहीं आचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थ दर्शन प्रधान है। हमें आचार्य कुन्दकुन्द का हृदय समझने के लिये आचार्य समन्तभद्र का परिचय जरूरी है और दोनों को समझे बगैर स्वयं को समझ पाना संभव ही नहीं है। न्याय, दर्शन, धर्म, अध्यात्म, तत्त्व मीमांसा, तीर्थ, इतिहास, भक्ति, संगीत, कलाये, राजनीति, ज्योतिष, गणित, वर्ण और समाज व्यवस्था आदि आचार-विचारों से जुड़े हुए लोक-लोकोत्तर बिन्दु जैन साहित्य की पंक्ति-पंक्ति में समाये हुए हैं।
  4. सागर की वर्णी भवन, मोराजी में आचार्य महाराज के सानिध्य में ग्रीष्मकालीन वासना चल रही थी। गर्मी पूरे जोरों पर थी। 9:00 बजे तक इतनी कड़ी धूप हो जाती थी कि सड़क पर निकलना और नंगे पैर चलना मुश्किल हो जाता था। आहार-चर्या का यही समय था आचार्य महाराज आहार-चर्या के लिए प्रायः मोराजी भवन से बाहर निकलकर शहर में चले जाते थे। मोराजी भवन में ठहरना बहुत कम हो पाता था। पंडित पन्नालाल जी साहित्याचार्य का निवास मोराजी भवन में ही था।और वें पड़गाहन के लिए रोज खड़े होते थे। उनके यहां आने का अवसर कभी-कभी आ पाता था। एक दिन जैसे ही दोपहर की सामायिक से पहले ईर्यापथ प्रतिक्रमण पूरा हुआ, पंडित जी आचार्य महाराज के चरणो में पहुंच गए और अत्यंत सरलता और विनय से सहज ही कह दिया कि- "महाराज अब ततूरी ( कड़ी धूप से जमीन गर्म होना ) बहुत होने लगी है,आप आहारचर्या के लिए दूर मत जाए करें।" सभी लोग पंडित जी का आशय समझ गए आचार्य महाराज भी सुनते ही हंसने लगे।आज भी इस घटना की स्मृति से मन आचार्य महाराज के प्रति अगाध श्रद्धा से झुक जाता है। उनके आचरण की निर्मलता और अगाध ज्ञान का ही प्रतिफल है,कि विद्वान जन उनका सामीप्य पाने के लिए आतुर रहते हैं। (सागर 1980) आत्मान्वेशी पुस्तक से साभार
  5. धर्म संस्कृति 7 - आचार्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आचार्य स्वयं भी तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। आचार्य नौका के समान हैं, वह पूज्य हैं। आचार्यों की यह निर्मल परम्परा निर्दोष संघ शासन की निरंतर वृद्धि करती रहे। यही हम सबकी भावना हो । आचार्य महाराज नारियल की तरह बाहर से कठोर किन्तु अन्दर से मृदुस्वभावी होते हैं। यही वजह है कि उनके जीवन में अनुशासन और अनुकम्पा एक साथ झलकते हैं। जैसे वृक्ष सारी धूप को झेलकर पथिक को छाया प्रदान करते हैं ठीक वैसे ही आचार्य महाराज भी निस्वार्थ सब कुछ सहनकर शरणागत को शरण प्रदान करते हैं। आत्म साधना के साथ-साथ संघ का प्रवर्तन एवं धर्मोपदेश आचार्यों का मुख्य काम है। साधुपद की साधना करते हुए शिष्यों का संग्रह और अनुग्रह आदि कुछ विशिष्ट गुणों के कारण ही वह आचार्य अपने गौरवशाली पद से सुशोभित होते हैं। शिष्य यदि आज्ञा में बंधे हैं तो आचार्य आगम से। बन्धन एक को ही नहीं सभी को स्वीकार करने पड़ते हैं। आचार्य, स्वसमय-परसमय के ज्ञाता और तात्कालिक उठे हुए विकल्प-विवादों के समाधानकर्ता होते हैं। दोषयुक्त शिष्य के लिये निर्विकल्प निर्दोष होने में आचार्य का उतना ही महत्व है जितना कि बेटे को निर्दोष साफ-सुथरा होने में माँ का। मेरु के समान अडिग, सागर के समान गंभीर एवं सिंह के समान निर्भीक आचार्यों को संघ, समाज, देश और धर्म-संस्कृति के संरक्षण का पूरा ध्यान रहता है। आचार्यों की करुणा और वत्सल भावना का ही यह परिणाम है कि उनकी छत्र छाया में रहकर अशत और अल्पज्ञानी शिष्य भी अपना कल्याण कर लेते हैं। तीर्थंकरों से प्राप्त उस श्रुतधारा को आचार्यों ने ही आगम साहित्य के रूप में प्रणयन कर संरक्षित किया है। भगवान की दिव्यध्वनि में क्या-क्या खिरा और गणधरों ने उसे किस रूप में पाया और प्रस्तुत किया यह सब जानकारी, यदि आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध श्रुत न होता तो हम कदापि न जान पाते। कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और अकलंक जैसे महान्-महान् अनेकों आचार्यों ने जीवन में संघर्ष कर तप, त्याग और बुद्धि पराक्रम से इस संस्कृति परम्परा को अक्षुण्य बनाया है। समय-समय पर आचार्यों ने शासकों को अपनी तपस्या और ज्ञान गरिमा से प्रभावित कर जैनधर्म का विस्तार किया है। तीर्थंकर महावीर की आचार्य परम्परा ने भारतीय संस्कृति को दर्शन, साहित्य और सदाचार से संवृद्ध किया है। सर्वोदयी समाज निर्माण में आचार्यों का विशिष्ट महत्वपूर्ण योगदान रहा है। व्यक्ति निर्माण के साथ-साथ समाज निर्माण के क्षेत्र में भी जैनाचार्यों ने अपना दायित्व निभाया है।
  6. ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ सहित बंडा ग्राम पहुंचे। रात्रि विश्राम के लिए मंदिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था, खिड़कियां भी खूब थी और दरवाजा कांच के अभाव से खुला न खुला बराबर ही था। जैसे जैसे रात अधिक हुई ठंड भी बढ़ गई, सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी, घास किसी ने ली नहीं थी। सारी रात बैठे बैठे ही गुजर गई। सुबह हुई,आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा कि - रात में ठंड ज्यादा थी, मन में क्या विचार आए बताओ ? हम सोच में पड़ गए कि क्या कहें, पर साहस करके तत्काल कहा कि - महाराज जी ठंड बहुत थी, मन में विचार आ रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता। इतना सुनते ही उनके चेहरे पर हर्ष छा गया। बोले - देखो त्याग का यही महत्व है। तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार भी नहीं आया। मुझे तुम सब से यही आशा थी, हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन में ना आए यह सावधानी रखना। उनका यह उद्बोधन हमें जीवन भर संभालता रहेगा। वास्तव में सच्चा त्याग वही है, जो एक बार हम वस्तु को त्याग दे फिर उसे दोबारा ग्रहण करने का भाव भी न आये, यही सच्चे त्याग की परिभाषा है। (बण्डा 1982) आत्मान्वेशी पुस्तक से साभार
  7. 18 दिन आचार्य महाराज संघ सहित दुर्ग ठहरे। एक दिन विहार होने वाला था। महाराज जी बिहार से पहले मंदिर जी गए लोगों को बिहार का आभास हो गया सभी लोग भागे भागे मंदिर में आ गए जैसे ही महाराज जी दर्शन कर के सीढ़ियां उतरने लगे सभी ने उनके पैर पकड़ लिए कुछ लोग तो सीढ़ियों पर ही लेट गए कि हम गमन नहीं करने देंगे। समय बीतता गया आग्रह और भीड़ निरंतर बढ़ती गई एक विद्रोही की प्रति लोगों का अनुराग उस दिन देखते ही बनता था, पर आचार्य महाराज उस दिन बिहार के लिए दृढ़ संकल्पित थे। सो रुकना संभव नहीं था विलंब हो जाने के बाद भी बिहार हुआ। लोगों ने उनका अनुगमन किया बहुत दूर तक पीछे-पीछे गए। सभी के मन में था कि कुछ दिन महाराज और रुकते तो अच्छा रहता। पर साथ ही साथ यह भी एहसास हुआ कि मोक्षमार्ग पर दृढ़ संकल्पित हो कर अविचल बढ़ते रहना, सदा नदी की तरह गतिशील रहना यही सच्ची मोक्षार्थी की पहचान है। वास्तव में संतों का जहां आगमन होता है वहां प्रकृति भी घूम जाया करती है, और जब उनका गमन होता है तो संसार असार लगने लगता है। आचार्य श्री जी ने सर्वोदय शतक में दोहा लिखा है कि - संतों के आगमन से सुख का रहे न पार। संतों का जब गमन हो लगता जगत असार।। (दुर्ग 1984)आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार
  8. धर्म संस्कृति 6 - इतिहास विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जैन धर्मानुयायियों का देश के प्रति बहुत बड़ा योगदान है। समय-समय पर आचार्यों ने धीमानों तथा श्रीमानों ने अपनी सूझबूझ कुशलता से राजाओं तक को निर्देश देकर देश की समृद्धि में सहयोग दिया है। दानवीर भामाशाह जैसे उदार हृदय जैनी श्रेष्ठी श्रावकों ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर देश की रक्षा के लिये महाराणा प्रताप के सामने अपना सारा खजाना खोलकर रख दिया था और कृतज्ञता भरे शब्दों में कहा था कि यह सम्पति हमारी नहीं राष्ट्र की ही है आप इसे स्वीकार करें और देश की रक्षा करें। जैन इतिहास में दीवान अमरचंदजी एक ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अहिंसा और सद्भावना के बल पर राजा को तो परिवर्तित किया ही किन्तु मांसाहारी सिंह के पिंजड़े में भी जाकर उसे भी जलेबियाँ खिलाई। यह सब अहिंसक भावना का प्रभाव है। इतिहास में सम्राट् अशोक एक ऐसा शासक हुआ है जिसने कलिंग युद्ध का नरसंहार देखकर अपना हृदय, अपना जीवन ही बदल लिया और फिर सिंहासन पर बैठते हुए भी बिना तलवार के शासन किया। सम्राट् अशोक के शिलालेखों से भी विदित है कि उसका जीवन दयावान, न्यायप्रिय और काफी धार्मिक रहा है। उसने अहिंसा, प्रेम, आत्मीयता, परोपकार और भाईचारे पर काफी जोर दिया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि युगों युगों से धर्म को राजाश्रय एवं राजसंरक्षण प्राप्त रहा है। राजाओं की सहयोगी छाया में सत्य और अहिंसा धर्म ने अपना विस्तार सारी धरती पर किया है। अन्तिम सम्राट् चन्द्रगुप्त ने जीवन के उपान्त समय में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर श्रमण संस्कृति में एक ऐसी कड़ी जोड़ी है जो आज भी हमें गौरवान्वित कर रही है। भगवान महावीर स्वामी को जैनधर्म का संस्थापक मानना इतिहासकारों का भ्रम है। यथार्थ में इस धर्म का प्रवाह तो अनादि अनिधन है किन्तु इस युग में धर्म के संस्थापक/प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव हुए और इसी क्रम में कालान्तर से शेष तेईस तीर्थंकर और हुए जिनमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी थे। तीर्थंकर वर्धमान की शादी नहीं हुई वह तो बालब्रह्मचारी थे, उनके गर्भहरण का कथन भी दिगम्बर आम्नाय सम्मत नहीं है। इस चौबीसी में तीर्थंकर वर्धमान के समान और भी चार बालयति हुए हैं। ऋषभदेव के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है, यह बात स्वयं इतिहास से सिद्ध है।
  9. सागर नगर में श्री धवल जी ग्रंथ की वाचना के समय अनेक विद्वानों की उपस्थिति में, सोलहकारण भावना के अंतर्गत प्रवचन भक्ति भावना के प्रसंग को लेकर आचार्य श्री ने कहा कि - आज शास्त्रों की उचित विनय नही की जा रही है और प्रवचन के नाम पर परवचन चल रहा है। तब पास में ही बैठे पंडित कैलाश चन्द जी ने कहा कि-परवचन नही आज तो परवचन चल रहा है। परवचन का अर्थ है - दूसरों को ठगना। यह सुनकर सभी लोग हँस पड़े। लेकिन ध्यान रहे ठगे जाना उतना नुकसान दायक नही है कि जितना नुकसान दायक है दूसरों को ठगना। क्योंकि मायाचारी करने से तिर्यचायु का आश्रव होता है। चेतन में ना भार है, चेतन की ना छाँव। चेतन की फिर हार क्यों ? भाव हुआ दुर्भाव।। पुस्तक अनुभूत रास्ता
  10. टड़ा से वापस लौटकर आचार्य महाराज की आज्ञा से महावीर जयन्ती सागर में सानंदसम्पन्न हुई, फिर आदेश मिला कि- ग्रीष्मकाल में कटनी पहुँचना है। गर्मी दिनों-दिन बढ़ रही थी। तेज धूप, और लम्बा रास्ता,पर मन मे गहरी श्रद्धा थी। गुरु के आदेश का पूरे मन से पालन करना ही शिष्यत्व की कसौटी है। आदेश मिलते ही उसी दिन दोपहर में हमने(क्षमासागर जी)विहार करने का मन बना लिया और सामायिक में बैठ गए। सामायिक से उठकर बाहर आए तो देखा कि-आकाश में बादल छा रहे है। धूप नम हो गई है। हमने तुरन्त विहार कर दिया और बड़ी आसानी से शाम होने से पहले लगभग बीस किलोमीटर रास्ता तय कर लिया। फिर तो प्रतिदिन ऐसा ही हुआ। कटनी पहुँचने तक प्रतिदिन दोपहर में बादल छा जाते और हमारी यात्रा आसान हो जाती। कटनी पहुँचकर जब हमें मालूम पड़ा कि आचार्य महाराज ने दो-तीन बार चिन्ता व्यक्त की ति कि "आदेश तो हमने दे दिया, पर मई का महीना है, धूप बहुत कड़ी है, विहार में मुश्किल न हों।" तब हम विस्मय और आनन्द से भर गए। इतनी दूर रहकर भी अपने शिष्यों के प्रति आचार्य महाराज की आत्मीयता इतनी सघन है कि पथ में छाया बनकर वही हमे सँभलती व शीतलता देती रहती। उनकी अनुकम्पा अपरम्पार है। कटनी (1989) आत्मान्वेशी पुस्तक से साभार
  11. धर्म संस्कृति 5 - तीर्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जहाँ पर तीर्थंकर आदि महापुरुषों के विहार और कल्याणक आदि होते हैं वह सभी स्थान तीर्थ माने जाते हैं। जिसके माध्यम से हम तिर जायें, पार हो जायें वह है तीर्थ। तीर्थ घाट के समान है जहाँ पहुँचकर अपने जीवन बेड़ा को भवसागर से पार लगाया जा सकता है। नदी के घाट पर जाकर तो हम बाहरी मल का ही प्रक्षालन करते हैं किन्तु तीर्थों की शरण पाकर हम जन्म-जन्मान्तरों के पापों का प्रक्षालन कर लेते हैं। तीर्थंकर भगवन्तों की विहार भूमि और कल्याणक स्थानों पर जाने से स्फूर्ति, प्रेरणा और मन को शान्ति मिलती है। पुण्य-पुराण पुरुषों के द्वारा जो स्थान पवित्र हुए हैं, उन स्थानों पर जाकर ध्यान-साधना करने से जीवन भी पवित्र बनता है। साधक योगियों ने जिन स्थानों का आश्रय लेकर विभिन्न प्रकार की साधनायें की हैं वह स्थान भी तीर्थों की तरह ही पूज्य माने गये हैं। यह सब बाहर के जड़ तीर्थ तो हैं ही किन्तु जिसके माध्यम से हम चैतन्य की ओर मुड़ जाये वस्तुत: वही तीर्थ है। भगवान की दिव्यध्वनि समवसरण सभा में जिस स्थान पर खिरी हो वह स्थान तीर्थ ही नहीं बल्कि शासन-तीर्थ माना जायेगा। तीर्थ, मंदिर और मूर्तियाँ हमारे सदियों पुराने निर्मल इतिहास की गौरव गाथा गाते हैं। भारतीय मानस श्रद्धा भक्ति से भरा हुआ है, यही कारण है कि यहाँ के निवासियों ने मकानों के साथ-साथ पूजास्थल मंदिरों का निर्माण भी किया है। भारत में ऐसा कोई भी गाँव नहीं जो मंदिर-मूर्तियों से विहीन हो। मंदिर विशाल किन्तु द्वार छोटे, ऐसा क्यों? कभी विचार किया, इसलिये कि भगवान् की शरण में जाने के पूर्व झुकना सीखें अर्थात् अहंकार को गलाकर श्रद्धा से अभिभूत होकर मंदिर में प्रवेश करो। मंदिर और मूर्तियाँ मोक्षमार्ग में साधन तो है पर साध्य नहीं। साधनों का सम्यक्र अवलम्बन तो होना चाहिए पर विवाद नहीं। मंदिर और मूर्तियाँ उपयोग को स्थिर करने के लिये हैं किन्तु सबके उपयोग को स्थिर करने में सहायक बनें, ये जरूरी नहीं। मूर्ति, मानवीय आचार विचार को निर्देशित करने वाला एक सम्यक् आदर्श है। मन को केन्द्रित करने का सहकारी वातावरण जितना मंदिर में संभव है उतना अन्यत्र नहीं। तीर्थ हमारी परम्परा और संस्कृति के प्रतीक हैं इनका निर्माण संरक्षण और जीणोंद्धार कराना हमारा कर्तव्य है। अहिंसा और वीतरागता का संदेश देने वाले पुरावशेषों की सुरक्षा करना आज अत्यन्त जरूरी है। तीर्थ हमारे धर्मक्षेत्र माने गये हैं। साधना के लिये जनपद शून्य, निराकुल निरापद स्थान हैं। हमारे पूर्वजों की पवित्र सांस्कृतिक धरोहर है। इनका संरक्षण और संवर्धन एक-एक घटक का कर्तव्य है। सम्मेदशिखर तीर्थंकरों की शाश्वत निर्वाण भूमि है। यहाँ से इस चौबीसी में बीस तीर्थंकरों सहित अनंत मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया। यह तीर्थ ही नहीं तीर्थराज है, समूची दिगम्बर परम्परा का प्रमुख आस्था का केन्द्र है। संस्कृति और धर्मायतनों के संरक्षणार्थ साधु, श्रावकों को उपदेश दे सकता है आवश्यकतानुसार आदेश भी। सभी दानों के साथ-साथ अपने आपको ही तीर्थ के लिये समर्पित कर देना यह सबसे बड़ा दान है। अपना उपसर्ग दूर करने के लिये नहीं किन्तु धर्मायतनों पर/प्राणियों पर आये हुए संकट को दूर करने के लिये विष्णुकुमार और बालि मुनि महाराजों जैसे कदम उठाना चाहिए। अहंकार वश रावण ने जब समूचे कैलाश पर्वत को ही पलटना चाहा तब तपस्यारत बालि मुनि महाराज का हृदय द्रवित हो उठा, उस स्थिति में तीर्थ सुरक्षा के लिये उन्होंने जो कदम उठाये वह अत्यधिक प्रेरक अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है। भरत चक्रवर्ती के द्वारा कैलाश पर्वत पर बनाये गये ७२१ जिनालयों की सुरक्षा के विचार से सगर चक्रवर्ती ने अपने ६० हजार कर्मठ पुरुषार्थी पुत्रों को गंगा की परिखा (खाई) बनाने में लगा दिया। तीर्थ सुरक्षा के लिये इतिहास में इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है।
  12. धर्म संस्कृति 4 - संस्कृति प्रवाह विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कृति और कर्म की उतनी कीमत नहीं जितनी की संस्कृति की। संस्कृति की रक्षा और देश की उन्नति हमारी सुमति पर ही आधारित है। प्रकृति की रक्षा करने पर ही संस्कृति की रक्षा संभव है। भारतीय संस्कृति एवं मानवता को आज सिंहों से नहीं नरसिंहों से ज्यादा खतरा है। अर्थ के विकास में अनर्थ न हो और सहयोग का भाव बनाये रखें यही तो हमारी संस्कृति है। अपनी संस्कृति की बातों का ध्यान रखो, हम जैन हैं अत: जैन होने के नाते अपनी प्रवृत्तियों को संयमित रखना चाहिए। ईमानदारी, न्यायनीति व धर्म संस्कृति की रक्षा में अपने दायित्व को कभी नहीं भूलना चाहिए। उसे सही अर्थों में निभाना ही हमारा कर्तव्य है। जीवन की समृद्धि, कुल, वंश, धर्म, संस्कृति व राष्ट्रीय परम्परा को सुरक्षित रखने पर ही हो सकती है। भारतीय संस्कृति ज्ञान को महत्व न देकर, जिससे ज्ञान नियंत्रित होता है ऐसी आस्था को महत्व देती है। केवल आर्थिक दृष्टि ही भारतीय संस्कृति नहीं है बल्कि यहाँ परमार्थ का भी पुरुषार्थ होता है। पाश्चात्य के देश शब्दों को महत्व देते हैं जबकि भारत देश अनुभव को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। कृति कभी कर्ता से बड़ी नहीं हो सकती किन्तु आज कर्ता मकड़ी की तरह अपने ही जाल में उलझ रहा है। जिस प्रकार नदी अपने अस्तित्व को खोकर ही समुद्र बनती है उसी प्रकार अपने क्षुद्र अस्तित्व को खोकर ही यह आत्मा परमात्मा बनती है। संस्कार के बिना संसार में कोई भी आत्मा पतित से पावन नहीं बन सकती। जैसे दुग्ध में से निकला हुआ शुद्ध तत्व घृत पुन: दुग्ध रूप परिवर्तित नहीं होता ठीक इसी प्रकार मुक्त होने के बाद यह आत्मा लौटकर पुनः संसार में नहीं आती। जैसे दधि मंथन के बिना नवनीत और घृत की उपलब्धि संभव नहीं, ठीक इसी तरह आत्ममंथन के बिना परमात्म पद की प्राप्ति नहीं। भगवान् का जन्म नहीं होता किन्तु जो भगवान् बनने वाले होते हैं उनका जन्म होता है। भगवान् जन्मते ही मुक्ति नहीं पाते किन्तु जन्म से ही मुक्ति पा लेते हैं। "कोई दुनिया के पीछे पड़े हैं व किसी के पीछे दुनिया पड़ी है।" भगवान् कभी दुनिया के पीछे नहीं देखते, दुनिया भगवान् के पीछे देखती रहती है। जो व्यक्ति मरण से डरता है वह तीन काल में जी नहीं सकता, यह मरण ही हमारे लिये प्रकाश प्रदान करने वाला है और यह उद्भव हमें भव-भव तक भटकाने वाला है। आप जन्म की पूजा नहीं करिये, जन्म संसार का प्रतीक है। हमारी क्षणिक बाह्य भौतिक निधि को कोई भी ले सकता है नष्ट कर सकता है किन्तु भीतरी निधि को मिटाने वाला इस धरती पर कोई नहीं है। वह थी, है, और आगे भी रहेगी। राग और अविद्या इन दोनों कारणों से ही यह संसारी प्राणी अंधा बना हुआ है। अगर ये दोनों नहीं हैं तो वह शीघ्र ही अपना आत्म कल्याण कर सकता है। अग्नि की पिटाई तभी तक होती है जब तक वह लोहे की संगति करती है ठीक इसी प्रकार देह की संगति करने से आत्मा की पिटाई हो रही है और जब तक आत्मा देह की संगति करेगी तब तक उसकी पिटाई होती रहेगी। विश्व में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो मोह की चपेट में नहीं आया हो लेकिन जो इसकी रहस्यपूर्ण शक्ति को पहचान कर उस पर प्रहार करता है वही संसार से पार हो जाता है। पथ एक ही है, मार्ग एक ही है। जो सामने चलता है वह मुक्ति का पथ चाहता है और जो रिवर्स (उल्टा) में चलता है वह संसार का पथ चाहता है। आज जो यद्वा तद्वा व्यापार कर रहा है, घूसखोरी करके जो बड़ा बनने का प्रयास कर रहा है वह सन्मार्ग से पतित हो रहा है। जब तक भीतर आत्मा के परिणाम उज्ज्वल नहीं होंगे, हमारा आचार-विचार उज्ज्वल नहीं होगा तब तक हमारा सम्बन्ध महावीर भगवान् के साथ, आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी, आचार्य समन्तभद्र आदि के साथ नहीं रहेगा। धार्मिक संस्कृति अभी वर्षों तक टिकेगी लेकिन वह अपने आप नहीं। उसे टिकने के लिये, स्थायी रूप प्रदान करने के लिये चारित्रनिष्ठ, न्याय का पक्ष लेने वाले विभीषण, हनुमान जैसे महान् पुरुषों की जरूरत है। दया प्रधान कृषि कर्म का रूप विकृत होता जा रहा है। आज अण्डों की खेती, मछलियों की खेती (फार्मिग) आरंभ हो रही है इसे भी कृषि का दर्जा दिया जा रहा है। कहाँ गई वह आदिनाथ, महावीर और राम की संस्कृति। यह सब आधुनिकता का प्रभाव है। आधुनिक उपकरणों से सजित बूचड़खाने खोले जा रहे हैं। जिनमें हजारों हजारों जानवरों का संहार किया जाता है। पर किसलिये ? केवल विदेशी मुद्रा पाने के लिये। इसी संहार से ही चहुँओर हिंसा, आतंकवाद, शोषण और न जाने क्या-क्या हो रहा है फिर अकेले शान्ति शासन की योजना बनाने से क्या लाभ ? अहिंसा भारतीय संस्कृति का मूल आधार है, इसीलिये स्वतंत्र भारत की प्रत्येक मुद्रा पर सम्राट् अशोक का अहिंसक चिह्न अंकित है किन्तु आज उसी मुद्रा को पाने के लिये बूचड़खाने आदि तरह-तरह के हिंसक साधन अपनाये जा रहे, यह लज्जा की बात है। अरे जो ब्रह्म मुहूर्त में बाँग देकर सबको उठा देता है, सोते हुए इन्सान को जगा देता है उस जीवन प्रदान करने वाले प्राणी की हत्या, मानव के द्वारा किया गया यह अक्षम्य अपराध है। अहिंसा की पूजा हिंसा के द्वारा कभी नहीं हो सकती और न ही मात्र भावों के करने से किन्तु अहिंसा की पूजा तो वास्तव में अहिंसा को जीवंत रूप देने से होती है। हिंसा से नहीं धरती पर शांति का साम्राज्य अहिंसा के बल पर ही होगा। राम, रहीम और महावीर के समय में जिस भारत भूमि पर दया बरसती थी, सभी जीवों को अभय था, उसी भारत भूमि पर आज अहिंसा खोजे-खोजे नहीं मिलती । भारतीय सभ्यता मिटती-सी जा रही है फिर भी हम लोगों की मान्यता है कि सतयुग आयेगा, विश्व में शांति आयेगी और यदि हमारा आचरण शुद्ध नहीं है तो वह सतयुग, वह विश्व में शांति ‘न भूतो न भविष्यति।।' आज देश में सबसे बड़ी समस्या भूख, प्यास की नहीं बल्कि भीतरी विचारों के परिमार्जन करने की है। इसी से विश्व में त्राहि-त्राहि हो रही है। यह समस्या धर्म और दया के अभाव से ही है। एक दूसरे की रक्षा के लिये कोई तैयार नहीं। जो रक्षा के लिये नियुक्त किये गये वही भक्षक बनते जा रहे हैं। आज का भारतीय नागरिक भोगों की ओर जा रहा है। भोग्य पदार्थों को जोड़ता हुआ वह योग को पाना चाह रहा है। किन्तु योग की प्राप्ति के लिये भोगों की तिलांजलि देनी होगी, उसे एकदम विक्षत करना होगा तभी उस योग का आनंद आ सकता है। हमें उपयोग को भोग के धरातल से योग के शिखर तक लाना होगा। यदि भारतीय संस्कृति से संस्कारित होकर विवाह संस्कार किया जाये तो दोनों पति-पत्नी कुछ ही दिनों में भोगों से विरत होकर घर से निकलने का प्रयास करेंगे ओर कुछ ही समय में वह दंपत्ति योगमार्ग पर आरूढ़ होकर अपने जीवन का निर्माण कर लेंगे । विवाह का अर्थ भोग का समर्थन नहीं किन्तु भोग को सीमित करने की प्रक्रिया है। काम को जीतने का एक सीधा सरल तरीका है विवाह। जैन दर्शन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ सामूहिक शांति का भी संदेश है। धार्मिक व्यक्तियों में संस्कृति के प्रति निष्ठा एवं राष्ट्रप्रेम स्वाभाविक होता है। भारतीय संस्कृति में अधिकार नहीं कर्तव्य को महत्व दिया जाता है। यहाँ कर्तव्य पालन करने वाले को अधिकार स्वत: मिल जाते हैं। भारत में तिथियों की नहीं अतिथियों की पूजा होती है। यह बात पृथक् है कि उन अतिथियों के सानिध्य से तिथियों में भी पूज्यता आ जाती है। यह भारतभूमि है, यहाँ पर त्यौहार हमेशा आते रहते हैं, उनमें हम पूजा-भक्ति करते हैं। भारतीय संस्कृति हमेशा पूजा करना सिखाती है। संस्कृति की अथ और इति संभव नहीं, वह तो निरन्तर प्रवाहमान है। सभ्यता और समाज में परिवर्तन आते रहते हैं यह बात पृथक् है। आचार विचार के रूप में आज जो भारतीय संस्कृति प्रवर्तित है उसका आधार श्रमण और वैदिक परम्परा ही है। श्रमण संस्कृति, श्रम-पुरुषार्थ, शमन, समता पर जोर देती है। विचारों में अनेकान्त और आचरण में अहिंसा तथा अपरिग्रह का सिद्धांत जैनधर्म का आधार स्तंभ है। वस्तु स्वतंत्र है उसका परिणमन स्वाधीन है, इस बात का दिव्य संदेश हमें तिर्थंकरों ने दिया है। धर्म, दर्शन, सिद्धान्त और अध्यात्म विद्या के उपदेष्टा के रूप में श्रमण संस्कृति में अहत् तीर्थकरों का प्रमुख स्थान है। इन्हीं प्रवर्तकों की परम्परा में आचार्यों की संतति प्रवाहित है जिसने भारतीय सुषुप्त चेतना को समय-समय पर जागृत किया है। अहिंसा, अपरिग्रह, इन्द्रियनिग्रह, त्याग और समाधि को साधना के काल में तिर्थंकरों ने जिस तरह से आचरित किया उसे केवलज्ञान पाने के बाद जनकल्याणार्थ उपदिष्ट भी किया। इसीलिये तिर्थंकर धर्म के उपदेष्टा और प्रतिष्ठाता कहे गये हैं। शुरूआत से ही संस्कृति प्रवाह के दो प्रमुख पक्ष रहे हैं। एक विचार और दूसरा आचार। जहाँ विचारों में तत्व का दर्शन होता है तो वहीं आचरण से तीर्थ का। दोनों के मेल से ही संस्कृति की धारा प्रवाहित है। जैन संस्कृति में प्रतिपाद्य प्रवृत्ति और निवृत्ति में अद्भुत सापेक्षता है। यहाँ पर प्रवृत्ति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति का उद्देश्य अवश्य ही निहित रहा है। इतिहास, तीर्थक्षेत्र, पुरावैभव, मूर्तियाँ, मन्दिर, पाण्डुलिपियाँ, शिल्पकला, शिलालेख आदि हमारी संस्कृति के ऐसे अवयव हैं जिनकी सुरक्षा पर ही हमारा सांकृतिक ढाँचा टिका हुआ है। आगम और आचार्य गुरुओं से ही हमारी परम्परा का अभी तक अस्तित्व रहा है। यदि यह न होते तो परम्परा शब्द भले ही रह जाता पर किसी तरह की परम्परा न रहती । मैं जैन हूँ, मैं हिन्दू हूँ, मैं सिक्ख हूँ, मैं ईसाई और मैं मुसलिम हूँ। इस प्रकार की मान्यता हमारे समाजरूपी सागर को नष्ट कर देगी। इस प्रकार का बिखरा अस्तित्व हमें एक बूंद का रूप दे देगा। जिसके सूखने के लिये सूर्य की एक किरण ही पर्याप्त है। हमारे बीच आपस में मतभेद भले ही हो जाय पर मनभेद नहीं होना चाहिए। राजसिक और तामसिक वृत्ति का त्याग कर सात्विक जीवन चर्या अपनाने की शिक्षा हमें भारतीय संस्कृति देती है। भारतीय आचार संहिता कहती है कि जब तक संकल्प न लिया जाय तब तक आचरण का कोई महत्व नहीं। प्रण-प्रतिज्ञा में बँधना और उसे प्राण रहते तक निभाना हमारी पुरानी परम्परा है। वचन कदाचित परिवर्तित हो जाते हैं किन्तु प्रण/संकल्प अपरिवर्तनीय ही होते हैं। जो व्यक्ति कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होता है, प्रतिष्ठा उसके पीछे भागती है। वह संतान किस काम की जो माँ के द्वारा बताये हुए मार्ग पर विश्वास नहीं रखती। ऐसी सन्तान का विकास अभी और आगे जाकर कभी भी संभव नहीं है। मानव जीवन बहुत ही मूल्यवान है। यह बहुत ही प्रतीक्षा के बाद पुण्योदय से मिला है। इसे व्यर्थ ही इधर-उधर की बातों में मत गंवाओ। इससे भुति की नहीं मुक्ति की भूमिका का निर्माण कर निर्वाण को पाओ। उत्तर और दक्षिण भारत का समूचा इतिहास ही इस बात का साक्षी है कि जैनियों ने समय-समय पर भारतीय संस्कृति की सुरक्षा में बड़ा योगदान दिया है।
  13. धर्म संस्कृति 3 - शास्ता/शासन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार "तीर्थ करोति इति तीर्थंकर" जो तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले होते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। जिनके माध्यम से सारा का सारा संसार तिर जाता है, उसे तीर्थंकर कहते हैं। महावीर भगवान् उस जन्म को इष्ट बुद्धि से नहीं देखा करते थे। आप लोगों को जो पसंद आ रहा है स्वयं सोचिये क्या वह महावीर को पसंद था। महावीर ने किसी बात पर अपने जीवन को बाँधा नहीं था। महावीर का जीवन तटस्थ नहीं किन्तु आत्मस्थ था, स्वस्थ था। तटों को बाँधने वाले महावीर नहीं थे तट अवश्य उन महावीर प्रभु को चाहते थे। दुनिया की ओर मत देखो, अपने आपको देखो। भगवान् महावीर ने कभी दुनिया की ओर दृष्टिपात नहीं किया, यदि किया है तो दुनिया के पास जो गुण हैं उन्हें लेने का प्रयास किया। महावीर में अपने को देखो, अपने 'मैं' को देखो महावीर में। हमारे सामने केवल 'मैं' ही रह जाये तो उसमें से अनेक महावीर फूट सकते हैं, अनेक राम अवतरित हो सकते हैं। अनेक पाण्डव उस ‘मैं' की गहराई से जन्म ले सकते हैं। जिस व्यक्ति के जीवन में शासन के प्रति प्रेम नहीं अर्थात् जिन शासन के प्रति गौरव नहीं, उसके जीवन में प्रभावना होना तीन काल में भी संभव नहीं। जैनशासन में किसी व्यक्ति विशेष की पूजा नहीं है क्योंकि यहाँ पर नाम की नहीं गुणों की पूजा होती है। जैनशासन में जो पंथ चलते हैं वे सागार और अनगार के हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि का कोई पंथ नहीं होता वह तो उन दोनों पंथों का उपासक मात्र है। जिन भगवान् की उपासना करने वाले जैन माने जाते हैं यानि हमारे साथ ऐसे भगवान् का नाम जुड़ा हुआ है जो राग-द्वेष, विषय-कषाय और आरंभ परिग्रह से रहित हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम जैन हैं तो जैनों जैसा कार्य भी होना चाहिए। जिनोपदिष्ट सिद्धान्तों का अनुकरण भी करना चाहिए। सपूत 'कुल का दीपक' माना गया है। देश की, वंश की, धर्म की परम्परा में जो चार चाँद लगा देता है वही सपूत है। हम अपने आपसे पूछ लें कि हम अरहंत भगवान् के पूत हैं, सपूत हैं या ....। कहने की आवश्यकता नहीं हमारी जीवन चर्या ही हमारा आचरण बता देगी। देशना आदेश नहीं परामर्श है, आज्ञा नहीं राय है मात्र सलाह है। सत् सन्तों का लक्षण आगम की आज्ञा पालने में है। पूत का लक्षण पालने में नहीं गुरु की आज्ञा पालने (मानने) में है। महापुरुषों ने अनुभवों के आधार पर जैसा प्रतिपादन किया है हमें वैसा ही अपना जीवन बनाना चाहिए। हमारे पास क्या है ? केवल छोड़ने के लिये राग-द्वेष, विषय-कषायों के अलावा और कुछ भी तो नहीं है। आपको हम किन वस्तुओं को दिखाकर खुश कर सकते हैं भगवन् ? आप हमारी वस्तुओं से खुश भी नहीं होंगे....लेकिन उन वस्तुओं के त्याग से अवश्य खुश होंगे। अहिंसा आदि व्रत संकल्पों को साकार रूप देने से ही हम भगवान् महावीर के सिद्धान्त तथा पथ को अक्षुण्ण बनाये रख सकते हैं। साधु का रास्ता तो मनन और चिन्तन का रास्ता है। उसकी यात्रा अपरिचित वस्तु से परिचय प्राप्त करने का उत्कृष्ट प्रयास है। जिस दिन आत्मदर्शन की खोज में निकलोगे उस दिन सभी पोथियाँ बन्द हो जायेंगी। फिर दृष्टा बन जाओगे, वैज्ञानिक नहीं। जिसे दर्शन का सार मिल गया उसे देखना मात्र नहीं है अपितु अनुभव में लाना चाहिए और बाह्य प्रदर्शनों के चक्करों से स्वयं को पृथक् रखना चाहिए । लक्ष्य बनाओ भार उतारने का और यह तभी हो सकता है जब याद रखोगे-तेरा सो एक, जो तेरा है सो वह एक आत्म तत्व है। केन्द्र तक पहुँचने के लिये परिधि का त्याग परमावश्यक है। प्राय: करके परिधि में जो घूमता है उसे केन्द्रबिन्दु प्राप्त नहीं हो पाता। आनंद, केन्द्र में है परिधि में नहीं। बाहरी चमक-दमक के कारण ही भीतरी आभा का परिचय नहीं हो पा रहा है। ध्यान रखिये वह आत्म आभा भौतिक साधनों की पकड़ से परे है। उसका मात्र संवेदन किया जा सकता है। यह मुनि का पद, मुनि की मुद्रा अपने आपमें सर्वोत्कृष्ट है। इससे बढ़कर कोई पद नहीं है, अत: इस पद के साथ दीनता और विद्रूपता नहीं आनी चाहिए। दिगम्बर मुनि मुद्रा ही एक ऐसी मुद्रा रह गयी है इस संसार में जिसके पीछे रोटी है और बाकी जितने भी हैं वे सब रोटी के पीछे हैं। अकेले दिगम्बरत्व और पिच्छिका-कमण्डलु लेने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, जितना यह सत्य है उससे भी बड़ा सत्य यह है कि इसके बिना भी कभी मुक्ति नहीं हो सकती। मात्र साहित्य से ही प्रभावना का काम नहीं चलता। यदि हमारे पास क्रिया है, दिगम्बर मुद्रा है तो साक्षात् महावीर भगवान् को हम देख सकते हैं। विश्व में बहुत सारे मार्ग (परम्पराओं) को बताने वाले साहित्य मात्र हैं किन्तु श्रमण संस्कृति में साहित्य के अनुरूप आदित्य (चर्या) भी है। इस चर्या की वजह से ही यह दिगम्बर परम्परा आज तक जीवित है यह हम सभी के महान् पुण्य एवं सौभाग्य का विषय है। इस श्रमण चर्या को देखकर ही हम यह अंदाज लगा सकते हैं कि तीर्थकर आदिनाथ और भगवान् महावीर कैसे थे। दिगम्बरत्व ही एक ऐसा बाँध है जिसे लाँघने का साहस परवादियों में नहीं हो सकता। ज्यों ही यह बाँध टूटेगा त्यों ही धर्म का निर्मल स्वरूप नष्ट हो जायेगा। दिगम्बरत्व धूप के समान है। उसका उपयोग चाहे जितना करें, मगर उसे बाँधने का प्रयास न करें, वह धूप है बाँधने से बंधेगी नहीं। दिगम्बर मुनियों की चर्या ऐसी है जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता। वह अनमोल है। आज भी दिगम्बर संत उसका पालन कर रहे हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने तो इस चर्या (मुद्रा) के लिये महान् से महानतम उपमाएं दी हैं। जैसे कि यही जिनागम है, यही तीर्थ है, यही सर्वस्व है। अत: इस चर्या का कभी भी अनादर नहीं करना चाहिए। सिर्फ प्रासुक आहार ही नहीं अपितु प्रासुक जमीन की ओर भी श्रावकों का ध्यान जाना चाहिए तभी यह निग्रन्थ चर्या जीवित रह सकेगी।
  14. धर्म संस्कृति 2 - गुरु गरिमा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुरुवचन आपत्तियों में भी पथ प्रदर्शित करते हैं। गुरुवचन जिनशासन में उपकरण माने गये हैं। पथ और पथप्रदर्शक के अभाव में पथिक भटक जाते हैं। गुरु के अभाव में गुरु के पदचिह्न ही हमारे लिये दर्पण का काम करते हैं। गुरु के द्वारा दिये गये निर्देश दीपक की तरह हमारे पथ को आलोकित करते हैं। जिसे गुरुओं द्वारा राह मिल जाती है फिर उसके लिये किसी तरह की परवाह नहीं होती है। जीवन में गुरुओं से अपने लिये जो कुछ भी मिला है उसे दीपक की भांति प्रकाशमान रखें एवं प्रकाश में ही जियें। वास्तव में गुरु वही हैं जो अन्तरंग में छाये हुए अंधकार को दूर कर प्रकाश प्रदान करते हैं। दृष्टि और चरण दोनों के लड़खड़ाने पर जो सहारा देते हैं, वास्तव में वे ही प्राज्ञ हैं वे ही गुरु हैं। यह बात ठीक है कि आँखें हमारी हैं, दृष्टि हमारी है लेकिन उसका उपयोग कैसे करना है ? यह हमें गुरु ही सिखलाते हैं, यही तो गुरु की महिमा है। सावधानी से चोट देकर पतितों के जीवन की खोटों को निकालने वाले पतितोद्धारक वे शिल्पी गुरु ही हैं जो बदले में कुछ भी नहीं चाहते। धन्य हैं उन गुरुओं की महती अनुकम्पा को। मिट्टी के अन्दर कई तरह की शक्तियाँ विद्यमान हैं वह यदि दलदल बन सकती है तो कुंभ भी। कुशल कुंभकार का योग पाकर वह पतित मिट्टी भी पावन कुंभ बन जाती है। हमारे गुरु आशावान नहीं बल्कि आशा पर नियंत्रण रखने वाले होते हैं। गुरु कृपा के उपरान्त भी आलसी की कभी उन्नति नहीं हो सकती। शिष्य वही कुशल है जो उपदेश में भी आज्ञा/आदेश को निकाल लेता है। सच्चा शिष्य गुरु आज्ञा मिलने पर अहो भाग्य की अनुभूति करता है। शिष्य के द्वारा की गई विनय भक्ति को प्रसन्नता से स्वीकारना ही गुरु के द्वारा किया गया शिष्य का बहुमान है। हमें सबकी बातें तो सुनना है लेकिन सबका जवाब नहीं देना। गुरु ने सुनना सिखाया है बोलना नहीं। गुरु से दूसरों को क्या क्या आदेश मिले हैं। इसकी ओर ध्यान न देकर गुरु ने हमें क्या आदेश दिये हैं, इसका ध्यान रखें तथा उत्साह पूर्वक पूर्ण करने का प्रयास करें। गुरु स्वयं तो सत्पथ पर चलते ही हैं, दूसरों को भी चलाते हैं। चलने वाले की अपेक्षा चलाने वाले का काम अधिक कठिन है। यद्यपि बच्चा चलता अपने पैरों से है तथापि माता-पिता की अँगुली उसे सहायक होती है। इसी तरह शिष्य स्वयं मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करता है परन्तु गुरु की अँगुली, गुरु का संकेत उसे आगे बढ़ने में सहायक होता है। भगवान् की वाणी को हमारे पास तक पहुँचाने वाले वे गुरु गणधर ही हैं। उन्हीं से गुरु परम्परा प्रारंभ हुई है गुरु पूर्णिमा के रूप में। इन्हीं महान् गुरुओं ने ही उस दिव्य वाणी को शास्त्र रूप प्रदान कर आगम परम्परा को सुरक्षित किया है अत: इस गुरु परम्परा का हम सब पर महान् उपकार है। जिनवाणी और सच्चे गुरुओं की शरण हमें मिली इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है ? हमारे जैसा बड़भागी और कौन हो सकता है। लेकिन अकेले बड़भागी मानकर यहीं पर बैठना नहीं किन्तु उस ओर कदम जरूर बढ़ाना जिसका कि हमें संकेत मिल रहा है। गुरु का उपकार शिष्य को दीक्षा-शिक्षा देने में है और शिष्य का उपकार गुरु द्वारा बताये मार्ग पर सही-सही निर्देशन के अनुसार चलने में है। जब तक उनके अनुसार नहीं चलेंगे तब तक अपने गुरुओं के द्वारा किये गये उपकार को हम प्रति उपकार में नहीं बदल सकते।
  15. धर्म संस्कृति 1- धर्म/धर्मात्मा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार उज्ज्वल भावधारा का नाम ही धर्म है। धर्म तो अपने श्रम की निर्दोष रोटी कमाकर देने में ही है। "स्व" से पलायन नहीं, "स्व" के प्रति जागरण का नाम ही धर्म है। आत्मा का सम परिणाम ही स्वभाव है वही समता है वही धर्म है। धर्म, प्रदर्शन की बात नहीं किन्तु दर्शन, अन्तर्दर्शन की बात है। आत्मधर्म देने-लेने या खरीदने योग्य नहीं है, वह तो निजी-भीतरी परिणति पर आधारित है। धर्म वह है जिसका आश्रय लेने से प्राणी सुखी बन जाये, जो शान्ति-संतोष दिला दे और परस्पर सभी जीवों में मैत्री-वात्सल्य भाव ला दे। धर्म वह है जो दुख के स्थान से उठाकर सुख के स्थान पर विराजमान करा देता है और अधर्म वह है जो दुख के गर्त में ढकेल देता है। धर्म नाव के समान है। नाव उसी को पार लगाती है जो उसमें बैठता है, ठीक इसी तरह धर्म भी उसे ही पार लगाता है, जो उसे धारण करता है। वही धर्म, जैन धर्म है, सत्य धर्म है, अहिंसा धर्म है, परम धर्म है, सनातन धर्म है, वही सर्वस्व है जो आत्म-तत्व की स्वतंत्र सत्ता का अवलोकन कराता है। जिस प्रकार रत्नों में हीरा और वृक्षों में गोशीर चन्दन श्रेष्ठ है उसी प्रकार समस्त धर्मों में अहिंसा धर्म श्रेष्ठ है। धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित नहीं है, वह निर्बन्ध-निस्सीम है सूर्य के प्रकाश की तरह। धर्म मात्र मानने की वस्तु नहीं अपितु महसूस करने की चीज है क्योंकि वह परिभाषा ही नहीं प्रयोग भी है। मात्र लिखना-पढ़ना ही धर्म नहीं है किन्तु धर्म तो आत्मा के जीवन्त आचरण का नाम है। धर्म वही है जो हमें अनुभूति कराता है, मात्र चर्चा ही नहीं चर्या भी सिखाता है। धर्म का प्रचार-प्रसार उस पर चलने से आचरण करने से होता है। धर्म को जानना अलग बात है किन्तु उसे जीवन में उतारना अलग बात। धर्म को अंगीकार करना श्रद्धा एवं विश्वास के बिना संभव नहीं। जिस प्रकार अंधकार और प्रकाश एक साथ नहीं रहते उसी प्रकार धर्म और अधर्म एक साथ नहीं रह सकते। आधुनिक विज्ञान ने आज तक मोह को क्षीण करने का कोई रसायन तैयार नहीं किया। धर्म ही वह रसायन है जो मोह को क्षीण कर देता है। धर्म और मोह ये दोनों विपक्षी दल हैं। मोह धर्म को दबाना चाहता है और धर्म मोह को। आज धर्म का नाम लेकर मोह का प्रचार-प्रसार खूब हो रहा है किन्तु वस्तुत: मोह के ऊपर प्रहार करने का नाम ही धर्म है। दीन-दुखी जीवों को देखकर जो व्यक्ति आँखों में करुणा का पानी नहीं लाता, उस पाषाण जैसे हृदय से कभी भी धर्म की अपेक्षा नहीं रखी जा सकती। धर्म का अर्थ यही है कि दीन-दुखियों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलके, अन्यथा नारियल में भी छिद्र हुआ करते हैं। शरणागत दीन-दुखी, असहाय जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, उन्हें संकटों से बचाकर पथ प्रशस्त करना यही क्षत्रिय धर्म है। जिसने धर्म रूपी कील का सहारा लिया है, जिसने रत्नत्रय का सहारा लिया है वह तीन काल में पिस नहीं सकता क्योंकि केन्द्र में हमेशा सुरक्षा रहती है और परिधि में घुमाव। दो ही धर्म का व्याख्यान शास्त्रों में आता है एक अनगार और दूसरा सागार। तीसरा कोई धर्म नहीं है, हाँ! धर्मशाला अवश्य है। श्रावक और मुनि दो तरह के धर्म हैं जिसमें श्रावक धर्म अनुष्ठान प्रधान होता है और मुनि धर्म अध्यात्म प्रधान । धर्म से बढ़कर कोई भी नेकी नहीं और अधर्म से बढ़कर कोई बुराई नहीं। धर्म के क्षेत्र में नाम नहीं काम जाना जाता है अन्यथा काम के अभाव में नाम भी बदनाम हो जाता है। आप लोग जिस तरह धन की रक्षा करते हैं उससे भी बढ़कर आपको धर्म की रक्षा करना चाहिए। क्योंकि धर्म के द्वारा ही जीवन का निर्माण होता है। यह जड़ की पूजा, धन की पूजा ही संसारी प्राणी को पतन के गर्त में ढकेल रही है। आत्मा की,गुणों की पूजा ही धर्म का आधार है अत: हमें जड़ की नहीं चेतन की पूजा करनी चाहिए। हम धर्म की ज्यादा प्रभावना कर रहे हैं दूसरे नहीं। इस प्रकार के भाव जिसके मन में हैं वह धर्म की बात समझ ही नहीं रहे हैं वह अभी धर्म से कोशों दूर हैं। धर्म की प्रभावना परमत का खण्डन करते हुए नहीं किन्तु स्वमत का मण्डन करते हुए करना चाहिए। गंधहीन पुष्प को व्यक्ति सूघ रहा है और सोच रहा है कि गंध क्यों नहीं आ रही है, यानि व्यक्ति धर्म के बिना जीवन जी रहा है और सोचता है कि धर्म का फल क्यों नहीं मिल रहा है। धर्म का फल कभी निष्फल नहीं जाता। यह बात अलग है, उसके स्वाद में अन्तर आ सकता है अपने हीनाधिक परिणामों के कारण। धर्म के क्षेत्र में आस्था और सद्भावना के साथ यदि हम तप त्याग के छोटे-छोटे बीज भी बो देते हैं तो कुछ ही समय में वह शीतलता प्रदायी विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लेता है। यदि आकाश समुद्र के जल का पान एवं दान बंद कर दे तो स्वयं समुद्र काँप उठेगा। यदि धर्म, त्याग और दान कराना बंद कर दे तो मानव जीवन गंदगी और दुर्भावनाओं की अग्नि से जलकर खाक हो जायेगा। जैसे माँ अपने बच्चे को जबरदस्ती दूध नहीं पिला सकती यदि पिला भी दे तो वह वमन कर देता है। ठीक इसी तरह धर्म की स्थिति है, जबरदस्ती ग्रहण कराया गया धर्म अन्दर तक नहीं पहुँच पाता। लघु बनकर नहीं गुरु बनकर ही धर्म का दान दिया जाता है किन्तु गुरु बनकर नहीं लघु बनकर ही कर्म का हान किया जाता है। यह तो बाहरी बात हुई, न लघु बनकर न गुरु बनकर बल्कि अगुरुलघु बनकर ही धर्म का पान किया जा सकता है। हम "अहिंसा परमो धर्म:” का नारा तो बहुत लगाते हैं पर फिर भी हम जीवन में किनारा नहीं पाते, कारण सिर्फ इतना है कि समय आने पर हम धर्म से किनारा कर जाते हैं। धर्म के बिना जीना भी क्या जीना ? नीतिकारों ने कहा है - मर जाना फिर भी अच्छा है लेकिन धर्म के बिना जीना अच्छा नहीं। धर्म के अभाव में जीवन, जीवन नहीं अभिनय मात्र है। धर्मात्मा, अधर्मात्मा को भी अपने जैसा बनाने का भाव रखता है। धर्मात्मा वही है जो किसी दूसरे धार्मिक व्यक्ति के धर्म भावों को ठेस न पहुँचाये। धर्मात्मा को धर्म प्रिय होना चाहिए, स्थान नहीं। धर्मी के अभाव में धर्म और धर्म के अभाव में धर्मी नहीं रह सकता। 'न धर्मों धार्मिकैर्विना' इसलिये यदि आप धर्म को चाहते हो तो धर्मात्मा के पास जाना ही होगा। लोग कहते हैं धर्म संकट में है, धर्म गुरु संकट में हैं, जिनवाणी भी संकट में है किन्तु मैं कहता हूँ ये तीनों संकट मुक्त हैं तभी मुक्ति के साधन हैं। संकट तो हमारे ऊपर है। संकट तभी आते हैं जब हमारे भीतर ये तीनों जीवित नहीं रहते। दुख दूर हो तथा शान्ति की प्रस्थापना हो इसलिये धर्म का उपदेश होता है। विषयों में रुचि जगाने के लिये धर्मोंपदेश नहीं है बल्कि मोक्षमार्ग में रुचि जगाने के लिये धर्मोंपदेश है। धार्मिक कार्यों में प्रारंभ से लेकर अंतिम दशा तक जितनी भी क्रियायें होती है, वे सब संसार से छूटने के लिये ही हैं। अरहन्त पूजा, भक्ति, दान आदि प्रशस्त चर्या है। इसके द्वारा पुण्य का संचय तो होता ही है, साथ-साथ क्रमश: यानि परम्परा से निर्वाण की प्राप्ति भी होती है। जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करना, शील का पालन करना, उपवास करना तथा सत्पात्रों को दान देना ये चारों धर्म श्रावकों के लिये नित्य करने योग्य कहे गये हैं। जो व्यक्ति दान, पूजा, शील और उपवास को जड़ की क्रिया कहता है, वह आगम का अपलाप कर रहा है। उसे अभी आगम का सही-सही ज्ञान नहीं है। वह तो अपना अहित कर ही रहा है किन्तु उसके उस उपदेश से सारी की सारी जनता भी अपने कर्तव्य से विमुख हो जायेगी। बंधुओ! यह उपदेश प्रणाली ही आगम विरुद्ध है क्योंकि आचार्यों का कहना है कि यह सब जड़ की क्रियायें नहीं बल्कि धर्म की क्रियायें हैं। धर्म के माध्यम से ही जीवन में निखार आ सकता है धर्म के माध्यम से ही सारी की सारी योजनायें सफल होने वाली हैं, केवल एक शर्त है कि हमारी दृष्टि भीतर की ओर हो। उत्सर्ग और अपवाद दोनों मार्गों का कथन आगम में आया है। जो व्यक्ति किसी एक मार्ग को भूल जाते हैं वह फेल हो जाते हैं, दोनों में साम्य होना जरूरी है। यदि जीवन में धर्म है तो बाह्य वैभव सम्पदा से क्या प्रयोजन और यदि धर्म नहीं है तो भी अन्य वैभव सम्पदा से क्या प्रयोजन। जिस प्रकार घर में आग लगने पर कुआं खुदवाने से कोई लाभ नहीं होता उसी प्रकार वृद्धावस्था में धर्म का मार्ग अपनाने पर अपेक्षित लाभ नहीं होता। देह से परे आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान, विज्ञान की पकड़ से परे है। इसका विवरण मात्र धर्म ग्रंथों में ही मिलता है। मोक्ष की ओर दौड़ लगाने वाला यह युग धर्म का नाम तो लेता है किन्तु धर्म की भावना नहीं रखता, सुख-शान्ति चाहते हुए भी उसके पथ पर चलना पसंद नहीं करता।
  16. साधना 6 - आत्म पुरुषार्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार स्व की ओर मुड़ना ही सही पुरुषार्थ है। पर को नियन्त्रित करने की मन की इच्छा गलत है बल्कि स्वयं को नियन्त्रित करना ही वास्तविक पुरुषार्थ है। पहले विश्व को भूलो और आत्मा को जानो। जब आत्मा को जान जाओगे तो विश्व स्वयं प्रगट हो जायेगा। सही रूप की प्राप्ति किसी को तब तक नहीं होती जब तक अपने स्वरूप की पहचान नहीं होती। शरीर के प्रति वैराग्य और जगत् के प्रति संवेग ये दोनों ही बातें आत्मकल्याण के लिये अनिवार्य हैं। आत्मबोध के होने पर संयम कभी बोझ नहीं लग सकता। जो उसे बोझ रूप महसूस करते हैं, उन्होंने अभी आत्मज वैभव को सही-सही नहीं समझा। वीतरागता को थोपा नहीं जाता, उसे तो अपने अन्दर जाग्रत किया जा सकता है। दुनिया से क्या बचना ? कितना बचना ? क्या क्या बचा पाओगे ? अत: स्वयं को राग-द्वेष से बचाना ही परम पुरुषार्थ है। अपने आपको जानो, अपने को पहचानो, अपनी सुरक्षा करो क्योंकि अपने में ही सब कुछ है। मुक्ति के पथ पर भागो नहीं, ठहरो, स्थिर हो जाओ क्योंकि भागने में आकुलता है और ठहरने में आनंद। ठहरना ही वास्तव में विश्राम है। अपनी आत्मा स्वयं आपको देखनी होगी। गुरु भी आत्मा को नहीं दिखा सकेगे, सिर्फ आत्मा की बात बता सकेंगे। आत्मा दिखाने की वस्तु नहीं है, देखने की वस्तु है। तू तटस्थ होकर देख, देखना-जानना स्वभाव है तेरा लेकिन चलाकर नहीं। चलाकर देखना राग का प्रतीक है। जो हो रहा है उस होते हुए को देखिये जानिये मगर बिगड़िये नहीं। मिट्टी से बाँधे गये बाँध की तरह संसारी प्राणी का कमजोर उपयोग कर्मोदय के तीव्र प्रवाह में शीघ्र ही ढह जाता है। पानी की तेज धार जैसे बड़े-बड़े पाषाण खण्डों को भी बहा ले जाती है ठीक इसी तरह मोह भी एक प्रबल धारा के समान है जिसमें बड़े-बड़े साधक भी बह जाते हैं। जिसका जीवन साफ -सुथरा है वही इस धारा को पार कर सकता है। ७० कि. मी. स्पीड वाली गाड़ी को जैसे ब्रेक लगाकर १ कि.मी. प्रति घंटे की स्पीड से कर सकते हैं ठीक इसी तरह७० कोड़ाकोडी स्थिति वाले मिथ्यात्व को आत्मोन्मुखी स्वपुरुषार्थ के बल पर अन्त: कोड़ा-कोडी कर सकते हैं। ज्ञान को यदि परिपूर्ण और पुष्ट बनाना चाहते हो तो आइये परिषह और तपों से गुजरिये। तप की आराधना के बिना आत्मोत्थान संभव नहीं है। संयम की ढाल को अपने हाथ में लेकर ज्ञान की तलवार चलाने से अनंतकालीन कर्मों की फौज, जो कि भीतर साम्राज्य किये बैठी है छिन्न-भिन्न हो जाती है। आत्म तत्व की उपलब्धि के लिये गहराई में उतरना पड़ता है। जो केवल तट पर ही बैठे रहते हैं उन्हें मात्र लहरें ही हाथ लगती हैं, मोती केवल गहराई में ही मिल पाते हैं। बहुत हो गया बाहरी परिचय, और कितना? कब तक? अब तो चेतो हे चेतन! और अपने को पहचानों। चाहे हुए अपेक्षित कार्य के सफल न होने पर हमेशा अशान्ति होती है अत: मात्र अपेक्षा न रखें किन्तु अपेक्षित कार्य सफल हो ऐसा पुरुषार्थ भी करें। क्षेत्र और वस्तु का सदुपयोग वही कर सकता है जिसका भीतरी पुरुषार्थ चल रहा है। हम भले ही शुद्ध-शुद्ध की चर्चा करते जायें कि आत्मा शुद्ध है, हम शुद्धाम्नाय वाले हैं किन्तु भगवान कहते हैं कि जिसका आचरण शुद्ध है उसकी आम्नाय शुद्ध है। जिसका आचरण शुद्ध नहीं उसकी आम्नाय भी शुद्ध नहीं। आम्नाय (परम्परा) आचार और विचार की एकता से ही चलती है। आत्म विकास के लिये वीतराग स्वसंवेदन की आवश्यकता है। स्वसंवेदन के माध्यम से हम उस तत्व को देख सकते हैं जिसे आज तक नहीं देखा। जिसके माध्यम से जीवन में क्रान्ति आती है और सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है वह है वीतरागता । उसी वीतरागता की प्राप्ति के लिये यह सारे के सारे प्रयास चल रहे हैं। सिद्ध-दशा में आत्मा अमूर्त है शुद्ध पारे की तरह उसे हम पकड़ नहीं सकते, किन्तु संसार दशा में कर्म सहित होने पर पारे की भस्म की तरह पकड़ में आ जाती है। यदि इस आत्मा को वीतरागता का योग मिल जाये तो मूर्त से अमूर्त हो सकती है। आज भविष्य के बारे में चिन्ता है और भूत के साथ उसकी तुलना हो रही है जबकि वर्तमान पुरुषार्थ खोता जा रहा है। जो व्यक्ति भविष्य की चिन्ता कर रहा है तो निश्चित मानिये वह वर्तमान को ठुकरा रहा है, ध्यान रहे कार्य का होना भविष्य में नहीं वर्तमान में ही संभव है। कर्म निर्जरा करने वाला साधक महान् है। वह कुछ ही समय में आत्मा को कचन-सा शुद्ध कर देता है। मुक्ति तो अविपाक निर्जरा का फल है और अविपाक निर्जरा तप के माध्यम से होती है। अत: हम ऐसा तप करें जिससे आत्मा की समस्त वैभाविक कालिमा निकल जाये और एकमात्र शुद्ध स्वर्ण के समान आत्मद्रव्य शेष रह जाये। मोक्ष पुरुषार्थ किसी वर्ग में सम्मिलित नहीं है इसलिये इसे संस्कृत में अपवर्ग कहते हैं परन्तु धर्म, अर्थ और काम आपस में सम्बद्ध है इसलिये इन्हें त्रिवर्ग कहते हैं। मोक्ष अकेला और ये तीन, फिर भी मोक्ष का सामर्थ्य देखो वह अकेला ही तीनों को समाप्त कर देता है। जिसे दर्शन का सार मिल गया है उसे अब मात्र देखना भर नहीं है अपितु अनुभव में भी लाना चाहिए। मगर बाहरी प्रदर्शनों के चक्करों से अपने आपको पृथक् रखना चाहिए। गुणों की अपेक्षा से सिंह बनो, श्वान मत बनो क्योंकि श्वान मात्र प्रहार को पकड़ता है जबकि सिंह प्रहार करने वाले को |
  17. साधना 5 - समता/अध्यात्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार समता भाव ही श्रामण्य है उसी में श्रमण की शोभा है। सुख दुःख कर्माश्रित है किन्तु समता आत्माश्रित, जो कि कषाय विजय की प्रतीक है। सरलता और समता ही मेरा स्वभाव है, कुटिलता और ममता केवल विभाव। अध्यात्म की पृष्ठभूमि वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ से दृष्टि में समता आती है। समता के साथ सुख का गठबंधन है। अध्यात्म का आनंद समता की गोद में है। समता के साँचे में ढला हुआ ज्ञान ही विपत्ति के समय काम आता है। समता का विलोम है तामस। समता जीवन का वरदान है और तामस अभिशाप। समताधारी यश में फूलता नहीं और अपयश में सूखता नहीं। समता का अर्थ पक्षपात नहीं है किन्तु वह तो माध्यस्थ भावों की एक ऐसी भूमिका है जहाँ पर न वाद है न विवाद। समता भाव ध्यान नहीं है वह तो राग द्वेष से रहित एक परम पुरुषार्थ है। साधक के लिये अन्य सभी शरण तात्कालिक हो सकती हैं पर उसे समता ही एक मात्र शाश्वत शरण है। जरा-जरा सी बातों में क्षुब्ध होना ज्ञानी की प्रौढ़ता नहीं है, ज्ञानी की प्रौढ़ता की झलक समता में है। जो आँखें अपमान का प्रसंग पाकर भी रक्त वर्ण की नहीं होती अपितु क्षमा-समता के दूध से भर जाती हैं वे दिव्यता को पा जाती हैं। जो साधक वस्तुओं को न अच्छी न बुरी मानता है अपितु समता भाव रखता है वही व्यक्ति भगवान् महावीर का अनुगामी बन सकता है। जिसे स्वरूप का ज्ञान हो गया है वह समता में आये बिना रह नहीं सकता और कभी भी वह विषमता की ओर पैर नहीं बढ़ायेगा। समता वहीं पर टिकती है जहाँ पर किसी वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रहती। आशा से मलीन मन में उपशम भाव नहीं आ सकते। तलवारों का वार सहने वाले लोग आज फिर भी मिल सकते हैं लेकिन फूलमालाओं का वार सहना कितना कठिन है। इसे सहने वाले विरले ही साधक मिलते हैं बन्धुओ! कर्म के उदय में नवीन कर्म का बन्ध हो ही यह नियम नहीं है किन्तु राग न करने वाला ज्ञानी कर्मोदय के समय समता भाव रखकर नये कर्म-बन्ध से बच जाता है। समयसार जीवन का नाम है, चेतन का नाम है और शुद्ध परिणति का नाम है उसमें पर की बात नहीं स्व की बात है। भूत और भविष्यत् इन दोनों को भुलाकर वर्तमान का संवेदन करना ही अध्यात्म का सार है। 'अब' के पास आने के लिये ‘तब' और 'कब' का सम्बन्ध तोड़ना होगा। बाह्य पदार्थों को ओझल कर अपने आप में आने का नाम ही अध्यात्म है। अध्यात्म का अर्थ झुण्ड नहीं अकेला है, द्वैत नहीं अद्वैत है, वह तो एकाकी यात्रा है। हे मन! तू कहीं भी चला जा पर ध्यान रख, स्वरूप से बढ़कर दुनिया में कोई उत्कृष्ट वस्तु नहीं। जिसे मरण से भीति नहीं और जन्म से प्रीति नहीं, वही अध्यात्म को पा सकता है। अध्यात्म जब गौण हो जाता है तब पूरा का पूरा ज्ञान मिट जाता है। वास्तव में त्यागी का जीवन अध्यात्म ही है। जो अध्यात्म के धरातल से नीचे खिसक जाता है उसे अध्ययन की आकुलता बढ़ जाती है। वस्तुत: अध्यात्म साधना यही है कि जो भी ज्ञान का विषय बने उसमें समता रखनी चाहिए। अध्यात्म प्रेमी कभी बाहर में किसी से उलझता नहीं और किसी को उलझाता भी नहीं। जिसने समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार को समझ लिया वास्तव में वही अध्यात्म के रहस्य को समझ सकता है। स्वभाव की ओर आने के लिये यह जानना आवश्यक है कि कौन किस-किस का किस रूप में कर्ता है। इन्ट्रेस्ट (रुचि) के बिना इंटर (प्रवेश) संभव नहीं। उसके बिना भीतर अध्यात्म की बात उतर नहीं सकती। भावना ही एकमात्र अध्यात्म का प्रवाह है अत: उस अध्यात्म तक पहुँचने के लिये अनुप्रेक्षा आवश्यक है। इस युग में अध्यात्म शास्त्रों का असर तो हुआ है पर लगता है सर तक हुआ है। गुरुभक्ति करते-करते जिसका हृदय शुद्ध हो गया है, आस्था मजबूत हो गई है उसे ही गुरु अध्यात्म का रहस्य उद्घाटित करते हैं। जहाँ पर अध्यात्म जीवित है, वहीं पर आत्मा जीवित है। आज हम उस उत्कृष्ट अध्यात्म को मात्र शब्दों में देख रहे हैं, जीवन में नहीं। स्मृति अतीत की प्रतीक है और आशा भविष्य बनकर खड़ी है। इन दोनों पर विजय पाने वाला ही वर्तमान में निराकुलता से जी सकता है। अध्यात्म के बिना जीवन में कोई रस नहीं रह जाता। चौबीसों घंटे बहिर्मुखी दृष्टि के साथ ही जीवन चला जा रहा है। उसे छोड़कर अध्यात्म के साथ अन्तर्मुखी साधना करनी चाहिए। आध्यात्मिक साधना वही है, जिसमें एकमात्र आत्मा ही रह जाती है, परमात्मा भी गौण हो जाता है। इतना साहस जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व में आ जाता है, वही अकेला इस परम अध्यात्म को पा सकता है। आप आनंद की अनुभूति चाहते हुए भी चाह रहे हैं कि वह कहीं बाहर से आ जाये। पर ध्यान रखना बाहर से कभी भी आने वाली नहीं है। 'बसंत की बहार' बाहर नहीं अन्दर है। सुख-शान्ति बाहर नहीं अन्दर है। अन्दर आनंद का सरोवर लहरा रहा है उसमें कूद जाओ तो सारा जीवन शान्त हो जाये। जहाँ पर तेरा-मेरा, यह-वह, सब विराम पा जाता है वस्तुत: वही अध्यात्म है। लेखक, वत्ता और कवि होना दुर्लभ नहीं है, दुर्लभ तो है आत्मानुभवी होना। सोचिये! स्वयं को छाने बगैर सारे संसार को छानने का प्रयास आखिरकार तुम्हारे लिये क्या देगा। मैं यथाकार बनना चाहता हूँ व्यथाकार नहीं, और मैं तथाकार बनना चाहता हूँ कथाकार नहीं। आपके भोग का केन्द्र भौतिक सामग्री है, किन्तु सन्तों की भोग सामग्री चैतन्य शक्ति है। जिसमें आत्मा के साथ सतत् भोग चलता रहता है। अध्यात्म में उत्पाद, व्यय की अपेक्षा ध्रौव्य (सत्ता) को विशेष महत्व दिया गया है। इसमें जो एक बार उतर जाता है वह तर जाता है । एकान्त में शान्त चित्त से एकत्व का चिन्तन जब तक नहीं चलता तब तक संसारी प्राणी की दीनता समाप्त नहीं हो सकती क्योंकि एकत्व अनुप्रेक्षा में अपना सारा आत्म साम्राज्य सामने आता है फिर दीनता की कोई बात ही शेष नहीं रह जाती है। पेड़ा खाना ध्यान करना है और मावा बनाना भावना भाना है। ध्यान रूपी पेड़ा खाने के लिये बारह भावना रूपी मावा बनाना जरूरी है और मावा बनाने के लिये दूध के उबलते समय वहीं पर बैठकर बार-बार आवश्यकों की चम्मच चलाना आवश्यक है।
  18. साधना 4 - ध्यान-समाधि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मन की व्यग्रता रोकने का नाम ही ध्यान है। चिन्तन ध्यान नहीं ‘मन का व्यापार' है जबकि ध्यान तीनों योगों का पूर्ण विराम है। आत्मा का साक्षात्कार होना यह मात्र सम्यकज्ञान की बात नहीं है कितु साथ में सम्यकध्यान भी आवश्यक है। समीचीन उद्देश्य बनाने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है पर उसे पूर्ण करने के लिये ध्यान की आवश्यकता है। जिसका अशन (भोजन) और आसन पर नियन्त्रण है, वही ध्यान लगा सकता है। मंत्र के ज्ञान, पाठ, जाप और ध्यान इन सभी में बहुत अन्तर है। सिद्धि ध्यान से होती है। प्रवृत्ति-गत प्रमाद समितियों से और शुद्धात्मचलन रूप प्रमाद ध्यान से मिटाया जाता है। आत्मध्यान के लिये न एयरकण्डीशन (वातानुकूलित) की जरूरत है और न किसी कण्डीशन की जरूरत है। एयर कण्डीशन में ध्यान करने वालों की दु:ख के समय कण्डीशन (हालत) बिगड़ जाती है। जिस तरह रीढ़ को सीधा करना मात्र ध्यान नहीं है उसी तरह भीड़ जोड़ना मात्र भी ज्ञान नहीं है। ध्यान एक ऐसा प्रयोग है जिससे यह संसारी प्राणी भी ऊध्र्वगमन कर जाता है। ध्यान की बात करना और ध्यान से बात करना इन दोनों में बहुत अन्तर है। ध्यान के केन्द्र खोलने मात्र से ध्यान में केन्द्रित होना संभव नहीं। प्रदर्शन की क्रिया बहुत सरल है, देखा-देखी हो सकती है उसके लिये शारीरिक, शाब्दिक या बौद्धिक प्रयास पर्याप्त है किन्तु दर्शन के लिये ये तीनों गौण हैं, उसमें तो आध्यात्मिक तत्व प्रमुख है। जिस प्रकार विमान हवाई पट्टी के आधार से तीन चाकों के माध्यम से पहले दौड़ता है गति पकड़ता है और फिर आसमान में उड़ जाता है, ठीक इसी प्रकार हवाई पट्टी रूप दिगम्बरत्व के आधार से तीन चाकरूप रत्नत्रय को अंगीकार कर अभेद अखण्ड ध्यानाकाश में उड़ने का आनंद लिया जा सकता है। प्रतिदिन कम से कम पाँच मिनिट बैठकर ध्यान करो, सोचो जो दिख रहा है सो "मैं नहीं हूँ।" किन्तु जो देख रहा है सो "मैं हूँ"। तनरंजन और मनरंजन से परे निरंजन की बात करने वाले विरले ही लोग होते हैं। जिसको शिव की चिन्ता नहीं वह जीवित अवस्था में भी शव के समान है। यह पंचमकाल है इसमें विषयानुभूति बढ़ेगी, आत्मानुभूति घटेगी। वर्षों हो गये दशलक्षण मनाते हुए पर एक भी लक्षण जीवन में नहीं आया, यही तो हमारी विलक्षण बात है। ज्ञान को अप्रमत्त और शरीर को शून्य करने से ध्यान में एकाग्रता स्वयमेव आती है। आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है इसकी सही प्रयोगशाला समाधि की साधना है। विनय और वैयावृत्ति सीखे बिना हम किसी की सल्लेखना नहीं करा सकते। वैयावृत्ति अन्तरंग तप है उसे यदि कोई संयमी व्यक्ति करना चाहता है तो करे किन्तु असंयम से बचकर सावधानी पूर्वक निरवद्य करे। शल्यवान की सल्लेखना सफल नहीं हो पाती। आधि, व्याधि और उपाधि से परे स्वस्थ समाधि होती है। सल्लेखना जीवन से इंकार नहीं है और न ही मृत्यु से इंकार है अपितु उसमें महाजीवन की आशा है वह आत्महत्या नहीं है क्योंकि आत्महत्या में कषाय की तीव्रता एवं जीवन से निराशा रहती है। जिसने एकान्त में शयनासन का अभ्यास किया है वही निर्भीक होकर समाधि कर सकता है और करा भी सकता है क्योंकि एकान्त में बैठने से भय और निद्रा दोनों को जीता जा सकता है। बाहर आने पर भीतर से नाता टूट जाता है, जो भीतर की ओर दृष्टि रखता है वह धन्य है। 'मंत्र' जहाँ काम नहीं करता वहाँ ‘तंत्र' काम कर जाता है और बाहरी तंत्र जहाँ काम नहीं करता वहाँ भीतरी समाधितंत्र काम कर जाता है। प्रयोग का निग्रह पहले होता है, योग का बाद में। मुक्ति काल से नहीं बल्कि कारण के सम्पादन से होती है। संसार और शरीर के प्रति राग करना मुक्ति से मुख मोड़ना है किंतु वैराग्य भाव लाना मुक्ति से नाता जोड़ना है। निराकुलता जीवन में जितनी-जितनी आती जाये, आकुलता जितनी-जितनी कम होती जाये उतना-उतना मोक्ष आज भी है। चित्त की स्वस्थता के लिये चिंतन जरूरी है। अकेले चित्र का ही नहीं किन्तु चित्त का भी अनावरण करो। साधना की चरम सीमा ध्यान है, जिसे भीतरी एवं बाहरी वस्तुओं के त्याग करने पर होने वाली चित्त शुद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। पानी यदि रंगीन मटमैला है तो उसके अन्दर क्या पड़ा हुआ है? दिखाई नहीं देता और यदि पानी साफ-सुथरा भी हो किंतु हिल रहा हो, तरंगायित हो तब भी अन्दर क्या है? दिखाई नहीं देता अत: अन्दर झाँकने के लिये पानी का रंग और तरंग रहित होना जरूरी है। ठीक इसी प्रकार रंग (मोह) और तरंग (योग) के अभाव में ही अन्तरंग (आत्मतत्व) का दर्शन होता है। आनंद प्रवृति में नहीं निवृति में है। पंखों को फडफड़ाते हुए पक्षी आसमान में बहुत ऊपर पहुँच जाते हैं किन्तु बीच-बीच में वह पंखों को विश्राम देकर भी उड़ते रहते हैं इस बात से सिद्ध होता है कि आत्मा का उत्तम आनंद प्रवृत्ति में नहीं किन्तु प्रवृत्ति के निरोध रूप गुप्ति में है। मन सांसारिक विषय-कषायों में वैसे ही लगा रहता है किंतु आत्म-कल्याण में लग जाना वास्तविक ध्यान है। इसी हेतु एक-एक क्षण का उपयोग करने पर उसकी संसिद्धि हो जाती है। केवलज्ञान और मुक्ति में उतना ही अंतर है जितना १५ अगस्त और २६ जनवरी में। केवलज्ञान का होना स्वतंत्रता दिवस और मुक्ति का होना गणतन्त्र दिवस है। यह संसारी प्राणी किसी न किसी से अपेक्षा रखता ही है परन्तु अपेक्षा मात्र आत्मा की रही आवे और संसार से उपेक्षा हो जावे तो यह प्राणी मुक्त हो जाता है।
  19. साधना 3 - साध्य/साधन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अपना उद्देश्य सिद्धि का नहीं, सिद्ध बनने का होना चाहिए। संयम और साधना आत्मदर्शन के लिये हो, प्रदर्शन के लिये नहीं। प्रदर्शन करने से दर्शन का मूल्य कम हो जाता है यदि उसके साथ दिग्दर्शन और जुड़ जाये तो उसका मूल्य और भी कम हो जाता है। साधन वही है जो साध्य को दिला दे। कारण वही है जो कार्य को सम्पादित करे। औषधि वही है जो रोग को दूर करे। तप वही है जो नर से नारायण बना दे। योग साधना के लिये जीवन मिला है, भोग साधना के लिये नहीं। इस शरीर के माध्यम से ही साधना के बल पर अलौकिक आनंद पाया जा सकता है। जीवन निश्चित ही संघर्षमय है लेकिन साधक इसे हर्षमय होकर अपनाता है। साहस, धैर्य और सहिष्णुता नहीं होने के कारण ही चित्त विक्षिप्त-सा होता है और चित्त का चंचल होना साधक की सबसे बड़ी कमजोरी है। इष्टानिष्ट वस्तुओं के संयोग-वियोग हो जाने पर हर्ष-विषाद नहीं करना ही वास्तविक साधना है। प्रतिकूलता और अनुकूलता मात्र भावों की देन है। मंत्र न ही अच्छा होता है और न ही बुरा। अच्छा बुरा तो अपना मन होता है। हमारी साधना में कहाँ पर कमी है ? और है तो क्यों ? तथा उस कमी की पूर्ति कैसे होगी ? ये तीन प्रश्न मन में बार-बार उठना चाहिए ताकि उसे दूर कर आगे बढ़ा जा सके। जल के प्रतिकूल प्रवाह में भी कुशल नाविक जिस प्रकार नाव को पार लगा लेता है उसी प्रकार प्रतिकूल अवसरों पर यदि साधक अपने आपको सम्हाल लेता है तो वह बहुत कुशल साधक माना जाता है। पुण्य के उदय में समता रखना साधक की सबसे बड़ी परीक्षा है। सबसे बड़ा साधक वही है जिसकी साधना गुरु आज्ञा से परोक्ष में भी निर्दोष और उत्साह सहित होती है। वास्तविक संन्यासी तो वही है जिसके ममत्व की मृत्यु हो चुकी है। जब पुरुष, योगी बन जाता है तो सभी उसके सहयोगी बन जाते हैं। यदि आप योगी बनेंगे तो मन आपका सहयोगी बनेगा और यदि आप भोगी बनेंगे तो मन आपको रोगी बना देगा। साधक को निराकुल एवं एकाग्र होकर साधना करना चाहिए। आचार्यों का उपदेश साधकों के लिये केवल इतना ही है कि वे हाथ से कल्याण का संकेत करें और मुख का प्रसाद बिखेर दें, इससे ज्यादा उन्हें और कुछ नहीं करना है। साधक बनो, प्रचारक नहीं। उत्कृष्ट साधकों के दर्शन करने पर ही उत्कृष्ट भाव होते हैं। साधक को प्रवृत्ति में मूलाचार एवं निवृत्ति में समयसार का अवलम्बन लेना चाहिए। इस संसार के दंदफंद को जानकर बचने का प्रयास करो, हे साधु! यहाँ किसी से कुछ मत कहो,गहरी चुप्पी साधो। अभी तक मछली की तरह माया के जाल में फंसते रहे हो। अब हे साधक! ज्ञान का कोई ऐसा जाल बनाओ जिसमें माया की ही मछली फँस जाये। अज्ञान उतना खतरनाक नहीं है जितना कि प्रमाद। ब्रह्मचर्य अकेलेपन का द्योतक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं वरन् भोग के साथ एकीकरण और रोग से निवृत्ति है। सही अर्थों में ब्रह्मचर्य का अर्थ है चेतन का भोग। उपसर्ग और परिषह भेदविज्ञान की कसौटी है। सावधानी के साथ किया गया थोड़ा-सा भी कार्य अच्छा होता है। जो कोई भी कार्य/साधना हो वह अहिंसा मूलक हो, राग द्वेष को कम करते हुए हो। मन का निराकुल होना साधना की अंतिम अवस्था है। उसी साधना का अभ्यास करना चाहिए। ध्याता और ध्येय जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक ही मन में क्षोभ रहता है। मौन साधना वचनशुद्धि एवं सिद्धि का साधन है। मौन से गंभीरता आती है स्व कलह समाप्त हो जाती है। उस तप को अपनाना चाहिए जिससे इच्छा को थक्का लगे। जिस त्याग से जीवन में निर्मलता आती है वही त्याग वास्तव में त्याग कहलाता है जिस त्याग के अनन्तर कलुषता हो वह त्याग नहीं दम्भ है। जिसमें सहिष्णुता और धीरता इन दोनों महान् गुणों का अभाव है वे त्यागी होने के पात्र नहीं। तृप्ति का कारण त्याग है, पूर्ति नहीं। प्रत्येक स्थान पर त्याग का महत्व है कोई भी क्षेत्र त्याग के बिना फलफूल नहीं सकता। जैसे बीज का त्याग किये बिना अन्न नहीं, दूध का त्याग किये बिना नवनीत नहीं। त्याग और चारित्र के बिना जीवन पतित ही रहेगा, कलंकित ही रहेगा। हमें अपने जीवन को कलंकित नहीं करना बल्कि अलंकृत करना है चारित्र रूपी आभूषणों से। जिस प्रकार तपन के बिना वपन किया हुआ बीज नयेपन की ओर नहीं जाता, उसी प्रकार तपाराधना के बिना श्रमण के जीवन में साधना के नये आयाम नहीं खुलते। प्रारंभिक दशा में जिस धूप में वनस्पति कुम्हला जाती है किन्तु आगे चलकर उसी धूप में वह हरी-भरी होती है ठीक उसी प्रकार प्रारंभ में साधना कठिन जरूर लगती है किन्तु अभ्यास करने से कालान्तर में वह सुखदायी हो जाती है इच्छायें गर्मी में लगने वाली प्यास के समान हैं। वासना का वास, न तन में है, न वसन में है वरन् माया से प्रभावित मन में है। तप वह रसायन है जिसके माध्यम से मन का पूर्णरूपेण संशोधन हो सकता है। आनंद की चरम सीमा तक पहुँचने का तप एक अनन्य साधन है। अपना भाव क्या है ? अपना कर्तव्य क्या है ? अपना पद क्या है ? इस तरह जिसका चित्त अपने बारे में ही विचार करता रहता है, समझ लो वह तप में लीन ही रहता है। मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बनकर कार्य करो। मैंने किया या मैं करूं ऐसी कर्तृत्व बुद्धि से नहीं। सम्यकद्रष्टि समय को नहीं खोता। किन्तु समय में (आत्मा में) अपने आपको खोता है। संवेग, सम्यकद्रष्टि साधक का अलंकार है। जहाँ संवेग होता है वहाँ विषयों की ओर रुचि नहीं रह जाती, उदासीनता आ जाती है। व्यवहार सम्यकदर्शन फालतू नहीं वरन् पालतू है। सम्यकदर्शन के बिना पाप से डरना नहीं होता। संसार से भीति सम्यकदर्शन का अनन्य अंग है। सम्यकद्रष्टि जीव भले ही स्वयं दीक्षा न ले पर किसी को दीक्षा लेने में बाधक नहीं बनता। जो दीक्षा-शिक्षा का निषेध करता है वह नियम से संयम का प्रतिपक्षी है। अतीत में क्या-क्या हुआ था, भविष्य में क्या-क्या होगा इसकी चिन्ता न करके वर्तमान में हमें क्या करना है, इस पर अवश्य विचार करना चाहिए। तुम्हारा अतीत भले ही पापमय रहा हो किन्तु वर्तमान यदि सच्चाई लिये है तो भविष्य अवश्य ही उज्ज्वल रहेगा। जिस व्यक्ति के वर्तमान में अच्छे कदम नहीं उठ रहे उसका भविष्य मानो अंधकारमय ही है। अतीत में जीना मोह है, भविष्य में जीना लोभ है और वर्तमान में जीना कर्मयोग है। भविष्य की ओर देखने से आशा जन्मती है और अतीत की ओर देखने से स्मृति आती है। संसार का बहुत बड़ा विस्तार है बस मुक्ति में ही सार है। दुनिया को गौण मत करो, उसे बदलने का प्रयास मत करो, प्रयास करो अपनी दृष्टि और द्रष्टिकोण को बदलने का। तू तटस्थ होकर देख! देखना, जानना तेरा स्वभाव है लेकिन चलाकर नहीं। चलाकर देखना राग का प्रतीक है। जो हो रहा है उसे होते हुए को देखिये और जानिये। आचार्यों का दिव्य संदेश है कि कहीं अन्यत्र मत भागो। जहाँ हो वहीं ठहरो और स्वयं को जानने व पाने का प्रयास करो। बाहर में भागने से कुछ नहीं पाओगे। खुदा का बंदा बनना आसान है किन्तु खुद का बंदा बनना कठिन है खुद के बंदे बनो। यह जीवन तभी आनंदमयी हो सकता है जब वहाँ एकत्व हो। जहाँ अनेकत्व है वहाँ विकल्पों के सिवाय कुछ भी नहीं। रोटी और लंगोटी की चिन्ताओं से मुक्त हुए बिना आत्मा का आनंद आ ही नहीं सकता। जिसके चित्त में न चिन्ता है, न चिन्तन है, वह है मात्र चेतन रूप आनंद कद किन्तु चिन्तन से पहले पर की चिन्ता से मुक्त होना जरूरी है। जब योगी के पास बैठने से इतना आनंद आता है तो आप सोचिये योगी को कितना आनंद आता होगा। शुभोपयोग में आकर श्रमण अपने आपको सम्हाल तो लेता है किन्तु अध्यात्म का माल तो वह शुद्धोपयोग में ही पाता है। वस्तुत: श्रमण की श्रमणता शुद्धोपयोग के साथ ही शोभा को पाती है। श्रमण बनना वैसे ही दुर्लभ है किन्तु श्रमणत्व को पाना और भी दुर्लभ। श्रम करे सो श्रमण, श्रमण का जीवन ही पुरुषार्थमय है। परमसुख का दाता मोक्षधाम है, इसकी प्राप्ति के लिये आज से ही सभी को कटिबद्ध हो जाना चाहिए। बंधुओ! एक बार तो उस आत्मिक भाव का स्पर्श करो। हमारी दृष्टि अन्तर्मुखी होनी चाहिए। अन्दर जाकर ही हम बाहर देख सकते हैं। हमारे महान् तीर्थकर इस बात के शाश्वत प्रतीक हैं कि वह जितने अधिक अन्तर्मुखी हुए जगत् ने उनसे उतना ही अधिक पाया। मेरा सही परिचय वही दे सकता है जिसने गहराई में डूबकर मुझे देखा है, ध्यान रहे! मैं देह मात्र नहीं हूँ किन्तु इस भौतिक शरीर में बैठा हुआ। चैतन्य पुंज एक आत्मतत्व हूँ। आक्रमण यह शब्द बाहर की ओर यात्रा का सूचक है और प्रतिक्रमण भीतरी यात्रा का प्रतीक। यदि आपको संसार से मुक्ति पाना है तो आक्रमण से परे प्रतिक्रमण की शरण में आइये। उपयोग, उपयोग में रहे यही उसका वास्तविक सदुपयोग है। एक बार भी बोलने की इच्छा हो जाती है तो सारा का सारा उपयोग, योग में चला जाता है और अपनी धरती से खिसक जाता है। अपने उपयोग का उपयोग, पर की चिन्ता में न करें। मान कषाय से ऊपर उठने के लिये महासत्ता का ध्यान, चिन्तन करना चाहिए। साधना ऐसी होनी चाहिए कि औदारिक शरीर ज्यों का त्यों बना रहे तथा कार्मण शरीर सूखता चला जाये। जो जीवन क्रम निश्चित कर घर में कुछ साधना कर लेते हैं उन्हें आगे का मार्ग सरल हो जाता है। रस की इच्छा जिह्वा इन्द्रिय की भूख है, पेट की भूख नहीं। साधक संयमीजन जिह्वा इन्द्रिय की नहीं पेट की भूख दूर करते हैं। न इस शरीर का शोषण करना है न ही विशेष पोषण, वरन् इसके सहारे भीतर बैठी चेतना का संशोधन करना है। उम्र के साथ-साथ गंभीरता तो एक गृहस्थ के भी बढ़ती है किन्तु साधना के तौर पर असमय में ही गंभीरता का आना संयम का प्रभाव है। एक क्षायिक सम्यकद्रष्टि असंयत गृहस्थ सामायिक करते हुए भी जितनी कर्म निर्जरा नहीं कर सकता, एक क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि मुनि महाराज आहार करते वक्त उससे भी असंख्यात गुणी ज्यादा कर लेते हैं। अहो! यह सब संयम का माहात्म्य है। प्रचार-प्रसार के इस युग में आज साधना भी वक्तृत्व की कसौटी पर कसी जाने लगी है जो कतई ठीक नहीं है। गुणों की प्राप्ति के लिये हमें गुणी व्यक्तियों के पास जाना चाहिए। गुणी व्यक्ति भले ही हमारे पास आ जाये किन्तु जब तक हम उनके पास नहीं जायेंगे तब तक हमें गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती। जिस प्रकार नदी का प्रवाह अपने उद्गम स्थान से निकलकर अपना रास्ता स्वयं बना लेता है उसी प्रकार निकट भव्य जीव के ज्ञान का प्रवाह भी अपना रास्ता स्वयं बनाता चलता है। सबकी सब बातें सुनने के अभ्यासी तो बनना लेकिन उन सब बातों को चिन्तन का विषय नहीं बनाना। विवित-शय्यासन अर्थात् एकान्तवास एक तप है जिसे साधु तपता है क्योंकि एकान्त में ही अन्दर की आवाज सुनाई पड़ती है। बोलने से साधना में व्यवधान आता है। कषाय का यदि पूर्णत: अभाव नहीं होता तो कषाय का पूर्णत: प्रभाव भी नहीं होना चाहिए। यह अपेक्षा न रखें कि सब आपसे सहमत होंगे और आपके कहे अनुसार चलेंगे, अगर यही आपकी चाहत है तब फिर आप एक क्षण भी तनाव से मुक्त नहीं रह पायेंगे। सामायिक में साधक अकेला होता है क्योंकि वह अपने में होता है और ऐसे समय में उसे अकेला होना भी चाहिए। किन्तु प्रवृत्ति में वह समूह में होता है और उस समय उसे समूह में होना भी चाहिए। वात्सल्य एवं सरलता के बल पर समूह में रहना आसान हो जाता है। जितनी-जितनी लौकिकता बढ़ेगी उतनी-उतनी विशुद्धता में कमी आयेगी। अनावश्यक अप्रसांगिक क्षेत्रों में कार्य करने से ही संक्लेश परिणाम होते हैं। व्रत लेने के उपरान्त एक-एक पल का हमें सदुपयोग करना चाहिए। वैयावृत्ति में लगा हुआ वह संयमी श्रमण स्वयं दुध्यान से बचता है और जिसकी वैयावृत्ति करता है उसे भी दुध्यान से बचाता है, यानि वैयावृत्ति दुध्यान से बचने और बचाने में निमित होती है। ग्रहण करने योग्य वस्तु जब तक पूर्णत: प्राप्त न हो जाये तब तक उसे भूलना नहीं चाहिए और त्याग करने योग्य वस्तु को छोड़ने के उपरान्त भूल करके भी याद नहीं करना चाहिए। मन यदि चलित-विचलित होता है तो साधक को चाहिए कि वह पूर्व में किये हुए अपने कर्मों को तथा दीक्षा-तिथि को याद रखे, जिससे उपयोग निश्चित ही बदल जाता है और भावों में दृढ़ता आती है। मन जाता है तो जाने दो, मगर तन मत छोड़ो। क्योंकि तन जाने के बाद सम्हालना बहुत कठिन होता है जबकि मन यदि संस्कारवश चला भी जाये तो उसे सम्हाला जा सकता है। साधनामय जीवन बार-बार नहीं मिलता, उन्नति के लिये यह एक स्वर्णिम अवसर है जो इसके मूल्य को समझता है, वह कितनी ही बाधायें, उपसर्ग, परिषह क्यों न आयें उन्हें सहर्ष स्वीकार कर अपने साधना पथ पर आगे बढ़ता है। बरसात के दिनों में अत्यधिक जीवोत्पत्ति होने से साधुजन एक ही स्थान पर रुककर साधना अध्ययन करते हैं। वर्षावास में समशीतोष्ण वातावरण होने से ध्यान साधना के लिये अनुकूलता रहती है। श्रावक भी इन दिनों धर्म-प्रभावनादिक के कार्य ज्यादा करते हैं।
  20. साधना 2 - मोक्षमार्ग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार निरीहता और निर्भीकता के बिना हम मोक्षमार्ग पर सही-सही कदम नहीं बढ़ा सकते। त्यागी जनों की त्यागवृत्ति देखने से रागी जनों की रागवृति में कमी आती है। बाहर में गुणीजनों को देखकर व अन्दर में आत्मस्वभाव को देखने से चारित्र में निखार आता है। चाहे श्रावक हो अथवा साधु, वही कार्य करे जो मोक्षमार्ग में शोभा दे। उलझे हुए साधुओं की अपेक्षा सुलझे हुए श्रावक श्रेष्ठ हैं और उलझे हुए श्रावकों की अपेक्षा सुलझे हुए पशु श्रेष्ठ हैं। मोक्षमार्ग बहुत सुकुमार है और बहुत कठिन भी। अपने लिये व्रत पालन में कठोर, द्रढ़ होना चाहिए और दूसरों के लिये सुकुमार। चलना आवश्यक है किन्तु लक्ष्य बनाकर। जब तक लक्ष्य नहीं बनता तब तक चलने को चलना नहीं कहते। लक्ष्य बनाकर निरन्तर चलने वाली पतली नदी भी जिस प्रकार एक दिन विशाल सागर का रूप धारण कर लेती है। ठीक उसी प्रकार जिसकी द्रष्टि व गति मुक्ति की ओर हो गयी है, वह एक न एक दिन विशाल केवलज्ञान रूप सत्ता को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है। जैसे-जैसे हम राग-द्वेष को कम करते चले जायेंगे वैसे-वैसे अपनी आत्मा के पास पहुँचते जायेंगे। पसीना बहाने का नाम मोक्षमार्ग नहीं है वहाँ तो समत्व, समता को धारण करना पड़ता है। अहं बुद्धि-मम बुद्धि-तव मम्-तव मम् आदि विकल्पों से विश्राम लेना ही वास्तविक पुरुषार्थ है मोक्षमार्गी का। प्रत्येक मोक्षमार्गी के लिये प्रशंसा अथवा निंदा करने वालों के प्रति ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु' कहना चाहिए तभी वह जीवन में कुछ पा सकता है। मोक्षमार्ग पर चलना बहुत दुर्लभ है। इस मार्ग पर शिथिलता आने में देर नहीं लगती, किन्तु देर है तो एक मात्र इस मार्ग में सफलता पाने में। अपने में कमी आना (शिथिलता आना) अलग बात है किन्तु मार्ग को ही वैसा प्रतिपादित करना ठीक नहीं। गलत को गलत, कमी को कमी तो स्वीकार करना ही चाहिए। यदि स्वार्थ या कषाय वश उसे ही मार्ग घोषित कर देते हैं तब निश्चित मानिये वह मिथ्यात्वी अनंत संसारी है। मार्ग पर चलते समय यदि कोई बोलने वाला मिल जाता है तो मार्ग तय करना सरल हो जाता है। गुरु निग्रन्थ साधु हमारे मोक्षमार्ग के बोलने वाले साथी हैं। उनके अनुगामी बनने से हमारा मोक्षमार्ग सरल हो जाता है। जिसके हृदय में ज्ञान और वैराग्य की किरण जाग जाती है उसके चरणों में धन, सम्पदा, वैभव आदि सारे भोग्य पदार्थ स्वयमेव झुक जाते हैं। मोह की महिमा का अन्त तब तक नहीं हो सकता जब तक स्वभाव की अनभिज्ञता जीवित रहती है। मोह के विनाश से ज्ञान का विकास होता है और मोह के विकास से ज्ञान का विनाश। अकेले वैराग्य से सब कुछ नहीं होता किन्तु वैराग्य के साथ-साथ विवेक और व्यवहार कुशलता भी अनिवार्य है। अकेले दूसरों का उपदेश सुनकर ही वैराग्य को नहीं सम्हाला जा सकता बल्कि उसे स्थिर रखने के लिये स्व पुरुषार्थ की भी आवश्यकता है। वैराग्य की दशा में स्वागत-आभार भी भार सा लगता है। वैराग्य के क्षेत्र में प्रचार-प्रसार की आवश्यकता नहीं है वह अपने आप ही हो जाता है। वैराग्य की प्रबलता होने पर भी यदि तदनुकूल स्थान न मिले तो उसे स्थिर रखना दुष्कर है। आप लोगों को भी वैराग्य होता है किन्तु धर्म से त्याग से, आत्मा से, वैराग्य होता है लेकिन आत्मा में वैराग्य नहीं होता। अपरिचित व्यक्ति के पास रहने से वैराग्य वृद्धि को प्राप्त होता है किन्तु जैसे-जैसे परिचय बढ़ता जाता है धीरे-धीरे साधना में कमी आती जाती है। आचरण के अभाव में अकेली दृष्टि का कोई महत्व नहीं, कोई लाभ नहीं। द्रष्टि में पहले पथ आता है और बाद में पथ पर पग पड़ते हैं। पथ के अथ पर पग पड़ते ही पथ की इति पर स्पन्दन हो जाता है। भीतरी आँख जितनी पवित्रता से खुलेगी उतना ही पवित्र पथ देखने में आयेगा। ज्यों ही इसमें दूषण आने लग जायेंगे तो पथ की पवित्रता भी समाप्त हो जायेगी। आँखों के द्वारा जिसे हम देखते हैं उसकी पूर्ति चरण करते हैं। मंजिल की प्राप्ति मात्र ध्येय बनाने से नहीं, बल्कि कदमों के बढ़ाने से होती है। आँखों की पूजा आज तक किसी ने नहीं की, सदा चरणों की पूजा होती है यानि दृष्टि नहीं,आचरण पूज्य होता है। आस्था के स्थायी होने पर ही ज्ञान व आचरण वृद्धि को प्राप्त होता है। आस्था से वास्ता होने पर शास्ता स्वयं रास्ता देता है साधक को। बोलने का ही नहीं बल्कि चुपचाप आचरण का भी प्रभाव पड़ता है। बोलना, सोचना, चेष्टा करना मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ नहीं है। किन्तु एक जगह पर शान्त चित्त से बैठकर आत्म ध्यान करना वास्तविक पुरुषार्थ है। अध्यात्म और आचरण ही हमारे जीवन का आधार हो। भवन को छोड़कर वन की ओर जाना पलायन नहीं बल्कि कल्याण की लाइन (मार्ग) है। प्राथमिक दशा में अनुतीर्ण होकर उच्चता की चर्चा मात्र करना स्वयं को एवं अन्यों को भ्रम उत्पन्न कराना है। व्रती के लिये व्रत ही धन सम्पदा है उसकी सुरक्षा में वह दिन-रात लगा रहता है। जो समय काटने में लगा है उसका कर्म नहीं कटता किन्तु जो व्रती हैं, कर्म काटने में लगे हैं उनका समय कब कट जाता है पता भी नहीं चलता। व्रतियों को व्यक्तियों के नियंत्रण में नहीं किन्तु व्रतों के नियंत्रण में रहना चाहिए। व्रत संकल्प लेने के पूर्व जितना उत्साह होता है उतना ही उत्साह उसके निर्वाह करने के लिये भी होना चाहिए। बहुधा व्रत नियमों में शिथिलता आने पर नियम, नियम से खंडित हो जाते हैं। व्रत रूपी वस्त्रों को साफ-सुधरा करने के लिये प्रतिक्रमण साबुन का काम करता है। मूलगुणों या उत्तरगुणों का पालन करते समय हमें सर्वप्रथम निर्दोष व्रतों का पालन करना चाहिए। यदि दोष लग रहे हैं, तो क्यों लग रहे हैं? इस ओर ध्यान देना चाहिए तथा उन कारणों को भी दूर करना चाहिए। संकल्प पूर्वक व्रतों का ग्रहण करना साधना का मूल है और तपस्या से सिद्धि उसकी पश्चातवर्तीदशा। फल-फूल, मूल के बिना नहीं लगते यह ठीक है किन्तु मूल में ही नहीं लगते कभी भूलकर भी। बंधुओं! जरा ध्यान तो दो! २८ गुण ही मुक्ति के कारण हैं और २८ गुण ही संसार के कारण। मुनि के २८ मूलगुण मुक्ति के कारण हैं और असंयमी अज्ञानी के २८ गुण (पंचेन्द्रिय के विषय २७+१ मन का विषय) ही संसार के कारण हैं। जिस तरह चश्में को उसके साथ रखे हुए कपड़े के द्वारा हम बार-बार साफ करते हैं ठीक उसी प्रकार अंगीकृत व्रतों को भी भावनाओं के द्वारा परिमार्जित करते रहना चाहिए। दोषों के शोधन के लिये प्रायश्चित का विधान है प्रायश्चित लेना पड़ता है। व्रत में दोष लग जाने पर व्रत ही छोड़ दें ऐसा भाव कभी नहीं करना चाहिए। अपराध बोध हो जाना भी अपने आप में एक प्रायश्चित है। परिणामों को सदा अपने दोषों को छानने में लगाना चाहिए दूसरों के दोषों को देखने में नहीं। व्रतों के पालने से लाभ होता है जब ऐसी आस्था है, तो उन्हें ग्रहण कर यथाशक्ति निर्दोष पालन करने का ही प्रयास करना चाहिए। तपस्वी बने बिना यशस्वी बनना संभव नहीं। चार आना दोष पश्चाताप से नष्ट हो जाता है, चार आना गुरु को बतलाने से, चार आना प्रायश्चित लेने से और शेष बचा हुआ दोष सामायिक में बैठने से समाप्त हो जाता है। जैसे वृक्ष की जड़ में कीड़ा लग जाने पर उसका सिंचन और संरक्षण कोई मायना नहीं रखता। ठीक इसी प्रकार शल्य (विकल्प) सहित व्रतों का पालन सार्थक नहीं है। अत: शल्य रूपी कीड़े को निकालकर वैराग्यरूपी जल से यदि सिंचन किया जाता है तो जीवन में व्रतरूपी वृक्ष नियम से हरा-भरा होगा। जिस प्रकार सूर्योदय के पूर्व ही लालिमा युक्त प्रभात बेला आ जाती है। उसी प्रकार हृदय में मुमुक्षुपन की किरण फूटते ही बुभुक्षुपन की सारी ज्वाला शान्त हो जाती है, अंधकार छिन्न-भिन्न हो जाता है। सारा का सारा वैभव साम्राज्य जीर्ण-तृण के समान दिखाई देने लगता है। जब तक बुद्धि, इन्द्रियों की क्षमता और शरीर ठीक है तभी तक धर्म ध्यान तपस्या आदि कर लेना चाहिए, अन्यथा अन्त में पश्चाताप ही हाथ लगता है। बंधुओ! घर में आग लगने पर कुआँ खुदवाना क्या उचित है? उपशम यानि कषायों का शमन भाव ही मुमुक्षु के लिये अजेय और अमोघ शस्त्र हैं। इस शस्त्र के द्वारा दुनिया को नहीं अपनी आत्मा को जीतकर कर्मों को परास्त करना है। संसारी प्राणी को मोक्षमार्ग पर चलने के लिये पर्याय की हेयता बताना जरूरी है क्योंकि उसके बिना उसकी दृष्टि पर्याय से हटकर वैकालिक द्रव्य तक नहीं पहुँचती। कैसा भी कर्म का उदय आ जाये अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल, उसमें भी अन्दर विश्वास तो यह है कि अब नियम से कूल-किनारा मिलेगा। इसी परिणति का नाम श्रामण्य है। आदेश देना कठिन कार्य है और उसका पालन कराना उससे भी अधिक कठिन। जो आदेश पालन करने की क्षमता और इच्छा रखता है उसे ही आदेश दिया जाता है और इसी माध्यम से आदेश देने वाले के पद की मर्यादा का निर्वाह हो जाता है।
  21. साधना 1- रत्नत्रय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार रत्नत्रय वह अमूल्य निधि है जिसकी तुलना संसार की समस्त सम्पदा से भी नहीं की जा सकती। रत्नत्रय की कीमत, उसकी क्षमता अदभुद है बंधुओ! अन्तर्मुहूर्त हुआ नहीं कि यह जीव केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण भी पा सकता है। भव्यत्व की पहचान भले ही सम्यकदर्शन के साथ हो सकती है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति रत्नत्रय के साथ ही होगी। रत्नत्रय ही हमारी अमूल्य निधि है, इसे बचाना है। इसको लूटने के लिये कर्म चोर सर्वत्र घूम रहे हैं। जागते रहो, सो जाओगे तो तुम्हारी निधि लूट जायेगी। रत्नत्रय में तपन के बिना चमक नहीं आती अत: उसे भी बारह तपों से तपाना आवश्यक है।
  22. स्वाध्याय 7 - तत्त्व सिद्धान्त विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिस प्रकार नवनीत दूध का सारभूत रूप है, वैसे ही करणलब्धि सब लब्धियों का सार है। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना-अपना पाप-पुण्य है, अपने द्वारा किये हुए कर्म हैं। कर्मों के अनुरूप ही सारा का सारा संसार चल रहा है किसी अन्य के बलबूते पर नहीं। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अलग-अलग है और सब स्वाधीन स्वतंत्र हैं। उस स्वाधीन अस्तित्व पर हमारा कोई अधिकार नहीं जम सकता। फोटो उतारते समय हमारे जैसे हाव-भाव होते हैं वैसा ही चित्र आता है, इसी तरह हमारे परिणामों के अनुसार ही कर्मास्त्रव होता है। देव, शास्त्र, गुरु कहते ही सर्वज्ञता की ओर दृष्टि न जाकर प्रथम वीतरागता की ओर दृष्टि जानी चाहिए क्योंकि वीतरागता से ही सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है। कार्य हो जाने पर कारण की कोई कीमत नहीं रह जाती लेकिन कार्य के पूर्व कारण की उतनी ही कीमत है जितनी कार्य की। साध्य के बारे में दुनिया में कभी विसंवाद नहीं होते, विसंवाद होते हैं मात्र साधन में। मंजिल में विसंवाद कभी नहीं होता, विसंवाद होता है मात्र पथ में। पथ पहले विचारों में बनते हैं तदनुरूप विचारों के पथ आचरण में आते हैं। हम उत्सर्ग (मुख्य) मार्ग पर उपसर्ग न करें और न ही अपवाद (गौण) मार्ग का अपवाद। एकांत से निमित्त को मुख्य मानकर उसकी ओर ही देखने से उपादान में कमजोरी आती है। दृश्य में सुख नहीं दृष्टा में सुख है, ज्ञेय की कीमत नहीं ज्ञाता की कीमत है, भोग्य की नहीं भोक्ता की कीमत है। अत: हमें ज्ञेय से ज्ञाता और दृश्य से दृष्टा की ओर जाना चाहिए। आँखें हों तो दृश्य समाहित हो सकते हैं लेकिन आँखों के अभाव में दृश्यों के ढेर भी लगा दिये जायें तो कुछ नहीं। क्योंकि जहाँ पर दृश्य है और दृष्टि नहीं तो आप सृष्टि का निर्माण भले ही करते चले जाइये, तृप्ति तीन काल में भी मिलने वाली नहीं। जो व्यक्ति हित के पथ पर नहीं चलता वह दूसरों का भी हित नहीं कर सकता। हित की बात कर सकता है वह किन्तु हित से मुलाकात नहीं। हित की बात करना अलग है और हित से मुलाकात करना अलग। मुलाकात में साक्षात्कार (अनुभूति) है बात में नहीं। वीतरागता आत्मा का स्वभावभूत गुण है उसके बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। सम्यकद्रष्टि की दृष्टि में भी केवलज्ञान/सर्वज्ञत्व नहीं झलकता बल्कि मिथ्यादृष्टि की दृष्टि में भी भगवान् की वीतरागता झलक जाती है अत: वह भी बिना विरोध के झुक जाता है वीतरागी के चरणों में। सर्वज्ञ भगवान् ने विश्व को जाना, विश्व के ज्ञेय रूप तमाम पदार्थों को जाना, देखा किन्तु आनंद की अनुभूति उन्होंने विश्व में नहीं की, अपितु ‘निजानंद रसलीन' यानि सकल ज्ञेय के ज्ञायक होकर भी भगवान् निज आत्मा के आनंद में ही लीन रहते हैं। संवेदनशीलता, अनुभव करना आत्मा का लक्षण है। केवलज्ञान आत्मा का लक्षण नहीं वह तो आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव की प्राप्ति उपयोग पर श्रद्धान करने से होती है इसके अलावा उसे पाने का और कोई भी रास्ता नहीं। वैज्ञानिक पर वस्तुओं की खोज में ही अपनी सारी शक्ति लगा रहे हैं, वे केवल ज्ञेयों तक ही सीमित है किन्तु ज्ञाता की ओर उनका लक्ष्य नहीं। पुण्य से नहीं पुण्य के फल से डरो नियम से मुक्ति पाओगे। क्योंकि पुण्य के फल का भोग आरंभ आदि के बिना नहीं हो सकता और आरंभ आदि में हिंसादि पाप होता ही है। बचाने के भाव को हम कभी भी हिंसा नहीं कह सकते। यदि बचाने के भाव को हिंसा कहा जाये तो समिति को भी हिंसा कहना पड़ेगा। जो आगम के लिये इष्ट नहीं है। संयम कौन-सा तत्व है ? संवर तत्व है। जिनमूर्ति में संवर के दर्शन करते हैं क्योंकि यहाँ संयम है। हम निर्जरा को देखते हैं क्योंकि वीतरागता है। मोक्ष देखते हैं क्योंकि कर्मबंध नहीं है। जो संयम से केवल आस्त्रव मानता है उसे पोथी ग्रन्थ बंद कर देना चाहिए। उदासीन निमित्त को हम अपनी तरफ से जुटा नहीं सकते, उसमें हमारा पुरुषार्थ संभव नहीं किन्तु प्रेरक निमित्त को पुरुषार्थ के बल पर जुटा सकते हैं। सिद्धान्त के अनुरूप श्रद्धान बनाओ। तत्व को उलट-पलट कर श्रद्धान नहीं करना है। हमें अपने भावों को तत्व सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तित करना है, जैसे रेडियो में सुई के अनुसार स्टेशन नहीं लगती बल्कि स्टेशन के नम्बर के अनुसार सुई को घुमाने पर ही विविध भारती, सीलोन आदि स्टेशन लगती है। निर्जरा तत्व के उपरान्त कोई पुरुषार्थ नहीं रह जाता। मोक्ष तत्व अंतिम नहीं है वह तो फल है। मोक्ष, मार्ग नहीं है मार्ग जो कोई भी है वह संवर और निर्जरा ही है। अब यदि मार्ग में ही स्खलन हो गया, विषमता आ गई तो ध्यान रखना वहाँ मोक्ष नहीं किन्तु मोह मिलेगा। जिस प्रकार दही में से नवनीत निकालने के लिये मटकी, मथानी आदि का आवश्यक साधन हो जाते हैं उसी प्रकार शुद्धात्म तत्व की प्राप्ति के लिये यह दिगम्बरत्व और भेदरत्नत्रय रूप साधन अंगीकार करना नितांत अनिवार्य है जिसके माध्यम से ही उस परम साध्य तत्व की उपलब्धि होती है। जो शाश्वत है उसी का अनुभव किया जा सकता है। जो नश्वर है पकड़ते-पकड़ते ही चला जाने वाला है उसका अनुभव नहीं किया जा सकता। कहने का मतलब है द्रव्य दृष्टि रखकर निर्विकल्प होने की साधना करो, पर्यायों में आसक्त (उलझकर) होकर संकल्प-विकल्प का जाल मत बनाओ। जो विश्व को जानने का प्रयास करेगा वह सर्वज्ञ बन नहीं सकता किन्तु जो स्वयं को जानने का प्रयास करेगा वह स्वयं को तो जान ही लेगा साथ ही सर्वज्ञ भी बन जायेगा। सर्वज्ञत्व आत्मा का स्वभाव नहीं है यह उसके उज्वल ज्ञान की परिणति मात्र है। अत: व्यवहार नय की अपेक्षा से कहा जाता है कि भगवान सबको जानते हैं किन्तु निश्चयनय से ज्ञेय-ज्ञायक संबंध तो अपना, अपने को, अपने साथ, अपने लिये, अपने से, अपने में जानने-देखने से सिद्ध होता है। ऐसा समयसार का व्याख्यान है। आत्मा में जो मूर्तपना आया है वह पुन: अमूर्तता में ढल सकता है, क्योंकि वह संयोगजन्य है, स्वभावजन्य नहीं। इस प्रकार एक अलग ही तरह का मूर्तपना इस जीव में तैयार हुआ है जिसे न जड़ का कह सकते हैं न चेतन का। ग्रन्थों में इसे चिदाभासी कहा गया है। आत्मा वर्तमान में अमूर्त नहीं है किन्तु वीतरागता के माध्यम से वह अमूर्त बन सकती है। कर्म का संबंध आत्मा के साथ अनादिकाल से है और विशेष बात यह है कि मात्र कर्म, कर्म से नहीं बँधा है बल्कि कर्म और आत्मा का एक क्षेत्रावगाह रूप संबंध हुआ है। जिसका विघटन या तो सविपाक निर्जरा के माध्यम से हो सकता है या अविपाक निर्जरा से। मुक्ति की प्राप्ति के लिये हमें अविपाक निर्जरा ही अभीष्ट है। पाप चोर है और पुण्य पुलिस। शुद्ध भाव सेठ साहूकार के समान है। साहूकारों को खतरा चोरों से रहता है न कि पुलिस से और चोरों को पुलिस से हमेशा ईष्या रहती है। अशुभोपयोग और शुभोपयोग में उतना ही अन्तर है जितना कि सन्ध्या और प्रभात की लाली में। जिसमें संध्या समय की लाली निशा की प्रतीक है, सुलाने वाली है किन्तु प्रभात की लाली ताजगी की प्रतीक है, जगाने वाली है। पूजन, दान, स्वाध्याय आदि श्रावक के कर्तव्य हैं। इन कर्तव्यों के प्रति हेय बुद्धि कभी नहीं लाना, हाँ! कर्तृत्व के प्रति जरूर लाना। पुलिस के कारण नहीं, चोर, चोरी के कारण जेल जाता है। देवों के कारण नहीं, सीता की जय जयकार शील के कारण हुई। हम सब ब्रह्मा के अंश नहीं हैं किन्तु हम सबमें ब्रह्मा जैसे अंश हैं। भरत जी घर में वैरागी यह पद बहुत अच्छा लगता है, हम भी कहते हैं, पर जरा ध्यान तो दो कौन सा भरत घर में वैरागी था ? चक्रवर्ती भरत या राम का भैय्या भरत। यह भी एक विचारणीय बात है। सम्यकदर्शन अनुकम्पा की अपेक्षा नवनीत की तरह कोमल है किन्तु सिद्धान्त की अपेक्षा वज़ से भी ज्यादा कठोर है। दर्शन विशुद्धि, मात्र सम्यकदर्शन नहीं है, दृष्टि में निर्मलता होना दर्शन विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्व चिंतन से। जिस प्रकार ललाट पर बिन्दी के अभाव में स्त्री का संपूर्ण श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के न होने पर जैसे मंदिर की कोई शोभा नहीं है। उसी प्रकार बिना संवेग के सम्यकदर्शन कार्यकारी नहीं है। संवेग सम्यकद्रष्टि साधक का अलंकार है। कारण में कार्य का दर्शन कभी नहीं होता अत: कारण को कार्य में ढ़ालने का प्रयास करो। कार्य समय (काल) के अनुसार नहीं होता किन्तु भावों के अनुसार होता है। यदि समय के अनुसार कार्य हो तो समय असंख्यात है और जीव अनंत, फिर विरोधाभास आयेगा। विश्व अनादि-अनिधन एवं स्वयं व्यवस्थित है इसमें परिवर्तन असंभव है अत: इसे हठात् परिवर्तित करने का मन में भाव लाना व्यर्थ है। जो समीचीन रूप से शुद्ध गुण पर्यायों की अनुभूति करता है, उनको जानता है पहचानता है उनमें व्याप्त होकर रहता है, वही अनुभूति आत्मसार है, समयसार है। जिस द्रव्य से अशुद्ध पर्यायें निकल रही हैं वह द्रव्य अशुद्ध ही है क्योंकि ऐसा कभी नहीं हो सकता कि द्रव्य का परिणमन तो शुद्ध हो और उसके परिणाम/पर्यायें अशुद्ध निकलें। मात्र पर्याय ही अशुद्ध है ऐसा कहना ठीक नहीं है बल्कि द्रव्य और गुण भी अशुद्ध है अत:पर्याय की ओर दृष्टिपात न करते हुए द्रव्य और गुण को माँजने का प्रयास करो। पर्याय दृष्टि को अपनाने से ही उपयोग में पक्षपात की तरंगें उठती हैं। उपलब्ध इन्द्रिय विषयों में अरुचि भाव होना तत्व प्रतीति की ही पहचान है। भावों को प्राञ्जल बनाने के लिये तत्व चिन्तन जरूरी है तथा दीनता एवं मान का अभाव आवश्यक है। जैसे-जैसे तत्व समझ में आता है वैसे वैसे उसका महत्व भी बढ़ता जाता है। जीवन का लक्ष्य मात्र तत्वचर्चा ही नहीं बल्कि आत्मोपलब्धि भी होना चाहिए । जो भाषाविद् नहीं है वह भावविद् भी नहीं ऐसा निर्णय करना गलत है। भाषा की परिभाषा बनाई जा सकती है पर भावों की नहीं। उत्तम चारित्र और समता आना ही सब शास्त्रों का सार है। जनता की भीड़ से अधिक घातक विचारों की भीड़ है। तर्क-वितर्क ही नहीं किन्तु सतर्क (सावधान) भी होना चाहिए। यह पर है वह पर है फिर भी उसी में जीव तत्पर है, यह सब नाटक मोह का है। जमाने के अनुसार हम बदल सकते हैं लेकिन सिद्धान्त नहीं बदल सकते। जब मिथ्यात्व का विमोचन होता है तब सत्य की पहचान होती है और जब राग-द्वेष का विमोचन होता है तब उस सत्य की उपलब्धि। सभी कलायें व मिथ्याज्ञान प्राप्त करना तो सरल है किन्तु तत्व ज्ञान व प्रमाद से रहित होना बहुत ही दुर्लभ है। प्रभु की देशना में बाहरी बातें भले ही चलती रहें लेकिन वे सब भीतर के लिये ही चलती हैं। बाहर का कोई भी निमित्त भगवान बनने के लिये सिर्फ दिशा-बोध दे सकता है पर बनना हमें ही होगा। आज के लोग मंद बुद्धि वाले भी है और वक्र भी। मंदबुद्धि से मतलब जो जाने नहीं और वक्र बुद्धि से अभिप्राय जो माने नहीं। आज का आदमी जानता भी नहीं है और मानता भी नहीं है ऊपर से तानता और है। जिस समय वैराग्यमयी ज्ञान किरण आत्मा में उद्भूत होती है उस समय हम समस्त विश्व को भूल जाते हैं और अपने उपादेयभूत आत्म तत्व की आरती उतारना प्रारंभ कर देते हैं। वह पावन घड़ी हम सब को कब उपलब्ध होगी। नाशा दृष्टि का मतलब क्या ? न आशा, नाशा। किसी भी प्रकार की आशा नहीं रही अब, इसी का नाम है नाशा। यदि दृष्टि कहीं अन्यत्र चली गई तो समझिये कि नियम से अभी आशा है और यह आशा हमेशा-हमेशा निराशा में घुलती रही है। विरागी की दृष्टि रागी को देखकर भी राग में विरागता का अनुभव करती है और रागी की दृष्टि विरागता को देखकर विरागता में भी राग का अनुभव करती है। यह किसका दोष है ? यह किसका फल है? क्या करें भाई! जिसके पेट में जो है वही तो डकार में आयेगा। जिस समय राग-द्वेष उसी समय आस्त्रव। यह प्रक्रिया अनादिकाल से चल रही है। जब तक यह नहीं रुकेगी तब तक आप बंधन से मुक्त नहीं होंगे। इसलिये नये बंध से डरो, जो कर्म उदय में आ रहा है उससे मत डरो, वह तो जा रहा है।
  23. स्वाध्याय 6 - ज्ञानी/अज्ञानी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जीवन में ज्ञान का प्रयोजन मात्र क्षयोपशम में वृद्धि नहीं वरन् विवेक में भी वृद्धि हो। ज्ञानरूपी दीपक में संयमरूपी चिमनी आवश्यक है अन्यथा वह राग-द्वेष की हवा से बुझ जायेगा। दीपक लेकर चलने पर भी चरण तो अन्धकार में ही चलते हैं। जब चरण भी प्रकाशित होंगे तब केवलज्ञान प्रकट होगा। प्रयोग (अनुभव) के अभाव में बढ़ा हुआ मात्र शाब्दिक ज्ञान अनुपयोगी, व्यर्थ ही साबित होता है। स्वस्थ ज्ञान का नाम ध्यान है और अस्वस्थ ज्ञान का नाम विज्ञान। ज्ञान स्वयं में सुखद है किन्तु जब वह मद के रूप में विकृत हो जाता है तब घातक बन जाता है। ज्ञान की शोभा विनय, नम्रता से है वस्तुत: विनय में ही ज्ञान सफलीभूत होता है। दुनिया का ज्ञान प्राप्त हो गया पर उससे पृथक् होने की कला नहीं आई तो वह बुद्धि किस काम की। ज्ञान का आनंद सबको जानने में नहीं किन्तु निज रस के आस्वादन में है। बुद्धि बढ़ने के साथ-साथ विशुद्धि भी बढ़नी चाहिए। बुद्धि के बढ़ने पर भी विशुद्धि का नहीं होना आश्चर्य की बात है। बुद्धि कच्चे माल की तरह है और विवेक पक्के माल की तरह। बुद्धि की परिपक्व दशा का नाम ही विवेक है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। उसे स्वपर हित के लिये उपयोग में लाया जा सकता है। पर द्रव्य के आकर्षण का अभाव ही तत्वज्ञान का फल है। जिसे अपने पराये का बोध नहीं उसका वह बोध, बोध नहीं बोझ है। सम्यक् दर्शन के आठ अंग होते हैं यह प्राय: सभी को ज्ञात है किन्तु यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि सम्यकज्ञान के भी आठ अंग होते हैं। यदि इन अंगों का पालन किये बिना कोई स्वाध्याय, तत्व चर्चा या उपदेश करता है तो अब आप ही समझिये कि उसके पास कौन-सा ज्ञान है। क्षमताओं के विकास के लिये शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है किन्तु जिन्हें स्वयमेव ज्ञान प्राप्त हो जाता है उन्हें शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। जिसका ज्ञान पञ्चेन्द्रिय विषयों से प्रभावित है वह व्यक्ति मन के माध्यम से विकास के स्थान पर अपनी आत्मा को विनाश की ओर ले जा रहा है। ज्ञान के होने पर अनुभूति हो ही जायेगी यह कोई नियम नहीं है क्योंकि अनुभूति का संबंध चारित्र से है। हाँ..... जिस समय अनुभूति होगी उस समय ज्ञान अवश्य ही रहेगा। ज्ञान का पदार्थ की ओर दुलक जाना ही परम आर्त है, पीड़ा है, दुख है और पदार्थ का ज्ञान में झलक आना ही परमार्थ है क्रीड़ा है सुख है। शब्द ज्ञान होने के उपरान्त अब यदि भावों में और अधिक विशुद्धता लाना है तो भावज्ञान की ओर बढ़ना चाहिए। शब्द सो बोध नहीं और बोध सो शोध नहीं। शब्दों के पौधों पर बोध के फूल खिलते हैं और बोध के फूलों से शोध के फल मिलते हैं। बोध की चरम सीमा होने पर ही शोध हुआ करता है और वह शोध अनुभूति मूलक होता है। पाचन क्षमता के अभाव में जिस तरह अकेले घी पीने मात्र से कोई पहलवान नहीं बनता ठीक इसी तरह अध्यात्म ग्रन्थों के स्वाध्याय मात्र से कोई ज्ञानी नहीं बनता। ज्ञानी का मद अज्ञानियों के लिये मद का कारण बनता है। ज्ञानी भोक्ता पुरुष भोग विलास का दास नहीं होता बल्कि उदास होकर ज्ञान की ओर बढ़ता है। ज्ञानी का हमेशा चौबीसों घण्टे स्वाध्याय चलता रहता है क्योंकि उसकी प्रत्येक क्रिया सावधानी पूर्वक होती है। आश्चर्य की बात है कि अनेक अज्ञानी मिलकर आज ज्ञानी की परिभाषा बना रहे हैं। अज्ञानी को कषाय करने में आनंद आता है और ज्ञानी को कषाय जीतने में आनंद आता है। अज्ञानी जन शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग-बहिरंग में ही दंग रह जाते हैं। अन्तरंग में उतरते ही नहीं। हे! आत्मन्। अब आत्मा के साथ ही मिलन-मिलाप करो, उसी के साथ संबंध करो। अज्ञानी जन अन्य परिजनों को ही अहितकारी या शत्रु मानते हैं किन्तु ज्ञानी अपने निजी कर्मों एवं अशुभ भावों को ही अहितकारी मानते हैं। क्रोध को जानना और उसे समता के साथ देखते रहना ही एक मात्र ज्ञानी का लक्षण है। जो क्रोध को न जानकर क्रोध करता है वह अज्ञानी है। सबसे ज्यादा पश्चाताप करने वाला ज्ञानी होगा, सबसे ज्यादा दुखी ज्ञानी होगा, सबसे अधिक स्वनिंदा करने वाला ज्ञानी होगा क्योंकि यह मेरी अज्ञानता थी जो दूसरों की निंदा कर रहा था। ज्ञान को द्रव्य से पृथक् नहीं किया जा सकता। तब फिर किसी ने ज्ञान दे दिया तो उसकी प्रशंसा और किसी ने ज्ञान में बाधा डाल दी उसकी निंदा करना व्यर्थ है, मात्र भावों को विकल्पमय बनाना है। ज्ञेयों के द्वारा यदि ज्ञान में आकुलता हो जाती है तो वह छद्मस्थ का ज्ञान है ऐसा समझना और तीन लोक के संपूर्ण ज्ञेय जिसमें झलक जायें और आकुलता न हो फिर भी सुख का अनुभव करे वही केवलज्ञान है। ज्ञानी को शरीर संबंधी दर्द कोई दर्द नहीं पुद्गल के परिणमन का बोध मात्र है। जिस प्रकार चक्रवर्ती षट्खंड पर विजय प्राप्त करके भी रहता अयोध्या में ही है। इसी प्रकार हम भले ही द्रव्यों का ज्ञान प्राप्त कर लें, पर हमें जीव द्रव्य आत्मतत्व में ही रमण करना चाहिए। जल से बाहर आते ही जैसे मछली तड़फने लगती है इसी प्रकार ज्ञानी बाल जगत् में आते ही तड़फने लगता है। वह तो हमेशा तत्व के आनंद में ही डूबा रहता है। जैसे माँ अपने बेटे से अनुराग तो रखती है पर अपना कार्य करते वक्त उसे छोड़ देती है भूल जाती है ठीक इसी प्रकार ज्ञानी भी व्यवहार की क्रियायें करता तो है किन्तु अपनी ओर दृष्टि होते ही उसे भी भूल जाता है। इस लोक में अनंत जीव हैं और अनंतानंत पुद्गल द्रव्य। इन सबका इतिहास अनंत है भविष्य भी अनंत होगा, ऐसी स्थिति में यह संसारी प्राणी अपने सीमित क्षुद्र ज्ञान से जिसे नहीं पाता उसका विकल्प क्यों करता है? और जिसे जान लेता है उसका गर्व क्यों करता है? वह टार्च इसलिये सार्थक नहीं है क्योंकि इधर-उधर तो सबको प्रकाशित करती है पर जलाने वाले को नहीं ठीक इसी प्रकार वह ज्ञान भी ज्यादा सार्थक नहीं माना जाता जो पर पदार्थों की पहचान तो कराता है पर स्वयं की नहीं। ज्ञान, संयम में विशुद्धता तथा कर्म निर्जरा का कारण है, अगर ज्ञान होने के उपरांत भी यह सब न हो तो उसका होना न होना बराबर है। श्रुतज्ञान की सार्थकता तो तभी मानी जायेगी जब हेय-उपादेय की जानकारी प्राप्त कर हम हेय से बचने एवं उपादेय को ग्रहण करने का प्रयास करेंगे। श्रुतज्ञान होने के उपरांत ध्यान के द्वारा उस ज्ञान को ऊध्र्वगामी बनाया जाता है जिसके लिये महान् संयम साधना की आवश्यकता पड़ती है। अव्रती के वश का यह काम नहीं है। द्रव्यश्रुत एक चाबी की तरह है जिससे मोहरूपी ताले को खोला जा सकता है, किन्तु चाबी मिलने पर ताला खुल ही जाये ये बात नहीं है। उस चाबी का प्रयोग यदि हम किसी दूसरे ताले में करेंगे तो ताला कभी नहीं खुलेगा। श्रुतज्ञान के आँगन में अभव्य जीव ग्यारह (ग्यारह अंग) तो बजा सकता है परन्तु बारह बजे (शुद्ध ध्यान समाधि) की धूप का आनंद उसके जीवन में कभी नहीं आता। जिसने श्रुत को आत्मसात् नहीं किया वह ग्यारह अंग और नव पूर्व का पाठी होकर भी संसार में भटकता रहता है और जो श्रुत को आत्मसात् कर लेता है वह अन्तर्मुहूर्त में भी सर्वज्ञ बनकर संसार भ्रमण से सदा के लिये छूट जाता है। धन्य है भाव श्रुतज्ञान की महिमा जिसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। ज्ञान में स्थिरता अनुभव की प्रौढ़ता से आती है। अनुभव हीन ज्ञान उस बछड़े की तरह है जो अपनी माँ के आगे उछलकूद करता है, छलांगें लगाता है किन्तु शीघ्र ही थककर मुँह नीचे किये अपनी माँ के पीछे हो जाता है और पुनः पुन: उछल-कूद करता है। जैसे सर्कस में दहाड़ता हुआ सिंह भी रिंग मास्टर को खा नहीं सकता ठीक उसी प्रकार सम्यक् द्रष्टि जीव का, दहाड़ते हुए कर्मरूपी सिंह भी कुछ अहित नहीं कर सकते, क्योंकि वह हमेशा सावधान रहता है। जिस व्यक्ति को निर्जरा तत्व के प्रति बहुमान है वह व्यक्ति सम्यक् द्रष्टि होकर आलसी बनकर घर में नहीं बैठेगा, पूजन की बेला नहीं टालेगा और यदि टालता है तो वह सम्यक् दर्शन का पोषक नहीं है। सम्यक् दर्शन के साथ अनंत राग का सद्भाव हो ही नहीं सकता क्योंकि अनंत राग अनंतानुबन्धी और मिथ्यात्व का प्रतीक है। सराग सम्यक् दर्शन के साथ चिन्तन का जन्म होता है किन्तु वीतराग सम्यक् दर्शन में चिंतन चेतन में लीन हो जाता है। सराग सम्यक् दर्शन में ज्ञान को सम्यक् माना जाता है जबकि वीतराग सम्यक् दर्शन में ज्ञान स्थिर हो जाता है। जिस व्यक्ति में साधमीं भाईयों के प्रति करुणा नहीं, वात्सल्य नहीं, कोई विनय नहीं वह मात्र सम्यक् द्रष्टि होने का दंभ कर सकता है, सम्यक् द्रष्टि नहीं बन सकता। सांसारिक अनेक पाप के कार्य करते हुए भोग को निर्जरा का कारण कहना और भगवान की पूजन-दानादि क्रियाओं को मात्र बंध का कारण बतलाना यह सारा का सारा जैनसिद्धांत का अपलाप है। जो व्यक्ति बिल्कुल निर्विकार सम्यक् द्रष्टि बन चुका है और जिस व्यक्ति की द्रष्टि तत्व तक पहुँच गयी है, उसके सामने वह भोग सामग्री है ही नहीं, उसके सामने तो वह जड़ तत्व पड़ा है। उस व्यक्ति के लिये कहा गया है कि तू कहीं भी चला जा तेरे लिये सारा संसार ही निर्जरा का कारण बन जायेगा। सम्यक् द्रष्टि (वीतराग सम्यक् द्रष्टि) का भोग निर्जरा का कारण है ऐसा कहा गया है लेकिन ध्यान रखना भोग कभी निजरा का कारण नहीं हो सकता। यदि भोग निर्जरा का कारण हो जाये तो क्या त्याग बंध का कारण होगा?
  24. स्वाध्याय 5 - स्वाध्याय/शिक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार स्वाध्याय मन की खुराक है। वह तन को ही नहीं बाह्य जगत् में भागते हुए मन को भी मन्त्र की तरह कीलित कर अन्तर्मुखी करता है। माँ जैसे अपने बेटे को अहित पथ से बचाकर सन्मार्ग में लगाती है, ठीक वैसे ही जिनवाणी माता भव्यात्माओं को सतपथ पर लगाकर स्वस्थसंपोषित करती है। भूमिका के अनुसार गुरु निर्देशन में किया गया स्वाध्याय विरागता का फल प्रदान कर, पर्त दर पर्त चेतना का शोधन करता है। आप पायेंगे कि वक्ता-श्रोता और ज्ञानीअज्ञानी के स्वरूप सन्दर्भों के साथ-साथ तत्व-सिद्धांत के सरस सीकरों से इस खण्ड को काफी हद तक अभिषित किया गया है। स्वाध्याय का अर्थ मात्र लिखना पढ़ना ही नहीं है बल्कि आलस्य, असावधानी के त्याग का नाम भी स्वाध्याय है। जिस व्यक्ति का उपयोग चर्चा और चर्या में हमेशा जागरूक रहता है उसका सही स्वाध्याय माना जाता है। बार-बार पढ़ने से ज्ञान में रस आने लगता है यानि ज्ञान अनुभव में आ जाता है और अनुभव ही सबसे बड़ा मन्त्र है। यह जगत् ही खुला समयसार है यदि इसे सही-सही समझोगे तो जागृति जरूर आयेगी। शरीर भी एक खुली किताब का काम कर सकता है यदि चिन्तन की कला है तो। विचारों का मूल्य होता है मात्र शब्दों का नहीं। वही पढ़ो, वही सीखो, वही करो जिसके उपसंहार में आत्मा सुख-शांति का अनुभव कर सके। शिक्षा वही श्रेष्ठ है जो जन्म-मरण का क्षय करती है। मन-वचन-काय की चेष्टा का नाम ही कर्मकाण्ड है, अत: कर्मकाण्ड ग्रन्थ को पढ़कर के कर्मकाण्ड (प्रवृत्ति) में कमी आनी चाहिए। कुछ पंक्तियों को अंडर लाइन करना और कुछ को अंडर ग्राऊंड कर देना यह स्वाध्याय की पद्धति ठीक नहीं। स्वाध्याय करने वाले के पास ध्यान नहीं भी हो किन्तु चर्या जिसके पास है उसके पास हर समय ध्यान है सावधानी रहती है। भावश्रुत का साक्षात्कार करने में द्रव्यश्रुत माध्यम बनता है। शब्द से अर्थ की ओर और अर्थ से भाव की ओर बढ़ना ही स्वाध्याय का मूल लक्ष्य है। स्वाध्याय, अध्ययन आदि के समय आदान-प्रदान जैसा व्यवहार देखने में आता है किन्तु आदान-प्रदान को गौण कर उपादान की ओर दृष्टि डालना है और पूर्व की धारणाओं को बदलना है। द्रव्य-गुण- पर्याय के कथन का यही प्रयोजन होना चाहिए। स्वाध्याय से एक दो दिन में ही आप अपनी प्रतिभा के द्वारा बहुत-सी गलत धारणाओं का समाधान पा जायेंगे लेकिन यह ध्यान रखना कि ग्रन्थ आर्ष प्रणीत (आचार्य प्रणीत) मूल प्राकृत व संस्कृत भाषा के ही हों मुख्य रूप से उन्हीं का स्वाध्याय करना चाहिए। उत्तर जल्दी नहीं मिलने पर पाठक को निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि यदि प्रश्न है तो उसका उत्तर अवश्य होगा, प्रश्नकर्ता है तो समाधान कर्ता है ही। स्वाध्याय करते हुए भी जिस व्यक्ति के कदम चारित्र की ओर नहीं बढ़ रहे हैं उसका अर्थ यही है कि उसने स्वाध्याय करना तो सीख लिया किन्तु स्वाध्याय के वास्तविक प्रयोजन को प्राप्त नहीं किया। जो व्यक्ति वस्तु तत्व को अंधेरे में रखता है वह स्वयं खाली हाथ रह जाता है और दूसरों को भी खाली हाथ ही रखता है। गुरुभक्ति से विशुद्ध व्यक्ति ही विशिष्ट ग्रन्थों के अध्ययन की पात्रता रखते हैं। स्वाध्याय बीच का आलम्बन है अन्तिम नहीं। स्वाध्याय में रत व्यक्ति स्वाध्याय में रत है स्वभाव में नहीं। स्वाध्याय करने की योग्यता (पात्रता) के लिये प्राथमिक भूमिका में सप्त व्यसन का त्याग अनिवार्य है। वैसे सप्तव्यसन व्यवहारिक जीवन और राष्ट्र की उन्नति के लिये भी हानिकारक है। आत्मोन्नति में तो बाधक है ही। "स्वाध्याय परमं तप:" कहा गया है यह बात ठीक है किन्तु ध्यान रहे तप, व्रत अंगीकार करने के बाद ही आता है। अत: व्रतों (अणुव्रत, महाव्रत) को अंगीकार किये बिना जो पठन-पाठन किया जाता है वह स्वाध्याय भले ही हो पर तप कभी नहीं हो सकता। अकेले आहार में ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि जरूरी नहीं है किन्तु ग्रन्थों के स्वाध्याय में भी इनकी शुद्धता जरूरी है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला में इस बात पर बहुत जोर दिया है, यहाँ तक कहा है कि प्रत्याख्यान पूर्वक (कुछ त्याग करके) ही संकल्प सहित स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय करने वाले को चाहिए कि वह आगम के किसी भी संदर्भ को शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ आगमार्थ और भावार्थ के माध्यम से समझकर स्वयं की धारणा बनाये एवं जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान करें। स्वाध्यायी मुमुक्षु को चाहिए कि वह वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धमोपदेश के क्रम को ध्यान में रखकर क्रमबद्ध स्वाध्याय करें। प्रारंभिक चार प्रकार के स्वाध्याय की उपेक्षाकर जो व्यक्ति मात्र धर्मोपदेश में ही लगा रहता है वह व्यक्ति धर्म प्रभावक और तत्वज्ञ हो ही नहीं सकता। आज कुछ, कल कुछ और परसों कुछ, कभी कोई शास्त्र कभी कोई शास्त्र यह स्वाध्याय की पद्धति नहीं है। भले ही कम ग्रन्थ पढ़ो किन्तु एकाग्रता से व्यवस्थित किया गया अध्ययन ही लाभदायी होता है। तीर्थंकर प्रकृति के बंध में हेतुभूत सोलहकारण भावनाओं में एक भावना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग संवेग भी है। इसका मतलब यह नहीं कि सिर्फ अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ही तीर्थकर प्रकृति के बंध में कारण है बल्कि अभीक्ष्ण संवेग भावना (निरन्तर वैराग्य की भावना) भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध में कारण है। प्रथमानुयोग भले ही बहुत राउन्ड लेकर तत्व पर आता है किन्तु उसके पठन-पाठन से प्रशम भाव की प्राप्ति होती है, वैराग्य की ओर कदम बढ़ाने में सुविधा होती है। जिन लोगों की यह धारणा बन चुकी है कि प्रथमानुयोग ग्रन्थों में सिर्फ कथा कहानियाँ ही हैं उन्हें रत्नकरण्डक श्रावकाचार के प्रसंग को भली-भाँति पढ़ लेना चाहिए। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने प्रथमानुयोग को बोधि-समाधि का निधान कहा है। वास्तव में शलाका पुरुषों के जीवन चरित्र को पढ़ने से कषायें शान्त होती हैं, मार्ग पर बढ़ने का साहस आता है। करण शब्द के दो अर्थ हैं एक परिणाम और दूसरा गणित। अनुयोग के प्रसंग में करण का अर्थ गणित ही लिया गया है क्योंकि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने स्वयं कहा है कि जो शास्त्र चतुर्गति, युग परिवर्तन और लोक-अलोक के विभाग आदि का कथन करते हैं वे सब करणानुयोग के शास्त्र हैं अर्थात् भौगोलिक जानकारी देने वाले शास्त्रों को करणानुयोग में ही गर्भित करना चाहिए। इन शास्त्रों के स्वाध्याय करने से संवेग भाव की प्राप्ति होती है। किस ओर चलें? और कैसे चलें? इस निर्णय के बाद भी पथ में पाथेय की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति चरणानुयोग से ही होती है। सागार और अनगार की चर्या का वर्णन करने वाले इन शास्त्रों के पढ़ने से जीवों के प्रति करुणा/अनुकंपा का भाव हृदय में स्वयमेव आता है। पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष और जीवादिक तत्वों का कथन जिन शास्त्रों में है वे सभी शास्त्र द्रव्यानुयोग के ही शास्त्र हैं। इन शास्त्रों के पठन-पाठन से विश्वास मजबूत होता है, आस्तिक्य भाव की प्राप्ति होती है अत: जो व्यक्ति जोर देकर यह कहते हैं कि सम्यकदर्शन की प्राप्ति के लिये मात्र अध्यात्म ग्रन्थों को ही पढ़ना चाहिए उन्हें अभी और अधिक गंभीरता से द्रव्यानुयोग के विषय में चिन्तन करने की जरूरत है।
  25. स्वाध्याय 4 - जिनवाणी/आगम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार बहुत नहीं बहुत बार पढ़ने से ज्ञान का विकास होता है। विनय से पढ़ा गया शास्त्र विस्मृत हो जाने पर भी परभव में केवलज्ञान का कारण बनता है। तत्व चिंतन एक ऐसा माध्यम है जो सभी चिन्ताओं को मिटाकर जीवन में निखार लाता है। समयसार को कंटस्थ करने की जरूरत नहीं बल्कि हृदयस्थ करने की जरूरत है। इस प्रचार-प्रसार के युग में कागजी फूलों से ही खुशबू नहीं आने वाली, न ही कागजी दौड़ से हम मंजिल को पा सकते हैं। खदान खोदने से सारे के सारे हीरे ही निकलते हैं ऐसा नहीं, बहुत सारा खोदने पर जब कभी एकाध हीरा मिल जाता है इसी प्रकार बार-बार ग्रन्थों का स्वाध्याय करने पर एक अलग ढंग से सोचने का रास्ता बनता है, कुछ न कुछ नया प्राप्त होता है। ग्रन्थों का पठन-पाठन मात्र ही कल्याणकारी नहीं है, क्योंकि वह तो शब्द ज्ञान ही है जिसे मूढ़ अज्ञ जन भी कर सकते हैं। किन्तु शब्दों से अर्थ तथा अर्थ से परमार्थ की ओर हमारे ज्ञान की यात्रा होनी चाहिए। आप पुराणों को पढ़ना प्रारंभ कर दीजिये और उपन्यासों को लपेटकर रख दीजिये, नहीं तो उपन्यासों के साथ-साथ आपका भी न्यास हो जायेगा। उपन्यासों को पढ़कर न आज तक कोई संन्यासी बना है और न ही आगे बनेगा। हाँ.....उपन्यास की शैली में यदि हम पुराणों को देखना चाहें पढ़ना चाहें तो यह बात अलग है। उपन्यास की शैली से मेरा कोई विरोध नहीं लेकिन भावना, दृष्टि और हमारा उद्देश्य साफ सुथरा होना चाहिए। जिनवाणी का कोई निर्धारित मूल्य नहीं होता, वह तो अनमोल वस्तु है उसके लिये जितना भी देना पड़े कम है। कभी भी जिनवाणी के माध्यम से अपनी आजीविका नहीं चलाना। जिससे रत्नत्रय का लाभ होता है उसको क्षणिक व्यवसाय का हेतु बनाना उचित नहीं। उस माँ के संस्कार सही संस्कार नहीं हैं जो अपने बेटे को मोह की निद्रा में सुलाती है किन्तु उस जिनवाणी माँ के संस्कार सही संस्कार माने जायेंगे जो हमेशा इस जीव को मोहनिद्रा से जगाती है। जिनवाणी की सही सेवा यही है कि जो सुपात्र है उसे खोजकर आप स्वाध्याय हेतु दीजिये। अगर सम्यकज्ञान की रक्षा चाहते हो तो जिनवाणी माँ की भी रक्षा करो। वास्तविक विद्वान वही है जो अनादिकालीन दुखों के विमोचन के लिए जिनवाणी की आराधना करते हैं। श्रुताराधना रूपी फूल ही समाधि रूपी फल में ढलता है। जिनवाणी की सही सेवा तो जिनलिंग धारण करने पर ही संभव है। हमें पवित्र जिनवाणी में जनवाणी नहीं मिलाना चाहिए। मन मारना यह जिनवाणी को मानना है पर मन के वश होना जिनवाणी की अवमानना है। जिनवाणी को उसी स्थान पर सुनाना जहाँ उसका स्वागत हो सके। निर्वाण रूप लक्ष्य को बनाकर जिनवाणी की आज्ञा पालने वाला भव्य होता है क्योंकि कहा गया है कि "निर्वाण पुरुस्कृत:भव्य:” और निर्वाण रूप पुरस्कार भी वही पाता है जो जिनवाणी की आज्ञा पालता है। आप जितने बहुमान आदर और श्रद्धा के साथ जिनवाणी को पढ़ेंगे, आपके परिणाम उतने ही विशुद्ध होंगे, उतना ही आपका क्षयोपशम बढ़ेगा। जिनवाणी के विशाल सागर में से यदि एक बूंद का भी पान कर लिया जाये तो यह आत्मा जन्म जन्मान्तरों के आताप को हर सकती है। जिनवाणी की गंगा तो बहुत विशाल बह रही है लेकिन उससे क्या? कल्याण तो हमारा उसके घाट पर जाने में है, झुककर पानी पीने में है। एक बार प्यास बुझाकर देखो सारा जीवन तृप्त हो जायेगा। यह मनरूपी मर्कट यदि उन्मुक्त विचरण करना ही चाहता है तो आत्मार्थी इसे शास्त्रों के बगीचे में विचरण कराये। "आगम चक्खू साहू" आगम ही साधु के दिव्य नेत्र हैं जिसके माध्यम से ही वह कोई चर्चा या चर्या करता है और उस आगम में प्रामाणिकता वीतरागता से आती है। आगम एक माप है तुला है उसे समतुला होना चाहिए। कभी भी उसमें अपनी तरफ से कमी वेशी नहीं करना चाहिए। आगम और इतिहास का अवलोकन सूक्ष्म ढंग से कर लेना चाहिए। आगम का आधार भी जवाब रूप में जब कभी नहीं देना किन्तु जो गंभीर और अच्छे ढंग से आगम का पक्ष लेकर समझने वाले हैं उन्हें ही बतलाना चाहिए। जब तक इस धरती पर सच्चे शास्त्र हैं तब तक ही हमारी आँखें खुल सकेंगी। बंधुओं! जिनवाणी के अलावा जानकारी के लिये हमारे पास दूसरा साधन है ही क्या? आचार्य प्रणीत आगम ग्रन्थों को पढ़कर अपने जीवन को उन्हीं के अनुरूप ढालने का प्रयास करना चाहिए। यही स्वाध्याय का, देव-शास्त्र-गुरु की उपासना का फल है। यदि यह नहीं है तो समझ लो वह सांसारिक उपलब्धि के लिये ही कारण बनेगा।
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