आचार्य उस वस्तु को दिखाने का प्रयास कर रहे हैं जो आज तक हमारे लिए अपरिचित थी, जो आज तक हमारे देखने, सुनने व अनुभव में नहीं आई है। थोड़ा प्रयास किया जाये तो बहुत कुछ हो सकता है। थोड़ी दृष्टि बदलने की आवश्यकता है। कुछ विचार (Rest) की जरूरत है। रास्ता बहुत कम है, मात्र मुड़ना, (घूमना) है। प्रयास को दौड़ने की आवश्यकता नहीं, विवेक की दृष्टि बदलने की जरूरत है। विधि के अनुसार प्रयास करना है, जो धर्म आज तक नहीं मिला वह एक सैकेंड में मिल सकता है। इसी धर्म को आचार्य महोदय समझा रहे हैं। उसे समीचीन धर्म, जैन धर्म, विश्वधर्म, किसी नाम से पुकारो। धर्म वह है जो कार्य करने में सक्षम हो, संसार के दुख को समाप्त करने में सक्षम हो। समीचीन बात तो यह है कि हमारी गति उस ओर गई ही नहीं। हम तन, धन, वचन से सिद्धान्त को उल्टा करना चाह रहे हैं, वर्तमान स्थिति को हमेशा बनाये रखना चाह रहे हैं। अनेक नवयुवकों ने सुख-शांति की खोज के लिए ज्यादा नशा करके आत्महत्या भी कर डाली ề | उनके पास Right Direction का अभाव है |परन्तु यहाँ पर जब Right Direction है तो भी प्रयास नहीं है। यह बड़े अचम्भे की बात है। हमने आज तक वीतरागता के बारे में अध्ययन किया ही नहीं, और अगर किया भी तो सिर्फ प्रमाण-पत्र को प्राप्त करने के लिए। सुख क्या चीज है? कैसे कहाँ से प्राप्त किया जा सकता है ? यह बात आज तक समझ में नहीं आई। हम कुछ समय के लिए इन्द्रियों के विषय को, ख्याति लाभ पूजा को भूल जाये। बाहरी चीजों के प्रति शरीर-ममता के प्रति उपेक्षा भाव होना, वहीं धर्म है। सुख तक पहुँचने का यही एक मार्ग है जो सुख चाहता है वह परिग्रह और उपसर्ग के बीच में से गुजरता है। उस व्यक्ति को परीक्षा देनी है, उससे ही उसका मूल्यांकन किया जायेगा। शब्दों की उलझन में न पड़ कर समीचीन धर्म की खोज करनी है। संसार शरीर और भोग की ओर पीठ होना चाहिए तभी धर्म की भूमिका प्रारम्भ हो जाती है। हमने जयपुर की ओर मुख कर रखा है और जाना भीलवाड़ा है। हम कैसे भीलवाड़ा पहुँचेगे? हमें अपना मुख भीलवाड़ा की ओर करना है। हम धर्म के साथ नहीं जी रहे हैं। इसीलिए अशांति का अनुभव कर रहे हैं। दिन भर खाऊँ-खाऊँ, सोऊँ-सोऊँ लगा रखा है। साल में दस लाख की आवश्यकता है, हम १५ लाख की चेष्टा कर रहे हैं, यही अनन्तानुबन्धी है। धनार्जन में पुरुषार्थ ही कारण नहीं है, सातावेदनीय कर्म का उदय भी एक कारण है। शरीर को चलाने के लिए धन काम आता है। चार सौ बीसी आदि द्वारा हम अपनी आत्मा को अधोगति की ओर ले जा रहे है और आत्मा की हत्या कर रहे हैं। समुद्र आदि में डूबना ही आत्महत्या नहीं है। आज तक हमने अनेकों बार आत्महत्या की है। जमाना नहीं बदला है, न बदलता है, हम बदल गये हैं। मुख पर कालिमा लगाने व मिटाने वाला दर्पण नहीं है, वह मात्र दिखाने वाला है। काल के पास ज्ञान संवेदन नहीं है,वह तुम्हें नहीं बदल सकता है। हमारे स्वयं के विचार बदलते जा रहे हैं। विचारों में विकार पैदा होता जा रहा है। आप कुछ त्याग नहीं करना चाहते हो तो कम से कम अनन्त संज्ञा जो लगी है, उसे तो छोडो ।
आज अर्थयुग की चरम सीमा है। समयसार पढ़कर Ph.d. की डिग्री प्राप्त की जा रही है। एक ही दुकान पर दादाजी से लेकर पोते बैठकर अर्थ की लालसा में पड़े हैं, बच्चों को किस प्रकार शुरू से ही अर्थ के गर्त में फेंक रहे हैं। समय-समय में समुद्र में लहरें उठती हैं और नाश को प्राप्त होती हैं समुद्र सत्ता का प्रतीक है। लहरों को पकड़ने की चेष्टा कर रहे हैं पर वह आपके हाथ नहीं आ रहीं हैं, पानी ही हाथ आ रहा है ? सत्ता का अवलोकन तो करो। आत्मा है, रहा है और रहेगा चिर काल तक। इसे कोई मिटा न सकेगा। इस वास्तविक स्थिति को जो समझेगा वो त्याग मार्ग की ओर अग्रसर होगा। ये दशाएँ पर्याय के रूप में हैं, क्षणिक हैं। सत्ता के रूप में नहीं। भेद विज्ञान को इसीलिए प्रथम स्थान दिया है। भेदविज्ञान कहो या अनेकांत, स्याद्वाद कही एक ही बात है। पर्याय को कोई भी मिटा नहीं सकता न बना सकता है, वह सत्ता में से निकलती रहती है, मिटती रहती है। हम राग द्वेष को मिटाकर वीतरागता में परिणत करा सकते हैं। सुख आत्मा का ही एक धर्म है, हम उससे अनादि से वंचित हैं, इसलिए दुख का अनुभव कर रहे हैं। आप इस सुख को प्राप्त कर सकते हैं। स्थिति को बदलना पड़ेगा। आपकी इन्द्रियाँ शरीर की सुरक्षा में लगी हुई हैं। जहर की लहर तो आ रही है, अमृत की लहर आज तक नहीं आई है। आप चाय तो चाहते हैं, पर अमृत रूपी लहरों को नहीं चाह रहे हैं। इस दौड़ धूप को छोड़ दी, विचार करो। जितना आप का खर्च है, उतना ही कमाने की चेष्टा करो। जैसा तैसा कैसा भी आवे पैसा आवे, ऐसी चेष्टा मत करो।