आचार्य उस धर्म की व्याख्या कर रहे हैं, जिसके द्वारा आप संसाररूपी महा समुद्र से छूटकर ऊँचे सिंहासन पर बैठ जायें। अनादिकाल से इस संसारी आत्मा की शक्ति का दुरुपयोग होने के कारण यह दुखी का दुखी ही रहा है। सन्त महर्षि अपने आपके जीवन के लिए कोई आवश्यकता नहीं रखते हैं, उनका ध्येय यही होता है कि सबको सुख प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हो। व्यवस्था बन्धन साधु के लिए नहीं हैं, गृहस्थ समाज के लिए हैं। रोगी के हाथ को पट्टी बाँधते समय अगर डॉक्टर भी अपने हाथ में पट्टी बाँध लेगा तो वह रोगी का रोग दूर नहीं कर सकेगा। भगवान् महावीर ने जो अनुशासन, व्यवस्थाएँ बनाई है, वह गृहस्थ समाज के लिए हैं। पर स्वयं के लिए, साधु समाज के लिए नहीं। बच्चा-पिताजी की आज्ञा लेकर कार्य करता है, पर जब स्वयं पिताजी उसको घर का भार सौंप देते हैं, तब वह सारे कार्य पिताजी की आज्ञा लेकर नहीं करता, इसका अर्थ पिताजी की अवहेलना नहीं है।
जो व्यक्ति जिस स्थान पर रहता है, उस स्थान पर उसका वैसा ही धर्म है। शीत लहर जब चल रही हो तो उसे ओढ़ना पड़ेगा। धर्म का मतलब यह नहीं कि जैसा आप कर रहे हैं, वैसा ही सब करें। जो व्यक्ति अहंकार (अभिमान) के साथ दूसरे को अपने अनुसार चलाता है, वह अनीश्वर है, उसे तीन काल में सफलता नहीं मिलेगी। जिस क्षेत्र में जो धर्म चल रहा है, उसे समीचीन संज्ञा दी जा सकती है। जितनी आपके पास चबूर है, उतने ही पैर फैला दो, तभी आपका धर्म निभेगा। अग्नि अनेक कार्यों में काम आती है। वह प्रकाश भी देती है, उससे रोटी भी बन सकती है, पर अपने को बचाते हुए उससे काम लेना है, वरना उससे आपकी अंगुलियाँ जल जाएँगी। प्रकाश भी वह तभी प्रदान करेगी जब उसे दीपक का रूप दिया जायेगा। एक बात को हरेक क्षेत्र में ले आना, ठीक नहीं है। साधु आपके शासन में शासित नहीं है, उसके बन्धन गृहस्थ समाज के अनुसार नहीं है। पिताजी कैसे चलते हैं, वह देखने की आवश्यकता बच्चे को नहीं है। बच्चा पिताजी के अनुसार चले, यही उसका कर्तव्य है। प्रजाओं पर शासन चलाना मामूली चीज है, पर अपने ऊपर शासन चलाना टेढ़ी खीर है। आत्मवान तभी बनता है, जब प्रजाओं की सुरक्षा करते-करते उससे भी ऊपर उठ जाता है। आज जितनी भी हड़ताल छात्रों द्वारा होती हैं, उसका कारण यही है कि बच्चे चाहते हैं कि मास्टर उनके अनुशासन में चले। संसारी जीव प्राय: करके हुकुम (शासन) की ओर बहुत जल्दी दौड़ जाता है, वह समझने लगता है कि मैं सबसे ऊपर हूँ, पर उससे ऊपर आकाश भी तो है।
सम्यक् दृष्टि वह है जो विवेक के साथ चलता है। ज्ञान-दर्शन चलते नहीं है, पर आदेश दे देते हैं। हेय की ओर गति न कर उपादेय की तरफ गति देते हैं। चारित्र (पैर) नहीं जानता कि उचित स्थान कौन-सा ? पैर गधे के समान है। ज्ञान और दर्शन के हाथ में उसकी लगाम है। ज्ञान दर्शन यात्री और चारित्र रेल (घोड़ा) इत्यादि वाहन है।
अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ का फल तो हमने अनन्त बार भोग लिए, पर धर्म पुरुषार्थ का फल प्राप्त नहीं किया। भ्रमर फूल के रस का सेवन करता है, पर उसको नुकसान नहीं पहुँचाता है। और गन्दी वस्तुएँ टट्टी-पेशाब आदि पर भी नहीं बैठता। पर मक्खी गन्दी वस्तुओं पर भी बैठती है, और उसमें लिप्त भी हो जाती है। दोनों चार इन्द्रिय जीव है। सम्यक् दृष्टि भ्रमर के समान भोग करते हैं और मिथ्यादृष्टि मक्खी के समान। दोनों में से एक में ज्ञान है, अनेकांत है। दूसरे में अज्ञान और एकांत है। सम्यक् दृष्टि कर्म का फल तो भोगता है, पर कर्म करके फल नहीं भोगता है। वह एनकेन प्रकारेण लडू बनाकर खाने की कामना नहीं करता, लडू के त्याग नहीं है। लड्डू हो तो खा लेता है। वह जब त्याग की तरफ आ जाता है तो भोगों को पीठ दिखा देता है। सद्गृहस्थ को ‘मेरी भावना' भानी चाहिए और 'बारह भावना' जो मुक्ति पथ पर आरूढ़ है उसे भानी चाहिए। ऐसा न करने पर तो फिर 'थोती' भावना हो जाएगी। मिथ्या दृष्टि जय-जय भी बोलता है, उपासना भी करता है और सम्यक् दृष्टि भी ऐसा करता है, पर दोनों में फर्क है। अत: गृहस्थ जीवन में सुख शांति लाने के लिए विषयादि को कुछ समय गौण, कुछ समय मुख्य, फिर गौण करना है। अर्थ व काम पुरुषार्थ करते हुए धर्म पुरुषार्थ को मुख्य रखोगे। अर्थ तथा काम पुरुषार्थ जब हावी हो जाते हैं, तब अधोगति की ओर मुख हो जाता है। इनको मुख्य नहीं बनाना है। आज अर्थ पुरुषार्थ मुख्य हो गया है। इसमें परिग्रह संज्ञा २४ घंटे उद्दीप्त रहती है। उसको गौण कर भोग करके योगी बन सकते हो वरना तो रोगी बन जाओगे। आर्तध्यान की जरूरत जीवन को चलाने के लिए नहीं है। जिस क्षेत्र में आप विराजमान है, उसी के अनुरूप आपकी दृष्टि होनी है। ज्ञान-दर्शन के अनुसार ही चारित्र में लगना है। फूल फल की निशानी है। फूल की सुरक्षा करने पर फल की प्राप्ति होती है। जब फूल मुरझाने लगता है तो स्वर्गों के देव भी जान जाते हैं कि अब हमें यहाँ फल नहीं मिलेंगे। जब भोगों का अन्त होता है तभी योग के चिह्न प्रादुभूत होते हैं। जो भगवान् के सम्मुख भोगों का त्याग करते हैं तो वे वापस नहीं आते हैं और भोगों को भगवान् के सम्मुख गौण कर देते हैं वे भरत चक्रवर्ती के समान हो जाते हैं। पीछे चलने वाला यह सोचे कि आगे वाला उसके अनुसार चले तो यह गलत है। पीछे वाले को ही आगे बढ़कर आगे वाले के अनुसार चलना पड़ेगा।