स्वाध्याय 7 - तत्त्व सिद्धान्त विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जिस प्रकार नवनीत दूध का सारभूत रूप है, वैसे ही करणलब्धि सब लब्धियों का सार है।
- प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना-अपना पाप-पुण्य है, अपने द्वारा किये हुए कर्म हैं। कर्मों के अनुरूप ही सारा का सारा संसार चल रहा है किसी अन्य के बलबूते पर नहीं।
- प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अलग-अलग है और सब स्वाधीन स्वतंत्र हैं। उस स्वाधीन अस्तित्व पर हमारा कोई अधिकार नहीं जम सकता। फोटो उतारते समय हमारे जैसे हाव-भाव होते हैं वैसा ही चित्र आता है, इसी तरह हमारे परिणामों के अनुसार ही कर्मास्त्रव होता है।
- देव, शास्त्र, गुरु कहते ही सर्वज्ञता की ओर दृष्टि न जाकर प्रथम वीतरागता की ओर दृष्टि जानी चाहिए क्योंकि वीतरागता से ही सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है।
- कार्य हो जाने पर कारण की कोई कीमत नहीं रह जाती लेकिन कार्य के पूर्व कारण की उतनी ही कीमत है जितनी कार्य की।
- साध्य के बारे में दुनिया में कभी विसंवाद नहीं होते, विसंवाद होते हैं मात्र साधन में। मंजिल में विसंवाद कभी नहीं होता, विसंवाद होता है मात्र पथ में।
- पथ पहले विचारों में बनते हैं तदनुरूप विचारों के पथ आचरण में आते हैं।
- हम उत्सर्ग (मुख्य) मार्ग पर उपसर्ग न करें और न ही अपवाद (गौण) मार्ग का अपवाद।
- एकांत से निमित्त को मुख्य मानकर उसकी ओर ही देखने से उपादान में कमजोरी आती है।
- दृश्य में सुख नहीं दृष्टा में सुख है, ज्ञेय की कीमत नहीं ज्ञाता की कीमत है, भोग्य की नहीं भोक्ता की कीमत है। अत: हमें ज्ञेय से ज्ञाता और दृश्य से दृष्टा की ओर जाना चाहिए।
- आँखें हों तो दृश्य समाहित हो सकते हैं लेकिन आँखों के अभाव में दृश्यों के ढेर भी लगा दिये जायें तो कुछ नहीं। क्योंकि जहाँ पर दृश्य है और दृष्टि नहीं तो आप सृष्टि का निर्माण भले ही करते चले जाइये, तृप्ति तीन काल में भी मिलने वाली नहीं।
- जो व्यक्ति हित के पथ पर नहीं चलता वह दूसरों का भी हित नहीं कर सकता। हित की बात कर सकता है वह किन्तु हित से मुलाकात नहीं। हित की बात करना अलग है और हित से मुलाकात करना अलग। मुलाकात में साक्षात्कार (अनुभूति) है बात में नहीं।
- वीतरागता आत्मा का स्वभावभूत गुण है उसके बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता।
- सम्यकद्रष्टि की दृष्टि में भी केवलज्ञान/सर्वज्ञत्व नहीं झलकता बल्कि मिथ्यादृष्टि की दृष्टि में भी भगवान् की वीतरागता झलक जाती है अत: वह भी बिना विरोध के झुक जाता है वीतरागी के चरणों में।
- सर्वज्ञ भगवान् ने विश्व को जाना, विश्व के ज्ञेय रूप तमाम पदार्थों को जाना, देखा किन्तु आनंद की अनुभूति उन्होंने विश्व में नहीं की, अपितु ‘निजानंद रसलीन' यानि सकल ज्ञेय के ज्ञायक होकर भी भगवान् निज आत्मा के आनंद में ही लीन रहते हैं।
- संवेदनशीलता, अनुभव करना आत्मा का लक्षण है। केवलज्ञान आत्मा का लक्षण नहीं वह तो आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव की प्राप्ति उपयोग पर श्रद्धान करने से होती है इसके अलावा उसे पाने का और कोई भी रास्ता नहीं।
- वैज्ञानिक पर वस्तुओं की खोज में ही अपनी सारी शक्ति लगा रहे हैं, वे केवल ज्ञेयों तक ही सीमित है किन्तु ज्ञाता की ओर उनका लक्ष्य नहीं।
- पुण्य से नहीं पुण्य के फल से डरो नियम से मुक्ति पाओगे। क्योंकि पुण्य के फल का भोग आरंभ आदि के बिना नहीं हो सकता और आरंभ आदि में हिंसादि पाप होता ही है।
- बचाने के भाव को हम कभी भी हिंसा नहीं कह सकते। यदि बचाने के भाव को हिंसा कहा जाये तो समिति को भी हिंसा कहना पड़ेगा। जो आगम के लिये इष्ट नहीं है।
- संयम कौन-सा तत्व है ? संवर तत्व है। जिनमूर्ति में संवर के दर्शन करते हैं क्योंकि यहाँ संयम है। हम निर्जरा को देखते हैं क्योंकि वीतरागता है। मोक्ष देखते हैं क्योंकि कर्मबंध नहीं है। जो संयम से केवल आस्त्रव मानता है उसे पोथी ग्रन्थ बंद कर देना चाहिए।
- उदासीन निमित्त को हम अपनी तरफ से जुटा नहीं सकते, उसमें हमारा पुरुषार्थ संभव नहीं किन्तु प्रेरक निमित्त को पुरुषार्थ के बल पर जुटा सकते हैं।
- सिद्धान्त के अनुरूप श्रद्धान बनाओ। तत्व को उलट-पलट कर श्रद्धान नहीं करना है। हमें अपने भावों को तत्व सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तित करना है, जैसे रेडियो में सुई के अनुसार स्टेशन नहीं लगती बल्कि स्टेशन के नम्बर के अनुसार सुई को घुमाने पर ही विविध भारती, सीलोन आदि स्टेशन लगती है।
- निर्जरा तत्व के उपरान्त कोई पुरुषार्थ नहीं रह जाता। मोक्ष तत्व अंतिम नहीं है वह तो फल है। मोक्ष, मार्ग नहीं है मार्ग जो कोई भी है वह संवर और निर्जरा ही है। अब यदि मार्ग में ही स्खलन हो गया, विषमता आ गई तो ध्यान रखना वहाँ मोक्ष नहीं किन्तु मोह मिलेगा।
- जिस प्रकार दही में से नवनीत निकालने के लिये मटकी, मथानी आदि का आवश्यक साधन हो जाते हैं उसी प्रकार शुद्धात्म तत्व की प्राप्ति के लिये यह दिगम्बरत्व और भेदरत्नत्रय रूप साधन अंगीकार करना नितांत अनिवार्य है जिसके माध्यम से ही उस परम साध्य तत्व की उपलब्धि होती है।
- जो शाश्वत है उसी का अनुभव किया जा सकता है। जो नश्वर है पकड़ते-पकड़ते ही चला जाने वाला है उसका अनुभव नहीं किया जा सकता। कहने का मतलब है द्रव्य दृष्टि रखकर निर्विकल्प होने की साधना करो, पर्यायों में आसक्त (उलझकर) होकर संकल्प-विकल्प का जाल मत बनाओ।
- जो विश्व को जानने का प्रयास करेगा वह सर्वज्ञ बन नहीं सकता किन्तु जो स्वयं को जानने का प्रयास करेगा वह स्वयं को तो जान ही लेगा साथ ही सर्वज्ञ भी बन जायेगा।
- सर्वज्ञत्व आत्मा का स्वभाव नहीं है यह उसके उज्वल ज्ञान की परिणति मात्र है। अत: व्यवहार नय की अपेक्षा से कहा जाता है कि भगवान सबको जानते हैं किन्तु निश्चयनय से ज्ञेय-ज्ञायक संबंध तो अपना, अपने को, अपने साथ, अपने लिये, अपने से, अपने में जानने-देखने से सिद्ध होता है। ऐसा समयसार का व्याख्यान है।
- आत्मा में जो मूर्तपना आया है वह पुन: अमूर्तता में ढल सकता है, क्योंकि वह संयोगजन्य है, स्वभावजन्य नहीं। इस प्रकार एक अलग ही तरह का मूर्तपना इस जीव में तैयार हुआ है जिसे न जड़ का कह सकते हैं न चेतन का। ग्रन्थों में इसे चिदाभासी कहा गया है।
- आत्मा वर्तमान में अमूर्त नहीं है किन्तु वीतरागता के माध्यम से वह अमूर्त बन सकती है। कर्म का संबंध आत्मा के साथ अनादिकाल से है और विशेष बात यह है कि मात्र कर्म, कर्म से नहीं बँधा है बल्कि कर्म और आत्मा का एक क्षेत्रावगाह रूप संबंध हुआ है। जिसका विघटन या तो सविपाक निर्जरा के माध्यम से हो सकता है या अविपाक निर्जरा से। मुक्ति की प्राप्ति के लिये हमें अविपाक निर्जरा ही अभीष्ट है।
- पाप चोर है और पुण्य पुलिस। शुद्ध भाव सेठ साहूकार के समान है। साहूकारों को खतरा चोरों से रहता है न कि पुलिस से और चोरों को पुलिस से हमेशा ईष्या रहती है।
- अशुभोपयोग और शुभोपयोग में उतना ही अन्तर है जितना कि सन्ध्या और प्रभात की लाली में। जिसमें संध्या समय की लाली निशा की प्रतीक है, सुलाने वाली है किन्तु प्रभात की लाली ताजगी की प्रतीक है, जगाने वाली है।
- पूजन, दान, स्वाध्याय आदि श्रावक के कर्तव्य हैं। इन कर्तव्यों के प्रति हेय बुद्धि कभी नहीं लाना, हाँ! कर्तृत्व के प्रति जरूर लाना।
- पुलिस के कारण नहीं, चोर, चोरी के कारण जेल जाता है। देवों के कारण नहीं, सीता की जय जयकार शील के कारण हुई।
- हम सब ब्रह्मा के अंश नहीं हैं किन्तु हम सबमें ब्रह्मा जैसे अंश हैं। भरत जी घर में वैरागी यह पद बहुत अच्छा लगता है, हम भी कहते हैं, पर जरा ध्यान तो दो कौन सा भरत घर में वैरागी था ? चक्रवर्ती भरत या राम का भैय्या भरत। यह भी एक विचारणीय बात है।
- सम्यकदर्शन अनुकम्पा की अपेक्षा नवनीत की तरह कोमल है किन्तु सिद्धान्त की अपेक्षा वज़ से भी ज्यादा कठोर है।
- दर्शन विशुद्धि, मात्र सम्यकदर्शन नहीं है, दृष्टि में निर्मलता होना दर्शन विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्व चिंतन से।
- जिस प्रकार ललाट पर बिन्दी के अभाव में स्त्री का संपूर्ण श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के न होने पर जैसे मंदिर की कोई शोभा नहीं है। उसी प्रकार बिना संवेग के सम्यकदर्शन कार्यकारी नहीं है। संवेग सम्यकद्रष्टि साधक का अलंकार है।
- कारण में कार्य का दर्शन कभी नहीं होता अत: कारण को कार्य में ढ़ालने का प्रयास करो।
- कार्य समय (काल) के अनुसार नहीं होता किन्तु भावों के अनुसार होता है। यदि समय के अनुसार कार्य हो तो समय असंख्यात है और जीव अनंत, फिर विरोधाभास आयेगा।
- विश्व अनादि-अनिधन एवं स्वयं व्यवस्थित है इसमें परिवर्तन असंभव है अत: इसे हठात् परिवर्तित करने का मन में भाव लाना व्यर्थ है। जो समीचीन रूप से शुद्ध गुण पर्यायों की अनुभूति करता है, उनको जानता है पहचानता है उनमें व्याप्त होकर रहता है, वही अनुभूति आत्मसार है, समयसार है।
- जिस द्रव्य से अशुद्ध पर्यायें निकल रही हैं वह द्रव्य अशुद्ध ही है क्योंकि ऐसा कभी नहीं हो सकता कि द्रव्य का परिणमन तो शुद्ध हो और उसके परिणाम/पर्यायें अशुद्ध निकलें।
- मात्र पर्याय ही अशुद्ध है ऐसा कहना ठीक नहीं है बल्कि द्रव्य और गुण भी अशुद्ध है अत:पर्याय की ओर दृष्टिपात न करते हुए द्रव्य और गुण को माँजने का प्रयास करो।
- पर्याय दृष्टि को अपनाने से ही उपयोग में पक्षपात की तरंगें उठती हैं।
- उपलब्ध इन्द्रिय विषयों में अरुचि भाव होना तत्व प्रतीति की ही पहचान है।
- भावों को प्राञ्जल बनाने के लिये तत्व चिन्तन जरूरी है तथा दीनता एवं मान का अभाव आवश्यक है।
- जैसे-जैसे तत्व समझ में आता है वैसे वैसे उसका महत्व भी बढ़ता जाता है।
- जीवन का लक्ष्य मात्र तत्वचर्चा ही नहीं बल्कि आत्मोपलब्धि भी होना चाहिए ।
- जो भाषाविद् नहीं है वह भावविद् भी नहीं ऐसा निर्णय करना गलत है।
- भाषा की परिभाषा बनाई जा सकती है पर भावों की नहीं।
- उत्तम चारित्र और समता आना ही सब शास्त्रों का सार है।
- जनता की भीड़ से अधिक घातक विचारों की भीड़ है।
- तर्क-वितर्क ही नहीं किन्तु सतर्क (सावधान) भी होना चाहिए।
- यह पर है वह पर है फिर भी उसी में जीव तत्पर है, यह सब नाटक मोह का है।
- जमाने के अनुसार हम बदल सकते हैं लेकिन सिद्धान्त नहीं बदल सकते।
- जब मिथ्यात्व का विमोचन होता है तब सत्य की पहचान होती है और जब राग-द्वेष का विमोचन होता है तब उस सत्य की उपलब्धि।
- सभी कलायें व मिथ्याज्ञान प्राप्त करना तो सरल है किन्तु तत्व ज्ञान व प्रमाद से रहित होना बहुत ही दुर्लभ है।
- प्रभु की देशना में बाहरी बातें भले ही चलती रहें लेकिन वे सब भीतर के लिये ही चलती हैं।
- बाहर का कोई भी निमित्त भगवान बनने के लिये सिर्फ दिशा-बोध दे सकता है पर बनना हमें ही होगा।
- आज के लोग मंद बुद्धि वाले भी है और वक्र भी। मंदबुद्धि से मतलब जो जाने नहीं और वक्र बुद्धि से अभिप्राय जो माने नहीं। आज का आदमी जानता भी नहीं है और मानता भी नहीं है ऊपर से तानता और है।
- जिस समय वैराग्यमयी ज्ञान किरण आत्मा में उद्भूत होती है उस समय हम समस्त विश्व को भूल जाते हैं और अपने उपादेयभूत आत्म तत्व की आरती उतारना प्रारंभ कर देते हैं। वह पावन घड़ी हम सब को कब उपलब्ध होगी।
- नाशा दृष्टि का मतलब क्या ? न आशा, नाशा। किसी भी प्रकार की आशा नहीं रही अब, इसी का नाम है नाशा। यदि दृष्टि कहीं अन्यत्र चली गई तो समझिये कि नियम से अभी आशा है और यह आशा हमेशा-हमेशा निराशा में घुलती रही है।
- विरागी की दृष्टि रागी को देखकर भी राग में विरागता का अनुभव करती है और रागी की दृष्टि विरागता को देखकर विरागता में भी राग का अनुभव करती है। यह किसका दोष है ? यह किसका फल है? क्या करें भाई! जिसके पेट में जो है वही तो डकार में आयेगा।
- जिस समय राग-द्वेष उसी समय आस्त्रव। यह प्रक्रिया अनादिकाल से चल रही है। जब तक यह नहीं रुकेगी तब तक आप बंधन से मुक्त नहीं होंगे। इसलिये नये बंध से डरो, जो कर्म उदय में आ रहा है उससे मत डरो, वह तो जा रहा है।