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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आत्मा

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    आत्मा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

    1. आत्मा को उत्पन्न नहीं करना है, बल्कि उसमें जो अन्यथा भाव आ गया है, उसे हटाना है।
    2. आत्मा श्वांस-निश्वांस के माध्यम से शरीर से बाहर जाने को आतुर है, इससे सिद्ध होता है कि शरीर का बंधन "आत्मा" को पसंद नहीं है।
    3. तुम तो एक अरूपी आत्मा हो फिर बाह्य रूप से क्या ? स्वरूप को देखो।
    4. आत्मा कालजयी है वह मृत्यु को भी जीत लेती है।
    5. आत्मा ही अपना घर है, उसमें ही रहना चाहिए, इस जीव को दूसरे के घर (शरीर) में रहने की आदत पड़ गई है, इसलिए अपने घर में आने में कठिनाई जाती है।
    6. आत्म-वैभव के सामने दुनियाँ के वैभव वैसे ही हैं, जैसे रत्न के सामने तृण। जो आत्म वैभव से ही आकृष्ट होता है अन्य पदार्थों से नहीं, उसका सारा दुख समाप्त हो जाता है।
    7. आत्मा को प्रकाशित करने के लिए अन्य पदार्थ की आवश्यकता नहीं पड़ती, आत्मा स्वयं स्व-पर प्रकाशी है।
    8. आत्मा का ज्ञान हलुआ जैसा है, उसे हऊआ मत बनाओ।
    9. आत्मतत्व रूपी दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
    10. इस आत्मवैभव पर एक बार विश्वास कर लो, फिर दुनियाँ का वैभव आपके चरणों में लोटने लगेगा।
    11. आत्मतत्व की ओर जाते ही संसारगत सारी बातें औपचारिक-सी लगने लगती हैं।
    12. आत्म सुख के सामने सभी दैहिक, मानसिक, शारीरिक, सुख कुछ भी मायना नहीं रखते।
    13. आत्मा की महिमा को दिखाया नहीं जा सकता, बल्कि देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है।
    14. बाह्य संसार को भूले बिना भीतर आत्मतत्व का सही आनंद नहीं आ सकता।
    15. शरीर की चिकित्सा करने वाला घृणा नहीं करता, ज्यादा बोल भी नहीं सकता, मन को अस्थिर नहीं कर सकता, इधर-उधर नहीं देख सकता, ठीक उसी प्रकार आत्मा की चिकित्सा करने वाले को भी इससे भी अधिक गुण अपनाना चाहिए।
    16. आत्मा हवा के समान है और शरीर गुब्बारा है, हवा के कारण गुब्बारे में हलन-चलन होती है।
    17. इस अपवित्र शरीर के लिए धिक्कार तो है ही, लेकिन उससे ज्यादा इस आत्मा को धिक्कार है, जो इस अपवित्र शरीर से मोह रखता है।
    18. स्पर्श, रूप, रस व गंध से रहित आत्म तत्व का चिंतन दुर्लभ है, उसका अनुभव तो और दुर्लभ है।
    19. आत्मतत्व में आसक्त व्यक्ति कभी शरीर में आसक्त नहीं हो सकता।
    20. आत्मस्थ होकर जो बैठ जाते हैं, उन्हें कर्म का उदय कुछ नहीं कर पाता, उदय में आकर झड़ जाता है और नूतन कर्म बंध नहीं होता।
    21. विपक्ष में रहते निश्चिंत रह नहीं सकते, हमेशा जागृत रहना पड़ता है, वैसे ही "आत्मा" में विपक्षी तत्व कर्म के रहते हमें शान्ति से नहीं बैठना चाहिए।
    22. आत्मा की शक्ति कर्मों की शक्ति से बलजोर है तो भव्य को पुरुषार्थ करना चाहिए।
    23. अंतरंग लक्ष्मी रूपी वैभव कोई लूट नहीं सकता, बाँट नहीं सकता, उस अनंत चतुष्टय रूपी लक्ष्मी के धनी जिनेन्द्र भगवान् हैं।

    Edited by admin


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