धर्म की व्याख्या आचार्यों ने बहुत ही अनूठी की है। आज आर्जव धर्म जो तीसरा धर्म है। ऋजोभावो आर्जव:। वक्रता का नाम धर्म नहीं है, अधर्म है। धर्म सीधा-साधा है वक्रता जो नहीं चाहते उसको प्राप्त करने वाला है। जो समय-समय पर विचार करते हैं, उनमें जब समीचीनता आ जाती है, तब ऋजुता आ जाती है। यह आभ्यन्तर की चीज है। जब धर्म आभ्यन्तर में उतरता है, तब आर्जवता का पालन होता है। मनुष्य की चाल सर्प के समान टेढ़ी चाल है। ऊपर से धर्मात्मा, पर अंतरंग से घुड़ियाँ, ग्रन्थियाँ निकालना मुश्किल है। जिस प्रकार बर्तन की सफाई ऊपर (बाहर) के साथ-साथ अन्दर की भी होती है। इसी प्रकार अन्दर की सफाई आर्जव धर्म के द्वारा होती है। सत्ता के बल पर अथवा डर के द्वारा शारीरिक, वाचनिक तथा मानसिक चेष्टा बदल सकती है पर अन्दर जो वक्रता है, वह दूर नहीं हो सकती है। आप अपने मन को टटोलो दूसरों को आर्जव के बारे में पूछने की आवश्यकता नहीं है। कुटिलता स्वपर अकल्याण-कारिणी है। कुटिलता का नाम कुशील व चोरी भी कहा है। हमारे विचारों में अन्तर नहीं है, पर आचारों में आ सकता है।
जो पर है उसको अपना कहना, यही महान् वक्रता है, इसी को निकालने के लिए बार-बार धर्म आराधना की जरूरत है। धर्म बिल्कुल सरल व सीधा है। अपने आपको भूल कर दूसरों की ओर झुकना ही आत्मा की वक्रता है। झुकने का मतलब देखना नहीं, पकड़ना है। यही हमारी टेढ़ी चाल है, यही आत्मघात है, अधोपतन टेढ़ी चाल के द्वारा ही होता है। प्रवचनों का प्रभाव वक्रता पर नहीं पड़ता पर प्रवचनों को सुनने के बाद अन्तरंग में विचार उठे। जो आत्मा की चाल पहचान लेगा, वह टेढ़ी चाल [वक्रता] के द्वारा जीवन यापन करना ठीक नहीं समझेगा। चलना (परिणमन) तो हरेक पदार्थ का गुण है, धर्म है पर उल्टी ओर यह जीव क्यों परिणमन करे?
संवर के लिए उत्कृष्ट साधन गुप्ति है, जब संवर होता है, तब जीव अपनी आत्मा का अनुभव करने लगता है। उसको उज्ज्वल बनाने में लगता है अपने परिणामों में आर्जवता लाने के लिए समीचीनता को लाना है। आर्जव दिखाने के लिए नहीं, संवर लाने के लिए है। यदि इन्द्रियों की लालसा बढ़ रही हो, दासता बनी हुई हो और आर्जव धर्म को अपनावे तो संवर नहीं हो सकता है। इन्द्रिय कषाय संज्ञा निग्रह से ही संवर की प्राप्ति की कोशिश नहीं हो सकती।
आपने कुछ दिन पूर्व रोट तीज मनाई। मैं तीज को मुक्ति का बीज मानता हूँ और आप भक्ति का बीज मानते हो। उपवास करने में, धारणा में पारणा के विचार ही चलते हैं। यह इन्द्रिय पोषण संवर की ओर न ले जाकर आस्रव की ओर ले जाता है। जब शरीर शुष्क हो तभी इन्द्रिय शुष्क होती है और जब इन्द्रियां शुष्क होती है, तब आत्मा पुष्ट, हरी भरी, उल्हासपूर्ण होती है। २४ घंटे इन्द्रियों का पोषण, विषयों का संपोषण हो रहा है। माया सभी के पीछे छाया के समान पड़ी है। शरीर को साध्य नहीं, सिर्फ साधन [माध्यम] समझिये। पुरुषार्थ के बल पर ही धन का उपार्जन हो, यह बात नहीं, उपादान निमित्त भी है। गरीब को अमीर कह दो तो आँखों में अलग ही लहर आ जाएगी, लेकिन अमीर वही है जो संवर तत्व को प्राप्त कर रहा है। साहूकार ऊपर उठता है और दूसरों को ऊपर उठाता है और चोर शोर मचाता है वह खुद तो डूबता नहीं है, दूसरों को डुबाता है। आज आप सब चोर बने हुए हैं, साहूकार सिर्फ जिनेन्द्र भगवान हैं। आज दाम के पीछे चलता है सारा काम। नाम को, शरीर को स्थिर रखने के लिए इतने अनर्थ हो रहे हैं, वक्रता का कितना प्रभाव है। आर्जव धर्म शरीराश्रित नहीं है, आत्माश्रित (भावाश्रित) है। यह भावों पर चलता है। आज हरेक क्षेत्र में, हरेक चीज में मिश्रण तो हो रहा है। व्यवहार के लिये आचार्यों ने अर्थ का उपार्जन तो कहा है, पर अर्थ का संग्रह नहीं। लक्ष्य अर्थ का संग्रह नहीं पर गुणों का संग्रह है। अर्थ सिर्फ जीवन यापन के लिए होता है। धर्म में राग-द्वेष, अनाचार, अत्याचार के लिए जगह नहीं है। आर्जव का मतलब सीधापन, सरलपन है। जिसका जीवन वक्रता में है वह सरलता को भी गरलता में ही ग्रहण करेगा। अच्छाई को बुराई के रूप में जो अंगीकार करता है वही वक्रता को धारण करता है। इसको हटाकर अपने जीवन को आजवमय बनाओ। आचरण में सम्यक्त्व का प्रभाव लाओ।