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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 9 - धर्म का मर्म

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    स्वार्थ का त्याग परमार्थ की सिद्धि के लिए सोपान का काम करता है। मिथ्या भ्रांतियों को मिटाने के लिए समंतभद्राचार्य साम्प्रदायिकता से दूर हटकर समीचीन धर्म को लिख रहे हैं। जो व्यक्ति रास्ते पर लग गया, जो ज्ञानी है, उसके लिए कालेज आदि की जरूरत नहीं है। धर्म को जाति की डोरी में, पंथ की डोरी में बाँध लेना, अनेकांत को ठेस पहुँचाना है, व्यापकता का विरोध करना है। धर्म स्वतंत्र है, हम उसके शासन में हो सकते हैं, धर्म के सिद्धान्त को हम मान सकते हैं, उसके अनुसार चल सकते हैं, पर धर्म सिद्धान्त हमारे अनुसार नहीं चलेंगे। शब्दों से मतलब नहीं है, आशय से मतलब है। शब्द सीमित हैं। हम शब्दों के पीछे ही जीवन खो देते हैं, पर अर्थ को (आशय को) नहीं समझ पाते हैं। शब्द तो सिर्फ माध्यम है। लेकिन जो रूढ़िवादी तथा अहंभाव को लिए हुए हैं, वे आशय को नहीं समझना चाहेंगे।

     

    इन्द्रियों को रोककर (दमन कर) जिन्होंने अपने आपके विकास के लिए प्रयत्न किया है, अथवा कर रहे हैं, वे वास्तविक जैन हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव निक्षेप से जैन होना है, पतित से पावन बनने की बात करनी है। जिधर उपास्य की दृष्टि होती है, उधर ही उपासक की दृष्टि रहती है। जब जिनेन्द्र के बताए उपदेश को व्यक्ति समझेगा, तब वह शब्दों में नहीं उलझेगा। उपाधि की ओर न देखने वाला व्यक्ति ही ऊपर उठ जाता है। धर्म के पीछे कोई उपाधि नहीं है। धारण करता है, वह धर्म है। जिस प्रकार पारसमणि उसी लोहे को सोना बनाता है, जिस पर कपड़ा अथवा जंग न लगा हो उसी प्रकार वही जीव अपने आपको पावन बना सकता है जो जिनेन्द्र भगवान के संदेश के अनुसार चलेगा। जैन धर्म जैसी उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं मिलेगी। जो उपाधि को मिटाने की चेष्टा करता है, वह समाज में मिलने की चेष्टा करता है। हमारे यहाँ संग्रह नय एक ऐसा नय है जिसमें प्राणी मात्र को हम एक नाम से पुकार सकते हैं। जीव के प्रति हमारी दृष्टि समीचीन होनी चाहिए। जैनत्व को जिसने नहीं समझा है, उसके लिए उपदेश है। जैन अपने आपकी प्रशंसा नहीं चाहता है। हमें उनकी प्रशंसा करनी है जो जैन नहीं हैं। धर्म किसी का नहीं है वह तो एक प्रवाह है। यह नदी के समान है, उसे कोई बाँध नहीं सकता, उसमें हम अपने पापरूपी मैल को धो सकते हैं। जब जहाँ कहीं नदी का बाँध बना देते हैं, वहीं ‘खतरा' लिख देते हैं। इसी तरह धर्म को नदी की तरह बहने दो, उसे कोई आघात नहीं पहुँचेगा, उसे संकीर्ण दायरे में मत रखो, उसकी सीमा मत रखो, वह विस्तृत वस्तु है। व्यवहारिक क्षेत्र में नाम की जरूरत है, पर आध्यात्मिक क्षेत्र में नाम की जरूरत नहीं है। जहाँ विसंवाद खड़ा हो, वहाँ धर्म नहीं है। धर्म सबको समान देखता है। जिस प्रकार हवा, पानी सबको एक प्रकार लाभ देती है। धर्म को धारण कर फल की आकांक्षा करना, भूल है। फल की धारा तब तक अपने आप बनी रहती है, जब तक धर्म से सम्बन्ध बना रहता है। धर्म के साथ सम्बन्ध होने पर संवेदन होने लगता है, और वह संवेदन तब तक अक्षुण्ण रहता है जब तक धर्म से सम्बन्ध रहता है।

     

    जो तत्काल सुख का अनुभव कराये, कर्मों से छुटकारा दिलाये, और अभ्युदय की प्राप्ति कराए, वही धर्म है। मुक्ति हर एक के लिए इष्ट है। सुख सबको इष्ट है, पर दुख नहीं। कर्म जब छूट जाते हैं, तब ही सुख का अनुभव होता है। जिसको धर्म पर विश्वास हो जाता है, उसको यह मालूम हो जाता है कि मेरे कितने कर्म छूट रहे हैं, सुख का अनुभव हो रहा है। जो कर्मों से छुटकारा चाहता है, वह दुख का अनुभव नहीं करेगा। पूर्व में जो कर्ज लिए है, धन आने पर उसे कर्ज लौटा देना चाहिए। इसी प्रकार जब हमारे पास शक्ति है, तब ही बन्धे हुए कर्मों से छुटकारा पा लेना चाहिए, इसे कहते हैं निर्जरा। हमें कर्म से छुटकारा पाने के लिए धर्म को धारण करना है। हमें धर्म इष्ट है यह सोचना है। अगर धर्म इष्ट है तो फिर इष्ट को (धर्म) दुख का कारण कैसे मानोगे? जब शरीर में ताकत है, तब ही धर्म धारण कर कर्मों से छुटकारा पा सकते हो। कार्य के पूर्व में उपाय के साथ अपाय का भी विचार करना है। दवाई के साथ बीमारी में पथ्य का भी विचार करना पड़ेगा तभी रोग का इलाज होगा। रणक्षेत्र में दूसरे पर प्रहार करने के साथ-साथ कवच, ढाल आदि से आत्म सुरक्षा के साधन को भी ध्यान रखना होगा, तभी आप जीत सकते हैं। कर्म अनिष्ट है और धर्म इष्ट है। अत: कर्मों को जीतने के लिए धर्म का आधार लेकर कर्मों पर प्रहार करो तभी विजय प्राप्त होगी।

     

    आत्मा का हित वीतरागता में निहित है, यह वीतरागता खड्ग की धार नहीं है; वीतरागता की उपासना अन्तरंग से जो करेगा, तभी उसकी मुक्ति सम्भव है। उपास्य बनना चाहो, तो भाव से उपासक बनी। इन्द्रियों को और कषायों को अनिष्ट समझो। सब साधन अनुकूल होकर भी जो धर्म धारण नहीं करता, तो वह ऐसा ही है, कि रत्न द्वीप में जाकर भी रत्न नहीं लेता। यह तो अभागापन है।

     

    देह को हेय समझो, इसे कारागार समझो, देह जावे तो जाने दो पर आप धर्म को धारण करो। देह सूख जाये तो सूखने दो, पर आप तो ताजा बनो, भाव निक्षेप से जैन बनो। नाम से तो वह जैन बनेगा ही। भाव निक्षेप से चैतन्य शक्ति नहीं रुकती, धर्म की लहरें बाहर आने लगती हैं।


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