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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आज यह पर्व का सातवां दिन है जो तप की ओर इंगित कर रहा है। यह आप को बहुत भयानक दिख रहा है। यह अज्ञानी जीव इष्ट को अनिष्ट और अनिष्ट को इष्ट समझ रहा है। आचार्यों ने भी यही बताने की कोशिश की है कि प्रयोजन भूत तत्व क्या है ? और अप्रयोजनभूत तत्व क्या है ? महावीर भगवान् की वाणी में कोई त्रुटि नहीं है। प्रवक्ता के वचन में कुछ राग का मिश्रण तथा श्रोता के सुनने में उल्टा अर्थ समझ में आ रहा है। पर वीतराग वाणी में कहीं त्रुटि नहीं है। जिस प्रकार पारसमणि लोहे को सोना बनाने में समर्थ है पर यदि लोहे पर कपड़े या कागज का आवरण रखकर पारसमणि को स्पर्श करायें तो वह कभी भी सोना नहीं बनेगा। इसी प्रकार भगवान् की वीतराग वाणी जो राग-द्वेष से रहित है। आज तक हमारा कल्याण नहीं हो पाया, इसमें हमारी ही गलती है, वह सजनों के हित के लिए है, दुर्जनों के लिए नहीं क्योंकि दुर्जनों के पास कालुष्य है, वह घुल नहीं सकता, वह उल्टा ही अर्थ ले लेता है। जो गुणों को देखकर हृदय में आमोद प्रमोद अनुभव करते हैं, उनके लिए भगवान् नेता हैं। हम तप के द्वारा दुख का अनुभव करते हैं। हम आज तक समझे ही नहीं कि दुख क्या है और सुख क्या है? राग-द्वेष रूपी कालुष्य दुख का कारण और दुख रूप है, पाप रूप है। हमें नियम के अनुसार, बनाए हुए रास्ते के अनुसार ही चलना पड़ेगा, न कि नियम के विपरीत बने या चाल के अनुसार रास्ता बने पर जगत हित के लिए रास्ता नहीं बदला जा सकता। तप वीतरागमय है। वस्तु का वास्तविक अवलोकन उपसर्ग व परीषह के बिना नहीं हो सकता। तप को वही अपनाता है जो दुख का आह्वान करता है, दुख के बारे में खोज व अध्ययन करता है। हमें तप से डर है, इसी कारण हम सोचते हैं कि इतना धर्म करने पर भी कर्म पीछा नहीं छोड़ते हैं, हम डरपोक है। वीर लोग वीरत्व का अवलोकन वीरों में ही करते हैं कर्मों के उदय होने पर भी कहते हैं, वे कर्मों से, कि तू क्या कर सकता है ? वे कर्मों को पछाड़ देते हैं। आपको अपनी वीरता के बारे में ज्ञान ही नहीं है। जिनकी तप में आस्था नहीं है, तप में कष्ट समझते हैं, वे तीन काल में भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। कर्मों को भगाने के लिए अमोघ शस्त्र तप ही है। सम्यक दृष्टि के द्वारा किया गया १२ प्रकार का तप कर्मों की निर्जरा के लिए कारण है। सुख मिलेगा तो तप से ही, यह आस्था सम्यक दृष्टि में अटूट है। कर्म की बाढ़ भी आ जाये तो भी तप को परीषह से ऊँचा रखते हैं। परीषह कर्म के आधार पर होते हैं। उपसर्ग रहे और नहीं भी रहे। तपस्वी लोग सोए हुए, नहीं आए हुए कर्मों को भी बुलाते हैं। वे आए हुए कर्मों को परीषह को और बुलाए हुए कर्मों (उपसर्ग) को, वैरियों को सहन करते हैं। उनसे लड़कर विजय प्राप्त करते हैं। तप को साथी हमें बनाना होगा, तभी सुख की प्राप्ति होगी तभी मार्ग मिलेगा। दशलक्षण धर्म में ‘तप' एक प्रौढ़ धर्म है। इस तप के द्वारा अन्य धर्म में भी पास हो जाते है। तपाने के बाद ही सोने की परीक्षा होती है, वह सोना तभी अपने स्वभाविक गुणों को प्राप्त होता है। हेम पाषाण के समान यह आत्मा धूल के समान होने के कारण वास्तविकता को नहीं पा रहा है। इस आत्मा के साथ वर्तमान में कर्म लगा होने से इसका पूर्णरूपेण मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है, इसे तपाकर ही जाज्वल्यमान करना होगा, तप रूपी अग्नि से तपाना होगा। कर्म के साथ जुड़ी आत्मा को कर्म मल से दूर करने के लिए दुनियाँ में कोई रसायन नहीं है, सिवाय तप के। उपवास वही कहलाता है कि जब हम आत्मा के सन्निकट रहें। तभी वास्तविक तप है। इसी से कर्मों की निर्जरा होती है। इच्छा का अभाव ही तो वास्तविक तप है। भोजन का त्याग है, शरीर के द्वारा भोजन नहीं किया, पर चौबीस घंटे खाने की इच्छा रखी, वह तप नहीं इसका उल्टा पत यानि पतन है। वह उपवास नहीं लंघन है। खाने के त्याग के साथ-साथ उसकी जो लालसा है उसका त्याग होना चाहिए। जहाँ इच्छा नहीं है वहीं अनशन है। प्रायश्चित से आगे विनय, विनय से आगे स्वाध्याय, उससे भी आगे व्युत्सर्ग आदि है। बहिरंग तपों में अनशन जघन्य तप है। क्रम-क्रम से जो लिखा गया है। क्रम क्रम से अंगीकार करता हुआ ऊपर उठता है। अनशन से भी बढ़कर अवमौदर्य है। कम खाना ही अवमौदर्य है। हाथ में आया को छोड़ना, यही महान् टेढ़ी खीर है। भूख को रखते हुए उठ जाना इससे भी ऊपर वृत्तिपरिसंख्यान है, इसमें खाने की लालसा और घटा दी। भोजन मिले नहीं, इस इच्छा से नियम लेकर जाना। इससे भी ऊपर चौथे नम्बर पर रस परित्याग बताये, इसके द्वारा ही हम पुद्गल को पहचानते हैं। थोड़ा नमक कम होने पर परिणाम देखिये, आँख लाल कर देता है। रस के साथ यह आत्मा लगा हुआ है। इस रसनेंद्रिय के द्वारा ही पाँचों इन्द्रियाँ और मन पुष्ट होता है। वह बहुत महान् इन्द्रिय है, जब यह कंट्रोल में आती है तब पाँचों इन्द्रियाँ कंट्रोल में हो जाती है। अज्ञानी जीव रस पूर्ण चीजों को छोड़ना पसन्द नहीं करता परन्तु इस रस कंट्रोल से ही कर्मों की निर्जरा होती है। तप वृद्धि के लिए रस मिश्रित पदार्थ हानिकारक हैं। इससे निद्रा ज्यादा आती है, इन्द्रियाँ कंट्रोल छोड़ती है, ध्यान से च्युत होता है, तथा समाधि से विमुख हो जाता है। कहा भी है योगी स्वधाम तज बाहर भूल आता। सद्ध्यान से स्खलित हो अति कष्ट पाता ॥ तालाब से निकल बाहर मीन आता, होता दुखी, तड़पता, मर शीघ्र जाता ॥ सद्ध्यान से स्खलित होने पर कष्ट का अनुभव होता है। मद्य, मांस, मधु और रस से विहीन आहार लेना, तप की वृद्धि के लिए कारण है। ध्यान प्राप्त करने के लिए आहार लिया जाता है। इस रस त्याग से Double निर्जरा होती है। यह जीव अनादिकाल से इन ४ संज्ञाओं से दुखी हो रहा है। इसमें एक भय संज्ञा भी बताई है। मारने में भी मरने का भय बना हुआ है, इसलिए कोई कहे कि मारने में, शस्त्र रखने में तो निडर है सो यह बात नहीं। वहाँ भी डर है, विरोध में भी समता के साथ बैठे रहें इसी के उपरांत विवितशय्यासन तप बताया है। जहाँ एकांत में नींद नहीं लगती, वहीं मुनिराज तप करते हैं। उसके बाद कायोत्सर्ग जो महान् तप है, बताया है। इसमें गुप्ति पलती है, इसमें चर्या प्रधान मानी जाती है। संवर गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परीषह विजय और चारित्र के द्वारा होता है। इसमें कर्म की लड़ियाँ इस प्रकार टूटती है जिस प्रकार २४ घंटे प्रवृत्ति करने पर भी नहीं बन्धती। पुण्य वर्गणाओं का ज्यादा आना पाप वर्गणाओं के नाश होते समय ये भी निर्जरा है। अन्तरंग तप में ध्यान और बहिरंग तप में कायोत्सर्ग मुख्य रखा गया है। अनशन तो बहुत दूर रह गया है। खाने का लक्ष्य कर जो कायोत्सर्ग करता है उससे चित्त की प्रवृत्तियाँ चंचल होती है। कुतप के द्वारा तो संसार के अनेक पदार्थ प्राप्त कर लिए पर मुक्ति नहीं। सम्यक दर्शन युक्त तप ही समीचीन तप है। सुख दुख राग द्वेष युक्त आत्मा से है। अत: जिस प्रकार भगवान् महावीर ने तप को अपनाया है, आप भी उसे अपनाओ। उन सत् तपस्वियों के लिए मेरा शत-शत प्रणाम।
  2. आत्मा एक द्रव्य है और महान् शक्ति का धारक है, लेकिन अनादि काल से दूसरे के संयोग से स्वतंत्र नहीं रहा, इसकी अनंत शक्ति जघन्य अवस्था के रूप में परिणत हो चुकी है। अपनी आभा को पूर्णरूपेण प्रकाशित नहीं कर सकी है। देखने व जानने में ही इसकी शक्ति कमजोर हो गई है, ज्ञान शक्ति को पूर्णरूपेण प्रकाशित नहीं कर सकी। उस कमजोर मलिन आत्मा को जब कभी भी जानना या देखना होता है तो वह दूसरे की सहायता से देखना जानना चाहता है। स्वयं में इतनी लब्धि, पदार्थ होते हुए भी दूसरों की ओर देख रहा है। जिस प्रकार वकील के द्वारा नशीले पदार्थ का सेवन करने पर ज्ञान लुप्त हो जाता है, और नशा उतरने पर ज्ञान आ जाता है। इसी प्रकार दूसरे को पकड़ने से और उपयोग को काम में न लेने से यह जीव ज्ञान को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। आत्मा का ज्ञान किस रूप में परतंत्र है, और स्वतंत्र करने का क्या उपाय है ? पेट का ऑपरेशन करने पर बेहोशी का इंजेक्शन लगा देने से वेदना का अनुभव नहीं होता, वहाँ द्रव्येन्द्रिय सो गई। द्रव्येन्द्रिय के आधार पर भावेन्द्रिय काम करती है। ये स्पर्शन इन्द्रिय क्षायोपशमिक ज्ञान में मदद करती है। ज्ञान जो दूसरे के द्वारा है वह अज्ञान ही है। आँख चली जाने पर हम ऐसा कह देते हैं कि आँख चली गई। पर आँख जो है क्षायोपशमिक लब्धि है। द्रव्येन्द्रिय चली गई तभी ज्ञान में कमजोरी आ गई। लब्धि तो है पर उपयोग नहीं। बाहर की ओर जो शक्ति जा रही है, उसको रोकना संयम है। संयम का मतलब ज्ञान के ऊपर कंट्रोल। वह कंट्रोल सुलाकर नहीं, जीवित कर कंट्रोल। ध्यान जीवित व होश अवस्था में होता है। सोती अवस्था तो प्रमत-अवस्था है। सभी इन्द्रियों को काट डालो और ध्यान कर ली, यह धारणा गलत है, इससे तो पीड़ा जो हो रही थी वह लुप्त हो गई है, बाहर की ओर नहीं आ रही है। द्रव्येन्द्रिय संयम के अभाव में सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक आर्त और रौद्रध्यान तो है, पर धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान नहीं होता। मन को कंट्रोल करने रूप प्रशस्त ध्यान, पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्य को ही होता है। वह अपने आप में लवलीन हो जाता है। चिंता का निरोध-मन का विषय है, अन्य कोई भी नहीं। यह मोक्ष मार्ग की अपेक्षा से है। ज्ञान को काम में लेकर जो ध्यान है, वही वास्तविक ध्यान है। मादक पदार्थ का सेवन कर जो ध्यान है, वह ध्यान नहीं है। वहाँ संयम नहीं है। जब पाँचों इन्द्रियों पर कंट्रोल है, तब संयम का पालन होता है। मुनि व्रत धारण करके ज्ञान पर कंट्रोल, संयम पर कंट्रोल नहीं हुआ, इसी कारण मुक्ति नहीं हुई। जिस प्रकार टार्च में से प्रकाश निकलने का स्थान सूक्ष्म है, जब उसकी किरणें दूर तक फैलती जाती हैं वैसे वैसे कमजोर हो जाती हैं। अगर फैलाते नहीं और किरणों को केन्द्र पर रखते हैं, तो वह उसको जलाने में कारण हो जाती है उसी प्रकार जैसे-जैसे ज्ञान फैलता है वैसे-वैसे कमजोर होता जाता है। ज्ञान जब केन्द्र (ज्ञेय) पर स्थित हो जाता है, तब अनंत का ज्ञाता बन जाता है, कर्मों को जला देता है। मन पर कंट्रोल करने का तरीका यही है कि संयम को धारण कर लें। जिन्होंने द्रव्येन्द्रिय पर कंट्रोल किया है, भावेन्द्रिय पर नहीं, वह ज्यादा से ज्यादा नव ग्रैवेयक तक जा सकता है। कारण भावेन्द्रिय ज्ञानात्मक है, द्रव्येन्द्रिय ज्ञानात्मक नहीं है। द्रव्येन्द्रिय पर तो अज्ञानी भी कंट्रोल कर लेता है, पर भावेन्द्रिय पर कंट्रोल करने वाला ज्ञानी ही होता है। ज्ञानी वही है जिसने राग द्वेष को मिटा दिया है। द्रव्येन्द्रिय संयम वह है कि लड्डू को खाया तो नहीं पर स्वाद का त्याग नहीं किया। मुँह के लिए तो विश्राम मिल गया, पर मन को नहीं, इससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। द्रव्येन्द्रिय के साथ-साथ ज्ञान पर कंट्रोल हो तब ही मोक्ष संभव है। ज्ञान ही सुख दुख दे रहा है। उसके पास अलौकिक शक्ति है अगर वह विपरीत दिशा में चला जाये तो गड़े में पटक देता है। द्रव्येन्द्रिय कंट्रोल में है वर्तमान में तो त्याग है, पर भूत में भोगे को और भविष्य में भोगने का याद कर रहा है, वह स्वर्गीय संपदा को चाह रहा है, वह नरक में दुख और स्वर्ग में सुख (विषयों में सुख) मान रहा है, इसीलिए वर्तमान में त्याग कर रहा है, वह एक दृष्टि से बहिरंग, द्रव्य संयम है। दूसरों पर कंट्रोल है, स्वयं पर नहीं, ज्ञान पर कंट्रोल करो, ज्ञेय पर नहीं, तभी वह ऊपर जा सकता है। पूज्य पाद स्वामी ने समाधिशतक में कहा भी है संसर्ग पा अनल का नवनीत जैसा, नो कर्म पा पिघलता बुध ठीक वैसा। योगी रहे इसलिए उनसे सुदूर। एकांत में विपिन में निज में जरूर ॥ क्षायोपशमिक ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल को लेकर उस प्रकार पिघल जाता है, जिस प्रकार नवनीत उष्ण का संसर्ग पाकर पिघलता है। जहाँ भगवान् महावीर पहुँच गये हैं, उस रास्ते का नाम संयम है। द्रव्येन्द्रिय पौदूलिक और भावेन्द्रिय ज्ञानात्मक है। द्रव्य संयम दूसरों पर कंट्रोल और भाव संयम स्वयं पर कंट्रोल है। जिस समय अतिरेक होने लगता है, तब जो वास्तविक संयम के निकट होते है, वे अडिग रह जाते हैं, और जो मात्र द्रव्येन्द्रिय संयम को अपनाते हैं, वे पिघल जाते हैं, स्खलित हो जाते हैं, भ्रष्ट हो जाते हैं। कारण यही कि भावेन्द्रिय संयम पर लक्ष्य नहीं है। अन्दर की ओर जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनका अध्ययन, विचार वही कर सकता है, जो तत्व की ओर लक्ष्य रखता है। जहाँ मात्र दिखावा है, वहाँ द्रव्य संयम। जहाँ दिखाना ओझल होकर रहता है, वहाँ भाव संयम है। द्रव्य संयम में मान रहता है, भाव संयम में मान नहीं रहता। द्रव्य संयम एक प्रकार से ऊपर का फोटो है और भाव संयम अन्दर का एक्स-रे। वह अन्दर की कमी बताता है। मिथ्यादृष्टि भाव संयम को नहीं अपना सकता है। अत: अपने ऊपर कंट्रोल कर वास्तविक संयम को अपनाओ।
  3. आत्मतत्त्व विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जब तक आत्मा से कर्म नहीं छूटते तब तक वह देखने योग्य, अनुभवगम्य नहीं बन पाती। जैसी भावना शरीर के प्रति है वैसी ही आत्मा के प्रति हो जावे तो मनोभावना पूर्ण हो जावेगी। हमेशा हमारी दृष्टि वस्तुतत्व को पकड़ने वाली होनी चाहिए। आत्मतत्व की अनुभूति के लिए शब्दोच्चारण की आवश्यकता नहीं है। स्वरूप समझ लेने से अभिमान और दीनता समाप्त हो जाती है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप मुनि अर्हंत भगवान् भी नहीं हैं, सही शुद्ध स्वरूप तो सिद्ध भगवान् हैं। जो दिख रहा है यह आत्मा का स्वरूप नहीं है। मैं दिखता नहीं हूँ, देखने वाला आत्मा हूँ। परिस्थिति नहीं बल्कि वस्तुस्थिति देखना चाहिए। स्वरूप से वंचित होते हैं तभी हम कषाय करते हैं। स्वरूप की ओर दृष्टिपात करने से विराटता दिखायी देती है। उस आत्मतत्व के बारे में चिंतन करो, जिसमें हर्ष-विषाद नहीं होता जो कभी बिछुड़ता नहीं है। हम सभी अंधे हैं, आत्मतत्व के बारे में, वह इन चर्म-चक्षुओं से दिखाई नहीं देता। शरीर से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। अंदर की ओर, आत्मतत्व की ओर देखने से कुछ मिल सकता है। विराट स्वरूप सभी में विद्यमान है मात्र अंतस् की आँखें खोलने की आवश्यकता है। सुख, शांति स्वभाव की ओर आने से ही प्राप्त होगी, दुनियाँ को जानने की ललक छोड़ दो। स्वयं की चिकित्सा करने वाला ही सही डॉक्टर माना जाता है। अध्यात्म वाले किसी कंडीशन को नहीं स्वीकारते वह तो आत्माश्रित रहते हैं। अध्यात्म वही है कि जड़ वस्तु के प्रति मोह कम हो जावे। जिसे आत्मा की सम्पदा का ज्ञान हो जाता है, वह बाह्य सम्पदा को धूल के समान समझ कर छोड़ देता है। यह आत्मा अनंत शक्ति का धारक है, यह एक सूत्र जीवन में ग्रहण कर लो। राग के उजाले में राग की लौ में यह आत्मा रूपी पतंगा जल रहा है। यह संसारी प्राणी पतंगा की भांति भोगों के लिए अपनी आत्मा की आहूति देता रहता है। पतंगा बार-बार उसमें झुलस जाता है। मरण सम्मुख है फिर भी अगले भव की नहीं सोचता है। ज्ञान, दर्शन, जानना, देखना ही मात्र आत्मा का काम है, इससे हटकर और कोई काम नहीं। सही जीवन वही है जो देहातीत होता है। अपने संवेदन के लिए अपने ही आत्म घर की ओर लौटना होता है। तत्व दृष्टि हमेशा-हमेशा गंभीर हुआ करती है, इससे सारे तूफान शान्त हो जाते हैं, स्थिर दृष्टि वाला पैर लड़खड़ाने पर भी कभी गिरता नहीं है। तत्व चिंतन से कभी भी प्रमाद पास नहीं आता। स्व को पहचानना कठिन होता है, क्योंकि वह चर्म-चक्षुओं से दिखाई नहीं देता। स्व की पहचान से जो दिख रहा है, उससे आकर्षण समाप्त होता है और स्व तत्व मिल जाता है। श्रद्धान के साथ चेतन को जागृत करना होगा, क्योंकि चेतन की धारा भीतर से फूटती है बाहर से नहीं। जिसका हमें संवेदन होता है, वही अपना है बाकी सब सपना है। स्व के संवेदन के समय शारीरिक, मानसिक वेदना कम हो जाती है। चेतना की विराटता के बारे में जिसे संवेदन होने लगता है उसे और कुछ अपेक्षा नहीं रहती। लौह के साथ जैसे अग्नि की पिटाई हो जाती है, वैसे ही इस देह की सौबत में आत्मा की पिटाई हो जाती है। शरीर और आत्मा का अभेद सम्बन्ध हल्दी चूना जैसा है। मुनिराज आत्मा की बात ही नहीं करते बल्कि आत्मा से बात भी करते हैं। लौटने का नाम अध्यात्म है, भागने का नाम ज्ञान है। ज्ञान के साथ इच्छा जुड़ी है। जानने का नाम ज्ञान नहीं बल्कि विशेष जानने का नाम ज्ञान है। अध्यात्म हृदय का काम है, दर्शन मस्तिष्क का कार्य है। अध्यात्म में जीने का काम होता है और दर्शन में मात्र देखने का काम होता है। अध्यात्म में निकट से निकट का संवेदन होता है, जबकि दर्शन में मात्र बाह्य जड़ वस्तुओं में घूमने की बात होती है। दर्शन में स्वाद नहीं आता वह तो मात्र LABEL जैसा है। जिनवाणी का सार शुद्धात्म तत्व है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद रागद्वेष से युक्त आत्म तत्व को विभक्त कीजिये। मोह को कम करते जाओ भीतर आत्म तत्व प्राप्त हो जावेगा। संसार में सबसे महत्वपूर्ण तो आत्म श्रद्धान है इसी में आनंद का अनुभव होता है। आप अपने को अपने आईने में देख लो। अपने श्रद्धान के लिए किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं क्योंकि आत्मा संवेद्य भी है एवं संवेदक भी है। स्व को पहचानने वाला अपना विकास कर लेता है। अध्यात्म में सहानुभूति की नहीं बल्कि आत्मानुभूति की बात होती है। मोक्षमार्ग में आत्म विश्वास महत्वपूर्ण है, इसी के आधार पर अंक मिलते हैं। आत्मा के गुणधर्म अलौकिक हैं, अतुलनीय हैं, जिससे हम अनंतकाल से वंचित रहे हैं। राम नाम सत्य होने से पूर्व आत्मतत्व की बात सोचो। अध्यात्मनिष्ठ जीवन जीने से ही भारत सभी राष्ट्रों का गुरु माना जाता है। आज अध्यात्म इसलिए भूलते जा रहे हैं कि पश्चिमी हवा की ओर बढ़ रहे हैं। सारी समस्याओं का समाधान है, अपने आप का बोध होना। आत्मा से प्राप्त आनंद का स्वाद लेने वाला कर्मोदय जनित सुख-दुख का स्वाद नहीं लेता।
  4. आज का यह संयम दिन है। संयम का मतलब बंध जाना। व्रत-नियम में कानून में बंध जाना। हरेक क्षेत्र में संयम की बड़ी आवश्यकता है। बंधन जब तक टूटता नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है और जब तक बंधन (संयम) नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है। जिस प्रकार ऊंट के लिए नकेल, घोड़ों के लिए लगाम, मोटर के लिए ब्रेक की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनुष्य के लिए ब्रेक, बंधन, संयम की आवश्यकता है। कोई भी कार चाहे वह नई, सुन्दर हो, उसे ठीक रास्ते व ठीक गति से चलाने के साथ-साथ ब्रेक का प्रयोग भी करना पड़ेगा। नई कार की सुरक्षा के लिए भी इतने बंधन है। समय अनादि कालीन बंधनों को तोड़ने के लिए एक बंधन है। मनुष्य पर ब्रेक नहीं हो तो इससे ज्यादा खतरा और किसी से नहीं होता। जब संयम नहीं है और मस्तिष्क में विकार आ जाता है, तब वह किसी को सुखी नहीं बना सकता। ज्ञेय पर कन्ट्रोल की आवश्यकता नहीं है, पर ज्ञाता पर कंट्रोल की जरूरत है। हम दूसरे पदार्थों को कंट्रोल में रखकर व्यवस्था देख रहे हैं परन्तु अपने पर कंट्रोल नहीं चाहते। आचार्य कहते हैं कि समीचीन रूप से जो चलना, जानना है, आचरण करना है, उसका नाम संयम है। हमें अनादि काल से दुख का अनुभव करना पड़ रहा है, वह दूसरे पदार्थों के कारण से नहीं। संयम के अर्थ को आज तक हमने समझा ही नहीं है। संयम का अर्थ है प्राण और इन्द्रियों को कंट्रोल में रखना। जब ज्ञान धारा जानने की शक्ति को बिना कंट्रोल के छोड़ देते हैं, तभी दुख का अनुभव होता है। उपवास करना, रस छोड़ना आदि ही संयम नहीं है। हमें इस रहस्य को समझना है। आचार्यों ने कहा है कि- "समीतिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रिय परिहारस्संयमः"। जितने भी धर्मं, मत हुए हैं,सभी ने प्राण संयम के बारे में लिखा है। ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जीवों पर परस्पर उपकार करना लौकिक बात है। संकट का मिटाना ही उपकार का नाम है। संयम का अनुपालन सभी करते हैं परन्तु भगवान् महावीर की अहिंसा अलग है। उनका संयम सत् की ओर ले जाने वाला है। इन्द्रिय संयम का अर्थ इन्द्रिय ज्ञान पर कंट्रोल। आत्मा के क्षायोपशमिक ज्ञान पर कंट्रोल करना, अपने आप पर कंट्रोल करना। ज्ञान पर कंट्रोल टेढ़ी खीर है। आज हम इसीलिए फेल हो रहे हैं। हम प्राणी संयम को तो धारण कर लेते हैं पर इन्द्रिय संयम को नहीं करते। कषायों का त्याग भी इन्द्रिय से मन के उपरान्त ही होता है। वास्तविक संयम, इन्द्रियों का दमन सत् की ओर ले जाता है। अपने आप में विवेक की ज्ञान की आवश्यकता है। यह संयमरूपी बंधन निर्वाण के लिए कारण है। मुक्ति में कारण है। जिस प्रकार कुंए में गिरा हुआ व्यक्ति बाहर निकलना चाहता है, तब बाहर निकालने वाला व्यक्ति उससे कहता है कि कमर में रस्सी बाँधो तब ही बाहर निकल सकते हो। वह रस्सी बाँधता है, तब ही वह बाहर निकलता है, बाहर निकलने के बाद रस्सी को भी खोल देता है। अगर पहले रस्सी नहीं बाँधे तो कुंए में से नहीं निकल सकता और अगर कुंए में से निकलने के बाद भी अगर बाँधे रहे तो उसे सब मूर्ख कहेंगे और वह बाहर का आनन्द नहीं ले सकेगा। इसी प्रकार पहले संयम रूपी बंधन मुक्ति के लिए आवश्यक है, बाद में उसको भी तोड़ देना। एक बन्धन तो माध्यम होता है और एक बन्धन संसार का कारण है। संयम रूपी बंधन अपने आप पर कंट्रोल, सुख के लिए कारण है। हम मात्र दुनियाँ जो कहती है, उसी को अपना रहे हैं। लोग विचारते हैं परिग्रह अपने पास नहीं रखना पर मन में रखना, ये कैसा पागलपन है। कहा भी है - जो अन्य का परिचयी, निज का नहीं है। होता सुखी न वह चूंकि परिग्रही है ॥ जो बार-बार पर को लख फूलता है। संसार में भटकता, वह भूलता है ॥ मात्र प्राणी संयम को अपनाने वाला मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकता है। कहा है ‘जयति इंद्रियानि आत्मानं च इति जिन:' यानि जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया है वही जिन हैं, उनकी उपासना करने वाले जैन है। पंचेन्द्रिय विषय तो बिखरे पड़े हैं। जहाँ ६ प्रकार के द्रव्य हैं, वहीं लोक है, इस लोक में इतने पदार्थ भरे हैं कि वहाँ सुई रखने को भी जगह नहीं है। आप उन पदार्थों से कैसे बचोगे ? उन पदार्थों को भोगने की चेष्टा न करें। कोई भी कार्य अगर अनुचित लगता है तो स्थान से स्थानान्तर चले जाना। मना करना तो द्वेष का प्रतीक है। उचित-अनुचित न समझते हुए अपने आप में रम जाना तो सबसे उत्तम संयम है। रस लेना बाहर से यही संयम का अभाव है। जिस प्रकार खीर खाना कठिन है, उससे भी ज्यादा कठिन संयम है। जो तत्व की ओर जाता है, वही धारण कर सकता है। ज्ञेय को अपने अन्दर मत रखो, पर इन्द्रियों को रखो। स्वच्छंदवृत्ति का नाम संयम नहीं है। दया का मतलब प्राणी संयम और दमन का मतलब इन्द्रिय संयम है। इन्द्रियों का दमन करने वाला फल को इष्ट नहीं मानता। जो इष्ट नहीं मानता, वही कषाय का दमन करता है, वही ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को नष्ट करता है। वह वहाँ जाकर विश्राम लेगा, जहाँ निजधाम है। जो इन्द्रिय दमन को छोड़कर आत्मानुभूति की चेष्टा करता है, वह अनधिकृत चेष्टा है। द्रव्य संयम का ही अनुपालक कभी भी उस सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। कषाय त्याग के बिना समाधि की निष्ठा नहीं हो सकती है। पहले दया फिर दमन है। अन्य मतों में एक उच्छंखलता नहीं मिटती। राग द्वेष इन्द्रियों की लालसा स्व है, पर स्व होकर भी मिट सकती है, क्योंकि ये स्व भी दूसरों के सम्बन्ध से है, ये क्षणिक है, इन्हें मिटा सकते हैं, वीतरागता के द्वारा। ज्ञेय ज्ञान की दृष्टि से झुकना और पकड़ने की दृष्टि से झुकना, ये दोनों अलग है। वैषयिक दृष्टि से झुकना-राग द्वेष है। हम अनंत बार जैन धर्म अंगीकार कर, मुनिव्रतों को धार कर नव ग्रैवेयक तक पहुँच गये हैं, पर वह मात्र प्राणि संयम को ही अपनाया है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो इन्द्रिय दमन करता है, वही इन्द्रिय संयम है। महावीर को पहचानने वाले जीव अनोखे, सत्य की खोज में होते हैं। जो दूसरों को पकड़ने की चेष्टा करता हुआ संयम पालन करता है, वह खतरे की चेष्टा है। अपने को पकड़ने की चेष्टा करो। बारबार आप विचार करो कि क्यों बार बार पकड़ने की इच्छाएँ हो रही है, कामना हो रही है। ये विचार ही संयम को धारण करा सकते हैं। क्या हो गया समझ में मुझको न आता, क्यों बार बार मन बाहर दौड़ जाता। स्वाध्याय ध्यान करके मन रोध पाता, पे श्वान-सा मन सदा मल शोध लाता। मैं ध्यान भी कर रहा हूँ, जाप भी कर रहा हूँ। फिर भी यह मन बाहर क्यों जा रहा है, मन को बाहर जाने से भी मैं रोक रहा हूँ। मन तो बहुत चंचल है। कितना चंचल है ? इस बारे में पूछने पर बताया है कि पहले तो बन्दर को देखो, फिर समझो कि वह पागल हो गया, फिर उसके एक पांव में बिच्छू काट खाया, फिर उसके पूँछ में आग लग गई। आप विचार करो कि पहले तो बन्दर स्वयं कितना चंचल, फिर पागल होने, बिच्छू को काटने व पूँछ में आग लगने पर वह कितना चंचल होगा! उससे भी कई गुना ज्यादा यह मन चंचल है। फिर अगर यह बाहर जाता है तो पुरुषार्थ करो रोकने का। भगवान् महावीर जो इतने पुरुषार्थी थे उनको भी १२ साल लग गये। उनका भी मन एक मिनट अन्दर रहता तो दो मिनट बाहर जाता। तब हम तो इतने कमजोर हैं, हमको तो बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। हमको उदास होकर नहीं बैठना है, फिर पुरुषार्थ करना है। संयम को धारण करना है।
  5. आत्महित विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार ‘"आत्महित" की तरंगें हमारे जीवन में आज तक नहीं उठीं, यदि अब उठ रहीं हों तो समझना यह एक अभूतपूर्व घटना है। आत्महित चाहने वाले को विषय-कषायों से हमेशा बचना चाहिए, संसार में सबसे बड़ा हित यदि कोई है तो वह है "आत्महित"। जो आत्महित नहीं कर सकता वह पर का हित भी नहीं कर सकता। परहित में लगा हुआ व्यक्ति स्वहित में लगा है ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि परोपकार से भी स्वोपकार होता है।
  6. आज पर्व का पंचम दिन है। आचार्यों ने धर्म की परिभाषा कई प्रकार से की है। रत्नत्रय को भी धर्म कहा है, कहीं 'अहिंसा परमो धर्म:' और कहीं ‘वत्थु सहावी धम्मो'। आज हम सत्य के बारे में कुछ खोज करें। सत्य का मतलब वह जो सन्तोष दिलावे। सत्य के सन्निकट जाने वाला व्यक्ति उस प्रकार अनुभव करे, जिस प्रकार प्यासा व्यक्ति पानी का स्थान जानकर अनुभव करता है। यद्यपि पानी की प्राप्ति हुई नहीं है, पर वह यह अनुभव कर लेता है कि अब प्यास ज्यादा देर तक नहीं रहेगी। सत्य जहाँ है, वहाँ आनन्द के अनुभव का पार नहीं है, सभी चिन्ताएँ आकुलताएँ समाप्त हो जाती हैं। हम सुखेच्छु हैं और चाहते हैं कि दुख का अभाव हो। साधक को सत्य के बारे में मालूम हो जाता है तो वह अपने आपको धन्य समझने लगता है। जहाँ सत् है वहीं सत्य है। जहाँ सत्य है, वहाँ सभी सुख विद्यमान हैं। जहाँ सुख है, वहीं पर सत्य है। रात दिन पल-पल सत्य का अवलोकन करने वाले योगी राज होते हैं। सत्य इस मनुष्य का केन्द्र बनना चाहिए। पंखे पर किनारे में रखी वस्तु इधर उधर गिर जाएगी और केन्द्र में (बीच में) रखी स्थिर रहेगी। सत्य तीन भागों में विभक्त है उत्पाद, व्यय, श्रीव्य के रूप में ‘उत्पादव्ययश्रीव्ययुक्सत्। तीनों मिलकर सत् है। आप चाहते हैं वर्तमान काल बना रहे, यह तीन काल में नहीं हो सकता। आप के पास दस लाख रुपया है आप उसको स्थिर रखना चाहते हैं, यही चेष्टा दुख का कारण है। कहा है- आकाश सदृश विशाल, विशुद्ध सत्ता, योगी उसे निरखते, वह बुद्धिमत्ता। सत्यं शिवं परम सुन्दर भी वही है, अन्यत्र, छोड़ उसको सुख ही नहीं है ॥ मनुष्य पर्याय बुलबुले के समान है, योगी उसके साथ-साथ मिटने का भी आनन्द लेते हैं। सत्य उत्पाद में भी है, व्यय में भी है और श्रौव्य में भी है। पर्याय में सुख नहीं है। पर्याय में जो उत्पत्ति हो रही है, उसमें सुख का अनुभव हो रहा है। प्राय: पुण्य का उदय आने पर मुख कमल खिल जाता है, जब असाता का उदय आता है, तब जैसे सूर्य का उदय न होने पर कमल मुरझा जाता है इसी प्रकार मुख मुरझा जाता है। दरिद्र हो जाता है। वह भूलता है कि- आता यदि उदय में वह कर्म साता, प्राय: त्वदीय मुख में सुख दर्प छाता। सिद्धान्त का इसलिए तुझको न ज्ञान। तू स्वप्न को समझता असली प्रमाण ॥ सत्य को अगर भूल जाओगे और मात्र उत्पाद या व्यय या श्रौव्य को पकड़ लोगे तो दुख का अनुभव करोगे। उषा काल के पीछे अंधेरी शाम भी आएगी। उषा बेला स्थिर नहीं रहेगी। सत्य रूप पर्याय जो उत्पन्न हुई है, वह सत् नहीं है ऐसा समझकर सुख मनायें। क्योंकि उत्पाद हुआ वह अपने समय पर ही व्यय होगा, समय पर ही श्रौव्य होगा, उसकी सुरक्षा उस द्रव्य के पास है। पर्याय को लेकर भटकना, भूलना, हर्ष विषाद का अनुभव करना सत् से दूर होना है। हर्ष-विषाद जहाँ है, वहाँ सत् नहीं है। सत् की पूजा करते हुए भी मांग करना, अपने को पीड़ित या दुखी समझना है। जो ऐसा नहीं कर रहा है, सिर्फ पूजा कर रहा है, निरख रहा है उसे ही सुख का लाभ होगा, वही सत्य का अवलोकन, खोज कर रहा है। दुनियादारी का प्राणी सत्य का अनुभव नहीं कर सकता है। जिन्होंने पुण्य व पाप दोनों को मिटा दिया है, वे सोने आदि को अंगीकार नहीं करते। जिसने सोने में आनन्द का अनुभव किया, उसका सोना मिटने पर वह रोता है, दुख का अनुभव करता है। कृपा को कृपाण के रूप में न लो क्योंकि कृपा में सत्य है पर कृपाण में असत्य है। ज्ञानी जीव कर्म के उदय में आयी भोग सामग्री को भी हेय समझता है, पैरों से ठुकराता है। वह कभी भी पूर्व में भोगे हुए को स्मरण में नहीं लाता है, भावी की आकांक्षा भी नहीं करता। वह सोचता है जो आया है, वह जायेगा, जो गया है वह आएगा नहीं और जो आएगा उसका पता नहीं है। हरेक व्यक्ति किसी न किसी पदार्थ में रम रहा है। जब प्राणी सत्यरूपी कुर्सी पर बैठ जाता है, तब हिलना-डुलना भी नहीं होता। जितना-जितना सत्य की खोज करेंगे, उतना-उतना आनंद आएगा। रूप, रस, गंध, वर्ण वाले पदार्थ में न सुख है, न दुख है। सोना तो पुद्गल है, उसे मिट्टी जानना वास्तविक सत्य है, उसे सोना जानना सत् को खोना है। आँखों के सामने जब सत् आ जाता है, तब पर्याय ओझल हो जाती है। राग द्वेष के साथ कोई भी व्यक्ति किसी भी पदार्थ की खोज कर उसके अंत स्थल तक नहीं पहुँच सकता। राग का प्रध्वंस होना, मिटना, तभी वीतरागता प्राप्त होती है। जिसका राग व्यतीत हो गया है, वही वीतरागी है। सुख बाहर से नहीं आता, जिसकी अपेक्षा की जाये वह तो स्वयं में प्रादुर्भुत होता है। उसे बाहर खोजना सत्य से दूर होना है। हर्ष विषाद का अनुभव सत्य से दूर ले जाता है। अत: हर्ष विषाद छोड़ो।
  7. आत्मा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आत्मा को उत्पन्न नहीं करना है, बल्कि उसमें जो अन्यथा भाव आ गया है, उसे हटाना है। आत्मा श्वांस-निश्वांस के माध्यम से शरीर से बाहर जाने को आतुर है, इससे सिद्ध होता है कि शरीर का बंधन "आत्मा" को पसंद नहीं है। तुम तो एक अरूपी आत्मा हो फिर बाह्य रूप से क्या ? स्वरूप को देखो। आत्मा कालजयी है वह मृत्यु को भी जीत लेती है। आत्मा ही अपना घर है, उसमें ही रहना चाहिए, इस जीव को दूसरे के घर (शरीर) में रहने की आदत पड़ गई है, इसलिए अपने घर में आने में कठिनाई जाती है। आत्म-वैभव के सामने दुनियाँ के वैभव वैसे ही हैं, जैसे रत्न के सामने तृण। जो आत्म वैभव से ही आकृष्ट होता है अन्य पदार्थों से नहीं, उसका सारा दुख समाप्त हो जाता है। आत्मा को प्रकाशित करने के लिए अन्य पदार्थ की आवश्यकता नहीं पड़ती, आत्मा स्वयं स्व-पर प्रकाशी है। आत्मा का ज्ञान हलुआ जैसा है, उसे हऊआ मत बनाओ। आत्मतत्व रूपी दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की कोई जरूरत नहीं पड़ती। इस आत्मवैभव पर एक बार विश्वास कर लो, फिर दुनियाँ का वैभव आपके चरणों में लोटने लगेगा। आत्मतत्व की ओर जाते ही संसारगत सारी बातें औपचारिक-सी लगने लगती हैं। आत्म सुख के सामने सभी दैहिक, मानसिक, शारीरिक, सुख कुछ भी मायना नहीं रखते। आत्मा की महिमा को दिखाया नहीं जा सकता, बल्कि देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है। बाह्य संसार को भूले बिना भीतर आत्मतत्व का सही आनंद नहीं आ सकता। शरीर की चिकित्सा करने वाला घृणा नहीं करता, ज्यादा बोल भी नहीं सकता, मन को अस्थिर नहीं कर सकता, इधर-उधर नहीं देख सकता, ठीक उसी प्रकार आत्मा की चिकित्सा करने वाले को भी इससे भी अधिक गुण अपनाना चाहिए। आत्मा हवा के समान है और शरीर गुब्बारा है, हवा के कारण गुब्बारे में हलन-चलन होती है। इस अपवित्र शरीर के लिए धिक्कार तो है ही, लेकिन उससे ज्यादा इस आत्मा को धिक्कार है, जो इस अपवित्र शरीर से मोह रखता है। स्पर्श, रूप, रस व गंध से रहित आत्म तत्व का चिंतन दुर्लभ है, उसका अनुभव तो और दुर्लभ है। आत्मतत्व में आसक्त व्यक्ति कभी शरीर में आसक्त नहीं हो सकता। आत्मस्थ होकर जो बैठ जाते हैं, उन्हें कर्म का उदय कुछ नहीं कर पाता, उदय में आकर झड़ जाता है और नूतन कर्म बंध नहीं होता। विपक्ष में रहते निश्चिंत रह नहीं सकते, हमेशा जागृत रहना पड़ता है, वैसे ही "आत्मा" में विपक्षी तत्व कर्म के रहते हमें शान्ति से नहीं बैठना चाहिए। आत्मा की शक्ति कर्मों की शक्ति से बलजोर है तो भव्य को पुरुषार्थ करना चाहिए। अंतरंग लक्ष्मी रूपी वैभव कोई लूट नहीं सकता, बाँट नहीं सकता, उस अनंत चतुष्टय रूपी लक्ष्मी के धनी जिनेन्द्र भगवान् हैं।
  8. धर्म करत संसार सुख धरम करत निर्वाण। धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यञ्च समान ॥ यह दोहा वास्तविक जो चाहने वाले हैं, मुक्ति पद रूप हैं। इस मनुष्य को क्या करना चाहिए, यह दोहा बता रहा है। सुन तो सभी प्राणी सकते हैं पर श्रवण के साथ उस पर मनुष्य ही चल सकते हैं। देशना मुख्य रूप से मनुष्य के लिए है। मनुष्य ही देशना के अनुसार अपने को ढाल सकते हैं। मनुष्य और मनुष्य का धर्म, ये समझना बड़ा कठिन है। मनुष्य शब्द के आगे एक शब्द जोड़ना है। मनुष्यत्व जोड़ दिया जाये तब मनुष्य का अर्थ हो जायेगा। मनुष्य का अर्थ मनुम् अनुसरोति इति मानवः। जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्यों के सुख सुविधा के लिए युग के आदि में जो व्यवस्था करते हैं, उन्हें मनु कहते हैं, उनके इंगित पर चलने वाले मनुष्य कहलाते हैं। हम कर्तव्य से स्खलित होते हुए विरुद्ध दिशा में दौड़ रहे हैं। आज शौच धर्म का दिन है। जहाँ शुचिता (पवित्रता) आ जाती है, वहाँ शौच धर्म आ जाता है। यह शौच धर्म लक्स, लाइफबाय आदि साबुनों, क्रीम पाउडर आदि के द्वारा नहीं आएगा। अनादिकाल से आत्मा अशुद्ध हो रही हैं। हमारे अन्दर क्या मल, गन्दगी है उसको हटाना है। आत्मा की शुचिता अलग हैं। एक हिसाब से तो शरीर में तो शुचिता आ ही नहीं सकती। शरीर को कैसे भी शुद्ध बनाओ तो भी वह अशुद्ध ही रहेगा। निरन्तर नव मल द्वार मुख्यत: बहते रहते हैं। जिसके पास जो है, वह वही तो प्राप्त कराएगा। इसके पास शुचिता है ही नहीं, तब शुचिता कैसे प्राप्त करेगा। आत्मा की जो गन्दगियाँ, विकृतियाँ हैं, उनको साफ करना है। अनादि से लोभ लगा हुआ है, उसी के कारण आत्मा अशुद्ध है। जो शौच धर्म से युक्त हैं, उसका अनुपालन करते हैं वे अपनी आत्मा को गन्दगी युक्त नहीं करते हैं, पवित्र रखते हैं। विषयों के बीच रहते हुए भी उसमें रचते-पचते नहीं हैं। जब आत्मा में राग द्वेष की प्रादुभूति होती है तभी वह शौच धर्म से दूर हो जाता है, चाहे वह साबुनों से स्नान कर ले, चाहे चन्दन से लेप कर ले। अज्ञानी जीव वास्तविक शुचिता व अशुचिता के बारे में नहीं जानते। अपने स्वभाव को छोड़कर अज्ञानी जीव अपने आप को अशुद्ध बना रहा है। हमें राग द्वेष को छोड़कर ध्यान करना है। ध्यान तो सब करते हैं। यह संसार ज्यों का त्यों बना रहे, यह अप्रशस्ता या कुध्यान कहा है। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान मोक्ष का कारण और संसार का विच्छेद करने वाले हैं। आर्त व रौद्र ध्यान संसार के कारण व मोक्ष से दूर करने वाले हैं। आपका ध्यान राग-द्वेष और मोह से युक्त है, जो कि संसार का कारण है। जो भी अपने वास्तविक स्वरूप में लवलीन लगा हुआ है तभी वह (Real) वास्तविक बन पाता है। वैराग्य की प्राप्ति के लिए शरीर की अशुचिता के बारे में बार-बार चिन्तन करना पड़ेगा। आपका अनुचिंतन शरीर की अशुचिता के बारे में न होकर शुचिता के बारे में है, साबुन, तैल, क्रीम, पाउडर इत्यादि से शुद्ध करने में है। आपको विचार करना है कि क्या हम इससे उसको शुद्ध बना सकते हैं? यह शरीर तो बिल्कुल अशुचि है, अपवित्र है। दुख रूप है, अनात्मक रूप है, ऐसा चिंतन करने से वैराग्य की प्राप्ति होती है। हम चक्षु के द्वारा आत्मा को नहीं देख सकते हैं। सम्यक दर्शन के द्वारा आत्मा जानी जाती है, देखी जाती है। शरीर की अशुचि के साथ आत्मा में जो कालिमा लगी है, उसके बारे में विचार नहीं करते हैं। विचार करने वाले विरले हैं। वास्तविक शरीर में अशुचि का अनुभव वही करता है जिसने अपने आपको पहचान लिया है। घृणा की चरम सीमा तब है जब दूसरों के साथ स्वयं भी नाक सिकुड़ने लग जाये। अशुचि अनुभव करें। आप बाहर अशुचि होने पर घृणा करने लगते हैं। शरीर के प्रति जो मोह है, वही आत्मा की अशुद्धि है, वही राग है। शरीर के प्रति प्रेम का अभाव, निरीहता होना वही शौच है। शरीर आत्मा के लिए कारागार है, हीन स्थानों को प्राप्त हुआ है। शरीर आत्मा के लिए बन्धन है। शरीर का मोह बन्धन को पुष्ट करता है। शरीर की गन्दगी को देखकर वास्तविक शौच धर्म का चिंतन हो सकता है। जन्म, जरा, मृत्यु का विनाश करने वाले वैद्य तो वास्तविक शौच धर्म का पालन करने वाले निग्रन्थ मुनि हैं। शरीर तो जड़ पदार्थ है, बिखरने वाला है। इसकी सुरक्षा के लिए इस प्रकार मोह नहीं करना चाहिए, इससे अनन्त संसार बढ़ जायेगा, वह अपने आपके प्रति निर्दयी बन जायेगा। शरीर के स्नान से आरम्भ परिग्रह हिंसा होती है, इसलिए मुनि शरीर का स्नान नहीं करते। वे हवा, धूप, वर्षा आदि से प्राकृतिक स्नान करते हैं। शरीर को जितना जितना शुद्ध करेंगे उतना शुचिता से दूर हो जाओगे। शरीर अशुचि है, आत्मा शुचि है। शरीर के प्रति मोहभाव है, इसलिए आत्मा अशुचि है।
  9. धर्म की व्याख्या आचार्यों ने बहुत ही अनूठी की है। आज आर्जव धर्म जो तीसरा धर्म है। ऋजोभावो आर्जव:। वक्रता का नाम धर्म नहीं है, अधर्म है। धर्म सीधा-साधा है वक्रता जो नहीं चाहते उसको प्राप्त करने वाला है। जो समय-समय पर विचार करते हैं, उनमें जब समीचीनता आ जाती है, तब ऋजुता आ जाती है। यह आभ्यन्तर की चीज है। जब धर्म आभ्यन्तर में उतरता है, तब आर्जवता का पालन होता है। मनुष्य की चाल सर्प के समान टेढ़ी चाल है। ऊपर से धर्मात्मा, पर अंतरंग से घुड़ियाँ, ग्रन्थियाँ निकालना मुश्किल है। जिस प्रकार बर्तन की सफाई ऊपर (बाहर) के साथ-साथ अन्दर की भी होती है। इसी प्रकार अन्दर की सफाई आर्जव धर्म के द्वारा होती है। सत्ता के बल पर अथवा डर के द्वारा शारीरिक, वाचनिक तथा मानसिक चेष्टा बदल सकती है पर अन्दर जो वक्रता है, वह दूर नहीं हो सकती है। आप अपने मन को टटोलो दूसरों को आर्जव के बारे में पूछने की आवश्यकता नहीं है। कुटिलता स्वपर अकल्याण-कारिणी है। कुटिलता का नाम कुशील व चोरी भी कहा है। हमारे विचारों में अन्तर नहीं है, पर आचारों में आ सकता है। जो पर है उसको अपना कहना, यही महान् वक्रता है, इसी को निकालने के लिए बार-बार धर्म आराधना की जरूरत है। धर्म बिल्कुल सरल व सीधा है। अपने आपको भूल कर दूसरों की ओर झुकना ही आत्मा की वक्रता है। झुकने का मतलब देखना नहीं, पकड़ना है। यही हमारी टेढ़ी चाल है, यही आत्मघात है, अधोपतन टेढ़ी चाल के द्वारा ही होता है। प्रवचनों का प्रभाव वक्रता पर नहीं पड़ता पर प्रवचनों को सुनने के बाद अन्तरंग में विचार उठे। जो आत्मा की चाल पहचान लेगा, वह टेढ़ी चाल [वक्रता] के द्वारा जीवन यापन करना ठीक नहीं समझेगा। चलना (परिणमन) तो हरेक पदार्थ का गुण है, धर्म है पर उल्टी ओर यह जीव क्यों परिणमन करे? संवर के लिए उत्कृष्ट साधन गुप्ति है, जब संवर होता है, तब जीव अपनी आत्मा का अनुभव करने लगता है। उसको उज्ज्वल बनाने में लगता है अपने परिणामों में आर्जवता लाने के लिए समीचीनता को लाना है। आर्जव दिखाने के लिए नहीं, संवर लाने के लिए है। यदि इन्द्रियों की लालसा बढ़ रही हो, दासता बनी हुई हो और आर्जव धर्म को अपनावे तो संवर नहीं हो सकता है। इन्द्रिय कषाय संज्ञा निग्रह से ही संवर की प्राप्ति की कोशिश नहीं हो सकती। आपने कुछ दिन पूर्व रोट तीज मनाई। मैं तीज को मुक्ति का बीज मानता हूँ और आप भक्ति का बीज मानते हो। उपवास करने में, धारणा में पारणा के विचार ही चलते हैं। यह इन्द्रिय पोषण संवर की ओर न ले जाकर आस्रव की ओर ले जाता है। जब शरीर शुष्क हो तभी इन्द्रिय शुष्क होती है और जब इन्द्रियां शुष्क होती है, तब आत्मा पुष्ट, हरी भरी, उल्हासपूर्ण होती है। २४ घंटे इन्द्रियों का पोषण, विषयों का संपोषण हो रहा है। माया सभी के पीछे छाया के समान पड़ी है। शरीर को साध्य नहीं, सिर्फ साधन [माध्यम] समझिये। पुरुषार्थ के बल पर ही धन का उपार्जन हो, यह बात नहीं, उपादान निमित्त भी है। गरीब को अमीर कह दो तो आँखों में अलग ही लहर आ जाएगी, लेकिन अमीर वही है जो संवर तत्व को प्राप्त कर रहा है। साहूकार ऊपर उठता है और दूसरों को ऊपर उठाता है और चोर शोर मचाता है वह खुद तो डूबता नहीं है, दूसरों को डुबाता है। आज आप सब चोर बने हुए हैं, साहूकार सिर्फ जिनेन्द्र भगवान हैं। आज दाम के पीछे चलता है सारा काम। नाम को, शरीर को स्थिर रखने के लिए इतने अनर्थ हो रहे हैं, वक्रता का कितना प्रभाव है। आर्जव धर्म शरीराश्रित नहीं है, आत्माश्रित (भावाश्रित) है। यह भावों पर चलता है। आज हरेक क्षेत्र में, हरेक चीज में मिश्रण तो हो रहा है। व्यवहार के लिये आचार्यों ने अर्थ का उपार्जन तो कहा है, पर अर्थ का संग्रह नहीं। लक्ष्य अर्थ का संग्रह नहीं पर गुणों का संग्रह है। अर्थ सिर्फ जीवन यापन के लिए होता है। धर्म में राग-द्वेष, अनाचार, अत्याचार के लिए जगह नहीं है। आर्जव का मतलब सीधापन, सरलपन है। जिसका जीवन वक्रता में है वह सरलता को भी गरलता में ही ग्रहण करेगा। अच्छाई को बुराई के रूप में जो अंगीकार करता है वही वक्रता को धारण करता है। इसको हटाकर अपने जीवन को आजवमय बनाओ। आचरण में सम्यक्त्व का प्रभाव लाओ।
  10. आस्था विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आस्था के बल पर अंजनचोर भी निरंजन बन गया, आप भी इस मार्ग (मोक्ष) पर "आस्था" रखो, निरंजन बनने में फिर देर न लगेगी। आस्था की अभिव्यक्ति हम चारित्र के माध्यम से ही कर सकते हैं। आस्था डगमगाने से ही डर लगता है, आस्थावान तो निर्भीक होता है। आस्था के बाद रास्ते पर चलने की बात होती है, बीच में नास्ता की माँग नहीं। मोक्षमार्ग में आस्था ही ब्याना है, उसके बिना रत्नों की खरीदी नहीं होती, रत्नत्रय प्राप्त नहीं होता। आस्था की धरती पर ही चारित्र का महाप्रासाद खड़ा होता है। चारित्र को आस्था, धारणा के माध्यम से बल मिलता है। मोक्षमार्ग में कुछ जबरन थोपना नहीं होता बल्कि अंतरंग से स्वीकारना होता है, इसी अंतरंग स्वीकृति का नाम आस्था है। आस्था के माध्यम से मार्ग की पहचान हो जाती है, जब आस्था के माध्यम से मार्ग की पहचान हो जाती है तो फिर मार्ग एकदम सीधा हो जाता है। वृक्ष का छायादार तना मूल पर ही आधारित है - पेड़ में ऊपरी अस्थिरता भले हो लेकिन मूल में कोई भी अस्थिरता नहीं रहती। आस्था के कारण ही क्रिया, चारित्र बन जाती है और चरण पूज्य बन जाते हैं। आस्था को शुद्ध निर्मल तेल की तरह बनाये रखो फिर आपके पास में अंधेरा आ ही नहीं सकता | अवस्था न होते हुए भी आस्था से व्यवस्था करते जाना चाहिए। आस्था में किसी काल में अंतर नहीं होता। विश्वास (आस्था) के माध्यम से हम मूल स्वरूप तक पहुँच जाते हैं। श्रद्धा की आँख से देखो तो वीतराग प्रभु दिखते हैं और ज्ञान के माध्यम से देखो तो हम प्रभु से भी बड़े दिखते हैं। आस्था बहन है और ज्ञान उसका भाई है। बड़ी बहन से छोटा भाई माना जाता है। भाई का महत्व बहन से बढ़ जाता है। ज्ञान और चारित्र को बढ़ाने वाली होती है-आस्था। रास्ता चलने के लिए आस्था की आवश्यकता है, दिमाग की नहीं। आस्था एक-सी रहती है, विचारों में भेद-भिन्नता रहती है। विचारों की तरंगें आस्था को क्षति पहुँचाने में कारण बनती हैं लेकिन सही आस्था वही है जो इन विचारों की तरंगों से प्रभावित नहीं होती। सपनों को साकार बनाने के लिए आस्था मजबूत बनानी पड़ती है। ज्ञान से, चारित्र से पेट नहीं भरता, आस्था के बिना भूख नहीं मिटती। भाव प्रत्यय से ही यात्रा पूर्ण होती है। जैनदर्शन में जानने से पूर्व मानने की बात कही गयी है, इसी का नाम आस्था है। साधना श्रद्धा के माध्यम से आगे बढ़ती है। सही-सही श्रद्धान आचरण के बाद बनता है। आस्था के बिना जीवन में विकल्पात्मक प्रश्न हल नहीं किये जा सकते। प्रयोग के बिना आस्था को मूर्तरूप प्राप्त नहीं होता। अपनी शक्ति पर विश्वास रखो, अपने आप उत्साह जागृत हो जाता है। श्रद्धान जिस पर है, उस पर प्रयोग करो, डरो मत, अच्छे ढंग से कदम रखिये पीछे की बात भूल जाइए। यह श्रद्धान (आस्था) वह धरती है, जिस पर मोक्ष महल खड़ा होता है। विश्वास का महत्व होता है मोक्षमार्ग में ज्ञान का नहीं, परख को नहीं विश्वास को महत्व दिया जाता है। मोक्षमार्गी में श्वांस-श्वांस में विश्वास भरा होता है। विश्वास के अभाव में श्रेय और वात्सल्य समाप्त होता जा रहा है। क्षमता व संकल्प श्रद्धान पर आधारित रहते हैं। धर्म पर एक बार श्रद्धान हो जाता है तो सागर के स्थान पर चुल्लु भर संसार रह जाता है। जहाँ श्रद्धान बना रहता है वहाँ थकावट का अनुभव नहीं होता। विश्वास के माध्यम से हम मूल स्वरूप तक पहुँच जाते हैं। अकेले आये थे, अकेले जाना है, यह तो याद रखते हैं पर कर्म साथ लाये थे और कर्म साथ ले जाओगे यह श्रद्धान भी मजबूत रखना चाहिए। आस्थावान ही इन धर्मक्षेत्रों को सुरक्षित रख सकता है।
  11. आज धर्म को हम मार्दव के रूप में पायेंगे। जिसके द्वारा यह प्राणी दुख को निवृत्त कर सुख प्राप्त कर ले, वही धर्म है। मार्दव शारीरिक चेष्टा का नाम नहीं है मार्दव का मतलब कोमलता, ऋजुता का भाव है। मान कषाय का अभाव होने पर मार्दव गुण पैदा होता है। चार गतियों में चार कषायों की बहुलता है। क्रोध की बहुलता नरक में, लोभ की बहुलता देव गति में, वहाँ भोगों की सीमा नहीं है, संतोष भाव नहीं है। पशु पक्षी (तिर्यच) जिनके योगों की वक्रता होती है, चाल टेढ़ी होती है, मायाचारी चरम सीमा पर तिर्यचगति में है और मान कषाय की बहुलता मनुष्य गति में है। मान ऐसा जहर है, ऐसी विकृति है, जिसके पीछे घर-बार, खाना, पीना यहाँ तक कि देश धर्म सब कुछ छोड़ देता है। परिग्रह संज्ञा के पीछे तो परिग्रह का संग्रह हो गया और मान-कषाय के पीछे त्याग (दान) होगा। मान का प्रादुर्भाव कुल मद, जाति मद, विद्या मद, तप मद इत्यादि आठ मदों द्वारा होता है। आय के बढ़ने के साथ-साथ मान कषाय भी बढ़ती है। जब हम धार्मिक क्षेत्र में भी प्रवेश करते हैं, तो भी मान को लेकर चलते हैं। आज हमें मार्दव धर्म के बारे में सोचना है। मार्दव निजी (स्व की) चीज है। मान पर है, यह दूसरे को (पड़ोसी को) देखकर खड़ा होता है। जैसे कहा है कि Other is Hell, हमारे आचार्यों ने भी कहा है कि दूसरे को पकड़ना दुख है। मान निजी वस्तु को लेकर नहीं होता है। मार्दव धर्म ‘स्व” की ओर इंगित करता है, जिसमें बहुत कोमलता है, फूल से भी ज्यादा कोमलता। मार्दव को चिमटा आदि से, आँख-नाक-कान आदि से नहीं पकड़ सकते हैं। यह स्व की चीज है। इसे पर से नहीं पकड़ सकते। दूसरे को पकड़ने की जो चेष्टा है, वह दुख है, नरक है। अपनी चीज को पकड़ने की आवश्यकता ही नहीं है। पकड़ना पर को पड़ता है। इसी कारण अपने स्वरूप को नहीं पहचान पा रहे हैं। जहाँ वात्सल्य, प्रेम हृदय में हो उसके पास भले ही ऊँचा सर वाला आ जाये पर हृदय से ऊपर नहीं हो सकता। मान विनिमान तोलने में आते हैं। जो चीज तोलने में आती है उसका कोई मूल्य नहीं है। ऊँचे सिंहासन पर बैठने में पूज्यता प्राप्त नहीं होती बल्कि पूज्यता, पवित्रता, पावनता मात्र गुणों के विकास में, रत्नत्रय को धारण करने में है। मान सम्मान जो कर रहा है, वह अन्दर की ओर, अमूर्त की तरफ नहीं देख रहा है। जिसके पास तत्व ज्ञान नहीं है वह एक प्रकार से अन्धा ही है। वीतरागता, निरभिमानता एक अनोखी चीज है। पूजा करने वाले और घात करने वाले दोनों के प्रति जो समता रखता है वह सम्यक दर्शन की भूमिका तक पहुँचने लगता है। निरभिमानता आत्मा का स्वभाव है। मान तो आत्मा को तोलने वाला तराजू है। आत्मा की कीमत कोई आंक नहीं सकता है। जहाँ क्रोध है, वहाँ मान भी है। मानी बनना आत्मा के लिए खतरा है। रग रग से करुणा झरे दुखी जनों को देख। चिर रिपु लख ना नयन में, आये रुधिर की रेख ॥
  12. मोह नींद में सोये हुए संसारी जीवों के लिए यह महान् पर्व पाठ दे रहा है। अगर ये दस दिन ३६५ दिन में से व्यर्थ चले जाते हैं, तो पूरा साल व्यर्थ चला जाता है। दुनियाँ की कोई भी शक्ति आध्यात्म तक नहीं पहुँचा सकती है। पूर्व संस्कार के वश कोई कवि, विद्वान् बन सकता है, पर आत्मानुभवी नहीं हो सकता है, क्योंकि पूर्व में आत्मानुभूति की ही नहीं। आत्मा का अनुभव (Practical) करने पर होता है। ये दस दिन शिक्षा के लिए नहीं हैं, दीक्षा के लिए हैं। इन दस दिनों में दीक्षा लेने का अभ्यास होता है। दीक्षा में मात्र अनुभव की बातें आती हैं। मात्र आत्मचिंतन करना होता है। इस पयुर्षण पर्व में संसार के मूल कारण आठ कर्म छूट जाते हैं, टूट जाते हैं, भस्म हो जाते हैं, कहा भी है - पर्वराज यह आ गया, चला जायेगा काल। परन्तु कुछ भी ना मिला, टेढ़ी हमारी चाल ॥ हमारी चाल टेढ़ी है, पर्वराज न आता है, न जाता है। हम चले जा रहे हैं। हमको सांसारिक सम्बन्धों से छुट्टी लेनी है, परिश्रम से नहीं। व्यवहार की दृष्टि से क्षमा धर्म के लिए आज का दिन नियुक्त किया है आचार्यों ने क्षमा धर्म की बड़ी महत्ता बताई है। इसमें एक पैसा भी नहीं लगता है। कहा है कि करोड़ नारियल चढ़ाने में जितना फल मिलता है, उतना फल एक स्तुति करने में मिलता है, और जितना फल करोड़ स्तुति करने से मिलता है, उतना एक बार जाप करने से मिलता है, जितना फल करोड़ जाप करने से मिलता है, उतना फल एक बार मन, वचन, काय को एकाग्रकर ध्यान करने से होता है। मात्र परिणाम की विशेषता है। शारीरिक, वाचनिक, मानसिक क्रिया जितनी-जितनी निर्मल होती जाती है। उतना-उतना फल मिलता जाता है। कोटि बार ध्यान करने का जितना फल मिलता है, उतना फल एक क्षमा करने से मिल जाता है, वैरी को देखकर आँख में ललाई फूटती है। हमें क्षमा से तो वैर भाव नहीं रखना चाहिए। मोक्ष के लिए कारण भूत साक्षात् कोई है तो वह क्षमा धर्म ही है। आप आधि-व्याधि से तो दूर हो सकते हैं, पर उपाधि से दूर होना मुश्किल है, मैं पना नहीं निकलता। आधि मानसिक चिन्ता और व्याधि शारीरिक बीमारी है, उपाधि बौद्धिक विकार है पर उपाधि को छोड़ना इनसे ऊपर है, समाधि आध्यात्मिक है। क्षमाधारी जीव अनन्तचतुष्टय का अनुभव करते हैं। पर अन्य ? घाति चतुष्टय का। वहाँ सुख अनन्त है, यहाँ दुख अनन्त है। आत्मा के अहित विषय कषाय नहीं करना ? तभी वास्तविक क्षमा है।
  13. आयतन/अनायतन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जहाँ आकर हम शरण पाते हैं, वह आयतन है। सम्यकदर्शनादि गुणों का घर अथवा धारण करने का जो निमित है, उसको आयतन कहते हैं। जो सम्यक्त्वादि गुणों से विपरीत मिथ्यात्व आदि दोषों में धारण करने का निमित्त है, वह अनायतन है। गलत मार्ग और गलत मार्ग को मानने वाले एवं मिथ्या मार्ग का व्याख्यान करने वाले शास्त्र और उसकी मानने वाले सेवक अनायतन कहलाते हैं। तीन मूढ़तायें अनायतन के स्रोत हैं। जो कर्म निर्जरा में सहायक नहीं है, सम्यकदर्शन रूप धर्म में कारण नहीं है, उन्हें धर्म रूप मानकर चलना या लौकिक मान्यताओं को धर्म मानकर करना मूढ़ता है। चरकादि ग्रन्थ के माध्यम से जानकारी प्राप्त कर साधुओं को औषधि दान किया और उनका रोग ठीक भी हो गया तो उस ग्रन्थ को धर्म-शास्त्र मान लेना मूढ़ता में आवेगा। जिनका आधार लेने से हमें मोक्षमार्ग में दृष्टि प्राप्त होती है, वह आयतन है। वीतराग जो बने हैं, वे निश्चय के अनायतन नहीं हो सकते, बल्कि हमारी जो आत्मा रागद्वेष मय है, वह निश्चय से अनायतन स्वरूप हो सकती है।
  14. मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार का कारण है। ज्ञान बाहर से नहीं आया और न बाहर चला गया है। पुद्गल और जीव दो द्रव्य हैं। ये दोनों कुछ निमित्त को प्राप्त हो कर विपरीत परिणमन कर देते हैं। स्फटिकमणि के समान जीवात्मा भी स्वभाव को लिए हुए है पर दूसरे के संसर्ग से एक ऐसी सन्धि हुई है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि सफेद होते हुए भी सामने गुलाब का फूल होने पर वैसी ही दिखाई देती है। पारे के भस्म के साथ खटाई का मिश्रण हो जाये तो वह भस्म वापस पारा बन जाता है। इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव यद्यपि स्फटिक मणि के समान होने पर भी अनादि से पुद्गल से सम्बन्ध जुड़ा होने के कारण अपने स्वभाव में नहीं है। जब तक हमारी विपरीत परिणति रहेगी तब तक हम दुख का अनुभव करते रहेंगे। विभाव सो संसार स्वभाव सो मुक्ति। आपकी भाषा में जो संसार दिख रहा है, वही संसार जो मिट जावे वही मोक्ष। अनन्तानन्त जीव है और अनन्तानन्त मोक्ष। सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, आत्मा का स्वभाव। सरलता, ऋजुता आत्मा का स्वभाव। पानी का स्वभाव शीतल है, परन्तु उष्णता को धारण कर लेने के बाद पानी पीने पर कंठ व जीभ जला देता है। इसी प्रकार आत्मा के बारे में यही बात है। सम्यक्त्व भाव पाप को छोड़ने व पुण्य को प्राप्त करने से ही नहीं होगा। स्थान से स्थानान्तर, घर से मन्दिर आने से ही सम्यक्त्व भाव नहीं होता है। पुण्य-पाप तो पुद्गल के रसायन हैं, जो आत्मा के राग द्वेष को लेकर के परिणमन करते हैं, इनका प्रदेश भिन्न है। इनसे सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव नहीं है। धर्म आत्मा का एक स्वभाव है। जहाँ यह विश्वास हो जाता है कि सुख बाहर नहीं है, आत्मा को पुण्य-पाप से अलग रखते हुए उसमें लगी कालिमा को हटाने पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। हमने यह विश्वास कर लिया है कि पुण्य को प्राप्त करने व पाप को त्याग करने में धर्म है। धर्म राग-द्वेष हटाने में है। सुख आत्मा में है न कि बाहरी वस्तुओं में, जो फल मिला है, मनुष्य उसकी सुरक्षा कर सकता है। भरत को चक्ररत्न मिला, वह संग्रहवृत्ति के लिए दिग्विजय नहीं करता बल्कि उसकी (चक्ररत्न) सुरक्षा के लिए करता है। आप लोगों की सुबह से शाम तक कितनी विपरीत दृष्टि रहती है। आप ये नहीं सोचते कि कर्म का जितना फल है, उतना ही भोगूँ। कमाने की भी कोई हद होती है। सम्यक दृष्टि दूसरों को भी सम्यक दृष्टि प्रदान करना चाहता है। कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है पर आज तो आविष्कार आवश्यकता की जननी हो रही है। बच्चे की तरह यह व्यक्ति भी आवश्यकता की वस्तु को भूलकर यह भी ले लुं वह भी ले लुं आदि अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है। मन रागद्वेष से लिप्त है आवश्यकता के उपरांत आविष्कार हो तो ठीक है। जो इन्द्रियों के वश में नहीं है उसे आवश्यकता कहते हैं और जिसके लिए जो कार्य है, वह आवश्यक है। चक्रवर्ती का शासन प्रजा पर नहीं है, पर माण्डलिक राजाओं पर शासन होता है। कहीं ये राजा प्रजा पर अत्याचार न करें, इसलिए चक्रवर्ती दिग्विजय करता है। जीव के बारे में सम्यक दृष्टि सोचता है तब प्रयोजन मालूम हो जाता है, प्रयोजन सारतत्व है वह भी हेय-उपादेय में विभक्त हो जाता है। आस्त्रव और बंध हेय है, संवर-निर्जरा उपादेय है, मुक्ति है। ईधन डालते ही रहने से अग्नि की तृप्ति नहीं होती। जीव की परिणति अनादि से अप्रयोजनभूत तत्व की ओर ही रही है। स्वभाव की चाह की पूर्ति हो सकती है, लेकिन विभाव की, पर पदार्थ की पूर्ति कभी नहीं हो सकती। पदार्थ अनन्तानन्त है, उनको प्राप्त करने के लिए अनन्तानन्त समय चाहिए। इस चाहरूपी दाह की तृप्ति नहीं हो सकती है। पुण्य है, वही रहेगा। सम्यक् दर्शन कैसा है, अनुभव से मालूम कर सकते हैं। यह सुख अपने में उत्पन्न होता है, पाप पुण्य से नहीं। पुण्य उसको प्रादुभूति में सहायक हो सकता है, पाप उसको नष्ट करने में सहायक हो सकता है। पाप को छोड़कर पुण्य को प्राप्त करना, बाहरी है। वीतरागी होते हुए भी रागी लोगों का मार्ग प्रशस्त हो जाये यही बात करने के लिए आचार्य आदि प्रयत्न कर रहे हैं। साधु न बन सको तो कम से कम पीछे चलने का प्रयास करो, स्वादू तो मत बनो, कालांतर में साधु बन सकते हो। सुख को अपने में ढूँढ़ो वह बाहरी पदार्थों से प्राप्त ही नहीं होता है।
  15. अंतर्दूष्टि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अंतर्दूष्टि अपने आप में महत्वपूर्ण होती है, जिसे वह प्राप्त है वह महान् पुण्यशाली है। आरम्भ-परिग्रह पाप के कारण हैं, इन्हें शत्रु समझकर दूर से ही छोड़ दो, ये अपनी परिधि बाहर की भाँति है। अपना चित्र अन्यत्र और कहीं नहीं है, अपने ही अंदर है, एक बार आँख बंद करके उसे देख तो लो। दुनियाँ में सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि दुनिया उसी को अपना मानती है, जो कभी अपना न हो सका। हमारा बड़प्पन कार्य के पहले ही प्रस्तुत हो जाता है और महान् व्यक्ति बड़े-बड़े कार्य करते जाते हैं, पर अपने मुख से कुछ नहीं कहते।
  16. असंज्ञी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार असंज्ञी कौन ? जो सुनकर भी, उपदेश पाकर भी हेय-उपादेय का विवेक नहीं रखता। आगम को अच्छे ढंग से जानने वाला ही व्यवहार कुशल हो सकता है।
  17. आचार्य इस जीव को अनेकांत की ओर ले जाने की चेष्टा कर रहे हैं। सांसारिक जीव अपने इष्ट को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है। हम प्रत्येक कार्य के पीछे इसका Scale बनाते हैं। भवन के निर्माण से पूर्व अनेक प्रकार के आयोजन के साथ इंजीनियर्स को बुलाया जाता है। उसी प्रकार मोक्ष प्रासाद का निर्माण करना है। इसकी पूर्व भूमि व पृष्ठभूमि देखना है। यह समय रूपी घड़ी बिना चाबी के कार्य करती रहती है। शास्त्रकारों का उल्लेख है कि सुई की नोक पर जितना स्थान है, उतनी ही जगह में भी निगोद राशि भरी पड़ी है। अनेकांत दृष्टि के लिए अनंत पुरुषार्थ की आवश्यकता है, तब वह जीव त्रस पर्याय में आता है जिसकी तुलना चिन्तामणि से की गई हैं। उसके उपरांत प्रयत्न करते-करते पंचेन्द्रिय बनता है। वहाँ पर भी मन नहीं रहता है। एक स्थिति ऐसी भी है जब मन प्राप्त भी हो जाता है तब संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव देशनालब्धि को प्राप्त करता है, तब अनेकांत दृष्टि को प्राप्त करता है। यह लब्धि अनेक पुरुषार्थ से प्राप्त हुई है। इसके बाद भी यह जीव कषायी है या नहीं मालूम नहीं पड़ता। विशुद्ध लब्धि के बाद ७० में ६९ सैनिकों को तो वह हताश कर देता है, और मात्र एक सैनिक रह जाता है। तब भी वह सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जाता है। देशना लब्धि में प्रभु की दिव्य ध्वनि को व्यक्ति सुनने को आतुर हो जाता है। महाराज का प्रवचन रोज सुना किन्तु विचार नहीं किया कि क्या कह रहे हैं? तब तक विशुद्ध लब्धि प्राप्त नहीं होती। अभी कुछ भूमिका ही नहीं बाँधी है। अनन्तकषाय चल रही है। जैसे-जैसे जीव शुभ की ओर अग्रसर होता है। तैसे-तैसे वह सम्यक्त्व की और चारित्र की ओर बढ़ जाता है। त्याग के बिना सम्यग्दर्शन तीन काल में भी प्राप्त नहीं होता है। प्रकाश के साथ-साथ पैरों को गति मिलती है। अनंत कषायों को दबाना ही चारित्र की प्राप्ति है। अनन्त पुरुषार्थ करने पर ही रास्ता सरल बनता है मंजिल पर पहुँच जाने पर त्याग की ज्यादा आवश्यकता नहीं रहती है। कीचड़ में एक वस्त्र है। सर्व प्रथम उसे निकाल कर उसे साफ करने के लिए पहले जल से धोते हैं फिर साबुन लगाकर मैल निकालते हैं, इसमें बहुत पुरुषार्थ लगता है। फिर बाद में टिनोपाल लगाते हैं। अनन्तकषाय के लिए पहले अनंत पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। बाद में केवल टिनोपाल की तरह निचोड़ने पर फिर शुद्ध हो जाता है।
  18. धर्म उसे कहते हैं जो संसार रूपी महा समुद्र से इस दुखी जीव को उच्च स्थान पर पहुँचा दे। जो उत्तम ज्ञान और उत्तम चारित्र युक्त हो। कुदृष्टि, कुज्ञान, कुचारित्र संसार में दुख के कारण हैं। इनका अभाव सो ही धर्म है। सद्दृष्टि, सद्ज्ञान और सद्चारित्र का आलंबन लेना हमारा परम कर्तव्य है। हम बाह्य कारणों से दूर नहीं रहते हैं। साधक कारणों को भी संग्रह करने लग जाते हैं। जब तक हम अपनी दृष्टि को नहीं मांजते, तब तक वस्तु ठीक-ठीक देखने में नहीं आती है। पीलिया के रोगी को जगत के सब पदार्थ पीले नजर आते हैं, उसे यह मालूम नहीं कि मेरी आँखें पीली हैं। हमें उस दृष्टि को, उस विकार को, उस रोग को दूर हटाना है। संसारी जीव की भी यही स्थिति है, उसको भी वस्तुएँ इष्ट-अनिष्टकारी प्रतीत नहीं हो रहीं हैं। उसकी दृष्टि में विकार है। हरेक की आँखें क्या जवान, क्या वृद्ध सबकी कुदृष्टि बनी हुई है, विकार भरा हुआ है, वह अनिष्टता के लिए है। जो जीव सुख चाहते हैं, विकास, अनाकुलता चाहते है, उनके लिए ये विकार अनादि और अनन्त नहीं हैं। दूध में घी का सम्मिश्रण भी अनादि से है। पाषाण में स्वर्ण भी अनादि से है, पर प्रयत्न किया जाये तो पृथक् -पृथक् हो सकते हैं। कुदृष्टि, कुज्ञान, कुचारित्र मेरे स्वभाव नहीं हैं मैं चाहूँ तो हटा सकता हूँ, मेरी दृष्टि समीचीन हो सकती है। आचार्यों ने कहा है कि किसी वस्तु को देखना, जानना-मानना-चिंतन करना कुदृष्टि नहीं है, पकड़ना कुदृष्टि है। पदार्थों को पकड़ना यही कुदृष्टि है। समीचीन दृष्टि सो वास्तविक स्वभाव और कुदृष्टि सो संसार। दुख का स्रोत पकड़ने में है, जानने में नहीं, क्योंकि जानना आत्मा का स्वभाव है। कुदृष्टि को माँजने की आवश्यकता है। यह तभी मैंज सकती है, जब हम अपने आपको जाने। दुनियाँ की कोई वस्तु अच्छी बुरी नहीं है। हमारी दृष्टि अच्छी बुरी है। यह ज्ञान जब प्राप्त हो जाता है तो आनन्द का अनुभव हो जाता है, सद् दृष्टि प्राप्त हो जाती है। अनन्त की परिभाषा यह है कि सब कुछ दे दे तो भी संतुष्ट न हो। लोभ परिग्रह का प्रतीक है। जीव इसके वशीभूत होकर अपने स्वभाव को भूलकर कुदृष्टि को अपना लेता है। अनंत लोभ वह है जिसका समाधान ही नहीं होता। लिप्सा की तुलना में दादाजी भी पोते से पीछे नहीं रहते है। कुदृष्टि के साथ जब वृद्धावस्था आती है, तब शक्ति तो रहती नहीं है। खाने पीने की शक्ति नहीं, श्वांस भी अच्छी तरह नहीं ले पाता, इन्द्रियाँ भी पूर्ण रूपेण काम नहीं कर पाती किन्तु तृष्णा की पहली रेखा विषवन की है प्याली। यह तृष्णारूपी सर्प इस प्रकार का है, वह रात दिन दुनियाँ को खाता है। सर्प विष से तो एक बार ही मरना हो सकता है, पर तृष्णारूपी विष प्याली के द्वारा अनन्तबार, अनन्तभव, अनन्तमृत्यु होती है। आत्मा के अनन्त स्वभाव का इससे अंत हो जाता है। अक्षर का अनंतवां भाग ज्ञान रह जाता है, घड़े में घी के समान इस लोकाकाश में सूक्ष्म निगोदिया जीव भरे रहते हैं। एक बार जन्म लेने से कितनी वेदना होती है, उसको कहना मुश्किल है और जो जीव तृष्णा-लिप्सा के द्वारा अनन्त बार जन्म मरण को धारण कर रहा है, यहाँ तक कि श्वांस में १८ बार जन्म-मरण कर लेता है, उस दुख का वर्णन करने के लिए समुद्र को स्याही, सुमेरु पर्वत को लेखनी व पृथ्वी को कागज बनाना पड़ेगा। अनन्तानुबन्धी लिप्सा जब आ जाती है, तब ऐसी स्थिति इस जीव की होती है। कर्म सिद्धान्त को तो महावीर भगवान् भी नष्ट नहीं कर सकते हैं। अपने कर्म के फल को स्वयं वह व्यक्ति समय-समय पर भोगता है। दूसरों को मारने की हिंसा नहीं हुई है, पर मारने की कल्पना रात दिन हुई, यही अनंतानुबंधी का लक्षण है। भय की वजह से यह लोलुपी व्यक्ति, कुछ अनर्थ करता नहीं पर अनर्थ करने की इच्छा को छोड़ता नहीं है। डर के मारे द्रव्य हिंसा तो नहीं करते हैं, पर अनन्त हिंसा से नहीं डरते। जब दिशा ही खराब है तो दशा भी खराब होगी। दूसरों को हटा कर खुद की नियुक्ति न करो। अपने पुरुषार्थ से खाओ और कुछ बना कर रखो। आत्मा ने ज्ञान दर्शन को नहीं छोड़ा है अनंतकाल से पर संयोग की वजह से दुख का अनुभव किया है। हम प्रार्थना करते हैं, संयोग न छूटने की, यह प्रार्थना गलत है। जवानी छूटेगी, बुढ़ापा आवेगा और आपको ले जावेगा। बादाम का हलवा भी रोजखाओगे तो भी झुर्रियाँ गाल पर पड़ेगी, जो ललाई है, वह मिटेगी। आम का पीलापन समाप्त नहीं होगा पर लाल कांति जो है, वहाँ कुछ समय बाद झुर्रियां पड़ जाती है, जिसे आप भी बाजार में लेना पसंद नहीं करते। वह भी आम है। माली ने उसकी सुरक्षा भी की। आप उसे रेफ्रीजरेटर में रखोगे तो भी झुर्रियाँ तो पड़ेगी ही। काल का निमित्त पाकर मिटना, रुकना, उठना, झुकना लगा रहता है अत: अनन्तानुबन्धी के पीछे पड़कर जो वस्तु का संग्रह हो रहा है, वह संसार का कारण है। आचार्यों ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र के प्रयोग से पहले सच्चा (Right) शब्द का भी प्रयोग किया है। जितना लौकिक क्षेत्र में कोई आगे बढ़ेगा वह पारमार्थिक क्षेत्र में उतना ही पीछे रहेगा। वास्तविक सेठ वही जिसने आत्मिक क्षेत्र में अनुभव प्राप्त किया है। बबूल से आम भी नहीं मिलेंगे और छाया भी नहीं मिलेगी। आप वर्तमान में चाहे जितना संग्रह कर लो पर खायेंगे चार-पाँच रोटी ही। धनवान कोई एक बोरी नहीं खाता। जब चिंता लग जाती है तो जठराग्रि भी मंद पड़ जाती है। धनवान की खुराक तो वैसे भी कम हो जाती है। सेठ भस्म खाकर भस्म भले ही हो जाएँगे, पर खुराक ज्यादा नहीं कर सकते है। जो ऐसा करते हैं वे विषय भोग को संपुष्ट करते हैं, वे जीने के लिए खा नहीं रहे हैं, बल्कि खाने के लिए जी रहे हैं। जीने के लिए खाना सम्यग्दृष्टि है और खाने के लिए जीना कुदृष्टि है। खाने में सुख की प्राप्ति नहीं है, बल्कि खाने में भी पसीना आता है, जो कष्ट का द्योतक है। खाने से दुख की निवृत्ति भी नहीं हो सकती है। आप जैसा चाहोगे वैसा मिलेगा, आप नया-नया शरीर, नया-नया जीवन मिले ऐसा चाहोगे तो वो भी मिलेगा, एक श्वांस में १८ बार जन्म व मरण मिलेगा। यह अनंतानुबंधी का प्रतीक है। जो जीने के लिए खाता है वह शरीर को गौण समझता है, वह जीवन की रक्षा करता है। जिनकी दृष्टि हिंसा से अहिंसा की ओर नहीं है बचने की ओर दृष्टि नहीं है, वे लोग जैन के कोटे में नहीं आ सकते हैं। संतोष के बिना मनुष्य जीवन मिलता नहीं और संतोष के बिना मनुष्य जीवन में सफलता नहीं मिलती है। शरीर को जो कारागार, हीन समझता है वह अल्प आरंभ परिग्रह रखेगा।
  19. आचार्य उस वस्तु को दिखाने का प्रयास कर रहे हैं जो आज तक हमारे लिए अपरिचित थी, जो आज तक हमारे देखने, सुनने व अनुभव में नहीं आई है। थोड़ा प्रयास किया जाये तो बहुत कुछ हो सकता है। थोड़ी दृष्टि बदलने की आवश्यकता है। कुछ विचार (Rest) की जरूरत है। रास्ता बहुत कम है, मात्र मुड़ना, (घूमना) है। प्रयास को दौड़ने की आवश्यकता नहीं, विवेक की दृष्टि बदलने की जरूरत है। विधि के अनुसार प्रयास करना है, जो धर्म आज तक नहीं मिला वह एक सैकेंड में मिल सकता है। इसी धर्म को आचार्य महोदय समझा रहे हैं। उसे समीचीन धर्म, जैन धर्म, विश्वधर्म, किसी नाम से पुकारो। धर्म वह है जो कार्य करने में सक्षम हो, संसार के दुख को समाप्त करने में सक्षम हो। समीचीन बात तो यह है कि हमारी गति उस ओर गई ही नहीं। हम तन, धन, वचन से सिद्धान्त को उल्टा करना चाह रहे हैं, वर्तमान स्थिति को हमेशा बनाये रखना चाह रहे हैं। अनेक नवयुवकों ने सुख-शांति की खोज के लिए ज्यादा नशा करके आत्महत्या भी कर डाली ề | उनके पास Right Direction का अभाव है |परन्तु यहाँ पर जब Right Direction है तो भी प्रयास नहीं है। यह बड़े अचम्भे की बात है। हमने आज तक वीतरागता के बारे में अध्ययन किया ही नहीं, और अगर किया भी तो सिर्फ प्रमाण-पत्र को प्राप्त करने के लिए। सुख क्या चीज है? कैसे कहाँ से प्राप्त किया जा सकता है ? यह बात आज तक समझ में नहीं आई। हम कुछ समय के लिए इन्द्रियों के विषय को, ख्याति लाभ पूजा को भूल जाये। बाहरी चीजों के प्रति शरीर-ममता के प्रति उपेक्षा भाव होना, वहीं धर्म है। सुख तक पहुँचने का यही एक मार्ग है जो सुख चाहता है वह परिग्रह और उपसर्ग के बीच में से गुजरता है। उस व्यक्ति को परीक्षा देनी है, उससे ही उसका मूल्यांकन किया जायेगा। शब्दों की उलझन में न पड़ कर समीचीन धर्म की खोज करनी है। संसार शरीर और भोग की ओर पीठ होना चाहिए तभी धर्म की भूमिका प्रारम्भ हो जाती है। हमने जयपुर की ओर मुख कर रखा है और जाना भीलवाड़ा है। हम कैसे भीलवाड़ा पहुँचेगे? हमें अपना मुख भीलवाड़ा की ओर करना है। हम धर्म के साथ नहीं जी रहे हैं। इसीलिए अशांति का अनुभव कर रहे हैं। दिन भर खाऊँ-खाऊँ, सोऊँ-सोऊँ लगा रखा है। साल में दस लाख की आवश्यकता है, हम १५ लाख की चेष्टा कर रहे हैं, यही अनन्तानुबन्धी है। धनार्जन में पुरुषार्थ ही कारण नहीं है, सातावेदनीय कर्म का उदय भी एक कारण है। शरीर को चलाने के लिए धन काम आता है। चार सौ बीसी आदि द्वारा हम अपनी आत्मा को अधोगति की ओर ले जा रहे है और आत्मा की हत्या कर रहे हैं। समुद्र आदि में डूबना ही आत्महत्या नहीं है। आज तक हमने अनेकों बार आत्महत्या की है। जमाना नहीं बदला है, न बदलता है, हम बदल गये हैं। मुख पर कालिमा लगाने व मिटाने वाला दर्पण नहीं है, वह मात्र दिखाने वाला है। काल के पास ज्ञान संवेदन नहीं है,वह तुम्हें नहीं बदल सकता है। हमारे स्वयं के विचार बदलते जा रहे हैं। विचारों में विकार पैदा होता जा रहा है। आप कुछ त्याग नहीं करना चाहते हो तो कम से कम अनन्त संज्ञा जो लगी है, उसे तो छोडो । आज अर्थयुग की चरम सीमा है। समयसार पढ़कर Ph.d. की डिग्री प्राप्त की जा रही है। एक ही दुकान पर दादाजी से लेकर पोते बैठकर अर्थ की लालसा में पड़े हैं, बच्चों को किस प्रकार शुरू से ही अर्थ के गर्त में फेंक रहे हैं। समय-समय में समुद्र में लहरें उठती हैं और नाश को प्राप्त होती हैं समुद्र सत्ता का प्रतीक है। लहरों को पकड़ने की चेष्टा कर रहे हैं पर वह आपके हाथ नहीं आ रहीं हैं, पानी ही हाथ आ रहा है ? सत्ता का अवलोकन तो करो। आत्मा है, रहा है और रहेगा चिर काल तक। इसे कोई मिटा न सकेगा। इस वास्तविक स्थिति को जो समझेगा वो त्याग मार्ग की ओर अग्रसर होगा। ये दशाएँ पर्याय के रूप में हैं, क्षणिक हैं। सत्ता के रूप में नहीं। भेद विज्ञान को इसीलिए प्रथम स्थान दिया है। भेदविज्ञान कहो या अनेकांत, स्याद्वाद कही एक ही बात है। पर्याय को कोई भी मिटा नहीं सकता न बना सकता है, वह सत्ता में से निकलती रहती है, मिटती रहती है। हम राग द्वेष को मिटाकर वीतरागता में परिणत करा सकते हैं। सुख आत्मा का ही एक धर्म है, हम उससे अनादि से वंचित हैं, इसलिए दुख का अनुभव कर रहे हैं। आप इस सुख को प्राप्त कर सकते हैं। स्थिति को बदलना पड़ेगा। आपकी इन्द्रियाँ शरीर की सुरक्षा में लगी हुई हैं। जहर की लहर तो आ रही है, अमृत की लहर आज तक नहीं आई है। आप चाय तो चाहते हैं, पर अमृत रूपी लहरों को नहीं चाह रहे हैं। इस दौड़ धूप को छोड़ दी, विचार करो। जितना आप का खर्च है, उतना ही कमाने की चेष्टा करो। जैसा तैसा कैसा भी आवे पैसा आवे, ऐसी चेष्टा मत करो।
  20. एक व्यक्ति यह चाहता है कि मुझे रास्ता बताओ, दूसरा व्यक्ति कहता है कि मुझे रास्ता बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, जहाँ विनय के साथ कहता है, वहाँ संकोच की आवश्यकता नहीं है। उपदेश भी स्वाध्याय का एक अंग है। मैं उसे नमस्कार करता हूँ, जिसके द्वारा सुख शांति और वैभव को प्राप्त कर सकूं। रत्नत्रय आत्मा की निधि है। शिष्य को कुंभ की उपमा दी है, और कुम्हार की संज्ञा गुरु को मिली है। कुम्हार अनेक सामग्री जुटा कर उपयोग लगाता है, वह चाक फिराता है, कुम्भ बनाता है। अन्दर हाथ डाल कर बाहर से चोट मारता है। चोट के साथ सुरक्षा का भाव उसका होता है। जहाँ नीचे (अन्दर) हाथ होता है, वहाँ चोट मारता है, और कुंभ को सुन्दर बनाता है। महावीर भगवान् जिस पथ पर आरूढ़ हुए उसको कष्टकर न समझ कर सुख का अनुभव करना है। जहाँ रत्नत्रय की कमी है, वह दुख का अनुभव करेगा। भोजन, वस्त्रादि शरीर की खुराक है, ये तो माध्यम है, पर आत्मा की खुराक तो ये तीन रत्न हैं। आज के बालक स्व-पर कल्याण में समर्थ हैं। इसके लिए विधि होनी चाहिए। सर्व प्रथम जब तक पसीना नहीं आता, तब तक कार्य की सिद्धि नहीं होती। जब विवेक के साथ विधि (परिश्रम) संगठित हो जाती है, तब जल्दी सफलता मिल जाती है। मिट्टी व कुम्हार को देखकर ही घड़ा नहीं बन जाता है, उसके लिए साधन जुटाकर मेहनत करनी पड़ती है। दिशा बदलने पर ही दशा बदलेगी। आपको मात्र निर्देशन (Direction) की आवश्यकता है। ८ साल के उपरांत बच्चा उस काम को भी कर सकता है, जिसकी दादाजी भी नहीं कर सकते हैं। मन बाहर की ओर दौड़ना चाहता है, मंदिर में नहीं रहना चाहता है। मन कुछ और चीज है और मंदिर कुछ और चीज है। मनोकामना की पूर्ति पाँच इन्द्रियों के द्वारा होती है। मन इन पाँचों नौकरों को काम बताता है। ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ती है। मन (ज्ञान) प्रवाह पाँच भागों में बंट जाता है। मन की भूख प्यास घर में नहीं मिटती है। जो मनोरथ पर बैठ जाते हैं उनकी गति राकेट से भी ज्यादा तेज हो जाती है। कल्पना भी बहुत दूर-दूर तक हो आती है। ज्ञान आज तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाया है। वह ज्ञान मंदिर के द्वारा ही लक्ष्य तक पहुँच पाता है। यह निमित-नैमितिक का सम्बन्ध है। एक इन्द्रिय जब काम कर रही हो तो अन्य इन्द्रिय काम करना गौण कर देती है। पंचेन्द्रिय विषय जहाँ घर में उपलब्ध है, वहाँ भगवान् के साथ ली नहीं लगा सकते है। लिखते समय भी उपयोग की बहुत आवश्यकता है। प्राथमिक दशा में पंचेन्द्रिय विषयों से दूर रहकर मंदिर में दर्शन करना जरूरी है। मंदिरों में पाँचों इन्द्रियाँ अपने कार्य बन्द कर देती है, Rest ले लेती हैं, इसलिए मन के द्वारा चिंतन हो जाता है। वहाँ विषयों को पुष्ट करने के साधन नहीं है। अत: उन पंचेन्द्रियों की शक्ति भगवान् की ओर केन्द्रीभूत हो जाती है। यह मंदिर समाज निष्ठा तक पहुँचने के लिए भी सोपान का काम करता है, प्रारम्भिक अवस्था में मंदिर जाना आवश्यक है, और वहाँ वीतरागता के बारे में खोज करना चाहिए तथा आरम्भ-परिग्रह, घर गृहस्थी की बातें नहीं करना चाहिए। उसे मिलने का स्थान नहीं समझना चाहिए।
  21. आचार्य उस धर्म की व्याख्या कर रहे हैं, जिसके द्वारा आप संसाररूपी महा समुद्र से छूटकर ऊँचे सिंहासन पर बैठ जायें। अनादिकाल से इस संसारी आत्मा की शक्ति का दुरुपयोग होने के कारण यह दुखी का दुखी ही रहा है। सन्त महर्षि अपने आपके जीवन के लिए कोई आवश्यकता नहीं रखते हैं, उनका ध्येय यही होता है कि सबको सुख प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हो। व्यवस्था बन्धन साधु के लिए नहीं हैं, गृहस्थ समाज के लिए हैं। रोगी के हाथ को पट्टी बाँधते समय अगर डॉक्टर भी अपने हाथ में पट्टी बाँध लेगा तो वह रोगी का रोग दूर नहीं कर सकेगा। भगवान् महावीर ने जो अनुशासन, व्यवस्थाएँ बनाई है, वह गृहस्थ समाज के लिए हैं। पर स्वयं के लिए, साधु समाज के लिए नहीं। बच्चा-पिताजी की आज्ञा लेकर कार्य करता है, पर जब स्वयं पिताजी उसको घर का भार सौंप देते हैं, तब वह सारे कार्य पिताजी की आज्ञा लेकर नहीं करता, इसका अर्थ पिताजी की अवहेलना नहीं है। जो व्यक्ति जिस स्थान पर रहता है, उस स्थान पर उसका वैसा ही धर्म है। शीत लहर जब चल रही हो तो उसे ओढ़ना पड़ेगा। धर्म का मतलब यह नहीं कि जैसा आप कर रहे हैं, वैसा ही सब करें। जो व्यक्ति अहंकार (अभिमान) के साथ दूसरे को अपने अनुसार चलाता है, वह अनीश्वर है, उसे तीन काल में सफलता नहीं मिलेगी। जिस क्षेत्र में जो धर्म चल रहा है, उसे समीचीन संज्ञा दी जा सकती है। जितनी आपके पास चबूर है, उतने ही पैर फैला दो, तभी आपका धर्म निभेगा। अग्नि अनेक कार्यों में काम आती है। वह प्रकाश भी देती है, उससे रोटी भी बन सकती है, पर अपने को बचाते हुए उससे काम लेना है, वरना उससे आपकी अंगुलियाँ जल जाएँगी। प्रकाश भी वह तभी प्रदान करेगी जब उसे दीपक का रूप दिया जायेगा। एक बात को हरेक क्षेत्र में ले आना, ठीक नहीं है। साधु आपके शासन में शासित नहीं है, उसके बन्धन गृहस्थ समाज के अनुसार नहीं है। पिताजी कैसे चलते हैं, वह देखने की आवश्यकता बच्चे को नहीं है। बच्चा पिताजी के अनुसार चले, यही उसका कर्तव्य है। प्रजाओं पर शासन चलाना मामूली चीज है, पर अपने ऊपर शासन चलाना टेढ़ी खीर है। आत्मवान तभी बनता है, जब प्रजाओं की सुरक्षा करते-करते उससे भी ऊपर उठ जाता है। आज जितनी भी हड़ताल छात्रों द्वारा होती हैं, उसका कारण यही है कि बच्चे चाहते हैं कि मास्टर उनके अनुशासन में चले। संसारी जीव प्राय: करके हुकुम (शासन) की ओर बहुत जल्दी दौड़ जाता है, वह समझने लगता है कि मैं सबसे ऊपर हूँ, पर उससे ऊपर आकाश भी तो है। सम्यक् दृष्टि वह है जो विवेक के साथ चलता है। ज्ञान-दर्शन चलते नहीं है, पर आदेश दे देते हैं। हेय की ओर गति न कर उपादेय की तरफ गति देते हैं। चारित्र (पैर) नहीं जानता कि उचित स्थान कौन-सा ? पैर गधे के समान है। ज्ञान और दर्शन के हाथ में उसकी लगाम है। ज्ञान दर्शन यात्री और चारित्र रेल (घोड़ा) इत्यादि वाहन है। अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ का फल तो हमने अनन्त बार भोग लिए, पर धर्म पुरुषार्थ का फल प्राप्त नहीं किया। भ्रमर फूल के रस का सेवन करता है, पर उसको नुकसान नहीं पहुँचाता है। और गन्दी वस्तुएँ टट्टी-पेशाब आदि पर भी नहीं बैठता। पर मक्खी गन्दी वस्तुओं पर भी बैठती है, और उसमें लिप्त भी हो जाती है। दोनों चार इन्द्रिय जीव है। सम्यक् दृष्टि भ्रमर के समान भोग करते हैं और मिथ्यादृष्टि मक्खी के समान। दोनों में से एक में ज्ञान है, अनेकांत है। दूसरे में अज्ञान और एकांत है। सम्यक् दृष्टि कर्म का फल तो भोगता है, पर कर्म करके फल नहीं भोगता है। वह एनकेन प्रकारेण लडू बनाकर खाने की कामना नहीं करता, लडू के त्याग नहीं है। लड्डू हो तो खा लेता है। वह जब त्याग की तरफ आ जाता है तो भोगों को पीठ दिखा देता है। सद्गृहस्थ को ‘मेरी भावना' भानी चाहिए और 'बारह भावना' जो मुक्ति पथ पर आरूढ़ है उसे भानी चाहिए। ऐसा न करने पर तो फिर 'थोती' भावना हो जाएगी। मिथ्या दृष्टि जय-जय भी बोलता है, उपासना भी करता है और सम्यक् दृष्टि भी ऐसा करता है, पर दोनों में फर्क है। अत: गृहस्थ जीवन में सुख शांति लाने के लिए विषयादि को कुछ समय गौण, कुछ समय मुख्य, फिर गौण करना है। अर्थ व काम पुरुषार्थ करते हुए धर्म पुरुषार्थ को मुख्य रखोगे। अर्थ तथा काम पुरुषार्थ जब हावी हो जाते हैं, तब अधोगति की ओर मुख हो जाता है। इनको मुख्य नहीं बनाना है। आज अर्थ पुरुषार्थ मुख्य हो गया है। इसमें परिग्रह संज्ञा २४ घंटे उद्दीप्त रहती है। उसको गौण कर भोग करके योगी बन सकते हो वरना तो रोगी बन जाओगे। आर्तध्यान की जरूरत जीवन को चलाने के लिए नहीं है। जिस क्षेत्र में आप विराजमान है, उसी के अनुरूप आपकी दृष्टि होनी है। ज्ञान-दर्शन के अनुसार ही चारित्र में लगना है। फूल फल की निशानी है। फूल की सुरक्षा करने पर फल की प्राप्ति होती है। जब फूल मुरझाने लगता है तो स्वर्गों के देव भी जान जाते हैं कि अब हमें यहाँ फल नहीं मिलेंगे। जब भोगों का अन्त होता है तभी योग के चिह्न प्रादुभूत होते हैं। जो भगवान् के सम्मुख भोगों का त्याग करते हैं तो वे वापस नहीं आते हैं और भोगों को भगवान् के सम्मुख गौण कर देते हैं वे भरत चक्रवर्ती के समान हो जाते हैं। पीछे चलने वाला यह सोचे कि आगे वाला उसके अनुसार चले तो यह गलत है। पीछे वाले को ही आगे बढ़कर आगे वाले के अनुसार चलना पड़ेगा।
  22. एक कार्य की सिद्धि के लिए अनेक कारण चाहिए। वीर मरण, समाधि-मरण बहुत टेढ़ी खीर है। पहाड़ दूर से बढ़िया व मामूली चढ़ाई वाला दिखता है। पर पास जाने पर कंकड़-पत्थर, चट्टानें आदि देखने पर चढ़ाई कठिन मालूम देती है। इसी प्रकार समाधिमरण दूर से सरल दिखता है, पर जब समाधिमरण को धारण करते हैं, तब मालूम पड़ता है। बारह व्रतों के साथ तेरहवां व्रत सल्लेखना है। पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करते हुए मुनियों, आचार्यों के सान्निध्य में जो मरण होता है, वही समाधि-मरण है। वैयावृत्य पार्थिव शरीर का नहीं, उसमें उपयोग का था। आचार्य महाराज कहते थे कि जिस चीज से डर है उस चीज के पास बार-बार जाने पर वह डर भाग जाता है। मरण से डर रहे हो, जब उसको अपना पड़ोसी बना लोगे, तो मरण से डर नहीं रहेगा। मरते वक्त लुकमान भी यह कह गया, यह घड़ी हरगिज न टाली जायेगी। अत: वीर मरण जब आप करेंगे तभी मृत्युंजयी बन जाओगे | कहा भी है कि Death Keeps no Calender. जीवन भर तपस्या करना, यह एक मन्दिर का निर्माण करना है, और जो अन्त में समाधिमरण धारण कर लेना है, वह मन्दिर में कलश चढ़ा देना है।
  23. समंतभद्राचार्य उस धर्म की व्याख्या करने जा रहे हैं, जिस धर्म के द्वारा समस्त संसार सुख का अनुभव करेगा, एक क्षण को भी दुख का अनुभव नहीं करेगा। कल्प वृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणि आदि चीजें सुख को देने वाली हैं, किन्तु धर्म एक ऐसी चीज है, जिसके सामने कल्पना, कामना, चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। इसके द्वारा विश्व मात्र, प्राणी मात्र अपनी अपूर्ण स्थिति को पूर्ण कर सकता है। आज सुख की खोज में अनेक दौड़ रहे हैं। पर सुख क्या चीज है ? यह नहीं जानते हैं। मौत से डरते हैं, पर मौत के पास जाते हैं और मौत के कारणों को जुटा रहे हैं। अग्नि को बुझाने के लिए पानी की आवश्यकता है, तेल की नहीं। जहाँ पर तृण व ईधन नहीं है, वहाँ अगर अग्नि रख भी दी जाये, तो भी वह अपने आप बुझ जायेगी। अग्नि को बुझाना है तो उसमें ईधन मत डाली। धर्म की परिभाषा को आज तक आप लोगों ने समझा ही नहीं है। साधन के द्वारा साध्य को प्राप्त करना है। धर्म का मतलब साधन (उपाय) है। सुख को प्राप्त कराने वाला धर्म है। सुख से पहले हम को दुख के कारणों व उसको भगाने (दूर करने) की खोज करनी है। गेहूँ को बीनने के लिए कंकड़-पत्थर का ज्ञान आवश्यक है। मन्दिर, मस्जिद आदि धर्म नहीं हैं, इनके माध्यम से धर्म समझ में आता है। ये धर्म को समझने में, धार्मिक भाव को जागृत कराने में माध्यम हैं। जब तक मन और वचन शुद्ध नहीं होंगे, तब तक कार्य नहीं होगा। उपयोग को केन्द्री-भूत करने के लिए स्नान, वस्त्र की शुद्धि, मौन आदि आवश्यक है परन्तु मौन, स्नान, वस्त्र की शुद्धि ये लक्ष्य नहीं हैं। ये धर्म साध्य नहीं हैं। धर्म तो इनसे ऊपर है। कुछ लोग एक बार खाना, शोध का खाना, पानी छानना, पूजा करना, माला फेरना इसे ही धर्म मानते हैं। माला फेरने में ही धर्म है, तो फिर माला बनाने वाला तो बहुत धार्मिक हो सकता है, क्योंकि वह तो बहुत बार माला फेरता है। वास्तव में हमारा मन फिरना चाहिए। महावीर भगवान् के सामने ढोक देते-देते नाक रगड़ लें तो नाक घिस सकती है, पर मोह कम नहीं होता। स्नान से शरीर शुद्ध हो सकता है, पर आत्मा राम नहीं। बाहरी साधनों के द्वारा मन पवित्र नहीं हो सकता है। बाहरी कारणों के साथ-साथ उपयोग को भी एक कारण माना है। सब सामग्री मौजूद होने के बाद भी अगर कुम्हार का उपयोग नहीं हो तो घड़ा कभी तैयार नहीं होगा। मात्र शरीर जिसमें लग जाता है, वही धर्म नहीं है। हम एक ही पहलू को तो याद करते हैं, पर दूसरे पहलू को भूल जाते हैं। आपने व्रत भी किया है, स्नान भी किया है, आसन पर भी बैठे हो, पर अगर सामायिक करते समय ऊँघने लग जाओ तो वह सामायिक नहीं होगी। जो व्यक्ति अपूर्ण ज्ञान को दुख का कारण मानता है, वही उसे पूर्ण बनाने में लग जाएगा। खाने (भोजन) से तृप्ति नहीं है, वह तो तृप्ति का माध्यम है। करने के बारे में पूरी तैयारी है पर किया नहीं तो क्या फायदा! आपने विश्रांति के लिए २४ घंटे में एक घंटा भी नहीं निकाला। थक कर बाद में आराम करना, विश्रांति नहीं है। थकने पर तो मन भी थक जाता है। बिना थके, होश में रहकर उपयोग को जागृत रख कर आपने विश्रांति नहीं की। सामायिक नींद में नहीं है। थक कर आराम करने से शरीर को तो विश्रांति मिल जाती है, पर आत्मा के लिए उपयोग के लिए विश्रांति नहीं मिलती है। आज तक आपने सुख की खोज बन्धन में की है। जब वास्तविक उपयोग बढ़ जाता है, तभी वास्तविक अनुभूति होती है। हम तीर्थ यात्राएँ करते हैं, पर कषायों को कम नहीं करते। कषायें कम हो जायें उसे हम यात्रा कहते हैं। जो अन्दर मेंज जाये, वही व्यक्ति सच्ची यात्रा करता है। उस व्रत, नियम को अंगीकार करो, जिससे मन में संक्लेश न हो। धर्म के माध्यमों के प्रति लक्ष्य नहीं, धर्म के प्रति लक्ष्य होना चाहिए। चुनाव में विरोधी को भी ध्यान में रखकर चुनाव लड़ते हैं। हमें भी Against (विपरीतता) को ध्यान में रखना है, पर अपने को भी नहीं भूलना है। यही धर्म का वास्तविक लक्ष्य है। दुख का विचार करो, पर सुख के मार्ग को मत छोड़ो। कंकड़ के साथ गेहूँ को भी मत फेंको, वरना रोटी नहीं मिलेगी।
  24. स्वार्थ का त्याग परमार्थ की सिद्धि के लिए सोपान का काम करता है। मिथ्या भ्रांतियों को मिटाने के लिए समंतभद्राचार्य साम्प्रदायिकता से दूर हटकर समीचीन धर्म को लिख रहे हैं। जो व्यक्ति रास्ते पर लग गया, जो ज्ञानी है, उसके लिए कालेज आदि की जरूरत नहीं है। धर्म को जाति की डोरी में, पंथ की डोरी में बाँध लेना, अनेकांत को ठेस पहुँचाना है, व्यापकता का विरोध करना है। धर्म स्वतंत्र है, हम उसके शासन में हो सकते हैं, धर्म के सिद्धान्त को हम मान सकते हैं, उसके अनुसार चल सकते हैं, पर धर्म सिद्धान्त हमारे अनुसार नहीं चलेंगे। शब्दों से मतलब नहीं है, आशय से मतलब है। शब्द सीमित हैं। हम शब्दों के पीछे ही जीवन खो देते हैं, पर अर्थ को (आशय को) नहीं समझ पाते हैं। शब्द तो सिर्फ माध्यम है। लेकिन जो रूढ़िवादी तथा अहंभाव को लिए हुए हैं, वे आशय को नहीं समझना चाहेंगे। इन्द्रियों को रोककर (दमन कर) जिन्होंने अपने आपके विकास के लिए प्रयत्न किया है, अथवा कर रहे हैं, वे वास्तविक जैन हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव निक्षेप से जैन होना है, पतित से पावन बनने की बात करनी है। जिधर उपास्य की दृष्टि होती है, उधर ही उपासक की दृष्टि रहती है। जब जिनेन्द्र के बताए उपदेश को व्यक्ति समझेगा, तब वह शब्दों में नहीं उलझेगा। उपाधि की ओर न देखने वाला व्यक्ति ही ऊपर उठ जाता है। धर्म के पीछे कोई उपाधि नहीं है। धारण करता है, वह धर्म है। जिस प्रकार पारसमणि उसी लोहे को सोना बनाता है, जिस पर कपड़ा अथवा जंग न लगा हो उसी प्रकार वही जीव अपने आपको पावन बना सकता है जो जिनेन्द्र भगवान के संदेश के अनुसार चलेगा। जैन धर्म जैसी उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं मिलेगी। जो उपाधि को मिटाने की चेष्टा करता है, वह समाज में मिलने की चेष्टा करता है। हमारे यहाँ संग्रह नय एक ऐसा नय है जिसमें प्राणी मात्र को हम एक नाम से पुकार सकते हैं। जीव के प्रति हमारी दृष्टि समीचीन होनी चाहिए। जैनत्व को जिसने नहीं समझा है, उसके लिए उपदेश है। जैन अपने आपकी प्रशंसा नहीं चाहता है। हमें उनकी प्रशंसा करनी है जो जैन नहीं हैं। धर्म किसी का नहीं है वह तो एक प्रवाह है। यह नदी के समान है, उसे कोई बाँध नहीं सकता, उसमें हम अपने पापरूपी मैल को धो सकते हैं। जब जहाँ कहीं नदी का बाँध बना देते हैं, वहीं ‘खतरा' लिख देते हैं। इसी तरह धर्म को नदी की तरह बहने दो, उसे कोई आघात नहीं पहुँचेगा, उसे संकीर्ण दायरे में मत रखो, उसकी सीमा मत रखो, वह विस्तृत वस्तु है। व्यवहारिक क्षेत्र में नाम की जरूरत है, पर आध्यात्मिक क्षेत्र में नाम की जरूरत नहीं है। जहाँ विसंवाद खड़ा हो, वहाँ धर्म नहीं है। धर्म सबको समान देखता है। जिस प्रकार हवा, पानी सबको एक प्रकार लाभ देती है। धर्म को धारण कर फल की आकांक्षा करना, भूल है। फल की धारा तब तक अपने आप बनी रहती है, जब तक धर्म से सम्बन्ध बना रहता है। धर्म के साथ सम्बन्ध होने पर संवेदन होने लगता है, और वह संवेदन तब तक अक्षुण्ण रहता है जब तक धर्म से सम्बन्ध रहता है। जो तत्काल सुख का अनुभव कराये, कर्मों से छुटकारा दिलाये, और अभ्युदय की प्राप्ति कराए, वही धर्म है। मुक्ति हर एक के लिए इष्ट है। सुख सबको इष्ट है, पर दुख नहीं। कर्म जब छूट जाते हैं, तब ही सुख का अनुभव होता है। जिसको धर्म पर विश्वास हो जाता है, उसको यह मालूम हो जाता है कि मेरे कितने कर्म छूट रहे हैं, सुख का अनुभव हो रहा है। जो कर्मों से छुटकारा चाहता है, वह दुख का अनुभव नहीं करेगा। पूर्व में जो कर्ज लिए है, धन आने पर उसे कर्ज लौटा देना चाहिए। इसी प्रकार जब हमारे पास शक्ति है, तब ही बन्धे हुए कर्मों से छुटकारा पा लेना चाहिए, इसे कहते हैं निर्जरा। हमें कर्म से छुटकारा पाने के लिए धर्म को धारण करना है। हमें धर्म इष्ट है यह सोचना है। अगर धर्म इष्ट है तो फिर इष्ट को (धर्म) दुख का कारण कैसे मानोगे? जब शरीर में ताकत है, तब ही धर्म धारण कर कर्मों से छुटकारा पा सकते हो। कार्य के पूर्व में उपाय के साथ अपाय का भी विचार करना है। दवाई के साथ बीमारी में पथ्य का भी विचार करना पड़ेगा तभी रोग का इलाज होगा। रणक्षेत्र में दूसरे पर प्रहार करने के साथ-साथ कवच, ढाल आदि से आत्म सुरक्षा के साधन को भी ध्यान रखना होगा, तभी आप जीत सकते हैं। कर्म अनिष्ट है और धर्म इष्ट है। अत: कर्मों को जीतने के लिए धर्म का आधार लेकर कर्मों पर प्रहार करो तभी विजय प्राप्त होगी। आत्मा का हित वीतरागता में निहित है, यह वीतरागता खड्ग की धार नहीं है; वीतरागता की उपासना अन्तरंग से जो करेगा, तभी उसकी मुक्ति सम्भव है। उपास्य बनना चाहो, तो भाव से उपासक बनी। इन्द्रियों को और कषायों को अनिष्ट समझो। सब साधन अनुकूल होकर भी जो धर्म धारण नहीं करता, तो वह ऐसा ही है, कि रत्न द्वीप में जाकर भी रत्न नहीं लेता। यह तो अभागापन है। देह को हेय समझो, इसे कारागार समझो, देह जावे तो जाने दो पर आप धर्म को धारण करो। देह सूख जाये तो सूखने दो, पर आप तो ताजा बनो, भाव निक्षेप से जैन बनो। नाम से तो वह जैन बनेगा ही। भाव निक्षेप से चैतन्य शक्ति नहीं रुकती, धर्म की लहरें बाहर आने लगती हैं।
  25. अभिमान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अभिमान के साथ जो पुरुषार्थ करता है, उसे धिक्कार हो, अभिमान अज्ञानी को ही होता है। अपने अंदर झाँककर देखो, शांति मिलेगी, वरन् इस पर्याय की एक उम्र होती है। अहित की सामग्री के साथ जिसने अनुबंध कर लिया है, उसे क्लेश के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। आज का युग अजीव तत्व की खोज में लगा हुआ है और जीव तत्व को भूल ही गया है। जब तक अर्थ(धन)है, तब तक ही उसे सम्मान मिलता है। इस पर अभिमान मत करो। शरीर तो नश्वर है वह छूटेगा ही, यह उसका स्वभाव है, इसलिए उसे अमर बनाने का प्रयास मत करो। संसार में मात्र मृत्यु (काल) ही विजेता है, इससे कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता, मृत्युंजयी बनने वाला ही अपनी रक्षा कर सकता है। वृक्ष से छूटा (टूटा) फल जन्म है और नीचे जमीन पर गिरा मरण है, यहाँ सदा स्थिर रहने वाला कोई नहीं है, शरीर में रहने का यह जीव आदी हो गया है इसलिए शरीर को छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन सम्यकद्रष्टि सोचता है कि मैं शरीरातीत कब होऊँगा। अनुभव ही काम आने वाला है, जीवन में। मात्र किताबी ज्ञान कुछ उपलब्धि नहीं करा सकता है। शरीर बदमाश है, अपने आपको जीव के रूप में दर्शाता है। अलोकाकाश में तीन लोक बहुत छोटा दिखता है, आकाश के तारे के समान, लेकिन केवलज्ञान रूपी आकाश में अनंत लोकाकाश भी तारे की भाँति दिखाई देता है, फिर भी केवलज्ञानी अभिमान नहीं करते और यदि हम इस क्षयोपशम ज्ञान पर अभिमान करते हैं तो हँसी के पात्र हैं। ठसका क्या है ? भोजन करते समय बोलने से भोजन जिस दिशा में नहीं जाना चाहिए उस दिशा में चला जाता है तो ठसका लग जाता है, ठीक वैसे ही हम मोक्षमार्ग की दिशा से विपरीत गये तो ठसका लगेगा ही। आवागमन कम करने से साधना में निखार आता है। हमारे गुणों का महत्व, मान कषाय में तृणवत् होने पर ही बढ़ता है। शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ भगवान् तीन-तीन पद के धारी थे, उन्होंने कभी अभिमान नहीं किया, इसलिए तीन लोक के नाथ बन गये। सम्यकदर्शन मद के कारण कभी भी नष्ट हो सकता है, इसलिए हमें अपने आपको मान कषाय से बचाये रखना चाहिए। मान कषाय का अनुभाग सबसे ज्यादा पञ्चेन्द्रिय संज्ञी के ही पड़ता है। तप, ज्ञान रूपी वृक्ष मानादि कषायों के कारण सूखने लगते हैं, इसलिए संयमी को हमेशा मानादि कषायों से सावधान रहना चाहिए। त्यागी वस्तु याद है तो समझे कुछ छोड़ा ही नहीं वह अभी भी दिमाग में है। जिसमें अभिमान का पुट हो ऐसा त्याग, त्याग नहीं माना जाता। अभिमान करने से पुण्य भी पतला होने लगता है, इसलिए अभिमान नहीं करना चाहिए। मान की भूख को छोड़ना महान् व्रत है। अपमान का अर्थ है, अपना नहीं अपनी मान कषाय का अपमान हो रहा है, इसे सहन करना भी महान् तपस्या है, इसमें मान कषाय का ही अभाव हो रहा है, अपना न मान होता है। न अपमान होता है, अपन तो ज्ञाता, दृष्टा आतमराम है। यह श्रद्धान होना बड़ा महत्वपूर्ण है, जिसको यह श्रद्धान आ गया उसे समझलो मोक्षमार्ग मिल गया। जाति का मद करने से सामाजिक व्यवस्था भी बिगड़ जाती है और सम्यकदर्शन में दोष भी लगता है। यह जाति समाज व्यवस्था के लिए है, सम्यकद्रष्टि धर्म में इसका आग्रह नहीं करता। जाति कुलादि देहाश्रित व्यवस्था है, जहाँ जाति का आग्रह होने लगता है, वहाँ पर रत्नत्रय धर्म गौण होने लगता है। लघु बनना सीख लो, क्योंकि लघु बने बिना विराटता का अनुभव नहीं किया जा सकता। जो मान/अपमान में रुष्ट-पुष्ट नहीं होते उन्हें नमन करो। मान पंचेन्द्रियों के मालिक मन का विषय है। हमारा ज्ञान बीज की छाया के समान है, जिसमें नीचे चींटी तक नहीं बैठ सकती और मेंवलज्ञानी का ज्ञान वटवृक्ष की छाया के समान है। स्वभाव में अभिमान नहीं होता, विभाव में ही अभिमान के अंकुर पैदा होते हैं, सम्यकद्रष्टि इन अंकुरों को सम्यकज्ञान की तर्जनी से उखाड़ देता है। दूसरे के साथ अपनी तुलना करने से स्पर्धा के भाव उत्पन्न होते हैं, जो कि मान की ओर ले जाने वाली यात्रा है। मान को छोड़ने से दुनिया का सम्मान उनके चरणों में आ जाता है, भगवान् के चरणों में दुनिया झुकती है, सबसे ज्यादा सम्मान उसे मिलता है, जिसके पास मान नाम मात्र भी नहीं है। क्षमा, मार्दव आदि धर्म के कारण तप, ज्ञान के वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
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