आचार्य इस जीव को अनेकांत की ओर ले जाने की चेष्टा कर रहे हैं। सांसारिक जीव अपने इष्ट को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है। हम प्रत्येक कार्य के पीछे इसका Scale बनाते हैं। भवन के निर्माण से पूर्व अनेक प्रकार के आयोजन के साथ इंजीनियर्स को बुलाया जाता है। उसी प्रकार मोक्ष प्रासाद का निर्माण करना है। इसकी पूर्व भूमि व पृष्ठभूमि देखना है। यह समय रूपी घड़ी बिना चाबी के कार्य करती रहती है। शास्त्रकारों का उल्लेख है कि सुई की नोक पर जितना स्थान है, उतनी ही जगह में भी निगोद राशि भरी पड़ी है। अनेकांत दृष्टि के लिए अनंत पुरुषार्थ की आवश्यकता है, तब वह जीव त्रस पर्याय में आता है जिसकी तुलना चिन्तामणि से की गई हैं। उसके उपरांत प्रयत्न करते-करते पंचेन्द्रिय बनता है। वहाँ पर भी मन नहीं रहता है। एक स्थिति ऐसी भी है जब मन प्राप्त भी हो जाता है तब संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव देशनालब्धि को प्राप्त करता है, तब अनेकांत दृष्टि को प्राप्त करता है। यह लब्धि अनेक पुरुषार्थ से प्राप्त हुई है। इसके बाद भी यह जीव कषायी है या नहीं मालूम नहीं पड़ता। विशुद्ध लब्धि के बाद ७० में ६९ सैनिकों को तो वह हताश कर देता है, और मात्र एक सैनिक रह जाता है। तब भी वह सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जाता है। देशना लब्धि में प्रभु की दिव्य ध्वनि को व्यक्ति सुनने को आतुर हो जाता है। महाराज का प्रवचन रोज सुना किन्तु विचार नहीं किया कि क्या कह रहे हैं? तब तक विशुद्ध लब्धि प्राप्त नहीं होती। अभी कुछ भूमिका ही नहीं बाँधी है। अनन्तकषाय चल रही है। जैसे-जैसे जीव शुभ की ओर अग्रसर होता है। तैसे-तैसे वह सम्यक्त्व की और चारित्र की ओर बढ़ जाता है। त्याग के बिना सम्यग्दर्शन तीन काल में भी प्राप्त नहीं होता है। प्रकाश के साथ-साथ पैरों को गति मिलती है। अनंत कषायों को दबाना ही चारित्र की प्राप्ति है। अनन्त पुरुषार्थ करने पर ही रास्ता सरल बनता है मंजिल पर पहुँच जाने पर त्याग की ज्यादा आवश्यकता नहीं रहती है। कीचड़ में एक वस्त्र है। सर्व प्रथम उसे निकाल कर उसे साफ करने के लिए पहले जल से धोते हैं फिर साबुन लगाकर मैल निकालते हैं, इसमें बहुत पुरुषार्थ लगता है। फिर बाद में टिनोपाल लगाते हैं। अनन्तकषाय के लिए पहले अनंत पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। बाद में केवल टिनोपाल की तरह निचोड़ने पर फिर शुद्ध हो जाता है।