आत्मा एक द्रव्य है और महान् शक्ति का धारक है, लेकिन अनादि काल से दूसरे के संयोग से स्वतंत्र नहीं रहा, इसकी अनंत शक्ति जघन्य अवस्था के रूप में परिणत हो चुकी है। अपनी आभा को पूर्णरूपेण प्रकाशित नहीं कर सकी है। देखने व जानने में ही इसकी शक्ति कमजोर हो गई है, ज्ञान शक्ति को पूर्णरूपेण प्रकाशित नहीं कर सकी। उस कमजोर मलिन आत्मा को जब कभी भी जानना या देखना होता है तो वह दूसरे की सहायता से देखना जानना चाहता है। स्वयं में इतनी लब्धि, पदार्थ होते हुए भी दूसरों की ओर देख रहा है। जिस प्रकार वकील के द्वारा नशीले पदार्थ का सेवन करने पर ज्ञान लुप्त हो जाता है, और नशा उतरने पर ज्ञान आ जाता है। इसी प्रकार दूसरे को पकड़ने से और उपयोग को काम में न लेने से यह जीव ज्ञान को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। आत्मा का ज्ञान किस रूप में परतंत्र है, और स्वतंत्र करने का क्या उपाय है ? पेट का ऑपरेशन करने पर बेहोशी का इंजेक्शन लगा देने से वेदना का अनुभव नहीं होता, वहाँ द्रव्येन्द्रिय सो गई। द्रव्येन्द्रिय के आधार पर भावेन्द्रिय काम करती है। ये स्पर्शन इन्द्रिय क्षायोपशमिक ज्ञान में मदद करती है। ज्ञान जो दूसरे के द्वारा है वह अज्ञान ही है। आँख चली जाने पर हम ऐसा कह देते हैं कि आँख चली गई। पर आँख जो है क्षायोपशमिक लब्धि है। द्रव्येन्द्रिय चली गई तभी ज्ञान में कमजोरी आ गई। लब्धि तो है पर उपयोग नहीं।
बाहर की ओर जो शक्ति जा रही है, उसको रोकना संयम है। संयम का मतलब ज्ञान के ऊपर कंट्रोल। वह कंट्रोल सुलाकर नहीं, जीवित कर कंट्रोल। ध्यान जीवित व होश अवस्था में होता है। सोती अवस्था तो प्रमत-अवस्था है। सभी इन्द्रियों को काट डालो और ध्यान कर ली, यह धारणा गलत है, इससे तो पीड़ा जो हो रही थी वह लुप्त हो गई है, बाहर की ओर नहीं आ रही है। द्रव्येन्द्रिय संयम के अभाव में सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक आर्त और रौद्रध्यान तो है, पर धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान नहीं होता। मन को कंट्रोल करने रूप प्रशस्त ध्यान, पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्य को ही होता है। वह अपने आप में लवलीन हो जाता है।
चिंता का निरोध-मन का विषय है, अन्य कोई भी नहीं। यह मोक्ष मार्ग की अपेक्षा से है। ज्ञान को काम में लेकर जो ध्यान है, वही वास्तविक ध्यान है। मादक पदार्थ का सेवन कर जो ध्यान है, वह ध्यान नहीं है। वहाँ संयम नहीं है। जब पाँचों इन्द्रियों पर कंट्रोल है, तब संयम का पालन होता है। मुनि व्रत धारण करके ज्ञान पर कंट्रोल, संयम पर कंट्रोल नहीं हुआ, इसी कारण मुक्ति नहीं हुई। जिस प्रकार टार्च में से प्रकाश निकलने का स्थान सूक्ष्म है, जब उसकी किरणें दूर तक फैलती जाती हैं वैसे वैसे कमजोर हो जाती हैं। अगर फैलाते नहीं और किरणों को केन्द्र पर रखते हैं, तो वह उसको जलाने में कारण हो जाती है उसी प्रकार जैसे-जैसे ज्ञान फैलता है वैसे-वैसे कमजोर होता जाता है। ज्ञान जब केन्द्र (ज्ञेय) पर स्थित हो जाता है, तब अनंत का ज्ञाता बन जाता है, कर्मों को जला देता है। मन पर कंट्रोल करने का तरीका यही है कि संयम को धारण कर लें। जिन्होंने द्रव्येन्द्रिय पर कंट्रोल किया है, भावेन्द्रिय पर नहीं, वह ज्यादा से ज्यादा नव ग्रैवेयक तक जा सकता है। कारण भावेन्द्रिय ज्ञानात्मक है, द्रव्येन्द्रिय ज्ञानात्मक नहीं है। द्रव्येन्द्रिय पर तो अज्ञानी भी कंट्रोल कर लेता है, पर भावेन्द्रिय पर कंट्रोल करने वाला ज्ञानी ही होता है। ज्ञानी वही है जिसने राग द्वेष को मिटा दिया है। द्रव्येन्द्रिय संयम वह है कि लड्डू को खाया तो नहीं पर स्वाद का त्याग नहीं किया। मुँह के लिए तो विश्राम मिल गया, पर मन को नहीं, इससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। द्रव्येन्द्रिय के साथ-साथ ज्ञान पर कंट्रोल हो तब ही मोक्ष संभव है। ज्ञान ही सुख दुख दे रहा है। उसके पास अलौकिक शक्ति है अगर वह विपरीत दिशा में चला जाये तो गड़े में पटक देता है। द्रव्येन्द्रिय कंट्रोल में है वर्तमान में तो त्याग है, पर भूत में भोगे को और भविष्य में भोगने का याद कर रहा है, वह स्वर्गीय संपदा को चाह रहा है, वह नरक में दुख और स्वर्ग में सुख (विषयों में सुख) मान रहा है, इसीलिए वर्तमान में त्याग कर रहा है, वह एक दृष्टि से बहिरंग, द्रव्य संयम है। दूसरों पर कंट्रोल है, स्वयं पर नहीं, ज्ञान पर कंट्रोल करो, ज्ञेय पर नहीं, तभी वह ऊपर जा सकता है। पूज्य पाद स्वामी ने समाधिशतक में कहा भी है
संसर्ग पा अनल का नवनीत जैसा,
नो कर्म पा पिघलता बुध ठीक वैसा।
योगी रहे इसलिए उनसे सुदूर।
एकांत में विपिन में निज में जरूर ॥
क्षायोपशमिक ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल को लेकर उस प्रकार पिघल जाता है, जिस प्रकार नवनीत उष्ण का संसर्ग पाकर पिघलता है। जहाँ भगवान् महावीर पहुँच गये हैं, उस रास्ते का नाम संयम है। द्रव्येन्द्रिय पौदूलिक और भावेन्द्रिय ज्ञानात्मक है। द्रव्य संयम दूसरों पर कंट्रोल और भाव संयम स्वयं पर कंट्रोल है। जिस समय अतिरेक होने लगता है, तब जो वास्तविक संयम के निकट होते है, वे अडिग रह जाते हैं, और जो मात्र द्रव्येन्द्रिय संयम को अपनाते हैं, वे पिघल जाते हैं, स्खलित हो जाते हैं, भ्रष्ट हो जाते हैं। कारण यही कि भावेन्द्रिय संयम पर लक्ष्य नहीं है। अन्दर की ओर जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनका अध्ययन, विचार वही कर सकता है, जो तत्व की ओर लक्ष्य रखता है। जहाँ मात्र दिखावा है, वहाँ द्रव्य संयम। जहाँ दिखाना ओझल होकर रहता है, वहाँ भाव संयम है। द्रव्य संयम में मान रहता है, भाव संयम में मान नहीं रहता। द्रव्य संयम एक प्रकार से ऊपर का फोटो है और भाव संयम अन्दर का एक्स-रे। वह अन्दर की कमी बताता है। मिथ्यादृष्टि भाव संयम को नहीं अपना सकता है। अत: अपने ऊपर कंट्रोल कर वास्तविक संयम को अपनाओ।