Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • साधना 3 - साध्य/साधन

       (0 reviews)

    साधना 3 - साध्य/साधन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. अपना उद्देश्य सिद्धि का नहीं, सिद्ध बनने का होना चाहिए।
    2. संयम और साधना आत्मदर्शन के लिये हो, प्रदर्शन के लिये नहीं। प्रदर्शन करने से दर्शन का मूल्य कम हो जाता है यदि उसके साथ दिग्दर्शन और जुड़ जाये तो उसका मूल्य और भी कम हो जाता है।
    3. साधन वही है जो साध्य को दिला दे। कारण वही है जो कार्य को सम्पादित करे। औषधि वही है जो रोग को दूर करे। तप वही है जो नर से नारायण बना दे।
    4. योग साधना के लिये जीवन मिला है, भोग साधना के लिये नहीं। इस शरीर के माध्यम से ही साधना के बल पर अलौकिक आनंद पाया जा सकता है।
    5. जीवन निश्चित ही संघर्षमय है लेकिन साधक इसे हर्षमय होकर अपनाता है।
    6. साहस, धैर्य और सहिष्णुता नहीं होने के कारण ही चित्त विक्षिप्त-सा होता है और चित्त का चंचल होना साधक की सबसे बड़ी कमजोरी है।
    7. इष्टानिष्ट वस्तुओं के संयोग-वियोग हो जाने पर हर्ष-विषाद नहीं करना ही वास्तविक साधना है।
    8. प्रतिकूलता और अनुकूलता मात्र भावों की देन है।
    9. मंत्र न ही अच्छा होता है और न ही बुरा। अच्छा बुरा तो अपना मन होता है।
    10. हमारी साधना में कहाँ पर कमी है ? और है तो क्यों ? तथा उस कमी की पूर्ति कैसे होगी ? ये तीन प्रश्न मन में बार-बार उठना चाहिए ताकि उसे दूर कर आगे बढ़ा जा सके।
    11. जल के प्रतिकूल प्रवाह में भी कुशल नाविक जिस प्रकार नाव को पार लगा लेता है उसी प्रकार प्रतिकूल अवसरों पर यदि साधक अपने आपको सम्हाल लेता है तो वह बहुत कुशल साधक माना जाता है।
    12. पुण्य के उदय में समता रखना साधक की सबसे बड़ी परीक्षा है।
    13. सबसे बड़ा साधक वही है जिसकी साधना गुरु आज्ञा से परोक्ष में भी निर्दोष और उत्साह सहित होती है।
    14. वास्तविक संन्यासी तो वही है जिसके ममत्व की मृत्यु हो चुकी है।
    15. जब पुरुष, योगी बन जाता है तो सभी उसके सहयोगी बन जाते हैं।
    16. यदि आप योगी बनेंगे तो मन आपका सहयोगी बनेगा और यदि आप भोगी बनेंगे तो मन आपको रोगी बना देगा।
    17. साधक को निराकुल एवं एकाग्र होकर साधना करना चाहिए।
    18. आचार्यों का उपदेश साधकों के लिये केवल इतना ही है कि वे हाथ से कल्याण का संकेत करें और मुख का प्रसाद बिखेर दें, इससे ज्यादा उन्हें और कुछ नहीं करना है।
    19. साधक बनो, प्रचारक नहीं।
    20. उत्कृष्ट साधकों के दर्शन करने पर ही उत्कृष्ट भाव होते हैं।
    21. साधक को प्रवृत्ति में मूलाचार एवं निवृत्ति में समयसार का अवलम्बन लेना चाहिए।
    22. इस संसार के दंदफंद को जानकर बचने का प्रयास करो, हे साधु! यहाँ किसी से कुछ मत कहो,गहरी चुप्पी साधो।
    23. अभी तक मछली की तरह माया के जाल में फंसते रहे हो। अब हे साधक! ज्ञान का कोई ऐसा जाल बनाओ जिसमें माया की ही मछली फँस जाये।
    24. अज्ञान उतना खतरनाक नहीं है जितना कि प्रमाद।
    25. ब्रह्मचर्य अकेलेपन का द्योतक है।
    26. ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं वरन् भोग के साथ एकीकरण और रोग से निवृत्ति है। सही अर्थों में ब्रह्मचर्य का अर्थ है चेतन का भोग।
    27. उपसर्ग और परिषह भेदविज्ञान की कसौटी है।
    28. सावधानी के साथ किया गया थोड़ा-सा भी कार्य अच्छा होता है। जो कोई भी कार्य/साधना हो वह अहिंसा मूलक हो, राग द्वेष को कम करते हुए हो।
    29. मन का निराकुल होना साधना की अंतिम अवस्था है। उसी साधना का अभ्यास करना चाहिए। ध्याता और ध्येय जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक ही मन में क्षोभ रहता है।
    30. मौन साधना वचनशुद्धि एवं सिद्धि का साधन है।
    31. मौन से गंभीरता आती है स्व कलह समाप्त हो जाती है।
    32. उस तप को अपनाना चाहिए जिससे इच्छा को थक्का लगे।
    33. जिस त्याग से जीवन में निर्मलता आती है वही त्याग वास्तव में त्याग कहलाता है जिस त्याग के अनन्तर कलुषता हो वह त्याग नहीं दम्भ है।
    34. जिसमें सहिष्णुता और धीरता इन दोनों महान् गुणों का अभाव है वे त्यागी होने के पात्र नहीं।
    35. तृप्ति का कारण त्याग है, पूर्ति नहीं।
    36. प्रत्येक स्थान पर त्याग का महत्व है कोई भी क्षेत्र त्याग के बिना फलफूल नहीं सकता। जैसे बीज का त्याग किये बिना अन्न नहीं, दूध का त्याग किये बिना नवनीत नहीं।
    37. त्याग और चारित्र के बिना जीवन पतित ही रहेगा, कलंकित ही रहेगा। हमें अपने जीवन को कलंकित नहीं करना बल्कि अलंकृत करना है चारित्र रूपी आभूषणों से।
    38. जिस प्रकार तपन के बिना वपन किया हुआ बीज नयेपन की ओर नहीं जाता, उसी प्रकार तपाराधना के बिना श्रमण के जीवन में साधना के नये आयाम नहीं खुलते।
    39. प्रारंभिक दशा में जिस धूप में वनस्पति कुम्हला जाती है किन्तु आगे चलकर उसी धूप में वह हरी-भरी होती है ठीक उसी प्रकार प्रारंभ में साधना कठिन जरूर लगती है किन्तु अभ्यास करने से कालान्तर में वह सुखदायी हो जाती है
    40. इच्छायें गर्मी में लगने वाली प्यास के समान हैं।
    41. वासना का वास, न तन में है, न वसन में है वरन् माया से प्रभावित मन में है।
    42. तप वह रसायन है जिसके माध्यम से मन का पूर्णरूपेण संशोधन हो सकता है। आनंद की चरम सीमा तक पहुँचने का तप एक अनन्य साधन है।
    43. अपना भाव क्या है ? अपना कर्तव्य क्या है ? अपना पद क्या है ? इस तरह जिसका चित्त अपने बारे में ही विचार करता रहता है, समझ लो वह तप में लीन ही रहता है।
    44. मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बनकर कार्य करो। मैंने किया या मैं करूं ऐसी कर्तृत्व बुद्धि से नहीं।
    45. सम्यकद्रष्टि समय को नहीं खोता। किन्तु समय में (आत्मा में) अपने आपको खोता है।
    46. संवेग, सम्यकद्रष्टि साधक का अलंकार है।
    47. जहाँ संवेग होता है वहाँ विषयों की ओर रुचि नहीं रह जाती, उदासीनता आ जाती है।
    48. व्यवहार सम्यकदर्शन फालतू नहीं वरन् पालतू है।
    49. सम्यकदर्शन के बिना पाप से डरना नहीं होता। संसार से भीति सम्यकदर्शन का अनन्य अंग है।
    50. सम्यकद्रष्टि जीव भले ही स्वयं दीक्षा न ले पर किसी को दीक्षा लेने में बाधक नहीं बनता। जो दीक्षा-शिक्षा का निषेध करता है वह नियम से संयम का प्रतिपक्षी है।
    51. अतीत में क्या-क्या हुआ था, भविष्य में क्या-क्या होगा इसकी चिन्ता न करके वर्तमान में हमें क्या करना है, इस पर अवश्य विचार करना चाहिए। तुम्हारा अतीत भले ही पापमय रहा हो किन्तु वर्तमान यदि सच्चाई लिये है तो भविष्य अवश्य ही उज्ज्वल रहेगा।
    52. जिस व्यक्ति के वर्तमान में अच्छे कदम नहीं उठ रहे उसका भविष्य मानो अंधकारमय ही है।
    53. अतीत में जीना मोह है, भविष्य में जीना लोभ है और वर्तमान में जीना कर्मयोग है।
    54. भविष्य की ओर देखने से आशा जन्मती है और अतीत की ओर देखने से स्मृति आती है।
    55. संसार का बहुत बड़ा विस्तार है बस मुक्ति में ही सार है।
    56. दुनिया को गौण मत करो, उसे बदलने का प्रयास मत करो, प्रयास करो अपनी दृष्टि और द्रष्टिकोण को बदलने का।
    57. तू तटस्थ होकर देख! देखना, जानना तेरा स्वभाव है लेकिन चलाकर नहीं। चलाकर देखना राग का प्रतीक है। जो हो रहा है उसे होते हुए को देखिये और जानिये।
    58. आचार्यों का दिव्य संदेश है कि कहीं अन्यत्र मत भागो। जहाँ हो वहीं ठहरो और स्वयं को जानने व पाने का प्रयास करो। बाहर में भागने से कुछ नहीं पाओगे।
    59.  खुदा का बंदा बनना आसान है किन्तु खुद का बंदा बनना कठिन है खुद के बंदे बनो।
    60. यह जीवन तभी आनंदमयी हो सकता है जब वहाँ एकत्व हो। जहाँ अनेकत्व है वहाँ विकल्पों के सिवाय कुछ भी नहीं।
    61. रोटी और लंगोटी की चिन्ताओं से मुक्त हुए बिना आत्मा का आनंद आ ही नहीं सकता।
    62. जिसके चित्त में न चिन्ता है, न चिन्तन है, वह है मात्र चेतन रूप आनंद कद किन्तु चिन्तन से पहले पर की चिन्ता से मुक्त होना जरूरी है।
    63. जब योगी के पास बैठने से इतना आनंद आता है तो आप सोचिये योगी को कितना आनंद आता होगा।
    64. शुभोपयोग में आकर श्रमण अपने आपको सम्हाल तो लेता है किन्तु अध्यात्म का माल तो वह शुद्धोपयोग में ही पाता है।
    65. वस्तुत: श्रमण की श्रमणता शुद्धोपयोग के साथ ही शोभा को पाती है।
    66. श्रमण बनना वैसे ही दुर्लभ है किन्तु श्रमणत्व को पाना और भी दुर्लभ।
    67. श्रम करे सो श्रमण, श्रमण का जीवन ही पुरुषार्थमय है।
    68. परमसुख का दाता मोक्षधाम है, इसकी प्राप्ति के लिये आज से ही सभी को कटिबद्ध हो जाना चाहिए। बंधुओ! एक बार तो उस आत्मिक भाव का स्पर्श करो।
    69. हमारी दृष्टि अन्तर्मुखी होनी चाहिए। अन्दर जाकर ही हम बाहर देख सकते हैं। हमारे महान् तीर्थकर इस बात के शाश्वत प्रतीक हैं कि वह जितने अधिक अन्तर्मुखी हुए जगत् ने उनसे उतना ही अधिक पाया।
    70. मेरा सही परिचय वही दे सकता है जिसने गहराई में डूबकर मुझे देखा है, ध्यान रहे! मैं देह मात्र नहीं हूँ किन्तु इस भौतिक शरीर में बैठा हुआ। चैतन्य पुंज एक आत्मतत्व हूँ।
    71. आक्रमण यह शब्द बाहर की ओर यात्रा का सूचक है और प्रतिक्रमण भीतरी यात्रा का प्रतीक। यदि आपको संसार से मुक्ति पाना है तो आक्रमण से परे प्रतिक्रमण की शरण में आइये।
    72. उपयोग, उपयोग में रहे यही उसका वास्तविक सदुपयोग है। एक बार भी बोलने की इच्छा हो जाती है तो सारा का सारा उपयोग, योग में चला जाता है और अपनी धरती से खिसक जाता है।
    73. अपने उपयोग का उपयोग, पर की चिन्ता में न करें।
    74. मान कषाय से ऊपर उठने के लिये महासत्ता का ध्यान, चिन्तन करना चाहिए।
    75. साधना ऐसी होनी चाहिए कि औदारिक शरीर ज्यों का त्यों बना रहे तथा कार्मण शरीर सूखता चला जाये।
    76. जो जीवन क्रम निश्चित कर घर में कुछ साधना कर लेते हैं उन्हें आगे का मार्ग सरल हो जाता है।
    77. रस की इच्छा जिह्वा इन्द्रिय की भूख है, पेट की भूख नहीं। साधक संयमीजन जिह्वा इन्द्रिय की नहीं पेट की भूख दूर करते हैं।
    78. न इस शरीर का शोषण करना है न ही विशेष पोषण, वरन् इसके सहारे भीतर बैठी चेतना का संशोधन करना है।
    79. उम्र के साथ-साथ गंभीरता तो एक गृहस्थ के भी बढ़ती है किन्तु साधना के तौर पर असमय में ही गंभीरता का आना संयम का प्रभाव है।
    80. एक क्षायिक सम्यकद्रष्टि असंयत गृहस्थ सामायिक करते हुए भी जितनी कर्म निर्जरा नहीं कर सकता, एक क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि मुनि महाराज आहार करते वक्त उससे भी असंख्यात गुणी ज्यादा कर लेते हैं। अहो! यह सब संयम का माहात्म्य है।
    81. प्रचार-प्रसार के इस युग में आज साधना भी वक्तृत्व की कसौटी पर कसी जाने लगी है जो कतई ठीक नहीं है।
    82. गुणों की प्राप्ति के लिये हमें गुणी व्यक्तियों के पास जाना चाहिए।
    83. गुणी व्यक्ति भले ही हमारे पास आ जाये किन्तु जब तक हम उनके पास नहीं जायेंगे तब तक हमें गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती।
    84. जिस प्रकार नदी का प्रवाह अपने उद्गम स्थान से निकलकर अपना रास्ता स्वयं बना लेता है उसी प्रकार निकट भव्य जीव के ज्ञान का प्रवाह भी अपना रास्ता स्वयं बनाता चलता है।
    85. सबकी सब बातें सुनने के अभ्यासी तो बनना लेकिन उन सब बातों को चिन्तन का विषय नहीं बनाना।
    86. विवित-शय्यासन अर्थात् एकान्तवास एक तप है जिसे साधु तपता है क्योंकि एकान्त में ही अन्दर की आवाज सुनाई पड़ती है। बोलने से साधना में व्यवधान आता है।
    87. कषाय का यदि पूर्णत: अभाव नहीं होता तो कषाय का पूर्णत: प्रभाव भी नहीं होना चाहिए।
    88. यह अपेक्षा न रखें कि सब आपसे सहमत होंगे और आपके कहे अनुसार चलेंगे, अगर यही आपकी चाहत है तब फिर आप एक क्षण भी तनाव से मुक्त नहीं रह पायेंगे।
    89. सामायिक में साधक अकेला होता है क्योंकि वह अपने में होता है और ऐसे समय में उसे अकेला होना भी चाहिए। किन्तु प्रवृत्ति में वह समूह में होता है और उस समय उसे समूह में होना भी चाहिए। वात्सल्य एवं सरलता के बल पर समूह में रहना आसान हो जाता है।
    90. जितनी-जितनी लौकिकता बढ़ेगी उतनी-उतनी विशुद्धता में कमी आयेगी। अनावश्यक अप्रसांगिक क्षेत्रों में कार्य करने से ही संक्लेश परिणाम होते हैं। व्रत लेने के उपरान्त एक-एक पल का हमें सदुपयोग करना चाहिए।
    91. वैयावृत्ति में लगा हुआ वह संयमी श्रमण स्वयं दुध्यान से बचता है और जिसकी वैयावृत्ति करता है उसे भी दुध्यान से बचाता है, यानि वैयावृत्ति दुध्यान से बचने और बचाने में निमित होती है।
    92. ग्रहण करने योग्य वस्तु जब तक पूर्णत: प्राप्त न हो जाये तब तक उसे भूलना नहीं चाहिए और त्याग करने योग्य वस्तु को छोड़ने के उपरान्त भूल करके भी याद नहीं करना चाहिए।
    93. मन यदि चलित-विचलित होता है तो साधक को चाहिए कि वह पूर्व में किये हुए अपने कर्मों को तथा दीक्षा-तिथि को याद रखे, जिससे उपयोग निश्चित ही बदल जाता है और भावों में दृढ़ता आती है।
    94. मन जाता है तो जाने दो, मगर तन मत छोड़ो। क्योंकि तन जाने के बाद सम्हालना बहुत कठिन होता है जबकि मन यदि संस्कारवश चला भी जाये तो उसे सम्हाला जा सकता है।
    95. साधनामय जीवन बार-बार नहीं मिलता, उन्नति के लिये यह एक स्वर्णिम अवसर है जो इसके मूल्य को समझता है, वह कितनी ही बाधायें, उपसर्ग, परिषह क्यों न आयें उन्हें सहर्ष स्वीकार कर अपने साधना पथ पर आगे बढ़ता है।
    96. बरसात के दिनों में अत्यधिक जीवोत्पत्ति होने से साधुजन एक ही स्थान पर रुककर साधना अध्ययन करते हैं। वर्षावास में समशीतोष्ण वातावरण होने से ध्यान साधना के लिये अनुकूलता रहती है। श्रावक भी इन दिनों धर्म-प्रभावनादिक के कार्य ज्यादा करते हैं।

    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...