धर्म संस्कृति 5 - तीर्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जहाँ पर तीर्थंकर आदि महापुरुषों के विहार और कल्याणक आदि होते हैं वह सभी स्थान तीर्थ माने जाते हैं।
- जिसके माध्यम से हम तिर जायें, पार हो जायें वह है तीर्थ।
- तीर्थ घाट के समान है जहाँ पहुँचकर अपने जीवन बेड़ा को भवसागर से पार लगाया जा सकता है।
- नदी के घाट पर जाकर तो हम बाहरी मल का ही प्रक्षालन करते हैं किन्तु तीर्थों की शरण पाकर हम जन्म-जन्मान्तरों के पापों का प्रक्षालन कर लेते हैं।
- तीर्थंकर भगवन्तों की विहार भूमि और कल्याणक स्थानों पर जाने से स्फूर्ति, प्रेरणा और मन को शान्ति मिलती है।
- पुण्य-पुराण पुरुषों के द्वारा जो स्थान पवित्र हुए हैं, उन स्थानों पर जाकर ध्यान-साधना करने से जीवन भी पवित्र बनता है।
- साधक योगियों ने जिन स्थानों का आश्रय लेकर विभिन्न प्रकार की साधनायें की हैं वह स्थान भी तीर्थों की तरह ही पूज्य माने गये हैं। यह सब बाहर के जड़ तीर्थ तो हैं ही किन्तु जिसके माध्यम से हम चैतन्य की ओर मुड़ जाये वस्तुत: वही तीर्थ है।
- भगवान की दिव्यध्वनि समवसरण सभा में जिस स्थान पर खिरी हो वह स्थान तीर्थ ही नहीं बल्कि शासन-तीर्थ माना जायेगा।
- तीर्थ, मंदिर और मूर्तियाँ हमारे सदियों पुराने निर्मल इतिहास की गौरव गाथा गाते हैं।
- भारतीय मानस श्रद्धा भक्ति से भरा हुआ है, यही कारण है कि यहाँ के निवासियों ने मकानों के साथ-साथ पूजास्थल मंदिरों का निर्माण भी किया है। भारत में ऐसा कोई भी गाँव नहीं जो मंदिर-मूर्तियों से विहीन हो।
- मंदिर विशाल किन्तु द्वार छोटे, ऐसा क्यों? कभी विचार किया, इसलिये कि भगवान् की शरण में जाने के पूर्व झुकना सीखें अर्थात् अहंकार को गलाकर श्रद्धा से अभिभूत होकर मंदिर में प्रवेश करो।
- मंदिर और मूर्तियाँ मोक्षमार्ग में साधन तो है पर साध्य नहीं। साधनों का सम्यक्र अवलम्बन तो होना चाहिए पर विवाद नहीं।
- मंदिर और मूर्तियाँ उपयोग को स्थिर करने के लिये हैं किन्तु सबके उपयोग को स्थिर करने में सहायक बनें, ये जरूरी नहीं।
- मूर्ति, मानवीय आचार विचार को निर्देशित करने वाला एक सम्यक् आदर्श है।
- मन को केन्द्रित करने का सहकारी वातावरण जितना मंदिर में संभव है उतना अन्यत्र नहीं।
- तीर्थ हमारी परम्परा और संस्कृति के प्रतीक हैं इनका निर्माण संरक्षण और जीणोंद्धार कराना हमारा कर्तव्य है।
- अहिंसा और वीतरागता का संदेश देने वाले पुरावशेषों की सुरक्षा करना आज अत्यन्त जरूरी है।
- तीर्थ हमारे धर्मक्षेत्र माने गये हैं। साधना के लिये जनपद शून्य, निराकुल निरापद स्थान हैं। हमारे पूर्वजों की पवित्र सांस्कृतिक धरोहर है। इनका संरक्षण और संवर्धन एक-एक घटक का कर्तव्य है।
- सम्मेदशिखर तीर्थंकरों की शाश्वत निर्वाण भूमि है। यहाँ से इस चौबीसी में बीस तीर्थंकरों सहित अनंत मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया। यह तीर्थ ही नहीं तीर्थराज है, समूची दिगम्बर परम्परा का प्रमुख आस्था का केन्द्र है।
- संस्कृति और धर्मायतनों के संरक्षणार्थ साधु, श्रावकों को उपदेश दे सकता है आवश्यकतानुसार आदेश भी।
- सभी दानों के साथ-साथ अपने आपको ही तीर्थ के लिये समर्पित कर देना यह सबसे बड़ा दान है।
- अपना उपसर्ग दूर करने के लिये नहीं किन्तु धर्मायतनों पर/प्राणियों पर आये हुए संकट को दूर करने के लिये विष्णुकुमार और बालि मुनि महाराजों जैसे कदम उठाना चाहिए।
- अहंकार वश रावण ने जब समूचे कैलाश पर्वत को ही पलटना चाहा तब तपस्यारत बालि मुनि महाराज का हृदय द्रवित हो उठा, उस स्थिति में तीर्थ सुरक्षा के लिये उन्होंने जो कदम उठाये वह अत्यधिक प्रेरक अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है।
- भरत चक्रवर्ती के द्वारा कैलाश पर्वत पर बनाये गये ७२१ जिनालयों की सुरक्षा के विचार से सगर चक्रवर्ती ने अपने ६० हजार कर्मठ पुरुषार्थी पुत्रों को गंगा की परिखा (खाई) बनाने में लगा दिया। तीर्थ सुरक्षा के लिये इतिहास में इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है।