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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 23 - संयम धर्म

       (2 reviews)

    आज का यह संयम दिन है। संयम का मतलब बंध जाना। व्रत-नियम में कानून में बंध जाना। हरेक क्षेत्र में संयम की बड़ी आवश्यकता है। बंधन जब तक टूटता नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है और जब तक बंधन (संयम) नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है। जिस प्रकार ऊंट के लिए नकेल, घोड़ों के लिए लगाम, मोटर के लिए ब्रेक की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनुष्य के लिए ब्रेक, बंधन, संयम की आवश्यकता है। कोई भी कार चाहे वह नई, सुन्दर हो, उसे ठीक रास्ते व ठीक गति से चलाने के साथ-साथ ब्रेक का प्रयोग भी करना पड़ेगा। नई कार की सुरक्षा के लिए भी इतने बंधन है।

     

    समय अनादि कालीन बंधनों को तोड़ने के लिए एक बंधन है। मनुष्य पर ब्रेक नहीं हो तो इससे ज्यादा खतरा और किसी से नहीं होता। जब संयम नहीं है और मस्तिष्क में विकार आ जाता है, तब वह किसी को सुखी नहीं बना सकता।

     

    ज्ञेय पर कन्ट्रोल की आवश्यकता नहीं है, पर ज्ञाता पर कंट्रोल की जरूरत है। हम दूसरे पदार्थों को कंट्रोल में रखकर व्यवस्था देख रहे हैं परन्तु अपने पर कंट्रोल नहीं चाहते। आचार्य कहते हैं कि समीचीन रूप से जो चलना, जानना है, आचरण करना है, उसका नाम संयम है। हमें अनादि काल से दुख का अनुभव करना पड़ रहा है, वह दूसरे पदार्थों के कारण से नहीं। संयम के अर्थ को आज तक हमने समझा ही नहीं है। संयम का अर्थ है प्राण और इन्द्रियों को कंट्रोल में रखना। जब ज्ञान धारा जानने की शक्ति को बिना कंट्रोल के छोड़ देते हैं, तभी दुख का अनुभव होता है। उपवास करना, रस छोड़ना आदि ही संयम नहीं है। हमें इस रहस्य को समझना है। आचार्यों ने कहा है कि-

     

    "समीतिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रिय परिहारस्संयमः"

    जितने भी धर्मं, मत हुए हैं,सभी ने प्राण संयम के बारे में लिखा है। ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जीवों पर परस्पर उपकार करना लौकिक बात है। संकट का मिटाना ही उपकार का नाम है। संयम का अनुपालन सभी करते हैं परन्तु भगवान् महावीर की अहिंसा अलग है। उनका संयम सत् की ओर ले जाने वाला है। इन्द्रिय संयम का अर्थ इन्द्रिय ज्ञान पर कंट्रोल। आत्मा के क्षायोपशमिक ज्ञान पर कंट्रोल करना, अपने आप पर कंट्रोल करना। ज्ञान पर कंट्रोल टेढ़ी खीर है। आज हम इसीलिए फेल हो रहे हैं। हम प्राणी संयम को तो धारण कर लेते हैं पर इन्द्रिय संयम को नहीं करते। कषायों का त्याग भी इन्द्रिय से मन के उपरान्त ही होता है। वास्तविक संयम, इन्द्रियों का दमन सत् की ओर ले जाता है। अपने आप में विवेक की ज्ञान की आवश्यकता है। यह संयमरूपी बंधन निर्वाण के लिए कारण है। मुक्ति में कारण है। जिस प्रकार कुंए में गिरा हुआ व्यक्ति बाहर निकलना चाहता है, तब बाहर निकालने वाला व्यक्ति उससे कहता है कि कमर में रस्सी बाँधो तब ही बाहर निकल सकते हो। वह रस्सी बाँधता है, तब ही वह बाहर निकलता है, बाहर निकलने के बाद रस्सी को भी खोल देता है। अगर पहले रस्सी नहीं बाँधे तो कुंए में से नहीं निकल सकता और अगर कुंए में से निकलने के बाद भी अगर बाँधे रहे तो उसे सब मूर्ख कहेंगे और वह बाहर का आनन्द नहीं ले सकेगा। इसी प्रकार पहले संयम रूपी बंधन मुक्ति के लिए आवश्यक है, बाद में उसको भी तोड़ देना। एक बन्धन तो माध्यम होता है और एक बन्धन संसार का कारण है। संयम रूपी बंधन अपने आप पर कंट्रोल, सुख के लिए कारण है।

     

    हम मात्र दुनियाँ जो कहती है, उसी को अपना रहे हैं। लोग विचारते हैं परिग्रह अपने पास नहीं रखना पर मन में रखना, ये कैसा पागलपन है। कहा भी है -

     

    जो अन्य का परिचयी, निज का नहीं है।

    होता सुखी न वह चूंकि परिग्रही है ॥

    जो बार-बार पर को लख फूलता है।

    संसार में भटकता, वह भूलता है ॥

    मात्र प्राणी संयम को अपनाने वाला मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकता है। कहा है ‘जयति इंद्रियानि आत्मानं च इति जिन:' यानि जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया है वही जिन हैं, उनकी उपासना करने वाले जैन है। पंचेन्द्रिय विषय तो बिखरे पड़े हैं। जहाँ ६ प्रकार के द्रव्य हैं, वहीं लोक है, इस लोक में इतने पदार्थ भरे हैं कि वहाँ सुई रखने को भी जगह नहीं है। आप उन पदार्थों से कैसे बचोगे ? उन पदार्थों को भोगने की चेष्टा न करें। कोई भी कार्य अगर अनुचित लगता है तो स्थान से स्थानान्तर चले जाना। मना करना तो द्वेष का प्रतीक है। उचित-अनुचित न समझते हुए अपने आप में रम जाना तो सबसे उत्तम संयम है। रस लेना बाहर से यही संयम का अभाव है। जिस प्रकार खीर खाना कठिन है, उससे भी ज्यादा कठिन संयम है। जो तत्व की ओर जाता है, वही धारण कर सकता है। ज्ञेय को अपने अन्दर मत रखो, पर इन्द्रियों को रखो। स्वच्छंदवृत्ति का नाम संयम नहीं है। दया का मतलब प्राणी संयम और दमन का मतलब इन्द्रिय संयम है। इन्द्रियों का दमन करने वाला फल को इष्ट नहीं मानता। जो इष्ट नहीं मानता, वही कषाय का दमन करता है, वही ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को नष्ट करता है। वह वहाँ जाकर विश्राम लेगा, जहाँ निजधाम है। जो इन्द्रिय दमन को छोड़कर आत्मानुभूति की चेष्टा करता है, वह अनधिकृत चेष्टा है। द्रव्य संयम का ही अनुपालक कभी भी उस सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। कषाय त्याग के बिना समाधि की निष्ठा नहीं हो सकती है। पहले दया फिर दमन है। अन्य मतों में एक उच्छंखलता नहीं मिटती। राग द्वेष इन्द्रियों की लालसा स्व है, पर स्व होकर भी मिट सकती है, क्योंकि ये स्व भी दूसरों के सम्बन्ध से है, ये क्षणिक है, इन्हें मिटा सकते हैं, वीतरागता के द्वारा। ज्ञेय ज्ञान की दृष्टि से झुकना और पकड़ने की दृष्टि से झुकना, ये दोनों अलग है। वैषयिक दृष्टि से झुकना-राग द्वेष है। हम अनंत बार जैन धर्म अंगीकार कर, मुनिव्रतों को धार कर नव ग्रैवेयक तक पहुँच गये हैं, पर वह मात्र प्राणि संयम को ही अपनाया है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो इन्द्रिय दमन करता है, वही इन्द्रिय संयम है। महावीर को पहचानने वाले जीव अनोखे, सत्य की खोज में होते हैं। जो दूसरों को पकड़ने की चेष्टा करता हुआ संयम पालन करता है, वह खतरे की चेष्टा है। अपने को पकड़ने की चेष्टा करो। बारबार आप विचार करो कि क्यों बार बार पकड़ने की इच्छाएँ हो रही है, कामना हो रही है। ये विचार ही संयम को धारण करा सकते हैं।

     

    क्या हो गया समझ में मुझको न आता,

    क्यों बार बार मन बाहर दौड़ जाता।

    स्वाध्याय ध्यान करके मन रोध पाता,

    पे श्वान-सा मन सदा मल शोध लाता।

    मैं ध्यान भी कर रहा हूँ, जाप भी कर रहा हूँ। फिर भी यह मन बाहर क्यों जा रहा है, मन को बाहर जाने से भी मैं रोक रहा हूँ। मन तो बहुत चंचल है। कितना चंचल है ? इस बारे में पूछने पर बताया है कि पहले तो बन्दर को देखो, फिर समझो कि वह पागल हो गया, फिर उसके एक पांव में बिच्छू काट खाया, फिर उसके पूँछ में आग लग गई। आप विचार करो कि पहले तो बन्दर स्वयं कितना चंचल, फिर पागल होने, बिच्छू को काटने व पूँछ में आग लगने पर वह कितना चंचल होगा! उससे भी कई गुना ज्यादा यह मन चंचल है। फिर अगर यह बाहर जाता है तो पुरुषार्थ करो रोकने का। भगवान् महावीर जो इतने पुरुषार्थी थे उनको भी १२ साल लग गये। उनका भी मन एक मिनट अन्दर रहता तो दो मिनट बाहर जाता। तब हम तो इतने कमजोर हैं, हमको तो बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। हमको उदास होकर नहीं बैठना है, फिर पुरुषार्थ करना है। संयम को धारण करना है।


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