एक व्यक्ति यह चाहता है कि मुझे रास्ता बताओ, दूसरा व्यक्ति कहता है कि मुझे रास्ता बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, जहाँ विनय के साथ कहता है, वहाँ संकोच की आवश्यकता नहीं है। उपदेश भी स्वाध्याय का एक अंग है। मैं उसे नमस्कार करता हूँ, जिसके द्वारा सुख शांति और वैभव को प्राप्त कर सकूं। रत्नत्रय आत्मा की निधि है। शिष्य को कुंभ की उपमा दी है, और कुम्हार की संज्ञा गुरु को मिली है। कुम्हार अनेक सामग्री जुटा कर उपयोग लगाता है, वह चाक फिराता है, कुम्भ बनाता है। अन्दर हाथ डाल कर बाहर से चोट मारता है। चोट के साथ सुरक्षा का भाव उसका होता है। जहाँ नीचे (अन्दर) हाथ होता है, वहाँ चोट मारता है, और कुंभ को सुन्दर बनाता है। महावीर भगवान् जिस पथ पर आरूढ़ हुए उसको कष्टकर न समझ कर सुख का अनुभव करना है। जहाँ रत्नत्रय की कमी है, वह दुख का अनुभव करेगा। भोजन, वस्त्रादि शरीर की खुराक है, ये तो माध्यम है, पर आत्मा की खुराक तो ये तीन रत्न हैं। आज के बालक स्व-पर कल्याण में समर्थ हैं। इसके लिए विधि होनी चाहिए। सर्व प्रथम जब तक पसीना नहीं आता, तब तक कार्य की सिद्धि नहीं होती। जब विवेक के साथ विधि (परिश्रम) संगठित हो जाती है, तब जल्दी सफलता मिल जाती है। मिट्टी व कुम्हार को देखकर ही घड़ा नहीं बन जाता है, उसके लिए साधन जुटाकर मेहनत करनी पड़ती है। दिशा बदलने पर ही दशा बदलेगी। आपको मात्र निर्देशन (Direction) की आवश्यकता है। ८ साल के उपरांत बच्चा उस काम को भी कर सकता है, जिसकी दादाजी भी नहीं कर सकते हैं।
मन बाहर की ओर दौड़ना चाहता है, मंदिर में नहीं रहना चाहता है। मन कुछ और चीज है और मंदिर कुछ और चीज है। मनोकामना की पूर्ति पाँच इन्द्रियों के द्वारा होती है। मन इन पाँचों नौकरों को काम बताता है। ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ती है। मन (ज्ञान) प्रवाह पाँच भागों में बंट जाता है। मन की भूख प्यास घर में नहीं मिटती है। जो मनोरथ पर बैठ जाते हैं उनकी गति राकेट से भी ज्यादा तेज हो जाती है। कल्पना भी बहुत दूर-दूर तक हो आती है। ज्ञान आज तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाया है। वह ज्ञान मंदिर के द्वारा ही लक्ष्य तक पहुँच पाता है। यह निमित-नैमितिक का सम्बन्ध है। एक इन्द्रिय जब काम कर रही हो तो अन्य इन्द्रिय काम करना गौण कर देती है। पंचेन्द्रिय विषय जहाँ घर में उपलब्ध है, वहाँ भगवान् के साथ ली नहीं लगा सकते है। लिखते समय भी उपयोग की बहुत आवश्यकता है। प्राथमिक दशा में पंचेन्द्रिय विषयों से दूर रहकर मंदिर में दर्शन करना जरूरी है। मंदिरों में पाँचों इन्द्रियाँ अपने कार्य बन्द कर देती है, Rest ले लेती हैं, इसलिए मन के द्वारा चिंतन हो जाता है। वहाँ विषयों को पुष्ट करने के साधन नहीं है। अत: उन पंचेन्द्रियों की शक्ति भगवान् की ओर केन्द्रीभूत हो जाती है। यह मंदिर समाज निष्ठा तक पहुँचने के लिए भी सोपान का काम करता है, प्रारम्भिक अवस्था में मंदिर जाना आवश्यक है, और वहाँ वीतरागता के बारे में खोज करना चाहिए तथा आरम्भ-परिग्रह, घर गृहस्थी की बातें नहीं करना चाहिए। उसे मिलने का स्थान नहीं समझना चाहिए।
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