स्वाध्याय 6 - ज्ञानी/अज्ञानी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जीवन में ज्ञान का प्रयोजन मात्र क्षयोपशम में वृद्धि नहीं वरन् विवेक में भी वृद्धि हो।
- ज्ञानरूपी दीपक में संयमरूपी चिमनी आवश्यक है अन्यथा वह राग-द्वेष की हवा से बुझ जायेगा।
- दीपक लेकर चलने पर भी चरण तो अन्धकार में ही चलते हैं। जब चरण भी प्रकाशित होंगे तब केवलज्ञान प्रकट होगा।
- प्रयोग (अनुभव) के अभाव में बढ़ा हुआ मात्र शाब्दिक ज्ञान अनुपयोगी, व्यर्थ ही साबित होता है।
- स्वस्थ ज्ञान का नाम ध्यान है और अस्वस्थ ज्ञान का नाम विज्ञान।
- ज्ञान स्वयं में सुखद है किन्तु जब वह मद के रूप में विकृत हो जाता है तब घातक बन जाता है।
- ज्ञान की शोभा विनय, नम्रता से है वस्तुत: विनय में ही ज्ञान सफलीभूत होता है।
- दुनिया का ज्ञान प्राप्त हो गया पर उससे पृथक् होने की कला नहीं आई तो वह बुद्धि किस काम की।
- ज्ञान का आनंद सबको जानने में नहीं किन्तु निज रस के आस्वादन में है।
- बुद्धि बढ़ने के साथ-साथ विशुद्धि भी बढ़नी चाहिए। बुद्धि के बढ़ने पर भी विशुद्धि का नहीं होना आश्चर्य की बात है।
- बुद्धि कच्चे माल की तरह है और विवेक पक्के माल की तरह। बुद्धि की परिपक्व दशा का नाम ही विवेक है।
- ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। उसे स्वपर हित के लिये उपयोग में लाया जा सकता है।
- पर द्रव्य के आकर्षण का अभाव ही तत्वज्ञान का फल है।
- जिसे अपने पराये का बोध नहीं उसका वह बोध, बोध नहीं बोझ है।
- सम्यक् दर्शन के आठ अंग होते हैं यह प्राय: सभी को ज्ञात है किन्तु यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि सम्यकज्ञान के भी आठ अंग होते हैं। यदि इन अंगों का पालन किये बिना कोई स्वाध्याय, तत्व चर्चा या उपदेश करता है तो अब आप ही समझिये कि उसके पास कौन-सा ज्ञान है।
- क्षमताओं के विकास के लिये शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है किन्तु जिन्हें स्वयमेव ज्ञान प्राप्त हो जाता है उन्हें शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।
- जिसका ज्ञान पञ्चेन्द्रिय विषयों से प्रभावित है वह व्यक्ति मन के माध्यम से विकास के स्थान पर अपनी आत्मा को विनाश की ओर ले जा रहा है।
- ज्ञान के होने पर अनुभूति हो ही जायेगी यह कोई नियम नहीं है क्योंकि अनुभूति का संबंध चारित्र से है। हाँ..... जिस समय अनुभूति होगी उस समय ज्ञान अवश्य ही रहेगा।
- ज्ञान का पदार्थ की ओर दुलक जाना ही परम आर्त है, पीड़ा है, दुख है और पदार्थ का ज्ञान में झलक आना ही परमार्थ है क्रीड़ा है सुख है।
- शब्द ज्ञान होने के उपरान्त अब यदि भावों में और अधिक विशुद्धता लाना है तो भावज्ञान की ओर बढ़ना चाहिए।
- शब्द सो बोध नहीं और बोध सो शोध नहीं। शब्दों के पौधों पर बोध के फूल खिलते हैं और बोध के फूलों से शोध के फल मिलते हैं।
- बोध की चरम सीमा होने पर ही शोध हुआ करता है और वह शोध अनुभूति मूलक होता है।
- पाचन क्षमता के अभाव में जिस तरह अकेले घी पीने मात्र से कोई पहलवान नहीं बनता ठीक इसी तरह अध्यात्म ग्रन्थों के स्वाध्याय मात्र से कोई ज्ञानी नहीं बनता।
- ज्ञानी का मद अज्ञानियों के लिये मद का कारण बनता है।
- ज्ञानी भोक्ता पुरुष भोग विलास का दास नहीं होता बल्कि उदास होकर ज्ञान की ओर बढ़ता है।
- ज्ञानी का हमेशा चौबीसों घण्टे स्वाध्याय चलता रहता है क्योंकि उसकी प्रत्येक क्रिया सावधानी पूर्वक होती है।
- आश्चर्य की बात है कि अनेक अज्ञानी मिलकर आज ज्ञानी की परिभाषा बना रहे हैं।
- अज्ञानी को कषाय करने में आनंद आता है और ज्ञानी को कषाय जीतने में आनंद आता है।
- अज्ञानी जन शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग-बहिरंग में ही दंग रह जाते हैं। अन्तरंग में उतरते ही नहीं। हे! आत्मन्। अब आत्मा के साथ ही मिलन-मिलाप करो, उसी के साथ संबंध करो।
- अज्ञानी जन अन्य परिजनों को ही अहितकारी या शत्रु मानते हैं किन्तु ज्ञानी अपने निजी कर्मों एवं अशुभ भावों को ही अहितकारी मानते हैं।
- क्रोध को जानना और उसे समता के साथ देखते रहना ही एक मात्र ज्ञानी का लक्षण है। जो क्रोध को न जानकर क्रोध करता है वह अज्ञानी है।
- सबसे ज्यादा पश्चाताप करने वाला ज्ञानी होगा, सबसे ज्यादा दुखी ज्ञानी होगा, सबसे अधिक स्वनिंदा करने वाला ज्ञानी होगा क्योंकि यह मेरी अज्ञानता थी जो दूसरों की निंदा कर रहा था।
- ज्ञान को द्रव्य से पृथक् नहीं किया जा सकता। तब फिर किसी ने ज्ञान दे दिया तो उसकी प्रशंसा और किसी ने ज्ञान में बाधा डाल दी उसकी निंदा करना व्यर्थ है, मात्र भावों को विकल्पमय बनाना है।
- ज्ञेयों के द्वारा यदि ज्ञान में आकुलता हो जाती है तो वह छद्मस्थ का ज्ञान है ऐसा समझना और तीन लोक के संपूर्ण ज्ञेय जिसमें झलक जायें और आकुलता न हो फिर भी सुख का अनुभव करे वही केवलज्ञान है।
- ज्ञानी को शरीर संबंधी दर्द कोई दर्द नहीं पुद्गल के परिणमन का बोध मात्र है।
- जिस प्रकार चक्रवर्ती षट्खंड पर विजय प्राप्त करके भी रहता अयोध्या में ही है। इसी प्रकार हम भले ही द्रव्यों का ज्ञान प्राप्त कर लें, पर हमें जीव द्रव्य आत्मतत्व में ही रमण करना चाहिए।
- जल से बाहर आते ही जैसे मछली तड़फने लगती है इसी प्रकार ज्ञानी बाल जगत् में आते ही तड़फने लगता है। वह तो हमेशा तत्व के आनंद में ही डूबा रहता है।
- जैसे माँ अपने बेटे से अनुराग तो रखती है पर अपना कार्य करते वक्त उसे छोड़ देती है भूल जाती है ठीक इसी प्रकार ज्ञानी भी व्यवहार की क्रियायें करता तो है किन्तु अपनी ओर दृष्टि होते ही उसे भी भूल जाता है।
- इस लोक में अनंत जीव हैं और अनंतानंत पुद्गल द्रव्य। इन सबका इतिहास अनंत है भविष्य भी अनंत होगा, ऐसी स्थिति में यह संसारी प्राणी अपने सीमित क्षुद्र ज्ञान से जिसे नहीं पाता उसका विकल्प क्यों करता है? और जिसे जान लेता है उसका गर्व क्यों करता है?
- वह टार्च इसलिये सार्थक नहीं है क्योंकि इधर-उधर तो सबको प्रकाशित करती है पर जलाने वाले को नहीं ठीक इसी प्रकार वह ज्ञान भी ज्यादा सार्थक नहीं माना जाता जो पर पदार्थों की पहचान तो कराता है पर स्वयं की नहीं।
- ज्ञान, संयम में विशुद्धता तथा कर्म निर्जरा का कारण है, अगर ज्ञान होने के उपरांत भी यह सब न हो तो उसका होना न होना बराबर है।
- श्रुतज्ञान की सार्थकता तो तभी मानी जायेगी जब हेय-उपादेय की जानकारी प्राप्त कर हम हेय से बचने एवं उपादेय को ग्रहण करने का प्रयास करेंगे।
- श्रुतज्ञान होने के उपरांत ध्यान के द्वारा उस ज्ञान को ऊध्र्वगामी बनाया जाता है जिसके लिये महान् संयम साधना की आवश्यकता पड़ती है। अव्रती के वश का यह काम नहीं है।
- द्रव्यश्रुत एक चाबी की तरह है जिससे मोहरूपी ताले को खोला जा सकता है, किन्तु चाबी मिलने पर ताला खुल ही जाये ये बात नहीं है। उस चाबी का प्रयोग यदि हम किसी दूसरे ताले में करेंगे तो ताला कभी नहीं खुलेगा।
- श्रुतज्ञान के आँगन में अभव्य जीव ग्यारह (ग्यारह अंग) तो बजा सकता है परन्तु बारह बजे (शुद्ध ध्यान समाधि) की धूप का आनंद उसके जीवन में कभी नहीं आता।
- जिसने श्रुत को आत्मसात् नहीं किया वह ग्यारह अंग और नव पूर्व का पाठी होकर भी संसार में भटकता रहता है और जो श्रुत को आत्मसात् कर लेता है वह अन्तर्मुहूर्त में भी सर्वज्ञ बनकर संसार भ्रमण से सदा के लिये छूट जाता है। धन्य है भाव श्रुतज्ञान की महिमा जिसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता।
- ज्ञान में स्थिरता अनुभव की प्रौढ़ता से आती है। अनुभव हीन ज्ञान उस बछड़े की तरह है जो अपनी माँ के आगे उछलकूद करता है, छलांगें लगाता है किन्तु शीघ्र ही थककर मुँह नीचे किये अपनी माँ के पीछे हो जाता है और पुनः पुन: उछल-कूद करता है।
- जैसे सर्कस में दहाड़ता हुआ सिंह भी रिंग मास्टर को खा नहीं सकता ठीक उसी प्रकार सम्यक् द्रष्टि जीव का, दहाड़ते हुए कर्मरूपी सिंह भी कुछ अहित नहीं कर सकते, क्योंकि वह हमेशा सावधान रहता है।
- जिस व्यक्ति को निर्जरा तत्व के प्रति बहुमान है वह व्यक्ति सम्यक् द्रष्टि होकर आलसी बनकर घर में नहीं बैठेगा, पूजन की बेला नहीं टालेगा और यदि टालता है तो वह सम्यक् दर्शन का पोषक नहीं है।
- सम्यक् दर्शन के साथ अनंत राग का सद्भाव हो ही नहीं सकता क्योंकि अनंत राग अनंतानुबन्धी और मिथ्यात्व का प्रतीक है।
- सराग सम्यक् दर्शन के साथ चिन्तन का जन्म होता है किन्तु वीतराग सम्यक् दर्शन में चिंतन चेतन में लीन हो जाता है। सराग सम्यक् दर्शन में ज्ञान को सम्यक् माना जाता है जबकि वीतराग सम्यक् दर्शन में ज्ञान स्थिर हो जाता है।
- जिस व्यक्ति में साधमीं भाईयों के प्रति करुणा नहीं, वात्सल्य नहीं, कोई विनय नहीं वह मात्र सम्यक् द्रष्टि होने का दंभ कर सकता है, सम्यक् द्रष्टि नहीं बन सकता।
- सांसारिक अनेक पाप के कार्य करते हुए भोग को निर्जरा का कारण कहना और भगवान की पूजन-दानादि क्रियाओं को मात्र बंध का कारण बतलाना यह सारा का सारा जैनसिद्धांत का अपलाप है।
- जो व्यक्ति बिल्कुल निर्विकार सम्यक् द्रष्टि बन चुका है और जिस व्यक्ति की द्रष्टि तत्व तक पहुँच गयी है, उसके सामने वह भोग सामग्री है ही नहीं, उसके सामने तो वह जड़ तत्व पड़ा है। उस व्यक्ति के लिये कहा गया है कि तू कहीं भी चला जा तेरे लिये सारा संसार ही निर्जरा का कारण बन जायेगा।
- सम्यक् द्रष्टि (वीतराग सम्यक् द्रष्टि) का भोग निर्जरा का कारण है ऐसा कहा गया है लेकिन ध्यान रखना भोग कभी निजरा का कारण नहीं हो सकता। यदि भोग निर्जरा का कारण हो जाये तो क्या त्याग बंध का कारण होगा?