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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • साधना 4 - ध्यान-समाधि

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    साधना 4 - ध्यान-समाधि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार

     

    1. मन की व्यग्रता रोकने का नाम ही ध्यान है।
    2. चिन्तन ध्यान नहीं ‘मन का व्यापार' है जबकि ध्यान तीनों योगों का पूर्ण विराम है।
    3. आत्मा का साक्षात्कार होना यह मात्र सम्यकज्ञान की बात नहीं है कितु साथ में सम्यकध्यान भी आवश्यक है।
    4. समीचीन उद्देश्य बनाने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है पर उसे पूर्ण करने के लिये ध्यान की आवश्यकता है।
    5. जिसका अशन (भोजन) और आसन पर नियन्त्रण है, वही ध्यान लगा सकता है।
    6. मंत्र के ज्ञान, पाठ, जाप और ध्यान इन सभी में बहुत अन्तर है। सिद्धि ध्यान से होती है।
    7. प्रवृत्ति-गत प्रमाद समितियों से और शुद्धात्मचलन रूप प्रमाद ध्यान से मिटाया जाता है।
    8. आत्मध्यान के लिये न एयरकण्डीशन (वातानुकूलित) की जरूरत है और न किसी कण्डीशन की जरूरत है।
    9. एयर कण्डीशन में ध्यान करने वालों की दु:ख के समय कण्डीशन (हालत) बिगड़ जाती है।
    10. जिस तरह रीढ़ को सीधा करना मात्र ध्यान नहीं है उसी तरह भीड़ जोड़ना मात्र भी ज्ञान नहीं है। ध्यान एक ऐसा प्रयोग है जिससे यह संसारी प्राणी भी ऊध्र्वगमन कर जाता है।
    11. ध्यान की बात करना और ध्यान से बात करना इन दोनों में बहुत अन्तर है। ध्यान के केन्द्र खोलने मात्र से ध्यान में केन्द्रित होना संभव नहीं।
    12. प्रदर्शन की क्रिया बहुत सरल है, देखा-देखी हो सकती है उसके लिये शारीरिक, शाब्दिक या बौद्धिक प्रयास पर्याप्त है किन्तु दर्शन के लिये ये तीनों गौण हैं, उसमें तो आध्यात्मिक तत्व प्रमुख है।
    13. जिस प्रकार विमान हवाई पट्टी के आधार से तीन चाकों के माध्यम से पहले दौड़ता है गति पकड़ता है और फिर आसमान में उड़ जाता है, ठीक इसी प्रकार हवाई पट्टी रूप दिगम्बरत्व के आधार से तीन चाकरूप रत्नत्रय को अंगीकार कर अभेद अखण्ड ध्यानाकाश में उड़ने का आनंद लिया जा सकता है।
    14. प्रतिदिन कम से कम पाँच मिनिट बैठकर ध्यान करो, सोचो जो दिख रहा है सो "मैं नहीं हूँ।" किन्तु जो देख रहा है सो "मैं हूँ"।
    15. तनरंजन और मनरंजन से परे निरंजन की बात करने वाले विरले ही लोग होते हैं।
    16. जिसको शिव की चिन्ता नहीं वह जीवित अवस्था में भी शव के समान है।
    17. यह पंचमकाल है इसमें विषयानुभूति बढ़ेगी, आत्मानुभूति घटेगी।
    18. वर्षों हो गये दशलक्षण मनाते हुए पर एक भी लक्षण जीवन में नहीं आया, यही तो हमारी विलक्षण बात है।
    19. ज्ञान को अप्रमत्त और शरीर को शून्य करने से ध्यान में एकाग्रता स्वयमेव आती है।
    20. आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है इसकी सही प्रयोगशाला समाधि की साधना है।
    21. विनय और वैयावृत्ति सीखे बिना हम किसी की सल्लेखना नहीं करा सकते।
    22. वैयावृत्ति अन्तरंग तप है उसे यदि कोई संयमी व्यक्ति करना चाहता है तो करे किन्तु असंयम से बचकर सावधानी पूर्वक निरवद्य करे।
    23. शल्यवान की सल्लेखना सफल नहीं हो पाती।
    24. आधि, व्याधि और उपाधि से परे स्वस्थ समाधि होती है।
    25. सल्लेखना जीवन से इंकार नहीं है और न ही मृत्यु से इंकार है अपितु उसमें महाजीवन की आशा है वह आत्महत्या नहीं है क्योंकि आत्महत्या में कषाय की तीव्रता एवं जीवन से निराशा रहती है।
    26. जिसने एकान्त में शयनासन का अभ्यास किया है वही निर्भीक होकर समाधि कर सकता है और करा भी सकता है क्योंकि एकान्त में बैठने से भय और निद्रा दोनों को जीता जा सकता है।
    27. बाहर आने पर भीतर से नाता टूट जाता है, जो भीतर की ओर दृष्टि रखता है वह धन्य है।
    28. 'मंत्र' जहाँ काम नहीं करता वहाँ ‘तंत्र' काम कर जाता है और बाहरी तंत्र जहाँ काम नहीं करता वहाँ भीतरी समाधितंत्र काम कर जाता है।
    29. प्रयोग का निग्रह पहले होता है, योग का बाद में।
    30. मुक्ति काल से नहीं बल्कि कारण के सम्पादन से होती है।
    31. संसार और शरीर के प्रति राग करना मुक्ति से मुख मोड़ना है किंतु वैराग्य भाव लाना मुक्ति से नाता जोड़ना है।
    32. निराकुलता जीवन में जितनी-जितनी आती जाये, आकुलता जितनी-जितनी कम होती जाये उतना-उतना मोक्ष आज भी है।
    33. चित्त की स्वस्थता के लिये चिंतन जरूरी है।
    34. अकेले चित्र का ही नहीं किन्तु चित्त का भी अनावरण करो।
    35. साधना की चरम सीमा ध्यान है, जिसे भीतरी एवं बाहरी वस्तुओं के त्याग करने पर होने वाली चित्त शुद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।
    36. पानी यदि रंगीन मटमैला है तो उसके अन्दर क्या पड़ा हुआ है? दिखाई नहीं देता और यदि पानी साफ-सुथरा भी हो किंतु हिल रहा हो, तरंगायित हो तब भी अन्दर क्या है? दिखाई नहीं देता अत: अन्दर झाँकने के लिये पानी का रंग और तरंग रहित होना जरूरी है। ठीक इसी प्रकार रंग (मोह) और तरंग (योग) के अभाव में ही अन्तरंग (आत्मतत्व) का दर्शन होता है।
    37. आनंद प्रवृति में नहीं निवृति में है। पंखों को फडफड़ाते हुए पक्षी आसमान में बहुत ऊपर पहुँच जाते हैं किन्तु बीच-बीच में वह पंखों को विश्राम देकर भी उड़ते रहते हैं इस बात से सिद्ध होता है कि आत्मा का उत्तम आनंद प्रवृत्ति में नहीं किन्तु प्रवृत्ति के निरोध रूप गुप्ति में है।
    38. मन सांसारिक विषय-कषायों में वैसे ही लगा रहता है किंतु आत्म-कल्याण में लग जाना वास्तविक ध्यान है। इसी हेतु एक-एक क्षण का उपयोग करने पर उसकी संसिद्धि हो जाती है।
    39. केवलज्ञान और मुक्ति में उतना ही अंतर है जितना १५ अगस्त और २६ जनवरी में। केवलज्ञान का होना स्वतंत्रता दिवस और मुक्ति का होना गणतन्त्र दिवस है।
    40. यह संसारी प्राणी किसी न किसी से अपेक्षा रखता ही है परन्तु अपेक्षा मात्र आत्मा की रही आवे और संसार से उपेक्षा हो जावे तो यह प्राणी मुक्त हो जाता है।

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