मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार का कारण है। ज्ञान बाहर से नहीं आया और न बाहर चला गया है। पुद्गल और जीव दो द्रव्य हैं। ये दोनों कुछ निमित्त को प्राप्त हो कर विपरीत परिणमन कर देते हैं। स्फटिकमणि के समान जीवात्मा भी स्वभाव को लिए हुए है पर दूसरे के संसर्ग से एक ऐसी सन्धि हुई है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि सफेद होते हुए भी सामने गुलाब का फूल होने पर वैसी ही दिखाई देती है। पारे के भस्म के साथ खटाई का मिश्रण हो जाये तो वह भस्म वापस पारा बन जाता है। इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव यद्यपि स्फटिक मणि के समान होने पर भी अनादि से पुद्गल से सम्बन्ध जुड़ा होने के कारण अपने स्वभाव में नहीं है। जब तक हमारी विपरीत परिणति रहेगी तब तक हम दुख का अनुभव करते रहेंगे। विभाव सो संसार स्वभाव सो मुक्ति। आपकी भाषा में जो संसार दिख रहा है, वही संसार जो मिट जावे वही मोक्ष। अनन्तानन्त जीव है और अनन्तानन्त मोक्ष। सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, आत्मा का स्वभाव। सरलता, ऋजुता आत्मा का स्वभाव। पानी का स्वभाव शीतल है, परन्तु उष्णता को धारण कर लेने के बाद पानी पीने पर कंठ व जीभ जला देता है। इसी प्रकार आत्मा के बारे में यही बात है। सम्यक्त्व भाव पाप को छोड़ने व पुण्य को प्राप्त करने से ही नहीं होगा। स्थान से स्थानान्तर, घर से मन्दिर आने से ही सम्यक्त्व भाव नहीं होता है। पुण्य-पाप तो पुद्गल के रसायन हैं, जो आत्मा के राग द्वेष को लेकर के परिणमन करते हैं, इनका प्रदेश भिन्न है। इनसे सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव नहीं है। धर्म आत्मा का एक स्वभाव है। जहाँ यह विश्वास हो जाता है कि सुख बाहर नहीं है, आत्मा को पुण्य-पाप से अलग रखते हुए उसमें लगी कालिमा को हटाने पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। हमने यह विश्वास कर लिया है कि पुण्य को प्राप्त करने व पाप को त्याग करने में धर्म है। धर्म राग-द्वेष हटाने में है। सुख आत्मा में है न कि बाहरी वस्तुओं में, जो फल मिला है, मनुष्य उसकी सुरक्षा कर सकता है। भरत को चक्ररत्न मिला, वह संग्रहवृत्ति के लिए दिग्विजय नहीं करता बल्कि उसकी (चक्ररत्न) सुरक्षा के लिए करता है।
आप लोगों की सुबह से शाम तक कितनी विपरीत दृष्टि रहती है। आप ये नहीं सोचते कि कर्म का जितना फल है, उतना ही भोगूँ। कमाने की भी कोई हद होती है। सम्यक दृष्टि दूसरों को भी सम्यक दृष्टि प्रदान करना चाहता है। कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है पर आज तो आविष्कार आवश्यकता की जननी हो रही है। बच्चे की तरह यह व्यक्ति भी आवश्यकता की वस्तु को भूलकर यह भी ले लुं वह भी ले लुं आदि अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है। मन रागद्वेष से लिप्त है आवश्यकता के उपरांत आविष्कार हो तो ठीक है। जो इन्द्रियों के वश में नहीं है उसे आवश्यकता कहते हैं और जिसके लिए जो कार्य है, वह आवश्यक है। चक्रवर्ती का शासन प्रजा पर नहीं है, पर माण्डलिक राजाओं पर शासन होता है। कहीं ये राजा प्रजा पर अत्याचार न करें, इसलिए चक्रवर्ती दिग्विजय करता है। जीव के बारे में सम्यक दृष्टि सोचता है तब प्रयोजन मालूम हो जाता है, प्रयोजन सारतत्व है वह भी हेय-उपादेय में विभक्त हो जाता है। आस्त्रव और बंध हेय है, संवर-निर्जरा उपादेय है, मुक्ति है। ईधन डालते ही रहने से अग्नि की तृप्ति नहीं होती। जीव की परिणति अनादि से अप्रयोजनभूत तत्व की ओर ही रही है। स्वभाव की चाह की पूर्ति हो सकती है, लेकिन विभाव की, पर पदार्थ की पूर्ति कभी नहीं हो सकती। पदार्थ अनन्तानन्त है, उनको प्राप्त करने के लिए अनन्तानन्त समय चाहिए। इस चाहरूपी दाह की तृप्ति नहीं हो सकती है। पुण्य है, वही रहेगा। सम्यक् दर्शन कैसा है, अनुभव से मालूम कर सकते हैं। यह सुख अपने में उत्पन्न होता है, पाप पुण्य से नहीं। पुण्य उसको प्रादुभूति में सहायक हो सकता है, पाप उसको नष्ट करने में सहायक हो सकता है। पाप को छोड़कर पुण्य को प्राप्त करना, बाहरी है। वीतरागी होते हुए भी रागी लोगों का मार्ग प्रशस्त हो जाये यही बात करने के लिए आचार्य आदि प्रयत्न कर रहे हैं। साधु न बन सको तो कम से कम पीछे चलने का प्रयास करो, स्वादू तो मत बनो, कालांतर में साधु बन सकते हो। सुख को अपने में ढूँढ़ो वह बाहरी पदार्थों से प्राप्त ही नहीं होता है।