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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. यह संसार असार है ऐसा बहुत लोग कहते हैं। किन्तु लगता नहीं कि यह असार है क्योंकि कहने वालों की अपेक्षा सार ढूँढ़ने वालों की संख्या ज्यादा है और जो कहते हैं कि संसार में सार नहीं उन्होंने इसे छोड़ा क्यों नहीं ? संसार को सार कहने वालों में छोटे-बड़े, धनी-निर्धनी, बालक-बुड़े और ज्ञानी-अज्ञानी सभी हैं। इन सब की भीड़ बेशुमार है। जो दूसरों को असार कह कर स्वयं उसमें यदि सार मानता है वह लौकिक व्यक्तियों के बीच में भले ही ज्ञानी माना जाये, किन्तु जब स्वयं को बोध होता है तो पश्चाताप के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता। संसार को असार घोषित करने वाला उसी में सार ढूँढ़े तो पागलपन ही माना जायेगा। जिस वस्तु का असार के रूप में वास्तविक ज्ञान या अनुभव हो जाता है उसके प्रति कोई आकर्षण नहीं रह जाता है। एक व्यक्ति अपने महल के ऊपर बैठकर इन्द्रजाल के समान आकाश नगर को देख रहा है। उसे कागज पर उतरवाना चाह रहा है सेवक को बुलाया उसके कहने पर सेवक ने सारी सामग्री ला कर रख दी, किन्तु जैसे ही कागज पर बनाना शुरू करना चाहता है वैसे ही वह (आकाशनगर) बिखर गया (आकाशनगर का अर्थ बादलों का समूह होता है) इस दृश्य को देख वह ऊपर से नीचे उतरकर महल से बाहर सीधे वन की ओर चला जाता है। वे थे धर्मनाथ स्वामी। हमारे सामने कितनी बार ये घटाएँ छा गयीं और कितनी बार मिट गयीं फिर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा किन्तु ज्ञानी के लिए बादलों का एक टुकड़ा संसार को असार जानने के लिए पर्याप्त है। तीर्थकर बादलों के निमित्त से मुक्त हो गये किन्तु बादलों को आजतक मोक्ष नहीं मिला। जिसका उपयोग हमेशा सावधान रहता है उसको वस्तु स्थिति जानने के लिए एक छोटी सी घटना पर्याप्त है। संसार की असारता का जिसे ज्ञान हो गया हो उसे घर छोड़ने में समय नहीं लगता। सागर के पानी की एक बूंद को चखने के बाद ज्ञात हो गया कि खारी है तो फिर पूरे सागर को चखने की आवश्यकता नहीं है। जब संसारी प्राणी का उपयोग सावधान हो जाता है तब सारे प्रश्न चिह्न समाप्त हो जाते हैं। संबोधन उसके लिए होता है जो सावधान होना चाहता है। मोक्ष मार्ग में सावधान का अर्थ है सार और असार का ज्ञान होना किन्तु संसारी प्राणी सावधान है संसारमार्ग में। संसार महत्वपूर्ण नहीं, किन्तु संसार में रहकर सावधानी महत्वपूर्ण है। तीर्थकरों को कोई मना नहीं सकता। उनकी मान्यता मनाने से बदलती नहीं है। वे एक बार जिसे छोड़ देते हैं उसे फिर पीछे मुड़कर देखते भी नहीं हैं। तीर्थकरों के जैसी बारह भावनाएँ और संसार शरीर भोगों से विरक्ति के प्रति चिंतन धारा चलती है वैसी अन्य किसी की नहीं चलती। देवों में सबसे महत्वपूर्ण पद लौकांतिकों का माना जाता है। वे देव ऋषि माने जाते हैं, उनका अपना एक अलग आकर्षण होता है। उनका सम्बन्ध अतीत के जीवन से जुड़ा रहता है। प्रवचनसार की गाथा नं- १०८ में १०८ मुनि श्री को कहा कि तुम अपनी दीक्षा की तिथि को याद करो। तुम दीक्षा की तिथि को याद रखो ऐसा कहने के पीछे उनका अपना अनुभव छुपा है। दीक्षा की तिथि को याद करने से वैराग्य का दृश्य सामने आ जाता है। तीर्थकरों के पैर अन्य साधकों की तरह फिसलते नहीं वे पैरों को जमा जमा कर रखते हुए सिंह वृत्ति से चलते हैं। सिंहवृत्ति का अर्थ क्रूरता नहीं बल्कि अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य कर लेना चाहिए। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है जो प्रमाद में भी रह जाता है। जब हमारी धर्मनाथ भगवान् के समान प्रमाद छोड़कर सावधानी होगी, तभी हमारा मोक्ष कार्य सम्पन्न हो सकता है। जिन घटनाओं से जिन्हें वैराग्य हुआ है उनकी उन घटनाओं को पढ़ने सुनने से भी हमें वैराग्य हो सकता है। तीर्थकर ऐसी भावनाएँ भाते है कि १३वें गुणस्थान के लिए कारण होती हैं, ऐसी भावनाएँ हमारे अंदर भी बनी रहें इसी भावना के साथ धर्मनाथ भगवान् की जय। धर्म के दो भेद किये गये हैं। एक निश्चय, दूसरा व्यवहार। इन दोनों में कार्य कारण का सम्बन्ध है। व्यवहार धर्म को सराग धर्म भी कहा गया है, सराग धर्म में भक्ति सर्वोपरि है, क्योंकि भक्ति से चित्त की शुद्धि होती है, चित्त की शुद्धि से मन एकाग्र होता है, मन की एकाग्रता का नाम ध्यान है, ध्यान ही सर्वोपरि तप है और तपसा निर्जरा च तप से कर्मों का संवर और निर्जरा होती है, सम्पूर्ण निर्जरा का नाम मोक्ष है इसलिए भक्ति परंपरा से मोक्ष का कारण है।
  2. शिष्य गुरु का सम्बन्ध आचार्य उमास्वामी महाराज हुए हैं जिन्होंने पूरी जिनवाणी को सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में सूत्र रूप में लिपिबद्ध किया है। उसमें एक सूत्र आता है -'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' यह सूत्र तीन शब्दों से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है परस्पर में एक दूसरे जीव पर उपकार करना जीव का लक्षण है। उपकार अजीव पर नहीं, जीव पर किया जाता है। किन्तु जिसके पास संवेदना शक्ति नहीं वह भी उपकार करता है। सूत्र में पर नहीं कहा किन्तु परस्पर कहा जो गहन अर्थ रखता है। जो उपकार को जानता है उस पर उपकार होना चाहिए। सामने वाला उपकार माने न माने किन्तु उपकार करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। इस सूत्र पर आचार्य पूज्य पाद महाराज के द्वारा टीका लिखी गई। उसमें एक बात बड़ी विचित्र कही गई कि छोटों पर बड़ों का उपकार तो ठीक है; किन्तु छोटों का बड़ों पर उपकार कैसे हो सकता है। शिष्य का गुरु पर उपकार कैसे हो सकता है ? भक्त का भगवान् के ऊपर उपकार कैसे ? इस बात को मनोयोग पूर्वक ध्यान से सुनना, यह महावीर भगवान् की दिव्य देशना का सार तत्वार्थ सूत्र है। उसके एक-एक सूत्र की गहराई में जाना चाहें तो यह जीवन छोटा पड़ जायेगा। भगवान् ने हमें मार्ग बताया यह उनका उपकार है, और भगवान् ने जो मार्ग बताया उस मार्ग पर चलना भगवान् के ऊपर हमारा उपकार है। गुरु की आज्ञा का पालन करना गुरु के ऊपर उपकार है। जब यह व्याख्या सामने आती है तब हम भगवान् से छोटे नहीं रह जाते हैं किन्तु यदि नहीं करते तो जैन धर्मानुयायी कहते लज्जा आनी चाहिए। जो भगवान् के मार्ग पर चलता है वही भगवान् का सही अनुयायी है। भक्त वह होता है जो भगवान् की खोज करता है और भगवान् की आज्ञा पालन करता है यही भत और भगवान् में सम्बन्ध होता है। जो करने योग्य कार्य को जानता है और अपना कर्तव्य समझकर करता है वही कृतकृत्य होता है। उसी कर्तव्य के पालन से हमारे भगवान् कृत कृत्य हुए हैं। कर्तव्य प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। सम्यग्ज्ञान और शोभा कर्तव्य पालन से है। कई लोग सुनते सुनते वृद्ध हो गये फिर भी कर्तव्य की बात समझ में नहीं आ रही है और मात्र नारे लगाये जा रहे हैं। बंधुओं नारे लगाये बिना भी हम कुछ कार्य कर सकते हैं। आज तो कुछ नारे राज नीति जैसे लगने लगे हैं अब इनको बंद करो। हम बोलकर शब्दों से ही भाव पहुँचा सकते हैं ऐसा भी नहीं है, किन्तु बिना बोले पहुँचा सकते हैं। ज्ञानसागरजी हमारे गुरु हैं, उन्होंने जो कहा मैं उसे कहने में लगा हूँ। वे यह नहीं कह गये कि तुम्हारे ऊपर अजमेर वालों का ऋण लदा है उसे चुकाना है। मेरे ऊपर तो ज्ञानसागर जी का ऋण लदा है। ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ने कितने चातुर्मास आपके अजमेर में किये, उसका कर्ज कितना लदा है उसे आप लोगों को पहले चुकाना है। गुरु महाराज ने कहा जिन्होंने पहले कर्ज लिया है उन्हें अब कर्ज नहीं देना और उन्होंने यह भी कहा कि जहाँ दुकान न चले वहाँ नहीं रहना। ज्ञानसागरजी महाराज वृद्ध थे फिर भी अपने आवश्यक पालन करते हुए जो पास था उसे यह लायक समझ कर मुझे दिया उसे लेकर मैंने अपनी गाड़ी वहाँ से रवाना कर दी। उन्होंने कहा मूलधन में कभी भी कमी नहीं आना चाहिए यह हमेशा ध्यान रखना। वह बात मैंने हमेशा याद रखी है तभी मूलधन आज तक सुरक्षित है। इसके लिए एक सूत्र ‘सुनना सब की करना मन की।' जो आकर कुछ कहे उसे हव-हव (हाँ-हाँ) कह कर टाल देना ग्राहक को तोड़ना भी नहीं और जल्दी जल्दी देना भी नहीं। जैसे किसान बीज बोता है एक पानी दे देता है फिर उसकी तरफ देखता ही नहीं, किन्तु ताप के कारण जब पौधा सूखने की ओर होता है तब फिर एक पानी दे देता है परिणाम स्वरूप फसल लहलहाने लगती है। वैसे ही ज्ञानसागर जी ने कहा था जब सूखने लगे/साहस टूटने लगे तब थोड़ा पानी दे देना यही ध्यान रखते हुए सुधासागर जी महाराज को भेजा है। अनंत सिद्ध परमेष्ठी हमारे सामने से निकल गये, ४-४ बार दिव्य देशना दी गई फिर भी कल्याण नहीं हुआ मात्र सुनते बैठे रहे। सुनने मात्र से कार्य सम्पन्न या कल्याण नहीं होता। आज लोग कहते ज्यादा हैं करते कम किन्तु पहले करते ज्यादा, कहते कम थे। आज तो कार्य होने से पूर्व ही पत्र पत्रिकाओं में निकल जाता है। पर ज्ञानसागर जी ऐसे नहीं थे। उन्होंने प्रवचन किये शास्त्र लिखे, जिन्हें देख विद्वान लोगों ने कहा ये प्रकाशन के योग्य हैं तब महाराज (ज्ञानसागरजी) ने कहा मैं साधक हूँ प्रकाशक नहीं। महाराज ने वीरोदय, जयोदय आदि ऐसे महान् ग्रन्थों की रचना की, जिसे समझने में विद्वानों को भी कठिनाई महसूस होती थी तब विद्वानों ने टीका लिखने की प्रार्थना की। गुरु महाराज ने टीका और अन्वयार्थ लिखकर सब की माँग पूर्ण कर दी। इस प्रकार ज्ञानसागर जी ने जो हमें दिया है वह ऋण हमारे और आपके ऊपर है उसे चुकाना है। ज्ञानसागरजी का लक्ष्य था मैं कौन हूँ इसको जानना, और मेरा कर्तव्य क्या है उसे करना। जीवन को सफल बनाने के लिए अपना कर्तव्य करना चाहिए डयूटी ऑफ राइट नॉलेज वाली बात होना चाहिए। वे वृद्धों के साथ वृद्धों जैसे, युवाओं के साथ युवा जैसे, बालक के साथ बालकों जैसे हो जाते थे यह उनकी कुशलता थी। आज तो धारा प्रवाह स्पीच चाहिए, उस धारा प्रवाह स्पीच में इतना बोलते हैं कि उन्हें स्वयं ही कुछ पता नहीं रहता है कि क्या बोल रहा हूँ आज प्रवचन और शास्त्र स्वाध्याय में बहुत अंतर हो गया है। ग्राहक आये आप माल (कपड़ा) दिखाये ढेर लग जाय फिर भी न ले तो सच-सच बताओ कैसा लगता है ? महाराज ऐसा लगता है कि हे भगवान् ऐसे ग्राहकों से बचाओ। अरे भैया ऐसे हमारे पास प्रतिदिन ग्राहक आये तो मुझे कैसा लगता होगा। ज्ञानसागर जी जब मिलेंगे तो हम यही कहेंगे, इन मारवाड़ी ग्राहकों से बचाओ। ज्ञानसागरजी महाराज की हमारे ऊपर ऐसी कृपा हो गयी कि हम तो धन्य धन्य हो गये उनके हम ऋणी हैं और यह ऋण नहीं बल्कि अब कर्तव्य है। ज्ञानसागरजी ने जो अध्यात्म का ज्ञान इस युग को वैसा ही दिया जैसे दीपक बुझने वाला हो और उसमें तेल डाल दिया हो। मेरा तो पुण्य था जो भले ही अल्प काल के लिए मिला पर मिला है। जो मिला है उसे व्यक्त नहीं कर सकते। यदि २-३ वर्ष और देर कर जाता तो मेरा जीवन अंधकारमय हो जाता। जिनके स्मरण करने मात्र से प्रकाश मिल जाता है उनका स्मरण बार बार करते रहना चाहिए। उनमें ज्ञानसागरजी भी एक प्रकाश पुंज है वे ऐसा ही प्रकाश जीवन में देते रहें ऐसी मैं प्रार्थना करता हूँ। (यह प्रवचन ज्ञानोदय तीर्थ अजमेर राजस्थान से पधारे ५०० श्रावकों के लिए दिया गया था। सुधा सागर जी महाराज की प्रेरणा से ज्ञानोदय तीर्थ बन रहा है। वहाँ पधारने के लिए आचार्य श्री को आमंत्रण देने आये थे।)
  3. इस संसारी प्राणी को सुख अभीष्ट है जब मिलता है तब सब कुछ भूल जाता है और काल की गति का अनुमान ही नहीं लगता कि कब निकल गया। यदि सांसारिक सुख न होता तो अभी तक संसार खाली हो गया होता। इसी सुख के कारण जिसको जहाँ सुख मिलता है वह वहीं मस्त रहता है, वह स्थानांतरण भी नहीं चाहता स्थानांतरण में दुख महसूस करता है। यह सांसारिक सुख मोह से युक्त होता है। मोह अंधकार का कार्य करता है, जब तक वह उस सुख में लीन रहता है तब तक अतीन्द्रिय सुख को भूला रहता है और एक बार मोह का पर्दा हटते ही जब अतीन्द्रिय सुख मिलता है तब इस सांसारिक सुख को भूल जाता है। कैमरे के माध्यम से फोटो लेते हैं उससे मात्र ऊपर का फोटो आता है और जब एक्सरे के माध्यम से फोटो लेते हैं तो भीतर का चित्र आता है जबकि दोनों में कुछ विशेष प्रकार की किरणें हैं, दोनों में फोटो ही लिया जा रहा है किन्तु एक भीतर की लेता है दूसरा बाहर की। संगीत की भी कुछ ऐसी तरंगें होती हैं जिनके प्रभाव से बंद कमल खुल जाता है, बुझा हुआ दीप जल जाता है। सूर्य किरणों में ऐसी शक्ति होती है जिनके प्रभाव से बंद कमल खिल जाता है, क्योंकि जब किरणें किसी एक पर केन्द्रित हो जाती हैं तब ऐसा होता है, इसी प्रकार जब आत्मा एक वस्तु में लीन हो जाती है और अन्य को भूल जाती है तब एक शक्ति उत्पन्न होती है। जिससे ऐसी अद्भुत घटनाएँ घट जाती हैं। आप जो फोटो लेते हैं उससे भीतर का नहीं बाहर का फोटो आता है, गाते आप हैं पर कमल खिलता नहीं और बुझा हुआ दीप जलता नहीं। आत्मा अजर अमर, रूप-रस से रहित, स्वतंत्र, अनंत गुणों से युक्त और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है यह बात हमें झकझोर देती है क्योंकि यह आत्मा इस प्रकार होते हुए बंधन में क्यों है और इसका अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ? ये तीर्थ क्षेत्र बंधन से मुक्ति और आत्मानुभव के लिए होते हैं यहाँ आकर यदि बंधन काटना है तो प्रबंध की बात छोड़ दो। यदि अनुभव करना है तो इन प्रवचनों को सुनकर गुनने (विचारने) की बात करो, यदि प्रबंध में ही लग जाओगे तो गुनने की बात कौन करेगा ? बाहरी प्रबंध और सम्बन्ध टूटने पर भीतरी जगत से सम्बन्ध जुड़ता है भीतर ए-सी- में रहने वाले ऐसे ही रह जाते हैं क्योंकि ए-सी की लाइन का बटन आफ (बंद) होते ही क्रोध आ जाता है और बाहरी आनंद सब साफ हो जाता है। यहाँ क्षेत्र पर ऐसी ही ए-सी- है, वैसी ए-सी- की व्यवस्था नहीं, बाहर जाओ या भीतर आओ कोई परिवर्तन नहीं। क्षेत्रों का ऐसा प्रभाव होता है कि जैसे क्षेत्र में जाओ वैसे भाव जागृत हो जाते हैं। यदि मोह के क्षेत्र में पहुँच जाओगे तो सोया हुआ मोह भी जागृत हो जाता है। जब सम्बन्ध मोह से सहित होते हैं तब संयोग वियोग के समय ऑखों में पानी आने लगता है। यदि सम्बन्ध मोह सहित नहीं तो पानी नहीं आता। मेरा गुणधर्म और मैं कौन हूँ, बस इतना परिचय काफी है, दुनिया के परिचय से कोई मतलब नहीं। एक आत्म तत्व का ज्ञान हो जाना पर्याप्त है उस का ज्ञान हो जाने पर तत्व का ज्ञान अपने आप हो जाता है। अपने स्वभाव के परिचय बिना हमने अनंत काल व्यतीत कर दिया, यह काम मोह ने किया है। मोह एक ऐसा पदार्थ है जो भिन्न वस्तुओं में ऐक्य स्थापित कर देता है। जो मोह को छोड़ देता है वह तीन लोक का पूज्य बन जाता है। जब मोह का बंधन टूट जाता है तब बाहरी बंधन कोई बाधा नहीं दे पाते। आप प्रकाश के माध्यम से प्रकाशित वस्तुओं को देखकर तिजोरी में बंद करते हैं और प्रकाश आज तक नौकरी करता रहा है पर प्रकाश को नहीं देखा, प्रकाश को नहीं पकड़ा और प्रकाश की कीमत नहीं समझी। प्रकाश आत्मा है, प्रकाशित वस्तुएं ये शरीरादि हैं जब ये ज्ञात हो गया कि ये पर हैं, मेरा नहीं, फिर उसका संग्रह क्यों ? मैं ज्ञाता दृष्टा एक अखंड दिव्य तेजोमय चेतन स्वभाव वाला हूँ, यह कहना और तदनुरूप संवेदन करना दोनों में बहुत अंतर है। जैसे हवा को सदा गति कहा है वैसे ही संसार में रहते हुए मुनि को भी सदा गति कहा है। वह किसी से बंधता नहीं उसका स्वतंत्र विचरण चलता है। इसी युग में कुंद-कुंद जैसे महान् आचार्य हुए हैं। उन्होंने गिरि गुफाओं में रह कर आत्म साधना करते हुए जिन ग्रन्थों को लिखा उनका प्रभाव आज के मोही पर पड़ रहा है और उन बातों को पढ़कर आज हम साक्षात् कर रहे हैं। उनके वे ग्रन्थ भी आज हमें निग्रन्थ हो कर पूज्य बने हुए हैं क्योंकि उन्होंने अनुभूति के माध्यम से ऐसे ग्रन्थों की रचना की जिनका अर्थ आज हमें समझ में आ रहा है वह भी बड़े सौभाग्य की बात है पर जो इस स्वर्णमय जीवन को विषयों में लगा रहा है वह बर्तन साफ करने रत्नों की भस्म बना रहा है, पैर धोने अमृत खर्च कर रहा है, प्याज की खेती के लिए कपूर की बाड़ लगा रहा है। शरीर को इतना मोटा ताजा मत बनाओ कि आत्मा की ओर उपयोग ही न लग पाये। ऐसा बनाकर आप शरीर को निरुपयोगी बना रहे हैं या कि धन कि उपयोगिता सिद्ध करना चाहते हैं कुछ समझ नहीं आता। संतों ने कहा है शरीर को मात्र साधन मानकर चलिये। (आचार्य श्री जी ने सुकुमाल मुनि की कथा को लक्ष्य बनाकर प्रवचन प्रारंभ करते हुए कहा) जहाँ बाहरी कोलाहल समाप्त हो गया है, सूर्य की किरणों को प्रवेश पाने के लिए स्थान नहीं है, जहाँ बाहर का भीतर और भीतर का बाहर नहीं आ सकता है, बाहर का परिचय भीतर वालों को और भीतर वालों को बाहर का परिचय नहीं है सुनते हैं ऐसी स्थिति जेल में रहती है। ऐसी परिस्थितियों में रहने वाला एक व्यक्ति रात्रि में गीतमय भक्ति पाठ को सुन कर उठ जाता है, किन्तु आसपास कोई दिखाई नहीं दे रहा है। उस गीत को सुनकर उसे ‘घर काराघर वनिता बेड़ी परिजन हैं रख वाले' लग रहे हैं मोह का बंधन टूटता जा रहा है। वह व्यक्ति उस आवाज को सुनकर वहाँ जाना चाह रहा है पर बाहर जायें भी कैसे ? कोई साधन नहीं हैं ? वहाँ पड़ी हुई साड़ी पर अचानक दृष्टि पड़ती है। उसकी रस्सी बना कर खिड़की से नीचे सरकने लगता है। नीचे आकर उस ओर बढ़ने लगता है, जिस ओर से आवाज आ रही है। उसका शरीर बहुत सुकुमाल है सरसों के दाने भी जिसे चुभते हैं पर अब नंगे पैर जा रहा है, पैर लहूलुहान हो गये हैं, साड़ी के घर्षण से हाथ लाल लाल हो गये हैं फिर भी परवाह किये बिना बढ़ता जा रहा है। आगे देखता है कि एक वीतरागी संत बैठे हैं, उनके दर्शन होते ही दीक्षा के भाव हो गये, और दीक्षा के बाद वीतरागी संत ने कहा अब मात्र तीन दिन शेष रह गये हैं। आजकल कुछ लोग दीक्षा को हेय कह कर काल के भरोसे बैठे हैं। उन्हें काल की पहचान सही नहीं हो पा रही है। होगी भी कैसे ? क्योंकि काल को वहीं पहचान सकता है जो शरीर को गौण कर देता है नहीं तो काल के गाल में कवलित हो जाता है। काल से कार्य नहीं होते, किन्तु काल में कार्य होते हैं, अत: कार्य करते चले जाओ काल की ओर मत देखो। काल में डायरेक्ट विध्न उपस्थित करने की क्षमता नहीं है जबकि उस काल रूपी विध्न में ही विध्न पैदा करने की शक्ति आत्मा में है। काल ही काल की चर्चा में आत्मा को लपेटो नहीं, कुछ काल निकालकर आत्मा की भी अर्चा करो। वे सुकुमाल मुनि एक गुफा में जाकर ध्यानस्थ हो गये। गुफा में जाते समय पगतलियों से खून रास्ते में गिरता गया जिसकी गंध से वहाँ स्यालिनी अपने बच्चों सहित पहुँच जाती है और खाना प्रारंभ कर देती है। वह खा रही है मुनि का उपयोग केवल आत्मा में है, तीन दिन तक खाती रही पर शरीर की ओर कोई दृष्टि नहीं है। अंत में वे सुकुमाल मुनि नश्वर देह को छोड़ कर सर्वार्थ सिद्धि पधारे। मुक्त हुए वा हो रहे, रत्नत्रय ले जीव। जिन आगम, गुरु देव ही श्रद्धा जिसकी नींव। देव शास्त्र गुरु वैद्य हैं, दूर करें भव पीर। औषधि ले रत्नत्रयी, बन जा अमर अमीर। सोच समझ रख राह पर, जमा जमा कर पैर। जोश होश हो धैर्य हो, तभी सफल हो सैर। दोष स्वयं का स्वयं को, गुण पर का दिख जाय। अहित त्याग जो हित गहे, शाश्वत निधि वो पाय। जो ना डर कर भागता, देख मार्ग के शूल। उसे मार्ग के शूल भी, बन जाते है फूल। (विद्या स्तुति शतक से )
  4. जहाँ थोकमाल बिकता हो वहाँ फुटकर में समय निकल जाये तो ठीक नहीं परन्तु एक नीति है कि दुकान पर आया हुआ ग्राहक माल खरीदे बिना वापिस ना जाने पाए। इस नीति के अनुसार थोक दुकान पर फुटकर ग्राहक कल थोक माल खरीदने वाला बन सकता है। (प्रवचन से पूर्व दिलीप गांधी सूरत, मूलचन्द्र बुखारिया अहमदाबाद वालों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लिया और दिलीप गांधी की धर्म पत्नि ने दो प्रतिमाएँ लीं। उन्हीं को लक्ष्य बनाते हुए उपरोक्त बात आचार्य महाराज ने कही)। सभी पशुओं में हाथी विशालकाय होता है जबकि वह क्या खाता है और क्या पीता है यह सबको ज्ञात है। फिर इतना विशालकाय क्यों होता है ऐसा प्रश्न सहज ही सामने आता है ? ऐसा ही एक विशालकाय शक्तिशाली हाथी राजा के साथ कई रूपों में रहा। कभी मित्र रूप में, कभी पिता रूप में, कभी भाई रूप में और राजा को सब कुछ प्रदान कर हर बार विजय दिलाता रहा। जीवात्मा का सिद्धांत बड़ा अद्भुत है। जो अनादिकाल से चला आ रहा है। इसका प्रारंभ कहाँ और अंत कहाँ ज्ञात नहीं। जीवात्मा का जीवन क्रम हमेशा एक सा नहीं रहता, प्रति समय परिवर्तित होता रहता है। इस सिद्धांत के अनुसार वह हाथी भी बूढ़ा हो गया, शारीरिक बल कम हो गया, जैसे जैसे जीवन बढ़ता है वैसे वैसे आयु छोटी (कम) होती चली जाती है, बाल, तरुण, युवा आदि पर्यायें नष्ट होती चली जाती हैं। पर्याय दृष्टि के कारण ही मान सम्मान, हर्ष विषाद आदि घटनायें घटती हैं। यदि हम अपनी ओर दृष्टिपात कर लें तो वे सब समाप्त हो जाती हैं। जैसे जल में तरंगें उठती हैं बनती हैं मिटती रहती हैं, परन्तु जल ज्यों का त्यों बना रहता है वैसे ही पर्याय बनती मिटती रहती हैं, लेकिन द्रव्य ज्यों का त्यों बना रहता है। पर्याय की ओर देखने से तेरामेरा, छोटा-बड़ा, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा आदि दिखती है ध्रुव सत्य की ओर देखने पर सब गायब हो जाता है। इस तपोवन में किसी के पद चिह्न नहीं मिलेंगे थोड़ी हवा आते ही सब मिट जाते हैं, तूफान आने पर तो न पद रहते हैं न पद चिह्न। पता नहीं कितने आए और कितने चले गए परन्तु आज किसी के पद चिह्न नहीं रहे। बंधुओं यह मत देखो यह चरण चिह्न किसका है, बस बढ़ते चले जाओ दूसरों के चरण चिह्न से पर की पहचान होती है, अपनी नहीं। जिस प्रकार आकाश में ध्वनि विलीन हो जाती है वैसे ही इस धरती से सब के नाम, चरणचिह्न और पर्यायें विलीन हो गयीं। मरना और जन्म लेना पर्याय है। आप पढ़ते हैं 'मरना सबको एक दिन' बंधुओं एक दिन नहीं एक पल में सबको मरना है। सुनने में आता है कि वह चला गया-वह चला गया पर यह सुनने में नहीं आता कि क्या साथ ले गया, फिर भी आप वर्षों की बात करते हो अरे परसों की बात करो। बारह भावना में ये भी कहा है - कहाँ गए चक्री जिन जीता भरत खंड सारा, कहाँ गए वे राम अरु लक्ष्मण जिन रावण मारा। थोड़ा इन पंक्तियों पर भी विचार करो। चिंतन करो। निगोद से २ हजार सागर के लिए त्रस पर्याय के लिए निकलना होता है, निगोद में रहने का कोई लेखा जोखा नहीं है, (वह तो संसारी प्राणी के लिए माँ की गोद के समान है)। जीवन के क्रम और पर्यायों वाली घटना उस हाथी के साथ भी घट रही थी। हाथी वृद्ध हो जाने पर स्वतंत्र छोड़ दिया गया। घूमते-घूमते एक तालाब के अंदर कीचड़ में फंस गया। वह निकलना चाह रहा है पर निकल नहीं पा रहा है, वह सोचता है कोई आयेगा निकालने, किन्तु कोई नहीं आया। प्राय: देखा जाता है कि संकट के समय कोई दूसरा काम नहीं आता। फिर वह हाथी सोचता है क्या पर्याय की दुर्दशा है मैं कितना बोझ ढोता था पर आज अपना शरीर भी नहीं ढो पा रहा हूँ। इसी बीच रणभूमि में रण भेरी बजती है उसे सुनकर हाथी जो जोश आ गया, आवेग आ गया और वह हाथी उस आवेग में तालाब के बाहर आ गया। युद्ध में जीत बिना आवेग/जोश के नहीं हो सकती इसीलिए आवेग लाने के लिए पहले रणभूमि में भेरी बजती थी और सैनिकों की बाहुओं में खून दौड़ने लगता था कि पर चक्र आया है उससे स्वचक्र की रक्षा करना है। पर आज युवाओं में जोश का अभाव है। आज के युवा एयर कंडीशन में रहते हैं फ्रिज का ठंडा खाते हैं और कूलर की ठंडी में रहते हैं, अतः अब उनमें जोश लाने के लिए हीटर लगाकर गर्म करने की आवश्यकता है। ठंडी में रात भर गाड़ी खड़ी रहने पर धक्का लगाने की आवश्यकता पड़ जाती है, आज तो ट्रैक्टर से खिचवाना पड़ती है तब कहीं चालू होती है, किन्तु आपकी गाड़ी कब से खड़ी है पता ही नहीं। जैसे बूढ़ा हाथी भी जोश में आकर पूरी शक्ति लगा कर कीचड़ से बाहर आ सकता है वैसे ही आप भी पूरी शक्ति लगा दें तो इस संसार रूपी कीचड़ से पार हो सकते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है आज के बूढ़े भी उस बूढ़े हाथी की तरह शक्ति तो लगा रहे हैं पर विषय भोगों में, न कि संसार समुद्र में कीचड़ से पार होने में। बस एक बार शक्ति का समीचीन प्रयोग करने की आवश्यकता है, अपने स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने की आवश्यकता है अपने स्वाभिमान को जागृत करने की आवश्यकता है। यदि एक बार स्वभाव की पहचान हो जाय, एक बार चेतना जागृत हो जाय और पूरी शक्ति लगा दें तो चुटकी बजाते ही कार्य सिद्ध हो जायेगा। अपनी (निज की) भूल ही संसार चक्र में भ्रमण का कारण है। आदिनाथ भगवान् के जीव ने भूल की तो संसार में भटक गया जब अपनी भूल ज्ञात हुई तो इस संसार समुद्र से पार हो गया। यह सिद्धक्षेत्र बताता है कि यहाँ अनेकों आत्माओं ने अपना स्वाभिमान जागृत किया, अपनी भूल को सुधारा और अपनी सोई हुई शक्ति को उद्घाटित किया। यह कार्य बाल, वृद्ध और दुर्बल सभी ने किया है। संतों के ये उपदेश सोई हुई शक्ति को उद्घाटित कराने वाले होते हैं, समीचीन दिशा बोध देने वाले होते हैं और जो काल के भरोसे बैठे हुए पुरुषार्थ हीन व्यक्ति हैं उन्हें पुरुषार्थ शील बनाने वाले होते हैं। काल कभी लौटने और लौटाने की वस्तु नहीं है और जो काल के गाल में चले गये उसे कोई लौटा नहीं सकता है। कहने को सूर्य लौटता है, उदय होता है पर काल का नहीं। काल में कार्य होते हैं काल से नहीं। काल कब से है इसे ज्ञानी जान सकते हैं पर्याय बुद्धि वाले नहीं। पर्याय बुद्धि वालों को तो काल चक्कर में डालने वाला होता है। काल के बिना कुछ नहीं होता ऐसा जो जान कर काल का दास बना हुआ है वह पर्याय दृष्टि वाला पजय मूढ़ कहलाता है। जब ऊपर के क्षेत्र वाले ट्रस्टियों ने ऊपर क्षेत्र पर पधारने का श्रीफल चढ़ाकर आमंत्रण दिया और नीचे तपोवन वालों ने दूसरे रविवार की कही तब आचार्य श्री ने अपने प्रवचन में जवाब देते हुए कहा जब दो रवि एक साथ नहीं देख सकते तो दो रविवार की बात क्यों ? दूसरे रविवार की चिंता करने से वर्तमान के रविवार का महत्व कम हो जाता है। नीचे और ऊपर ये भी पर्याय है इन पर्यायों के ऊपर उठकर इन सिद्ध क्षेत्रों में आकर सोचना विचारना चाहिए कि हे भगवन् आप ऊपर चले गये किन्तु हम कितने बार ऊपर नीचे हुए पता नहीं और आत्मा की बात मनोयोग पूर्वक आत्मा से सुन लेना चाहिए तब आत्मा का कल्याण होता है। भेद भाव तज दे अरे, खून सभी का एक। जैन धर्म है, जाति ना, निज स्वरूप सब एक॥ सर्वोदय जिन तीर्थ में, ऊँच नीच ना भेद। धर्म साधना के लिए, नहीं जाति का भेद॥ आया क्यों, क्या साथ में लाया, क्या ले जाय। क्या क्या करता सोच तू, भेद ज्ञान हो जाय॥ भेद ज्ञान ही ज्ञान है, व्यर्थ भौतिकी ज्ञान। भेद ज्ञान बिन मौत की, नहीं सही पहचान। (विद्या स्तुति शतक से.)
  5. आचार्य परम्परा में उद्भट आचार्य समन्तभद्र स्वामी हुए हैं जिन्होंने उज्वल चारित्र का पालन कर जैन धर्म की अपने जीवन में इतनी प्रभावना की है जो "भूतो न भविष्यति"। उन्होंने श्रावकों को अपनी समीचीन चर्या बनाये रखने के लिये एक महान् ग्रन्थ रत्नकरण्डक श्रावकाचार की रचना की है। यहाँ गुजरात में समयसार का स्वाध्याय बहुत हुआ किन्तु अब चर्या समीचीन बनाये रखने के लिए उसी श्रावकाचार के स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता है। उस श्रावकाचार में सम्यक ज्ञान, ज्ञान, चारित्र इन तीनों (रत्नत्रय) का सटीक एवं संक्षेप में वर्णन किया गया है। जैसे आप अपने जीवन में वित्त के लिए पुरुषार्थ करते हो वैसे आत्मोत्थान के लिए भी धर्म पुरुषार्थ करो, यदि कल के दिन को उज्वल देखना चाहते हो तो आज के दिन पुरुषार्थ करो अर्थात् भविष्य को उज्वल बनाने के लिए वर्तमान को सुधारो। यहाँ (ईडर में) ३-४ जिनालयों में जाकर जिन बिम्बों के दर्शन किये तो सारी थकान गायब हो गयी, ऐसे भव्य अतिशयकारी जिन बिम्बों के दर्शन करके लगा कि यहाँ जैनियों की बहुलता एवं बहुत प्रभाव रहा है किन्तु आज यहाँ लोग कम हैं बाहर अर्थ के लिए चले गये हैं (इसी बीच श्रोताओं ने कहा नहीं महाराज यहाँ राजाओं के द्वारा बहुत त्रास था इसीलिए गये हैं)। अब संक्षेप से यही कहना चाहता हूँकि घर की रक्षा के समान इन जिनालयों की भी रक्षा करो, बच्चों के ऊपर जैसे अर्थ के संस्कार डालते हो वैसे ही परमार्थ के अच्छे संस्कार डालो। श्रावक धर्म का समीचीन पालन करो क्योंकि श्रावक की खान से ही मुनि निकलते हैं। यदि आप अहिंसा धर्म एवं श्रमणत्व की रक्षा करना चाहते हो तो उसे धारण करो क्योंकि धारण करने से ही उसकी रक्षा संभव है, मात्र कहने से नहीं।
  6. संतों के समागम तथा धमोंपदेश से हिंसामय जीवन अहिंसक बन जाता है। संतों के प्रभाव से मानव क्या पशु भी अपने जीवन निर्वाह के लिये पेट को कब्रिस्तान नहीं बनाते। वीतराग मुद्रा को देखकर सर्प तथा नेवला जैसे जन्म जात बैरी प्राणी भी परस्पर बैर को छोड़ देते हैं। उनके मन में मरनेमारने के भाव नहीं आते, बल्कि परस्पर रक्षा के भाव जागृत होते हैं। उनमें दूसरों को कष्ट देने के लिये नहीं अपितु कष्टों को हरने के भाव होते हैं। यह निर्विकार मुद्रा का ही अचिंत्य प्रभाव है। माँ के द्वारा प्रदत्त संस्कार बच्चों के जीवन में अंतिम क्षण तक विद्यमान रहते हैं। क्योंकि माँ के दूध में करुणा का अमृत समाहित होता है परन्तु २० वीं शताब्दी में बच्चों को माता का नहीं अपितु डिब्बे का दूध मिलता है तो उनमें अहिंसा, दया और करुणा के संस्कार कैसे उत्पन्न होंगे? आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी सदैव दया धर्म का पालन करने में तत्पर रहते हैं। वे जीवन में आदि से अंत तक किसी भी छोटे-बड़े जीवों को पीड़ा नहीं पहुँचाते इस हेतु अहर्निश सावधानी रखते हैं। इसीलिए आदान निक्षेपण समिति के लिये दया की प्रतीक चिह्न मयूर पिच्छिका रखते हैं। यह पिच्छिका दयाधर्म का पालन करने के लिये गमानागमन प्रवृत्ति के समय हाथ-पैर आदि को प्रक्षालित कर जमीन को संशोधित करने एवं प्राणियों की रक्षा के लिये कर में धारण की जाती है। अनल सलिल हो विष सुधा, व्याल माल बन जाय। दया मूर्ति के दरस से, क्या का क्या बन जाय। मयूर पिच्छिका संयम का सर्वोत्कृष्ट उपकरण है। दया धर्म की मूर्ति साधुजनों के हाथ में यह उपकार करने वाला उपकरण अहिंसा धर्म को मूर्तरूप देने एवं अहिंसा धर्म का पालन करने के लिये धारण करते हैं। उनकी कायिक, वाचनिक या मानसिक क्रिया से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचे, इसीलिए वे सदा सावधानी पूर्वक क्रियायें करते हैं। यह मयूर पंख मोर को भार हो जाने के कारण वह इच्छानुसार उड़ या भाग नहीं पाता तो कार्तिक या अगहन मास में अथवा वर्ष में एक-दो बार वह स्वयं ही छोड़ देता है। तभी इनका प्रयोग पिच्छिका हेतु किया जाता है। इन मयूर पंखों को उसके शरीर से बलात् कभी भी नहीं तोड़ा जाता। इस मयूर पिच्छिका के पंख की यह विशेषता है कि उसका अग्रभाग यदि आँखों में चला जावे तो भी पीड़ा नहीं पहुँचती। पसीना तथा जल का संपर्क हो जाने पर भी यह आद्र नहीं होती और न ही उस पर धूल का प्रभाव पड़ता है। कोमल, मृदु निलेंपता एवं हल्कापन इसके विशेष गुण हैं। इसीलिए दिगम्बर जैन साधु इसके माध्यम से बैठने के स्थान पर इससे प्रक्षालन करते हैं। जब यह इतनी मृदु है तब इसके धारक साधुओं के भाव कितने कोमल होंगे यह स्वयं पहचाना जा सकता है। आचार्य श्री ने कहा कि- समयसार जीवन का नाम है, चेतन का नाम है और शुद्ध परिणति का नाम है उसमें पर की बात नहीं स्व की बात है। और उसे पाने हेतु भूत और भविष्यत् इन दोनों को भुलाकर वर्तमान का संवेदन करना ही अध्यात्म का सार है। मूक तथा उपसर्ग अन्तकृत, अनेक विध केवल ज्ञानी, हुए विगत में यति मुनिगणधर, कु-सुमत ज्ञानी विज्ञानी। गिरि वन तरुओं गुफा कंदरों, सरिता सागर तीरों में, तप साधन कर मोक्ष पधारे, अनल शिखा मरु टीलों में। (नंदीश्वर भक्ति हिन्दी-३४) जिन्होंने पंच नमस्कार मंत्र के जाप करने का संकल्प किया है, वे निश्चय ही साधना के क्षेत्र में बढ़कर भावों को उत्साहित कर कर्म निर्जरा करने में तत्पर रहते हैं। अत: सभी उत्साह के साथ अहिंसा त्याग एवं तपस्या के क्षेत्र में आगे कदम बढ़ावें तथा दया धर्म का पालन करते हुए पंच परमेठियों की आराधना में लीन हों। आचार्य श्री ने भाव के प्रभाव की और दृष्टिपात करते हुए कहा कि - नदी के किनारे हिंसक जानवर रूप सिंहनी तथा निकट ही शाकाहारी पशु गाय के साथ-साथ जलपान करते देखा गया है। वही गाय के बछड़े के द्वारा सिंहनी के तथा सिंहनी के शावक को गाय के स्तनपान की घटना को व्याख्यायित किया है। वैसे यह विस्मयकारी घटना होकर भी मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है। गाय भयभीत नहीं थी अपितु दोनों सगी बहिनें सी ही लग रही थीं। ये आनंद विभोर का क्षण ऐसा था जो आज तक प्राप्त नहीं हुआ था। किंतु इसका कारण था मयूर पिच्छिका के धारक वीतरागी निष्पृही दया की साक्षात् प्रतिमूर्ति नग्न दिगम्बर साधुका सात्विक सान्निध्य था, जहाँ अन्याय एवं पापवृत्ति से दूर रहकर जिन्होंने जीवन को अहिंसामय बनाकर पतित पापमय जीवन जीने वालों को शरण प्रदान की है। ऐसे पंच परमेष्ठियों का नाम उच्चारण स्मरण एवं आराधना करने से ही पापों की निर्जरा होती है। अत: हम उन साधु संतों का मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन को सार्थक करें। "अहिंसा परमो धर्म की जय !"
  7. बंधन कोई भी हो वह आकुलता कराता है। जीव को कोई भी बंधन रुचता नहीं। आने जाने रहने उठने-बैठने आदि सभी बंधन आकुलता देते हैं। पर वस्तुत: क्षेत्र का या शरीर का बंधन मात्र हो जाना बंधन नहीं, वह तो भीतरी भावों से होता है। संसार के बंधनों में पड़े जीव को मुक्ति प्राप्ति के योग्य वाणी देने वाली महान् आत्मा, इस युग के अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी को आज बंधन से मुक्ति स्वरूप मोक्ष सुख निर्वाण प्राप्त हुआ था। इस तिथि के माध्यम से हम सभी प्रेरणा प्राप्त करें और संसार में रहते हुए भी विषय भोगों के प्रति विमुखता लाकर इस जीवन को मुक्ति के लिए एक साधन बना लें यही इसकी सार्थकता है। आज चारों ओर अंधकार ही अंधकार छाया है उजाले का ठिकाना नहीं। सूर्य-चन्द्रमा के कारण दिन एवं रात का विभाजन होता, किन्तु मोह के कारण दिन में भी रात होती है। मोह का अभाव हो जाने पर रात्रि में भी अंधकार सा नहीं अपितु दिन जैसा प्रकाश प्रतिभासित होता है। विषयों के प्रति लगाव को समीचीन ज्ञान के साथ ही शांत किया जा सकता है। यह सावधानी रखना आवश्यक है कि आज जो संयोग संबंध है कल उसका नियम से वियोग होगा। इस तिथि से हम शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जिसे हम प्रभु का निर्वाण - दिवस कहते हैं, वास्तव में उनका आज जन्म हुआ है। अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत्। तद्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्द्रव्यं मुमुक्षुभिः॥ (इष्टोपदेश-४९) अर्थ-अज्ञान अन्धकार को नष्ट करने वाले उत्कृष्ट ज्ञान के मोक्षाभिलाषी प्राणी उसे पाकर एवं चर्चा कर एक दिन आत्म सात हो जाते हैं। महावीर जयंती को तो शरीर धारी बालक का जन्म हुआ था किन्तु आज उनका युवावस्था में ऐसा जन्म हुआ जो आगामी अनन्त काल तक व्यय नहीं होगा। अथवा भविष्य के जन्मों का आज ऐसा व्यय हुआ जिनका पुन: अब उत्पाद नहीं होगा। उनके कारण हम सभी को जो ज्ञान की किरण मिली वह दुर्लभ है। अब उसका सदुपयोग कर उन जैसे अनर्घपद का हम संवेदन करें यही प्रयास करना है। आचार्य श्री कहते हैं कि-केवलज्ञान और मुक्ति में उतना ही अंतर है जितना १५ अगस्त और २६ जनवरी में। केवलज्ञान का होना स्वतंत्रता दिवस और मुक्ति का होना गणतंत्र दिवस है। सभी ने अनंत बार पूर्व में शरीर को धारण किया है। जन्म लेने के बाद युवा-प्रौढ़ एवं वृद्धावस्था आ जाने पर हमें क्या करना चाहिए, यह नहीं सोच पाते। आयु समाप्ति के उपरांत आगे क्या होगा। यह समस्या सबके सामने है, पर इसका समाधान पाने का प्रयास नहीं करते। तीन लोक को हित की दिव्यध्वनि प्रदान करने वाले तीर्थकर प्रभु इस पर घर को छोड़कर आज अपने घर को चले गये। हम लोगों को अपने निज घर प्राप्ति की चिंता ही नहीं है। इस भौतिक नश्वर मकान या शरीर को ही अपना घर मान लिया है, यही अज्ञान है। सर्वकर्म विप्रमोक्षो मोक्ष: अर्थात् समस्त कर्मों की समाप्ति का नाम ही मोक्ष है। इस अवसर्पिणी में इस भूपर, वृषभ-नाथ अवतार लिया, भर्ता बन युग का पालन कर, धर्म-तीर्थ का भार लिया। अन्त-अन्त में अष्टापद पर, तप का उपसंहार किया, पाप-मुक्त हो मुक्ति सम्पदा, प्राप्त किया उपहार जिया। (नंदीश्वर भक्ति हिन्दी-२९) आगे दो तोतों का उदाहरण देते हुए कहा कि एक तोता पिंजड़े में बंद परतंत्रता का अनुभव करता हुआ उसे ही अपना आवास समझ बैठा है। किन्तु दूसरा तोता पिंजड़े के ऊपर बाहर बैठा हुआ मुक्ति स्वतंत्रता का संवेदन कर रहा है। इस तोते को देख भीतरी तोते को वास्तविकता का बोध प्राप्त होता और वह शीघ्र ही पिंजड़े से मुक्त होने की कामना एवं प्रयास करता है। ऐसे ही प्रभु के मुक्ति गमन से हम सभी अपने कल्याण के लिए प्रयास करें, यही दिशा बोध एक न एक दिन अवश्य ही हमें संसार के बंधन रूपी पिजड़े से मुक्ति दिलायेगा। इस मोह रूपी ग्रहण को एक बार समाप्त करने पर ही दिव्य ज्ञान रूप केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। ज्ञानी जीव को दुख/कष्ट का अनुभव होते हुए भी भविष्य में सुख की प्राप्ति अवश्य होगी ऐसा दृढ़ विश्वास हैं और इसी पथ पर आगे बढ़ते हुए एक दिन प्रभु के लिये परम निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। "महावीर भगवान् की जय!"
  8. भारत में श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों ने जन्म लिया, जिन्होंने मानव ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों के भी प्राणों की रक्षा की है। नारायण श्रीकृष्ण की जन्माष्टमी को लोग पर्व के समान मानते हैं। उन्होंने संकट के क्षणों में प्राणियों की रक्षार्थ गोवर्धन पर्वत को उठाकर अपने बाहुओं पर उसको स्थित रखकर नीचे प्राणियों को शरण दी और दया धर्म का पालन किया था। उन्हीं के भारत में आज जीवों की हिंसा हो रही है जो घृणास्पद तथा शोचनीय है गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि पशुओं को बूचड़खाना में एक साथ लाखों की संख्या में समाप्त कर उनकी हड्डी, मांस, चर्बी आदि निर्यात करके विदेशी मुद्रा को इस राष्ट्र के कर्णधार शासक कमाना चाहते हैं। विचार कीजिये यह कैसा व्यापार है? गौवंश को समाप्त करके देश की कभी भी उन्नति नहीं की जा सकती। अर्थ नीति को समझने संभालने वाले शासकों को अर्थ उत्पति के साधन जुटाने वालों को आदर्शकारी भारतीय संस्कृति से शिक्षा लेनी चाहिए उसके लिए और भी अन्य साधन हो सकते हैं। क्या किसी भी विकसित राष्ट्र ने गाय-बैलों को समाप्त करके उन्नति पाई है ? कृषि प्रधान कहलाने वाला देश आज पशु धन से कृषकाय क्षीण होता जा रहा है इस कारण हमारी संस्कृति भी क्रमश: समाप्त होती जा रही है। विदेशों से आयातित खाद्य आदि रसायनों से यहाँ की धरती भी बंजर होती जा रही है। मांस बेचकर, गायों को समाप्त कर कमाये जाने वाली मुद्रा की अपेक्षा उन मूकप्राणियों की मुद्राओं की ओर भी देखो। मुद्रा संग्रह अर्थ धनार्जन के नाम पर निरपराध जीवों का वध करके मांस बेचने वाला यह भारत देश कहाँ तक अपनी उन्नति कर पायेगा। यह विचारणीय तथ्य है। आज के राजनेता साधु संतों के पास जाकर जहाँ इन मूकप्राणियों की रक्षा करने का वचन देते हैं, बाद में वे ही वचनों से मुकर भी जाते हैं। इस कारण से भारतीय संस्कृति के अध्ययन से वंचित, ऐसे राजनेता मात्र स्वार्थ सिद्धि के लिए देश को अंधकार की ओर ले जाते हैं। चोरी छिपे इन मूकप्राणियों को ट्रकों, रेलों में भर भरकर अन्यत्र कई मीलों दूर तक फैले आधुनिक मशीनीकृत बूचड़खाना तक ले जाया जाता है। जहाँ जानवरों को कई दिनों तक भूखा-प्यासा रखकर महीनों तक स्टाक विभिन्न प्रकार से कष्ट देते हुए निर्दयता पूर्वक दिन-प्रतिदिन समाप्त किया जाता है। गोमाता के दुग्ध सम, भारत का साहित्य। शेष देश के क्या कहें, कहने में लालित्य। यह सरकार एक तरफ तो मोर, सिंह, चीते आदि की रक्षा के लिये कानून बनाती, शिकार करने पर प्रतिबंध लगाती है। वहीं दूसरी ओर इन मूक प्राणियों के वध हत्या के लिए खुल्लम-खुल्ला लाइसेंस दे रही है। ऐसा अंधेर क्यों ? आचार्य श्री ने लोगों को जागृत करते हुए कहा कि सरकार को आप चुनते हैं। अत: उस व्यक्ति को चुने जो योग्य, न्यायप्रिय तथा अहिंसक नीति का पालक हो, तभी देश से हिंसा के वातावरण की समाप्ति होगी। आप अपने-अपने परिवार के हित के बारे में सोचते हैं। उसकी सुख-सुविधा की आपूर्ति हेतु सरकार के समक्ष माँग रखते, हड़ताल, आन्दोलन आदि करते हैं तब क्या इन मूक पशुओं की रक्षा हेतु सरकार से माँग नहीं कर सकते हैं। श्रीकृष्ण जैसे शलाका पुरुष, जिन्हें 'गोपाल' कहते थे अर्थात् जो गौवंश के पालनहार कहलाते थे। वे भी इनकी रक्षा हेतु प्रतिपल तत्पर रहते थे तब आप भी सरकार से आग्रह करें। ताकि वह लाखों की संख्या में होने वाले पशुसंहार (हत्या) को बंद कराएँ जो प्रजातंत्र के नाम से नरकुण्ड जैसा घृणित कार्य कर रही है। शास्त्रों में 'गौवत्स' को समप्रीति कहा गया है 'वत्स' शब्द से ही वात्सल्य शब्द बना है। अजीव वस्तु से राग तो हो सकता पर प्रेम, वात्सल्य, स्नेह जड़ पदार्थों से नहीं बल्कि सचेतन जीवित प्राणियों से होता है। जब बैल वत्सरूपी गाय का बछड़ा समाप्त हो जावेगा, तब वात्सल्य किससे करेंगे? धर्म शब्दों तक ही सीमित न रह जावे। महत्व तब है जब शब्दों से अर्थ एवं भाव स्पष्ट हो तब ही उसकी सार्थकता होती है। आपका नाम 'गोपाल” है। अत: शब्द का अर्थ गौ यानी गौवंश का पालनकर्ता और आप विध्वंश करने वालों को सम्मान दे रहे हैं। पशु-पक्षी तो निरपराधी है, उनका विध्वंस नहीं बल्कि उनके उत्थान के साधन जुटाने चाहिए। अपने जीवन में देखें, मात्र प्रचार-प्रसार में ही न उलझे। क्योंकि अहिंसा धर्म ही पूज्य है। भारतीय संस्कृति में हिंसा का स्थान नहीं है इसलिये इसका समूल नाश अनिवार्य है। आचार्यश्री ने कहा कि - सुनते-सुनते शास्त्र को, बधिर हो गए कान। तो भी तृष्णा नामिटी,प्रयाण-पथपरप्राण॥ आप संसार में अपने स्वार्थ के बारे में सोचते रहते हैं लेकिन जिसके कारण आपके जीवन का लालन-पालन एवं संवर्धन हुआ, उसके साथ क्रूरता पूर्ण किये जाने वाले कार्य-व्यवहार क्या सत्कार्य के योग्य है? इनका मूल्यांकन आप भले ही न कर सके परन्तु जानवर तो इसका मूल्यांकन कर लेते हैं इसीलिये तो वे हमारे कष्ट को दूर करने हेतु स्वयं कष्ट सहन करते रहते हैं। आपको बाहुबल मिला उसकी सार्थकता इसी में है कि उसका प्रयोग दूसरों की रक्षा करने में हो किन्तु जो निर्बल-असहाय निरपराध जनों की रक्षा में ही सक्षम नहीं वे जीवन में दया को अंगीकार करने वालों की रक्षा क्या करेंगे? भगवान् महावीर, श्रीकृष्ण, राम आदि शलाकापुरुष कहलाते हैं। जिनका जीवन आदि से अंत तक कल्याण से जुड़ा होता वे ही शलाका पुरुष हैं। वे संख्या में ६३ माने गए यह संख्या भी महत्वपूर्ण है। छह के सामने तीन रखने से ६३ बनता जो मांगलिक महोत्सव तथा सुख-साधन जुटाने वाला होता किन्तु आज ६३ का नहीं बल्कि ३ की ओर पीठ करके बैठने वाले ३६ का युग आ गया है। अत: कलिकाल में धर्म कर्म उलटता ही जा रहा आज राजनीति में धर्म के नाम से काम लिया जा रहा है। ये ही दुखदायी है जिससे बचने का प्रयास कर भारत राष्ट्र की आदर्शपूर्ण संस्कृति की रक्षा हो सकती | "अहिंसा परमो धर्म की जय !"
  9. युग के आदि में आदिम तीर्थकर वृषभनाथ ने प्रजा के उत्थान हेतु असि-मसि-कृषिवाणिज्य-विद्या एवं शिल्प रूप षट् कर्मों का उपदेश दिया था। उसमें विद्या उल्लेखनीय है, उस विद्या के साथ 'आचरण' और जुड़ जाने से ‘विद्याचरण' हो सकता और सोने में सुगंध आ सकती है। भारतीय संस्कृति में विद्या आत्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु की जाती थी, पर आज विद्या (शिक्षा) अर्थकारी हो गई है। अर्थकारी विद्या से भारतीय संस्कृति का समुचित विकास, ज्ञान के सही प्रयोग एवं आचरण से ही संभव है। दीनों के दुर्दिन मिटे, तुम दिनकर को देख। सोया जीवन जागता, मिटता अघ अविवेक॥ मनुष्य सुख शांति तो चाहता है इस हेतु उपयुक्त वातावरण भी चाहिए। वह मूक पशु-पक्षियों का संरक्षण करें उनका विनाश नहीं। उनके दूध से ही हमारे शरीर में शक्ति और चरणों को गति प्राप्त होती है। भारत में रचित किसी भी सत् साहित्य में पशु वध के माध्यम से जीवन उन्नति या वित्त लाभ की बात नहीं कही गई। आज की अपेक्षा भारत को पूर्व में सोने की चिड़िया कहा जाता था। तब पूर्व में आज से पचास गुनी मुद्रा प्राप्त होती थी। महात्मा गाँधी भी जैन धर्म के सत्य, अहिंसा सिद्धांतों से प्रभावित थे, जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी जीवनगाथा में भी किया है। परन्तु आज पशुओं को बूचड़खाना में निर्मम रीति से मारकर विदेशी मुद्रा के लोभ में विदेशों में मास का निर्यात कर भारत प्रतिपल पाप का आचरण कर रहा है। इस मांस निर्यात पर अविलंब रोक लगना चाहिए। बूचड़खानों की योजनाओं पर प्रतिबंध लगे, ऐसी मेरी तथा समस्त अहिंसक समाज की भावना है। यदि लोकसभा में इस बात को वजनदारी से रखा जाता है तो सुख, शांति एवं कल्याणकारी कार्यों हेतु जैन समाज कटिबद्ध होकर राष्ट्र के विकास हेतु भरपूर मदद करेगी। वृष का होता अर्थ है, दयामयी शुभ धर्म। वृष से तुम भरपूर हो, वृष से मिटते कर्म। गाँधीजी ने कहा था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अब किसी पार्टी को नहीं बल्कि देश को आगे बढ़ाने हेतु आचरण की आवश्यकता है, जो स्वयं के साथ जनता को भी आचरण के सांचे में ढाल सके। विगत ४-५ दशक व्यतीत हो जाने पर भी आज तक गाँधी जी के विचार साकार नहीं हो सके। अच्छे विचार तभी उठेगे जब स्वयं का आचरण श्रेष्ठ, पवित्र होगा। उसी के माध्यम से देश क्या समस्त विश्व का कल्याण होना संभव है। सूट, पेंट या पायजामा धारी नहीं बल्कि कमर कसने वाला व्यक्ति ही इस कार्य को मजबूती से कर सकता है। मंत्रीजी (पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल जी) भी धोती ही कसकर यहाँ पधारे हैं। ये यदि अपनी कमर को कसें तो यह कार्य शीघ्र हो सकता इस हेतु मेरा मंगल आशीष है। धर्म तो अपने श्रम की निर्दोष रोटी कमाकर देने में है जो कि 'स्व” से पलायन नहीं, ‘स्व' के प्रति जागरण का नाम ही धर्म है। ये प्रदर्शन की बात नहीं किन्तु दर्शन, अन्तर्दर्शन की बात है। "साधना अभिशाप को वरदान बना देती है”। अतएव वासना के स्थान पर जीवन में उपासना आनी चाहिए। गाँधी जी की भावना के अनुरूप अहिंसा एवं सत्य के माध्यम से इस लोकतंत्र में मानव-जाति और पशु हित की बात हो सकती है। पुराण पुरुषों की उपस्थिति में प्रजा सुख-शांति का अनुभव करती। जीवन में आरोहण अवरोहण तो चलते रहते हैं। आज भगवान् वृषभनाथ महावीर भले नहीं है। पर उनका जीवन दर्शन उनके द्वारा प्रदर्शित पथ आज भी हमारे सम्मुख है। उसका सही सही अनुपालन होने से ही देश और विश्व सुख शांतिमय जीवन जी सकता है। 'ही' से ' भी' की और ही, बढ़े सभी हम लोग। छह के आगे तीन हो, विश्व शान्ति का योग। "अहिंसा परमो धर्म की जय !"
  10. आज के भारत की दशा को लक्ष्य में रखकर आचार्यश्री ने कहा कि जिस भारत के आदि में ब्रह्म-तीर्थकर आदिनाथ भगवान्, राम, हनुमान, पाण्डव आदि ने जन्म लिया था। जिन्होंने प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा परोपकार दया प्रेम, करुणा का दिव्य संदेश जन जन को दिया। उन्हीं के भारत में आज एक दो नहीं अपितु ३६०३१ हजारों की संख्या में कत्लखाने खुल गये हैं। इनमें कुछ तो अत्याधुनिक हैं, जहाँ बीसों हजारों गाय बैल, भैंस, बकरी आदि पालतू जानवरों को फालतू मानकर बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया जाता है और उनके भिन्न-भिन्न अंगों को बेचकर विदेशी मुद्रा को अर्जित करने का घृणित कार्य किया जा रहा है। विदेशी मुद्रा की भूख को मिटाने के लिये अहिंसक देश भारत से मांस का निर्यात किया जाना लज्जा की बात है। इस हेतु जहाँ एक दिन में ४,१६,००० प्राणियों को एक ही कत्लखाने में २-४ दिन तक भूखा - प्यासा रखकर हत्या कर दी जाती है। वहीं महिनों पहले हजारों लाखों प्राणियों को संग्रहीत कर मौत के लिये तैयार किया जाता है। राजा ही जब ना रहा, राजनीति क्यों आज? लोकतन्त्र में क्या बची,लोकनीति की लाज। जिन प्राणियों के सम्मुख कष्ट संकट हो उनके प्रति दया, अनुकंपा करना प्राणिमात्र का कर्तव्य है। किन्तु जिनका प्रतिदिन ही बेरहमी से कत्ल किया जा रहा है। उन जीवों की रक्षा हेतु हम सभी लोगों को एक साथ तत्पर होकर कार्य करना चाहिए। जिन पशुओं से दूध प्राप्त होता है। खेती बाड़ी होती है जो प्रत्येक कार्य में मनुष्य के सहयोगी रहते हैं। उन्हें आधुनिक कुतकों से अनुपयोगी सिद्ध किया जा रहा है। आज सत्य पलटा खा रहा एवं हिंसा का चारों ओर ताण्डव नृत्य हो रहा है। मूक होकर देखना कहीं आपका उस कार्य के प्रति समर्थन तो नहीं है? भारत से इन जानवरों का मांस तथा अन्य अंग बेचकर विदेशों से गोबर मंगाना इसी पांसे को पलटने की प्रक्रिया है। जिन्हें जनता ने चुनकर अपना प्रतिनिधि बनाया वे ही मंत्री आदि बनकर देश को उन्नत बनाने, विकासशील से विकसित बनाने हेतु गोमांस बेचकर, गोबर आयात करके एक ही रास्ता बता रहे हैं। जो भारत कभी सोने की चिड़िया कहलाता था वहाँ आज उन्नति के नाम पर लोहे के ढांचे फैक्ट्रियों में तैयार हो रहे हैं। भूल नहीं पर भूलना, शिव-पथ में वरदान। नदी भूल गिरि को करे, सागर का संधान। पूर्व में जहाँ प्रत्येक घर में तांबा पीतल कांसा या अन्य गिलट आदि के बर्तन होते थे। आज उनका स्थान लोहा स्टील एवं प्लास्टिक ने ले लिया है। सोने-चाँदी के बर्तन तो स्वप्न की बात है। आज तो आभूषण के रूप में इनके स्थान पर लोहा एवं प्लास्टिक आ गया है। यह भारतीय संस्कृति के विनाश की सोची-समझी चक्रव्यूह सदृश रचना लगती है। देश की रक्षा धर्म पालन, संस्कृति रक्षा अहिंसा से ही संभव है। तभी देश में रामराज्य आ सकेगा। अन्यथा रावण राज्य का ही प्रचार-प्रसार बढ़ेगा। सिंहासन पर बैठने वालों को धर्म तथा अधर्म की पहचान होनी चाहिए तथा दया का जीवन में क्या महत्व है। इसका अच्छी तरह से अध्ययन कर लेना चाहिए। जनता को वोट देने के पूर्व व्यक्ति का वास्तविक मूल्यांकन अनिवार्य है। अहिंसा के माध्यम से धर्म और संस्कृति जीवित रह सकती है। जिस देश में ३०-४० वर्ष पूर्व कुछ ही कत्लखाने थे, वहाँ इनकी आज भीड़ खड़ी कर दी गई है। कत्लखाने स्थापित करने का यही क्रम रहा तो इनकी संख्या हजारों को पार कर के लाखों में हो जायेगी और फिर पशु नहीं बल्कि मनुष्य और कारखाने ही होंगे। आचार्य श्री ने भूल की ओर संकेत किया है - निरखा प्रभु को, लग रहा, बिखरा सा अध-राज। हलका सा अब लग रहा, झलका सा कुछ आज। विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाली भारतीय संस्कृति ही सभी को आत्मा से परमात्मा बनने की यात्रा समझा सकती है। देश की उन्नति एवं संस्कृति की रक्षा हेतु उन बूचड़खानों (कत्लखानों) से घिरी हजारों-लाखों एकड़ भूमि में अन्य किसी प्रकार का उद्योग स्थापित करके यह मांस बेचकर किए जाने वाले घाटे का सौदा रोका जा सकता था। जो धार्मिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से गलत है। अत: वोट की राजनीति के कुचक्रों से ऊपर उठकर तामसिक मनोवृत्तियों पर लगाम लगावें और मति तथा बुद्धि को भ्रष्ट होने से बचाकर भगवान् आदिनाथ, भगवान् राम, वीर, हनुमान, पाण्डव एवं भगवान् महावीर आदि के जीवन से दिशा बोध ग्रहण करें ताकि समय रहते सही दिशा की ओर सही कदम बढ़ सकें। वैसे सामान्य तौर से पके आम की यही पहचान होती है वह हाथ के छुवन से मृदुता का अनुभव/फूटती पीलिमा से नयनों का सुख एवं फूल-समान नासा फूलती सुगन्ध सेवन से। फिर रसना चाहती है रस चखना मुख में पानी छूटता तब वह क्षुधित का प्रिय बनता यही धर्मात्मा की प्रथम पहचान है। मेरा सो खरा नहीं, खरा सो मेरा। इस जहाँ में तलवारों का वार सहने वाले लोग आज भी हो सकते हैं लेकिन फूलमालाओं का वार सहना कितना कठिन है। इसे सहने वाले विरले ही साधक मिलते हैं बन्धुओ! गगन गहनता गुम गई, सागर का गहराव। हिला हिमालय दिल विभो! देख सही ठहराव। "अहिंसा परमो धर्म की जय !"
  11. मोहरूपी शत्रु से सारी दुनिया पीड़ित एवं हताहत हुई है। किन्तु आत्म तत्व को प्राप्त करने के लिए सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण करने पर मोहरूपी शत्रु को ही हताहत या नष्ट किया जाता है। पंडित जगन्मोहनलाल जी शास्त्री ने समाधिमरण करके विद्वत् जगत के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया है। इस शरीर के कारण आस्था और निष्ठा में कमी आकर साधना कमजोर पड़ जाती है। पर आस्था एवं निष्ठा को दृढ़ बनाकर ज्ञान, आराधना को शास्त्रीजी ने जीवन में चरितार्थ किया। पंडित जी अनेक वर्षों से सल्लेखना हेतु आचार्य श्री से दिशा निर्देश प्राप्त कर, अपने आपको तैयार कर रहे थे। उन्होंने ९५ वर्ष की वृद्धावस्था में भी ७ प्रतिमाओं का पालन एवं पंच परमेष्ठी की आराधना करते हुए इस नश्वर शरीर को त्यागा। विद्वान तो क्या व्रती-संयमी जीवों में भी ऐसा बहुत कम हो पाता है। विद्वता तथा संयम दोनों पृथक्-पृथक् हैं। सल्लेखना धारण करते हुए प्राणों को छोड़ना ही महत्वपूर्ण है। आचार्यश्री ने कहा है- सल्लेखना जीवन से इंकार नहीं है और न ही मृत्यु से इंकार है। अपितु उसमें महाजीवन की आशा है, वह आत्महत्या नहीं है क्योंकि आत्महत्या में कषाय की तीव्रता एवं जीवन से निराशा रहती है। लंबी उम्र पाकर वह घर को भले ही नहीं छोड़ सके किन्तु उनकी अनवरत यह भावना तो रहती ही थी। उन्होंने जो साधना की उसमें पूर्ण सफलता सीमा से बाहर प्राप्त की। आज कदाचित् साधु बनना तो आसान है पर गृहस्थ अवस्था में रहकर व्रतों को सुरक्षित रखना बहुत मुश्किल (कठिन) काम होता है। उन्होंने अपने विशाल परिवार के बीच में रहकर भी दृष्टि अपने ध्रुव-लक्ष्य की ओर रखी तभी यह संभव हो सका। पंडित जी के समान सभी व्रती बनकर संयम को धारण कर ऐसा ही अंतिम क्षण प्राप्त करे? जिससे साहस के साथ आत्मा को इस शरीर से पृथक् किया जा सके। जिस आत्म तत्व का उपदेश युग के आदि में तीर्थकर आदिनाथ भगवान् ने दिया था आचार्य श्री ने कहा है - आदिम तीर्थकर प्रभु, आदिनाथ मुनिनाथ। आधिव्याधि अघमदमिटे, तुम पद में मम माथ॥ इस अवसर पर नीरज जी ने कहा कि बड़े पंडित जी ने बड़े बाबा के चरणों में आचार्य प्रवर श्री विद्यासागरजी महाराज के सान्निध्य को प्राप्त किया जो बड़े भाग्य की बात है। या कहें कि ये मणि कांचन योग है। मैंने आचार्य पूज्य श्री विद्यासागरजी महाराज को देखा एवं इनके प्रवचन, चर्या देखी इसका श्रेय पंडित जी को ही है जो कि उनके प्रवचन, चर्या आदि देखी। सन् १९७५ में कटनी में जब आचार्य श्री अत्यधिक अस्वस्थ हो गए थे तब २९ वर्ष की उम्र में ही आपने पंडितजी से समाधिमरण कराने का भाव व्यक्त किया था तभी पंडितजी ने कहा था कि 'महाराज आप पर अभी धर्म समाज एवं राष्ट्र को बहुत आशा है।” आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने आपको आचार्य पद प्रदान करने के बाद आपके ही चरणों में समाधिमरण का संकल्प लेकर मानो लोक को यह उसी समय बता दिया था कि आप समाधि सम्राट् है। एवं भविष्य में भी, अनेक भक्तजन आपके चरणों में समाधि मरण कर सकेंगे। पंडित जगन्मोहन लाल जी ने जीवन को समाप्त कर मृत्यु का वरण किया। मृत्यु के भय को निकाल कर उन्होंने समयसार को केवल पत्रों में पढ़ा ही नहीं बल्कि जीवन में चरितार्थ भी किया है। सिंघई महेशजी कटनी ने कहा कि हिन्दुस्तान की जैन समाज कटनी को पंडित जगन्मोहन लाल जी के नाम से जानती थी पर आज उनके नहीं रहने से कटनी शोभाविहीन हो गई है। ब्रह्मचारी त्रिलोक जी ने बताया समर्पण सच्चा हो तो संतों के चरणों में बैठकर सल्लेखना पूर्वक मरण को प्राप्त किया जा सकता है। बड़े बाबा का मंत्र तथा आचार्य श्री का सान्निध्य अत्यंत दुर्लभता से प्राप्त होता है। निर्मलचंद एडवोकेट जबलपुर ने कहा ‘‘यह दुखमय नहीं अपितु अति सुखमय प्रसंग है। आदमी तो एक न एक दिन मरता है, पर जो हृदय पर अपनी स्मृति छोड़ जाता उसका मरण ही सार्थक है। पंडितजी की वाणी एवं मुस्कुराहट में कुछ ऐसी विशेषता थी जिसके कारण यह जगत् को सहज ही अपने नाम के अनुरूप मोहित कर लेते थे।” डॉ. शिखरचंद जैन हटा ने कहा कि ‘यह विशाल श्रद्धा श्रुति सभा पं. जी की जीवन पर्यन्त जिनवाणी सेवा को ही बतला रही है। वे पहले विद्वान हैं। जिन्होंने माँ जिनवाणी की सेवा करते हुए समाधि मरण को प्राप्त किया।” कुण्डलपुर तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष सिंघई संतोषकुमार ने कहा कि ‘पंडित जी जैन समाज के ख्याति प्राप्त विद्वान थे। आपने अनेक वर्षों तक माँ जिनवाणी की सेवा के साथ ही इस क्षेत्र की भी सेवा की। मानव जीवन की सफलता स्वरूप मानो आपने यह समाधि रूपी स्वर्ण कलश चढ़ाया है तथा श्री गुरुवर के चरणों में सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण करके विद्वत् जगत में एक अनूठा आदर्श प्रस्तुत किया है।” प्रकाशचंद जैन एडवोकेट दमोह ने सरस्वती पुत्र पंडित जगन्मोहन लालजी शास्त्री के जीवन का विस्तृत परिचय देते हुए स्मरण पत्र का वाचन किया। अंत में उपस्थित समस्त जन समुदाय ने ९ बार एणमोकार मंत्र का स्मरण किया। पंडित जगन्मोहनलाल जी शास्त्री आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से निर्देश प्राप्त कर विगत २३ जून ९५ को सल्लेखना ग्रहण करने की भावना से ही सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर जी पधारे थे। १०७ दिनों की अनवरत साधना एवं आचार्य श्री के संकेत के अनुरूप ही आहार पद्धति को परिवर्तित करते हुए क्रमश: अन्न आहार का त्याग किया। विगत ७ दिनों में तो जल एवं लौकी का क्रमश: त्याग कर पूर्ण समर्पण एवं समता पूर्वक अपने जीवन का उपसंहार किया जो जैन विद्वत् समाज के लिए अनुपम आदर्श है। आपने आसोज सुदी चतुर्दशी शनिवार को आचार्यश्री के मुख से शाम ७.०५ पर मुनिसंघ की उपस्थिति में णमोकार मंत्र श्रवण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया। दूसरे दिन प्रात: ७ बजे विशाल जन समूह ने अंतिम शोभायात्रा में भाग लेकर कुण्डलपुर क्षेत्र पर्वतमाला की तलहटी में नश्वर शरीर को अग्नि प्रदान की। आचार्य श्री ने लिखा है- गुरुभक्ति करते-करते जिसका हृदय शुद्ध हो गया है। आस्था मजबूत हो गई है उसे ही गुरु अध्यात्म का रहस्य उद्घाटित करते हैं। "महावीर स्वामी की जय!"
  12. गर्भावस्था के संस्कार जीवन के अंतिम क्षणों तक जीव के साथ रहते हैं जैसे कौरव और पाण्डव दोनों के संस्कार अलग-अलग थे। इन्हीं पाण्डवों ने परिस्थिति वश कौरवों के साथ महाभारत युद्ध लड़ते हुए भारत में खून की नदियाँ बहा दी। लेकिन यही पाण्डव जब वन में दिगम्बर रूप धारण कर ध्यानारुढ़ हुए। तब उन्हीं कौरवों के द्वारा लोहे के गर्म-गर्म आभूषण पहनाये जाने पर भी ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुए। क्रोध का वातावरण उपस्थित होने पर भी उस रूप अपने परिणाम नहीं होने दिए। यही तो ज्ञानीपन है। ज्ञान की चर्चा करना अलग है तथा चर्या करना अलग। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने 'समयसार" में कहा है कि जिस प्रकार अग्नि से तपाये जाने पर भी स्वर्ण अपना स्वर्णत्व नहीं छोड़ता वैसे ही ज्ञानीजन कितना ही प्रतिकूल वातावरण उत्पन्न हो जाने पर अपना ज्ञानीपन नहीं छोड़ते। आचार्य श्री ने लिखा है कि - मंगलमय जीवन बने, छा जाये सुख छाँव। जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव। हमारी बाह्यवृत्ति जब भीतर हो जाती है तो मन में उठने वाली विसंगतियों की तरंगें स्वयमेव ही समाप्त हो जाती हैं। उसके कारण शरीर भले ही समाप्त हो जाय पर आत्मा समाप्त नहीं होती, बल्कि यह आप्त (भगवान्) बन जाती है। वैसे अपने आपको प्राप्त करना ही आप्त को प्राप्त करना है। मन यदि शांत रहता तो वचन और काय शांत हो जाते और बाहर भीतर शांति समता का साम्राज्य छा जाता है। क्रोध की नहीं क्षमा की बात होनी चाहिए क्योंकि क्षमा वीरता की पहचान है- "क्षमा वीरस्य भूषणम्।" अध्यात्म के रहस्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि शत्रु के प्रति प्रतिशोध नहीं रखना चाहिए। बाहरी शत्रु तो बाद में मित्र भी बन सकता है, यह कुछ काल के लिए ही शत्रु होते, पर कर्मरूपी शत्रु से तो हम अनादिकाल से हारते आ रहे हैं। "कर्मचोर चहुँ ओर सरबस लूटे सुध नहिं ।" एक बार क्षमारूपी अमोघ शस्त्र को धारण करने पर उसे चूर-चूर किया जा सकता है। अतएव बाहरी नहीं अपितु भीतरी शत्रु को निकालें, बाहर दृष्टि होने पर इन्द्रिय और मनरूपी खिड़कियाँ झट खुल जाती पर भीतरी दृष्टि होने पर आँखें भी अपने आप बंद हो जाती हैं। संसार के सभी पदार्थों के प्रति मात्र ज्ञेय-ज्ञायक संबंध हो जाने पर हमें कर्म कर्म में देह देह में आभूषण ही प्रतीत होते हैं। तब द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि सभी बाह्य महसूस होते हैं, ऐसे समय क्रोध निराश्रित हो जाता और क्षमा की सुगंध चहुँ ओर फैल जाती है। क्रोध के कारणों को समझाते हुए आपने बताया कि आप क्रोध से सही रूप में परिचित नहीं हैं/क्रोध व्यक्तियों/प्राणियों पर नहीं करना अगर करना हो तो क्रोध पर ही क्रोध करें क्योंकि जो भीतर है वही तो बाहर आता है। उसके बाहर आने का रास्ता एक ही है, अत: जिस क्षण क्रोध या मान आदि प्रकट होते उसी समय हमें जागृत रहना और कर्म की मूल जड़ को ही समाप्त करना है। अग्नि के समाप्त हो जाने पर कितना भी ईधन इकट्ठा किया जाये वह किसी काम का नहीं होता, किन्तु अग्नि की छोटी-सी कणिका भी समस्त ईधन को समाप्त करने के लिए पर्याप्त है। अत: ध्यान रहे कि ज्ञान के बिना धर्म का पालन संभव नहीं होता। कर्म के होने अथवा आने के कारणों को जानने मात्र से ही वह दूर नहीं होते, उससे मुक्ति नहीं मिलती बल्कि यह तभी संभव है जब उसके उदय में आने पर भी हम उससे प्रभावित न हों। कषाय तो अन्य शरीर को धारण कराने में कारण होती है। यदि अन्य शरीर नहीं चाहिए तो उसके कारणों को भी छोड़ना होगा। जैसे रसोई बन जाने पर ईधन को बुझा देते हैं, क्योंकि तब वह निरर्थक हो जाता। वैसे ही क्रोध के दुष्परिणाम को जानकर क्रोध, मान, माया और लोभरूपी लकड़ी को जलाना बंद करें तभी जीवन में शांति का वातावरण हो सकता है। आचार्य श्री कहते हैं - समता भजतज प्रथम तू, पक्षपात परमाद। स्याद्वाद आधार ले, समयसार पढ़ बाद। पाण्डव पुराण में पाण्डवों को लक्ष्य में रखकर कहा है कि ‘युद्धरत् पाण्डवों को अग्नि तो मात्र मन में लगी थी। वे यह महसूस कर चुके थे कि इसी तन के कारण आत्मा आज तक कषायों से जलती रही है, आज तपरूपी अग्नि से इस शरीर को ही जलाना अथवा कषायों की अग्नि पर क्षमारूपी जल का सिंचन करना है। ज्ञानीजन शत्रु या अन्य से नहीं बल्कि इस स्वयं के नश्वर शरीर से ही बदला लेते हैं। उनकी तन की ओर प्रवृत्ति न हो ऐसा सार्थक प्रयास होता है। वह भीम जब रणांगन में पहुँचता था तो शत्रु पक्ष की सेना सामने से भाग जाती थी। जैसे कि मृगराज सिंह जिस ओर से निकल जाता उस ओर से मदमस्त हाथी समूह भी भाग जाते हैं। वही भीम लाल-लाल गर्म लोहे के कड़े पहनाने पर विचलित नहीं होते। उन्हें गर्म लोहा और पुष्प दोनों समान हो गए ये ही समता का परिणाम है। जब चित्त में स्थिरता भेद विज्ञान और वैराग्य प्रबल होता है तब शत्रु को जानते हुए भी उस ओर दृष्टि नहीं जाती। अध्यात्म के क्षेत्र में कषाय का होना पागलपन की निशानी है। आध्यात्मिक तत्ववेत्ता अपने अतीत पर रोता है, तभी वह उस अतीत की गलती को दूर करने के लिए सार्थक प्रयास करता है। क्षमा को प्रतिपल जीवन में आचरित करना होगा। कष्ट के क्षणों में प्रतिकार के भाव नहीं होना तथा कष्ट देने वाले के प्रति भी अभिशाप के भाव नहीं लाना ऐसी उत्तम क्षमा से ही मुक्ति प्राप्त होना संभव है। यही क्षमा, समता हमें बाहर से भीतर/अंतस् में प्रवृत्ति कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अत: सुखी होने के लिए क्षमा विनम्रता, सरलता और उदारता का जीवन में आना अनिवार्य है।
  13. विराटता की ओर दृष्टि जाने पर आश्चर्य होता है किन्तु इकाई की ओर दृष्टि जाने पर विस्मय समाप्त हो जाता है। अज्ञान दशा में विस्मय होता है, पर बोधि प्राप्ति हो जाने पर विराट को देखने पर आश्चर्य नहीं बल्कि सुखद आनंद की अनुभूति होती है। प्रभु की विराटता या निर्माण स्रोत उद्गम का बोध नहीं होने पर ही संसार का निर्माण होता है। जिसने इस रहस्य को जाना उसने विराटता में स्वयं को समाहित-अवगाहित कर लिया है। जल बिन्दु धूल में गिरकर समाप्त हो जाती है। किन्तु वही जल बिन्दु दूसरी जल बिन्दुओं से मिलती हुई सिन्धु का आकार ले लेती है। ऐसे सिन्धु का ज्ञान होना आवश्यक है। हम अपने भीतर छिपे विराट सिन्धु परमात्म तत्व का ज्ञान नहीं होने के कारण दुखद परिणाम आज तक प्राप्त कर रहें हैं। आचार्य श्री ने कहा है - बूंद-बूंद के मिलन से, जल में गति आ जाये। सरिता बन सागर मिले सागर बूंद समाय॥ जो भी आज तक परमात्म पद को प्राप्त हुए उन्होंने भी अपने से पूर्व के महान् लोगों को आदर्श माना है। पसीने की एक-एक बूंद महान् पुरुषार्थ का बोध कराती है। जिसके कारण पत्थर से भी पानी निकाला जा सकता और स्वयं के भीतर छुपी महानता को साकार किया जा सकता है। प्राथमिक दशा में बालकों को गुरुदेव हाथ में पेंसिल देकर हाथ पकड़कर रेखायें खींचना सिखाते हैं। उन रेखाओं के मुड़न और जुड़न से पहले ये १४ स्वर एवं बाद में ३३ व्यंजनों की आकृति निर्माण होती है। वस्तुत: उन १० रेखाओं का वास्तविक ज्ञान ही उन बालकों को पाठ का ज्ञान कराते/है जैसे जहाँ जैसी आवश्यकता होती वहाँ वैसी ही आकृति बनाना शुरू करते लेकिन बनाते-बनाते भी वह आकृति नहीं बनती। वह इतनी बड़ी हो जाती है कि उसे नहीं बना पाने के कारण गुरुदेव का डण्डा खाकर हमें भूल का अहसास होता है। कमी होने पर गुरुओं के द्वारा रेखा के ही प्रतीक डण्डे के कारण हमारी रेखा की कमी दूर हो जाती है। जो लोक विधि विधान आस्था की कलम से ही संभव होता है। तीन-चार मंजिला लकड़ी के बड़े रथ का निर्माण हुआ उसमें यथास्थान दो चक्र (चाक) भी लगाये गये। पर लगाते समय एक भूल हो गयी जिस पर ध्यान नहीं गया। रथ को खींचा गया और देखते ही देखते लाखों रुपयों की लागत से निर्मित रथ जमीन पर गिर पड़ा। कारण खोजने पर पाया कि उसमें लगे दोनों चाक इसलिये उसमें से निकल गये क्योंकि उसमें डण्डेरेखा की प्रतीक कील नहीं थी जो रथ के चाक को निकलने से रोकती थी। भरत चक्रवर्ती के स्वप्न के अनुसार जिनशासनरूपी रथ में श्रावक और श्रमण रूपी दो चाक आवश्यक हैं। यदि दोनों में तालमेल गठबंधन साम्य और लक्ष्य एक नहीं होगा तो रथ आगे नहीं बढ़ सकेगा। उसके लिये तो धर्म का डण्डा साथ में लगा होने पर ही लक्ष्य की प्राप्ति होगी। आचार्य श्री ने लिखा - 'ही' से ' भी' की ओर ही, बढ़े सभी हम लोग। छह के आगे तीन, हो विश्व शान्ति का योग। देश में जैन समाज की स्थिति आटे में डले नमक के समान है पर नमक के बिना रोटी खाने लायक नहीं होगी, ध्यान रहे नमक की रोटी नहीं बनती। एकता गठबंधन इकाई के बिना भगवान् महावीर के इस तीर्थ को कंधे से कंधा मिलाये बिना तथा तन-मन-धन के सहयोग के बिना अहिंसा वीतरागता का संदेश विश्व में जनमानस को नहीं पहुँचाया जा सकता। सामाजिक क्रांति के बिना विनाश की ओर ही यात्रा होगी। सैनिक शक्ति तथा आण्विक संयंत्र शक्ति से युक्त विश्व में अग्रणी रूस अपने अभिमान के कारण विखण्डित होकर १६-१७ टुकड़ों में विभाजित हो गया। आज मानव शांति की खोज में संयम के बिना अशांत है। शान्ति के लिये विज्ञान की नहीं अध्यात्म के अनुशासन की आवश्यकता है। इसके बिना अध्यात्म में प्रवेश हो ही नहीं सकता। जितने भी साधु-संत, ऋषि-मुनि या धार्मिक श्रावकगण हुए हैं। वे सभी दिन में तीन बार डण्डा रूपी प्रतिक्रमण करके भगवान् महावीर के धर्म को आचरित कर रहे हैं। अत: जीवन में संयम अभिशाप नहीं अपितु वरदान है। धर्मध्वजा को फहराना, सुरक्षित रखना मात्र बातों से नहीं हो सकता। इसे अक्षुण्ण रूप से आज तक संतों और श्रावकों ने रखा है। अनेक तूफानी परेशानियों के बीच रहकर भी धर्म ध्वजा को गिरने एवं झुकने से बचाया है/सदैव उसे एक हाथ से दूसरे हाथ में सौंपकर मजबूती प्रदान की है। ध्वजा की पहचान प्रतीक चिह्न से होती है, उन चिहों से जिन्होंने धर्म की पहचान को धारण किया था। वह ध्वजा मजबूत आधारभूत दण्ड के सहारे स्थिर रह पाती है। इसलिये वास्तुशिल्प से निर्मित ध्वज दण्ड स्थल का भी, निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान होता है। जीवन में संयम अपनाकर पुरुषार्थ को जागृत कर प्रकृति के थपेड़े सहकर मानव सजग बनता है। वही जन्म और मृत्यु पर विजय पाने का उद्यम कर मृत्युञ्जयी होता है। अत: खुद को खुदा बनाने के लिये आत्म ज्योति को प्रकाशित कर संयम का डण्डा लगाकर स्वयं को खुदा बनाया जा सकता है। तन मिला तुम तप करो, करो कर्म का नाश। रवि शशि से भी अधिक है, तुममें दिव्य प्रकाश॥
  14. जीव के तीव्र कर्म के उदय होने पर अनेक प्रयास करने पर भी वह प्रयत्न सार्थक नहीं है। त्याग तपस्या से कुछ कर्म रूपी फल पकते और झड़ भी जाते है। परन्तु ध्यान रूपी अग्नि के संयोग से कर्म शीघ्र ही पक कर निजरित हो जाते हैं। जिस प्रकार अधपका आम पाल में शीघ्र ही पक जाता है। ये पाल की संगति है। ठीक उसी प्रकार मार्ग से विपरीत कार्य या बुरी संगति भी पूर्व संस्कार के प्रतिफल स्वरूप उदय में आकर व्यवधान खड़े कर देती है। कुछ भीतरी भाव विकल्प मन में ऐसे स्थिर हो जाते जो उपदेश से नहीं निकाले जा सकते उन्हें तो तप के द्वारा ही निकाला जा सकता है। एक पौराणिक कथा को दृष्टि में रखकर मुनि वारिषेण ने बाल सखा नव दीक्षित साधु पुष्पडाल के भीतरी विकल्प को निकलवाने के लिये अनेकों बार संबोधन दिया। किन्तु जब सफलता प्राप्त नहीं हुई तो आहार चर्या के समय राजमहल का वैभव सुख-सुविधा की सामग्री अनेक राज परिवार की सुन्दर नारियों को दिखाया। और उन सबको त्यागकर मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने वाले वारिषेण की भोगोपभोग की सामग्री देखते ही पुष्पडाल के हृदय में परिवर्तन हुआ और वह नि:शल्य हो गये यह कहने से या देखने से नहीं बल्कि भीतरी भावों से निकलती है। - समता भज तज प्रथम तू पक्षपात परमाद। स्याद्वाद आधार ले समय सार पढ़ बाद। त्याग तपस्या का जीवन में प्रभाव रहता है तभी तो आर्यखण्ड की ६४ हजार रानियों के अतिरिक्त ३२ हजार म्लेच्छखण्ड से आई। रानियों के साथ रहते हुए भी चक्रवर्ती ने उन्हें ऐसे धर्म से संस्कारित किया जो वर्णलाभ रूप हुआ और म्लेच्छखण्ड की उस परिणति से छूटकर समीचीन ज्ञान श्रद्धा एवं चारित्र को अंगीकार करने के योग्य भूमिका तैयार हो सकी। जिससे भीतरी कर्म रूपी अधर्म के संस्कारों को धीरे-धीरे समाप्त किया जा सका। जैसे सर्प के काटने से मृत्यु हो ही यह निश्चित नहीं/परन्तु मोह ममतारूपी नागिन के दंश से हम भवों-भवों तक मूच्छ में गाफिल हो छटपटाते रहे यह निश्चित है। एक बार उस मोह को अंतरंग से त्याग देने पर जन्म-मरणरूपी संसार हमेशा-हमेशा को छूट जाता है। जैसे कृमि रंग वस्त्र पर चढ़ने पर वह वस्त्र फट भले ही जाये पर रंग छूटता नहीं है। वैसे ही शरीर भले ही छूट जाये परन्तु आत्मा पर कषायों रूपी कर्मों की पर्त ऐसी चिपकी हैं। जो अतीत काल में अनंतों बार तीर्थकरों के सान्निध्यसामीप्य तथा संबोधन रूप धर्मोपदेश पाकर भी नहीं छूट सकी। उसमें मुख्य कारण हमारे मोह के विसर्जन का अभाव रहा। बुद्धि पूर्वक कर्म करने पर ही कर्म प्रभाव से बचा जा सकता है। ऐतिहासिक प्रसिद्धि प्राप्त सम्राट् श्रेणिक को उसकी पत्नी रानी चेलना ने त्याग–तपस्या तथा जिनार्चना की ओर ऐसा प्रेरित किया जिसके कारण ही उन्हें तीर्थकर महावीर प्रभु का सामीप्य प्राप्त हुआ। तब वह क्षायिक सम्यक प्राप्त करके समवसरण में ६० हजार प्रश्नों को करने की योग्यता हासिल कर सके तथा ३३ सागर की बद्ध आयु को घटाकर नक की जघन्य आयु ८४ हजार वर्ष कर सके। "सिंधु के सामने बिन्दु" नगण्य होता है। पुरुषार्थ तथा उपादान में ही ऐसी योग्यता होती है कि वह सिंधु को समाप्त कर उसे बिन्दु में समेट सकता है। मंगलमय जीवन बने, छा जाये सुख छाँव। जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव। संसारी प्राणी को मोह, राग सबसे अधिक धन, पैसों से होता है, किन्तु त्याग से संबंध जुड़ने पर नहीं। कुछ लोग ही गांठ को खोल पाते हैं। जबकि कुछ तो गांठ पर गांठ लगाते चले जाते है। किसी वस्तु का जोड़ना कठिन नहीं पर उसे त्यागना बहुत अधिक कठिन होता है। धन का मोह समाप्त हो जाने पर वह घर में नहीं रह सकता। अर्थ पुरुषार्थ हो तभी काम पुरुषार्थ की ओर दृष्टि जाती है। जिन्होंने स्त्री संबंधी राग का त्याग कर दिया वह उस धन को अपने पास नहीं रख सकता। फिर भी यदि वह लोभ, लालच रखता है तो उसे (मृतक मण्डलवत्) शव कहा जाता है। जैसे मृतक को सजाया जाता है, पर वह कोई सार्थकता नहीं, वैसे ही धन से वह राग नहीं रखता क्योंकि धन तो जड़ ही है किन्तु राग तो चेतन के साथ किया जाता है। भोगोपभोग सामग्री का त्याग कर पाना कठिन है। अतीत में भोगे हुए भोगों का स्मरण न करना तथा भोगों की आकांक्षा न करना कदाचित संभव है। पर वर्तमान में भोगों को त्याग पाना साहस और वैराग्य से ही संभव है। पुनः भस्म पारा बने, मिले खटाई योग। बनो सिद्ध पर-मोहतज, करो शुद्ध उपयोग। ज्ञानीजन वर्तमान के भोगों के प्रति हेय बुद्धि रखते है, अन्यथा अनर्थ होने में देर नहीं लगती। धन को अनर्थ नहीं मानते हुए परमार्थ को अनर्थ कहना समझदारी के अभाव का ही प्रतिफल है। पुण्य के कारण अहद् भक्ति आदि के प्रति नहीं बल्कि उनसे प्राप्त फल की ओर हेय बुद्धि होनी चाहिए। ज्ञानीपन शब्दों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वस्तु वह तो तत्व का ज्ञान होने पर ही उसे सहजता से छोड़ जाता है। राग का त्याग हो जाने पर भोगोपभोग सामग्री सम्मुख होने पर भी वह उनसे प्रभावित नहीं होता। बल्कि उनकी वीतरागता से ही प्रभावित होता है। जिन परिणामों के द्वारा ही असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है। जिसे श्रावक एवं श्रमण की ओर संकेत किया है। "महावीर भगवान् की जय!"
  15. मानसिक विचारों की संकीर्णता के कारण ही हम संसारी प्राणियों की वृत्ति हिंसा, झूठ, चोरी आदि की ओर बढ़ रही है और क्षत्रियता समाप्त होती जा रही है। यह वही भारत है जहाँ लोगों के जीवन में, ग्रन्थों में, गीतों में, वाद्यों में अहिंसा का जयगान होता रहता था। किन्तु उसी भारत में अब अन्याय और पापाचार की ओर कदम बढ़ने लगे। इससे हृदय की धड़कन बदल गई। पाप के कारण गति ही बदल गई है। जिनके परिणामों में शैथिल्य आया उनकी उन्नति नहीं हो सकती। अत: शैथिल्य को दूर से ही छोड़ देना श्रेयस्कर है। पुराण पुरुषों की जीवन घटनाओं को सुनकर, उनसे दिशा- बोध प्राप्त कर आचरण में उतारने से मोह, या ममत्व का नशा दूर होगा। तभी हम आपे में आ सकेगे और तभी आत्मा का वैभव हमारे सम्मुख होगा। आचार्य श्री ने धर्म के बगैर मानव एवं पशु की स्थिति को दर्शाया है - खुला खिला हो कमल वह, जबलों जल-सम्पर्क। छूटा सूखा धर्म बिन, नर पशु में ना फर्क॥ आँखों में निद्रा होने से देखने की इच्छा होते हुए भी वस्तु दिखाई नहीं पड़ती, निद्रा के अभाव होने पर ही वस्तु दिखाई पड़ती है, वैसे ही मोह की निद्रा को दूर करने पर ही आत्मा को पाया जा सकता है। जैन दर्शन की यह मौलिक विशेषता है कि वह हमारे अन्दर परमात्मा या भगवान् बनने की क्षमता प्रकट करता है यहीं जैन दर्शन अन्य दर्शनों से जीवमात्र को दिग्दर्शन कराता है। जैन जाति या धर्म किसी व्यक्ति विशेष से संचालित नहीं होता बल्कि वह स्वयं को जीतने से ही संभव है। अत: सही मार्ग को खोजें और उस पर कदम रख कर मुक्ति शाश्वत सुख को प्राप्त करें। जाति या धर्म किसी व्यक्ति विशेष से संचालित नहीं होता बल्कि वह स्वयं को जीतने से ही संभव है। अत: सही मार्ग को खोजें और उस पर कदम रख कर मुक्ति सुख प्राप्त करें। वस्तुत: हमें आज तक जाति शब्द का रहस्य ही समझ में नहीं आया है। विचारों एवं आचारों के साम्य से सजातीयता-समान जाति होती है इसके अभाव में विजातीयता होती है। विचार एवं आचार के साम्य का नाम ही एक जाति है, उसके अभाव में परस्पर खून का संबंध होने पर भी वह किसी काम का नहीं। क्षत्रिय सदा जाति की रक्षा करने में तत्पर रहता है। वह रक्षा हेतु कदम बढ़ाने पर मर सकता है, पर पीछे कदम नहीं लौटा सकता न रुक सकता और न वापस मुड़ सकता है। वचन-सिद्धि हो नियम से, वचन-शुद्धि पल जाय। ऋद्धिसिद्धि-परसिद्धियाँ, अनायास फल जाय। जिसके सिर पर छत्र हो वह क्षत्रिय नहीं है बल्कि स्वयं तथा जनता में व्याप्त पाप को उनसे पृथक् करता/कराता है, वही क्षत्रिय है। रणभूमि में खड़े पूज्यजन, परिवारजन, पुरजन या परिचितों से संबंध नहीं जोड़ता बल्कि अनर्थ के लिये तत्पर व्यक्ति को सही राह दिखाने हेतु कमान पर तीर चढ़ाता वही क्षत्रिय है। जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु अवश्य होगी। जन्म शरीर का होता अत: उसका मरण भी अनिवार्य है। भीतरी आत्म तत्व को तलवार या भाले आदि के द्वारा वार करके मारा काटा नहीं जा सकता। एक वंश के होकर भी जो अनर्थ की ओर कदम बड़ा रहे हों उन्हें रोकने तथा शिक्षा देने के लिये ही युद्ध करता है। रणांगन से भागने वाला श्री कृष्णजी से इस दिशाबोध तथा वास्तविकता को प्राप्त कर मरते दम तक वह अर्जुन रूप मध्यम पाण्डव असत्य हिंसा या असत् विचारों को रोकने में तत्पर रहता, यही क्षत्रियता है। दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर । आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर। आज के इस भारत को उस महाभारत से शिक्षा लेनी चाहिए। क्षत्रिय के एक हाथ में ढाल और दूसरे हाथ में तलवार होती है, वह कभी पैसा हाथ में नहीं लेता। जिसके हाथ में पैसा होता वह स्वयं या पर की ओर दृष्टि नहीं दे पाता और न किसी की रक्षा कर पाता है। आज भारत को पुन: एक अर्जुन और पाण्डवों की आवश्यकता है, उसके बिना कुपथ या उन्मार्ग पर जाती हुई जनता या राजनीति को सुधारा नहीं जा सकता। आत्मा और परमात्मा को भूलकर मात्र अर्थ की ओर दृष्टि रखने वालों को परमार्थ की ओर उन्मुख कराने की आज आवश्यकता है। भारत को विश्व-हितकर्ता माना जाता है, खाने-पीने की वस्तुओं की भरमार से नहीं/बल्कि आत्म/धर्म की सही-सही जानकारी देकर शांति और सुख का मार्ग बताने वाला एक मात्र देश होने से/किन्तु यदि वही उसे भुला देगा तो फिर कौन उत्थान का रास्ता दिखला सकेगा। गलत राह की ओर जाते कदम भी आत्मा या धर्म की चर्चा सुन समझकर पलट जाते। अत: चिड़िया के द्वारा खेत चुग जाने के पूर्व जागृत हों जावें तभी अपनी फसल की रक्षा करके फल प्राप्त कर पायेंगे ये ही सही पुरुषार्थ है। उन्नत बनने नत बनो लघु से राघव होय। कर्ण बिना भी धर्म से, विजयी पाण्डव होय। "अहिंसा परमो धर्म की जय !"
  16. नीर के मंथन से नहीं बल्कि दही का मंथन करने पर नवनीत की प्राप्ति होती है, वैसे ही शास्त्र पढ़ने से नहीं बल्कि स्वयं के मन का मथन करने तथा रत्नत्रय को प्राप्त करने से ही कल्याणरूपी नवनीत प्राप्त होगा अन्यथा नहीं। शास्त्र या पोथी मात्र ज्ञान नहीं, क्योंकि शास्त्र कुछ भी नहीं जानता है। शास्त्र भिन्न है और ज्ञान भिन्न अत: शास्त्र को जानकर मन जब उसमें लीन होता है तो जीवन में हार की समाप्ति होकर जीत ही जीत होती है। निज में यति ही नियति है, ध्येय पुरुष पुरुषार्थ। नियति और पुरुषार्थ का, सुन लो अर्थ यथार्थ॥ संतों ने हमें कल्याण हेतु दिशाबोध दिया है किन्तु शास्त्र का कोई पार नहीं। जीवन में समय बहुत कम है हम सब दुर्मेधा (वक्रबुद्धि) वाले यदि आत्म कल्याण चाहते हैं तो ऐसा कार्य शीघ्र कर लेना चाहिए जिससे जन्म और मृत्यु को समाप्त किया जा सके। जितना समय हम राग द्वेष आदि के करने में लगा देते उतना या उसका लाखवाँ भाग भी सत् कार्य कर पुरुषार्थ करें तो शीघ्र ही आत्मकल्याण हो सकता है। आचार्य श्री ने कहा कि किसी भी मंजिल तक पहुँचने हेतु पथ या सीढ़ी अनिवार्य होती हैं अत: पथ का चुनाव महत्वपूर्ण है, जो कि शिक्षण के बिना नहीं हो सकता, शिक्षण का अर्थ ज्ञान है तो मराठी, कन्नड़ आदि में उसका अर्थ दंड भी होता है। संस्थागत शिक्षा आजीविका के लिए होती-ऐसी प्राय: आम धारणा होती है। परंतु विद्या अर्थकारी नहीं, विद्या अवगुणों के नाश तथा परमगुणों की प्राप्ति का कारण होती है। शिक्षण क्षेत्र में अांदोलन अभिशाप है। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में उद्यम/पुरुषार्थ चरम सीमा पर होने चाहिए, क्योंकि वे शिक्षार्थी ही देश के होनहार (नागरिक) कर्णधार हैं, किन्तु आज विश्व के अन्य विश्वविद्यालयों की तुलना में भारत के विश्वविद्यालयों में उद्यम नहीं-ऊधम अधिक होता है जिसके कारण विद्यार्थियों का एवं देश का भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है। क्रोध को जानकर उसके आने के द्वार को पहले बंद करें तथा जब-जब क्रोध आता है उन क्षणों में स्वयं को जागृत रखने का प्रयास करें। हम तो बाहरी द्वारों को बंद करने का उद्यम करते हैं। क्रोध तो भीतरी दरवाजे से आकर विस्फोट करता है, जो थोड़ी-सी आकुलता में अपना परिवेश बदलकर अन्य विकारी भावों के रूप में बाहर आ जाता है। पर क्रोध-मान आदि विकारों के आने पर भी उस पर कंट्रोल/नियंत्रण करना ही क्षमा है। आत्मा में जब तक क्षमा के संस्कार नहीं होंगे तब तक शांति की प्राप्ति नहीं होगी। पुनः भस्म पारा बने, मिले खटाई योग। बनो सिद्ध पर-मोहतज, करो शुद्ध उपयोग। जैसे कि सूर्योदय होने पर हमारी छाया सुदूर पश्चिम में दूर तक चली जाती है। वैसे ही सूर्यास्त के समय वही छाया पूर्व की ओर विस्तृत हो जाती है। किन्तु मध्याह्न के समय जबकि पशु-पक्षी जानवर शांत हो जाते तब वह छाया हमारे शरीर के नीचे आकर समाप्त हो जाती है। वैसे ही हमारी बाह्यवृत्ति जब भीतर हो जाती तो मन में उठने वाली विसंगतियों की तरंगें स्वयमेव समाप्त हो जाती हैं। उसके कारण शरीर भले ही समाप्त हो जाता है, पर आत्मा समाप्त नहीं होती है। बल्कि वह अजरअमर बन प्रभु आराध्य का रूप धारण कर मोक्ष महल में विराजमान हो जाती है। आचार्य श्री ने घड़ी के दृष्टांत से अपनी बात को समझाते हुए बताया कि घड़ी में ६ बजने पर या अन्य समयों पर घंटा, मिनिट या सेकेण्ड के कांटे पृथक्-पृथक् दिशा में रहते हैं, किन्तु १२ बजने पर तीनों कांटे एक के ऊपर एक हो जाते हैं। तब तीनों का अंतर समाप्त हो जाता है वैसे ही हमारी बाह्य वृत्ति अंतरंग में आवृत्ति होने से भटकन पुनरावृत्ति भी समाप्त हो जाती है। अत: हमें क्रोध नहीं करना है। जिस समय क्रोध या मान प्रकट होते हैं, उसी समय हमें जागृत रहने की आवश्यकता है। इसी प्रकार हम कर्म की मूल जड़ों को ही समाप्त कर सकते हैं। सुचिर काल से मैं रहा, मोह नींद में सुप्त। मुझे जगाकर कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त। धार्मिक उत्सव हो या अन्य कोई भी उत्सव हो उसमें सर्वप्रथम उत्साह मन में होता फिर वचनों में आते हुए वहीं अंग-अंग में होता है इन तीनों के साथ चेतना जुड़ी रहती है। जब चेतना जागृत होती तो वचनों से जो आभास कर लेते हैं, उत्साह क्या है? हृदय का अनुकरण मुख करता है। आचार्य श्री ने कहा कि- जैसे भीतर भाव रहेगा वैसा ही व्यक्त होगा, जड़ में भी चेतना आ जाती है। मन-वचन जहाँ जुड़ जाता वही धार्मिक उत्साह हो जाता है - चिन्ता छूती कब तुम्हें, चिंतन से भी दूर। अधिगम में गहरे गये, अव्यय सुख के पूर॥ युगों-युगों से युग बना विघन अघों का गेह। युग दूष्टा युग में रहें, पर ना अघ से नेह। "अहिंसा परमो धर्म की जय !"
  17. दीक्षा बाहरी नहीं भीतरी अन्तर्घटना है, जो लौकिक नहीं पारलौकिक है जिसे मन-वचन एवं काय के द्वारा उपयोग को उज्ज्वल बनाकर प्राप्त की जा सकती है। संसार में भी संवेग और निर्वेगमयी भाव बिरले ही जीवों के हो पाते हैं। संसार तथा शरीर की पहचान हो जाने से भोगों के प्रति उदासीनता आ जाती है और स्वयमेव आत्म-कल्याण की भावना से प्रसन्न चित ही दीक्षा को अंगीकार किया जाता है आचार्य श्री ने लिखा है- वैराग्य की दशा में स्वागत आभार भी भार सा लगता है। आँखों की पूजा आज तक किसी ने नहीं की, सदा चरणों की पूजा होती है यानि दूष्टि नहीं आचरण पूज्य होता है। तन मिला तुम तप करो, करो कर्म का नाश। रवि-शशि से भी अधिक है, तुममें दिव्य प्रकाश। ब्रह्मचारी त्रिलोकजी के मंगलाचरण के उपरांत सदलगा की सौभाग्यवती महिलाओों ने मंच पर दीक्षार्थियों के बैठने हेतु स्वस्तिक का निर्माण किया। २३ वर्षीय स्व. श्री बंशीलाल एवं श्रीमती कमलाबाई जैन छिंदवाड़ा के सुपुत्र १० प्रतिमाधारी प्रथम दीक्षार्थी ब्रह्मचारी दिलीपजी विगत ८ वर्षों से आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के संघ में साधनारत थे। दीक्षा के पूर्व वैराग्यमय उद्बोधन में आपने कहा कि पढ़ाई, व्यापार एवं सामाजिक कार्य करते हुए मैं निर्णय नहीं कर पाता था कि भविष्य में मेरा क्या लक्ष्य होगा। तत्वज्ञान की प्राप्ति तथा साधु-संतों के समागम से अंतरंग में निर्मल परिणाम हुए। एक दिन प्रसंगवश मंच पर बैठे-बैठे ही मन में विचार आये कि भविष्य में क्या बनूँगा? इस विषय पर परिचर्चा में मैंने निर्णय किया कि मैं अपने आपको पाना चाहता हूँ और इस कार्य हेतु अपने आपको आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के श्री चरणों में समर्पित कर अपने आपको पाना चाहता हूँ। इस हेतु दीक्षा का निवेदन कर मोक्षमार्ग पर चल दिया। द्वितीय ब्रह्मचारी कुलभूषणजी स्व. गणपतराय गोविंदजी बारे और श्रीमती फूलाबाई से ग्राम महातपुर, तालुका मोड़ा (शोलापुर) महाराष्ट्र में जन्मे, बीएससी, अध्ययन प्राप्त कर आप आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से ५ वर्ष पूर्व आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर विगत ३ वर्षी से आचार्यश्री के संघ में रहकर साधक के रूप में १० प्रतिमा के व्रतों का पालन कर रहे थे। आत्महित की भावना रखने वाले तृतीय ब्रह्मचारी श्री रंजन जैन, उम्र २६ वर्ष, विदिशा जिले के मुरारिया निवासी सद्गृहस्थ श्रावक श्री निर्मलकुमार जैन एवं श्रीमती स्वर्णलताजी के पुत्र हैं। एम. काम. आर्ट तक लौकिक शिक्षा प्राप्त कर आप आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके श्री दिगंबर जैन उदासीन आश्रम इंदौर में धर्माराधनारत थे। सप्तम प्रतिमा की साधना करते हुए आपने ब्रह्मचारी श्री सुखलालजी, (क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी) तथा (क्षुल्लक श्री पुनीतसागर जी) महाराज का सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण कराने में पूर्ण योगदान दिया। अचानक इस दीक्षा महोत्सव के कार्यक्रम के प्रारंभ में ब्रह्मचारी अभयजी ने दीक्षार्थी त्रय का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर आचार्य श्री के चरणों में दीक्षा प्राप्ति हेतु निवेदन करने के लिए आह्वान किया। प्रातः ८ बजे दीक्षा का मांगलिक कार्यक्रम प्रारंभ हुआ जो लगभग पौने दो घंटे में पूर्ण हुआ। ब्रह्मचारी दिलीपजी,ब्रह्मचारी कुलभूषणजी तथा ब्रह्मचारी रंजन जी को आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर क्रमशः क्षुल्लक श्री निर्वेगसागर महाराज, क्षुल्लक श्री विनीतसागरजी महाराज तथा क्षुल्लक श्री निर्णयसागरजी महाराज के रूप में नामकरण किया। (तालियाँ) दीक्षा संस्कार करने के उपरांत आचार्य श्री ने संयमोपकरण रूपी मृदु पिच्छिका श्री संतोष सिंघई दमोह, महावीर अष्टगे सदलगा, ब्रह्मचारी चंद्रशेखरजी इंदौर से प्राप्त कर तीनों दीक्षार्थियों को प्रदान की। शास्त्रोपकरण श्री सुरेन्द्रकुमार जैन पानीपत, श्री कल्याणमल झांझरी कलकत्ता तथा श्री विजयकुमार जैन दिल्ली द्वारा पूज्य श्री क्षुल्लक महाराजों के लिये समर्पित किये गये तथा दीक्षार्थी की ओर से भावना भाई कि - पूज्य-पाद गुरु पाद में प्रणाम हो सौभाग्य। पाप ताप संताप घट, और बढ़े वैराग्य। "भगवान् महावीर की जय!"
  18. धर्म मन वचन काय या धन से नहीं वह तो चेतन से संबंध रखने वाला तत्व है। वह खरीदने बेचने या डिब्बे में रखकर बंद कर लेने की वस्तु नहीं अपितु धर्मात्मा के अंदर की परिणति है। धर्मात्मा होने की बात तो की जा सकती है परन्तु पहले स्वयं धर्मात्मा बनें, न कि धर्मात्मा बनाने के चक्कर में पड़े। किसी को मार्ग बताने के पूर्व स्वयं उसको पूर्णत: या अंशत: अपने जीवन में आचरित करें। धर्म निर्जीव वस्तु नहीं जिसे यूँ ही स्थापित कर दिया जावे। उसकी आवाज सुनने की चेष्टा करें। तन-मन-धन या वचनों से डर लग सकता परंतु धर्म की शरण में जाकर भयावह प्रसंगों से अपने आपको बचाया जा सकता है। देश में जो सांस्कृतिक उत्सव होते हैं वे मात्र औपचारिकता पूर्ण नहीं बल्कि उनसे जनता की सुप्त चेतना जागृत होती है। इसीलिए धार्मिक या सामाजिक उत्सव पूर्ण आनंद और उत्साह से मनाये जाते हैं। मन में उत्साह उमंग होने पर वह वचनों से अभिव्यक्त होता है तथा वचनों में आ जाने पर यह अंग प्रत्यंग के हाव-भाव से प्रगट होने लगता है। उत्साह भीतर हो तो वह शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति को प्राप्त होता है, क्योंकि हृदय के भाव चेहरे पर भी झलकने लगते है। समता भज तज प्रथम तू पक्षपात परमाद। स्याद्वाद आधार ले समयसार पढ़ बाद। वर्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था के संबंध में कहा कि राजकीय सत्ता में यथा 'राजा तथा प्रजा' की उक्ति चरितार्थ होती है पर लोकतंत्रीय व्यवस्था में यथा प्रजा तथा राजा की सार्थकता होनी चाहिए। जिस कारण जनता अयोग्य व्यक्तियों को हटाकर योग्य व्यक्तित्व को उस पद पर स्थापित करती है। अपने घर की व्यवस्था करने में जो फेल हो वह संपूर्ण भारत देश को क्या नियंत्रित करेगा? जो स्वयं ही अनुशासित-संयमित न हो। वस्तुत: प्रजा का कर्तव्य है कि यदि राजा (शासक) धर्मनीति से स्खलित हो रहा है तो उसमें सुधार करावें पर आज तो राजा ही नहीं रह गया और प्रजातंत्र के नाम पर आज मात्र स्टाप सा क्षतिपूर्ति ज्यों लग रहा है। ये धर्मानुराग से प्रेरित नहीं बल्कि जातीयता, स्वार्थ या अपनत्व के कारण होता इसलिए उसे चेतन से अनुराग नहीं होता। जिनकी शरीर की ओर दृष्टि होती है उन्हें आत्मा की जाति का ज्ञान नहीं होता-वैसे चेतना तो सबके पास है। वेश बदलने मात्र से चेतना लुप्त नहीं हो जाती, वेश-परिवेश या देश की बदलाहट से जन्म-मरण की कुण्डली भले ही बदल जाये पर आत्मा की कुण्डली सदा एक सी रहती है। उसकी कोई भिन्न जाति अंश या वंश नहीं होता। मात पिता रज वीरज मिलकर बनी देह तेरी। मांस हाड़ नस लहूँ राधकी, प्रकट व्याधी घेरी॥ इस रज और वीर्य के संयोग से बने शरीर की बात अलग है। पर्याय बदल जाने पर ज्ञान भी पलट जाता है। पर धर्म के संस्कार जिसके जीवन में पड़ गये हों वह प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य दया से संयुक्त हो करुणामय भावों के साथ जीवन-यापन करते हैं उन्हीं का साक्षात्कार प्रभु से हो जाता है - साक्षात्कार प्रभु से जबलों न होता, संसारी जीव तबलों भव बीच रोता। पट्टी सु साफ करता नहिं घाव धोता, कैसे उसे सुख मिले, दुख-बीज बोता॥ "महावीर भगवान् की जय!"
  19. दिन के आते ही रात भाग जाती है वैसे ही आत्म-ज्योति के प्रकट होने पर पापमयी जीवन समाप्त हो जाता। और नूतन जिन्दगी प्रारंभ हो जाती है। उस समय राग समाप्त होकर वीतरागता का नवप्रभात होता है। राग की दशा में व्यक्ति आत्म हित की बात भूल जाता फलस्वरूप वह सही को गलत अथवा गलत को सही जैसे सर्प को रस्सी और रस्सी को सर्प मानने लगता यह सब प्रबल राग का ही दुष्परिणाम है। मुनि वन वन में तप सजा, मन पर लगा लगाम। ललाम परमातम भजा, निज में किया विराम || जिस घटना को देखने से किसी को वैराग्य होता है उसी को देख दूसरे को विशेष राग ‘हो उठता है। जिसकी दृष्टि में जो होता है उसे सृष्टि भी वैसी ही दिखती है। किन्तु समीचीन बोध प्राप्त सम्यग्दृष्टि की भावना में, सदा अंतर्दूष्टि रहती है। जिससे वे सदा सभी के सुख या हित प्राप्ति की भावना करते हैं। पूर्वाचार्यों संतों ने चार पुरुषार्थों में धर्म पुरुषार्थ, अर्थ पुरुषार्थ के बाद काम पुरुषार्थ का उल्लेख किया है। इसके उपरांत ही मोक्ष पुरुषार्थ की ओर विशेष गति हो जाती है, धर्म के चलते गृहस्थ आचरण पालन करते हुए न्याय-नीति पूर्वक धनार्जन करके ही भोग-उपभोग की वस्तुओं का प्रयोग करता है किन्तु ध्येयभूत मोक्ष पुरुषार्थ के लक्ष्य को नहीं भूलता है। आचार्य श्री ने पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव एवं दुष्परिणाम की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया कि आज चारों और पश्चिमी हवा के वातायन का प्रभाव जोरों से बढ़ता जा रहा है जिसके कारण धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ छूटते जा रहे हैं, इन्हें भुलाकर अर्थ और काम पुरुषार्थ की ओर ही लक्ष्य हो जाना उस हवा का रुख है, भारतीय संस्कृति सदा निवृत्ति प्रधान अर्थात् धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ प्रधान रहा इन पुरुषार्थों तक पहुँचने के लिए भूमिका के अनुसार शेष दो पुरुषार्थों का प्रयोग होता है। पश्चिमी प्रभाव ने भारतीय संस्कृति के गरिमामय माहौल में रंग में भंग या मंगल में दंगल कर अशांति उत्पन्न कर दी जिसमें आनंद के स्थान पर अब सर्वत्र क्रदन, रुदन ही प्रारंभ हो गया है। यह निश्चित है कि गृहस्थ का जीवन अर्थ के बिना नहीं चलता। अत: वह उस द्रव्य (धन) से भोग–उपभोग की सामग्री प्राप्ति हेतु अर्थ को खर्च करता है किन्तु अर्थ की गति को अनर्थ से बचाये बिना तथा मूल कर्मबंधन, संसार से धर्म पुरुषार्थ को किये बिना मुक्ति मिलना संभव नहीं है। इसीलिये भारतीय परम्परा के अनुरूप पहले माता-पिता के द्वारा लड़के-लड़कियों के विवाह संबंध निश्चित किये जाते थे, पर पश्चिमी हवा के प्रभाव से आज पहले ही संबंध स्थापित हो जाते हैं। माता-पिता की स्वीकृति तो मात्र औपचारिकता रह गई है। इसी का दुष्परिणाम है कि पति-पत्नी में विवाह के उपरांत ही आपसी मनो-मालिन्य, तनाव कुठा की भावनायें दिनों-दिन बढ़ती जाती हैं। आचार्य श्री ने हरिवंश पुराण कथा की और दृष्टि पात कर आकाश सौर मंडल में सूर्यमणि के समान चमकने वाले वैभव को प्रदर्शित करने वाले यदुवंशी नारायण श्री कृष्ण के भावी तीर्थकर के जीव, कुमार नेमिनाथ के दीक्षा ग्रहण एवं तपस्या को चित्रित करने वाले चित्र तो घरों-मंदिरों में सहज ही मिल सकते हैं। परंतु जिस घटना से उनके मन में वैराग्य के भाव दृढ़ हुए और उन्होंने दीक्षा ग्रहण की ऐसे व्याख्यान के चित्र बहुत कम देखने में आते है। उनकी बारात में आये कुछ जिह्वा लोलुपी व्यक्तियों के आस्वाद के लिये बाड़ी में बंद पशुओं को देखकर एवं चीत्कार सुनकर उन्हें वैराग्य हो गया और वे रथ से उतरकर गिरनारजी उर्जयन्त पर्वत पर जाकर दीक्षा लेकर श्रावक से श्रमण नेमिनाथ हो गए। मुनि बन मुनिपन में निरत, हो मुनि यति बिन स्वार्थ। मुनिव्रत का उपदेश दे, हमको किया कृतार्थ॥ यही भावना मम रही, मुनिव्रत पाल यथार्थ। मैं भी मुनिसुव्रत बनूँ, पावन पाय पदार्थ॥ विवाह की बेला में यह खबर ज्यों ही राजकुमारी राजुल तक पहुँची तो उन्होंने भी संसार की असारता व अस्थिरता जानकर स्वयं के लिये भी वैराग्य पथ पर मोड़ दिया और वह भी जिन आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने हेतु गिरनार पर्वत पर पहुँची, राजुल के उठते-गिरते रहने के कारण संभव हो नारी गिरी अथवा गिरि पर नारी के कारण गिरनारी/गिरनार पर्वत नाम पड़ गया, प्रभु नेमिनाथ और सती राजुल तो गिरनार चले गए किन्तु निरपराध-मूक-मृगादि पशु प्रतीक्षारत हो उस गिरनार की ओर दृष्टि ले जा रहे थे कि इन्हें तो संसार से मुक्ति मिल गई, हमें भी कोई मुक्ति दिला दे इस बंधन से। आचार्य श्री कहते हैं कि मनुष्य को पेट भरने के लिये डेढ़ पाव आटा पर्याप्त है, किन्तु उस पेट्रोल को भरने के लिये अनेक निरपराध पशुओं को मारकर भी उस गड़े की अतृप्त इच्छा को पूर्ण नहीं किया जा सकता। वस्तुत: पेट भरने के लिये अनर्थ नहीं किये जाते जितने कि मानसिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किये जाते। भगवान् नेमिनाथ के उपासक सोचते हैं कि उन्होंने शादी को बर्बादी की निशानी समझकर उसे छोड़ दिया। संभवत: इसी कारण शादी नहीं करायी हो। परन्तु दया का रहस्य समझने वाले प्रभु नेमिनाथ ने उस जीव हिंसा को पाप समझा। अहिंसा और शाकाहार के उपासक ने स्वयं को वैराग्य की ओर मोड़, हिंसा के पाँच कारणों का अभाव कर उपदेश दीक्षा के पूर्व ही प्रदान कर प्राणिमात्र का कल्याण किया । अहिंसा परमो धर्म की जय !
  20. आज हमारे चारों ओर अंधकार ही अंधकार है, उजाले का ठिकाना नहीं है। सूर्य और चंद्रमा के कारण दिन एवं रात का विभाजन तो हो जाता है किन्तु मोह के कारण दिन में भी रात होती है। मोह का अभाव हो जाने पर रात्रि में भी दिन जैसा ही प्रकाश भासित होता है। विषयों के प्रति लगाव को सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही शांत किया जा सकता अन्यथा नहीं। यह सावधानी रखना आवश्यक है कि आज का संयोग कल नियम से वियोग में परिणित होगा ही । इस सत्य से हम शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं और अपने समय को प्रभु की भक्ति में/अपने आत्म कल्याण में लगा सकते हैं। जिसे हम प्रभु का निर्वाण कहते वास्तव में उनका आज जन्म हुआ है। महावीर जयंती को तो शरीर धारी बालक का जन्म हुआ था, किन्तु आज उनका मुक्त अवस्था में ऐसा जन्म हुआ जो आगामी अनंतकाल तक व्यय नहीं होगा अथवा भविष्य के जन्मों का आज ऐसा व्यय हुआ कि जिनका पुनः अब उत्पाद नहीं होगा। उनके कारण हम सभी को जो ज्ञान की किरण मिली वह प्रत्येक को नहीं मिलती, अब उसका सदुपयोग कर उन जैसे अहत्पद का हम संवेदन करें। समकित संयम आचरण, इस विध द्विविध बताय। वसुविध-विधिनाशक तथा, सुर सुख शिव सुखदाय॥ हम सभी ने एक दो नहीं अपितु अनंत बार पूर्व में शरीर को धारण किया है। जन्म लेने के बाद वृद्धावस्था आ जाने पर भी हमें क्या करना है, यह नहीं सोच पाते। आयु समाप्ति के उपरांत आगे क्या होगा? इसका समाधान पाने का प्रयास नहीं करते। त्रिलोकी तीर्थकर प्रभु भी इस, पर घर को छोड़कर स्व-घर को चले गए, हम लोगों को अपने निज घर प्राप्ति की चिन्ता ही नहीं है। इस भौतिक नश्वर शरीर को ही अपना घर मान लिया, यही अज्ञान है। एक तोता पिंजड़े में बंद परतंत्रता का अनुभव करता हुआ उसे ही अपना आवास समझ बैठा है, किन्तु दूसरा तोता पिंजड़े के ऊपर (बाहर) बैठा हुआ मुक्ति-स्वतंत्रता का संवेदन कर रहा है। इस तोते को देख भीतरी तोते को वास्तविकता का बोध प्राप्त होता है और वह शीघ्र ही पिंजड़े से मुक्त होने की कामना एवं प्रयास करता है। ऐसे ही प्रभु के मुक्ति गमन से हम सभी अपने कल्याण के लिये प्रयास करें, यही दिशा बोध एक न एक दिन अवश्य ही हमें संसार के बंध रूपी पिंजड़े से मुक्ति दिलायेगा। मात्र नग्नता को नहीं, माना प्रभु शिव पन्थ। बिना नग्नता भी नहीं पावो पद अरहंत || आज प्रातःकाल हुए सूर्य ग्रहण को लक्ष्य कर गुरुवर आचार्यश्री ने कहा कि उस समय का मौसम कैसा हो गया था इस पर विचार करने पर लगा कि चंद्रमा की स्थिति तो फिर भी ठीक होती है, पर प्रताप शाली सूर्य के ऊपर ऐसा चक्र छा गया जिससे वह पूर्ण ढक सा गया। यह ग्रहण तो कुछ ही समय के लिये था किन्तु हमारे जीवन में निगोद अवस्था में पूर्ण जैसी स्थिति रही, जो अनंतकाल से अभी तक चली आ रही है। भले ही अभी पूर्ण ग्रहण-जैसा नहीं है पर हमारी चेतना को आशिक रूप से ग्रसित किए हुए है। इस मोहरूपी ग्रहण को एक बार समाप्त करने पर ज्ञान रूप केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। ज्ञानी जीव को दुख कष्ट का अनुभव होते हुए भी भविष्य में सुख की प्राप्ति अवश्य होगी, ऐसा दृढ़ विश्वास है। अत: उसे संसार के विषय भी फीके लगने लगते और उनके प्रति उसकी इच्छा भी समाप्त हो जाती है। सन् १९८० में जब सिद्ध क्षेत्र द्रोणागिरी (छतरपुर) में संघ का प्रवास था, उस समय पूर्ण खग्रास सूर्य ग्रहण हुआ था। तब देखा कि पशु अपने-अपने घर को लौट रहे व पक्षी भी अपने-अपने वृक्षों पर पहुँचकर बोलने-चहकने की क्रिया बंद कर, रात्रि समझ स्वयमेव ही शांत हो गये थे। वैसे ही हम भी विचार करें कि हमारे ज्ञान पर आज तक ग्रहण लगा हुआ है। समीचीन ज्ञान की प्राप्ति के बाद तो विषय कषायों की ओर वृत्ति स्वयमेव बंद हो जानी चाहिए। महावीर भगवान् की जय!
  21. आत्मिक संस्कारों के सामने वैषयिक संस्कार बलजोर नहीं हो पाते, अपितु बलहीन हो जाते हैं। विषय कषायों के संस्कार तो अनंतकालीन हैं जो अज्ञान के कारण सदा बलजोर रहे, पर जो व्यक्ति तत्वज्ञान को प्राप्त कर लेता उसके बुरे संस्कार समाप्त होना प्रारंभ हो जाते हैं। उसमें ऐसी भी शक्ति विद्यमान है जिससे अत्यल्प समय में भी उन्हें धोया जा सकता है। संसारी प्राणी तो पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति राग के आकर्षण से खिंचता चला जाता किन्तु जिसके पास तत्व ज्ञान होता, वह उन विषयों के बीच में रहते हुए उनसे निर्लिप्त अप्रभावी रहता है। इन विषय कषायों ने संसारी प्राणी को इस छोरहीन संसार में अब तक भटकाया और इसी कारण विभिन्न नातों-रिश्तों रूपी जेलों में फंसकर जीवन अभी तक पिसता आया है। विषय कषायों के चक्कर में रच-पचकर भी दुनिया बोरियत महसूस नहीं कर रही अपितु कुछ और प्राप्ति की आशा में पढ़कर वास्तविक सुख-दुख को ही नहीं समझ पा रही है। ऐसी दशा में गलत संसर्ग हो जाने के कारण वह जीवन में अनर्थ ही करता जाता है और धर्म-कर्म सब कुछ भूलता जाता है। किन्तु संसारशरीर और भोगों के प्रति अरुचि होने रूप वैराग्य भावों के कारण वह स्वयं को परखता हुआ कर्मोदय के कारण बीच की दशाओं में अपना मूल्यांकन करता हुआ जीवन में आने वाले अनेक कष्टों को सहन करता हुआ भी अपने आत्म स्वरूप को समझता है। ऐसी दशा में कर्मों का आरोहण-अवरोहण करता हुआ वह गलत माहौल के बीच में पहुँचकर भी अपने आपको गलत कार्यों से बचा सकता है। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं - सुद परिचिदाणु भूदा, सव्वस्स वि काम भोग बंध कहा। एयतस्सुव लंभो, णवरि ण सुलभो विहत्तस्य॥ यह प्राणी आज तक काम, भोग एवं बंध की कथाओं से सुपरिचित रहा है किन्तु यह मोक्ष तत्व से आज तक अछूता दूर रहा है। जैन साहित्य में वर्णित चारुदत्त नामक धनाढ्य व्यक्ति के चरित्र आख्यान को उदाहरण के रूप में समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि वह तत्वज्ञान से युक्त था। वैराग्य पथ से विचलित कराने हेतु परिजनो ने उसकी संगति वेश्या से करा दी और यही चारुदत्त विषयों में रच-पचकर, उन्हीं में फंसकर भटक-भटक कर परिवार की अपार सम्पदा को समाप्त करता हुआ दीन दरिद्री चारुदत्त बन जाता है। भीतरी संस्कार होते हुए माहौल परिवर्तित हो जाने से जैसे पारे का संसर्ग पाकर स्वर्ण अपनी स्वर्णता को समाप्त कर पारे में ही लीन हो जाता, उसी प्रकार यह आत्मा भी अनंत कालीन दुर्गतियों के संसर्ग/ संस्कारों के कारण अच्छे संस्कारों से अप्रभावित रहती है। जैसे हिंगड़े की गंध से युक्त डिब्बी में बहुमूल्य कस्तूरी को रखने पर कस्तूरी की गंध भी बेकार होकर अपना परिचय खो देती है वैसे ही कुसंगतियों के प्रभाव में पड़कर हम अपना निज स्वरूप भूल गये हैं। एक बार भी यदि आत्मा कुसंस्कारों से मुक्त हो जावे तो तत्वज्ञान के माध्यम से एक अंतर्मुहूर्त में भी अनंत कालीन बुरे संस्कारों को समाप्त किया जा सकता है। यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर। पग-पग पल-पल बढ़ चलूँ, मोक्ष महल की ओर। आचार्य कहते हैं कि ये धार्मिक चरित्र या आख्यान दूसरे को सुनाने के लिए नहीं अपितु स्वयं समझने के लिए है। एक बार नहीं अपितु बार-बार पढ़ें, तभी हम अल्प जीवन में भी विषय कषायों के कारण होने वाली अपनी दुर्दशा को तत्वज्ञान से समझ सकेंगे। तब भावज्ञानरूपी कदम पाकर विशेष रसपान करने से सांसारिक कार्यों के प्रति नीरसता आ जाती है। और तब धर्म-कर्म को करता हुआ। व्यक्ति जिनवाणी या सद्गुरु के उपदेश-संत कृपा, आशीष पाकर अपने ध्रुव लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। सांसारिक कार्यों को करते हुए व्यक्ति जो कार्य करता वह उसी में रम जाता है। मनुष्य कदम पर कदम बढ़ाता जाता और आदि से अंत तक कमाने के चक्कर में पड़कर इसमें उलझ जाता है। जैसे सिंह का बच्चा बकरियों की संगत में पड़कर मैं मैं करता हुआ अपना जीवन गुजारता रहता है किन्तु किसी सिंह को देखकर या उसकी दहाड़ सुनकर अपनी शक्ति परिचय प्राप्त कर लेता है। और अपनी दिशा और दशा दोनों को ही परिवर्तित कर लेता है। कुन्दकुन्द को नित नमुं हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगन्धित महक में जीवन मम धुल जाय॥ आचार्य भगवत् कुन्दकुन्द स्वामी ने ग्रन्थराज समयसार में बताया है कि जिस प्रकार १०० टंच सोने से बने आभूषण कीचड़ में गिरकर और एक-दो दिन नहीं अपितु महीनों, वर्षों उसी में पड़े रहने पर भी कीचड़ के प्रभाव से प्रभावित नहीं होते। परन्तु लोहे का टुकड़ा उस कीचड़ में गिरकर कुछ ही समय के पश्चात् अपना मूल स्वरूप खो देता है। और कीचड़ के कारण जंगयुक्त हो जाता है। एक ही खान से दोनों धातुएँ निकली, परंतु अपने-अपने गुणधर्म के अनुसार स्वर्ण तो उसके प्रभाव से प्रभावित नहीं होता किन्तु लोहा अपना वास्तविक गुणधर्म छोड़कर उस मिट्टी में क्रमश: क्षीणता को प्राप्त होता हुआ नष्ट हो जाता है। वैसे ही मोही अपने स्वरूप के तत्वज्ञान के अभाव में स्वभाव को भूलकर अपना अस्तित्व खो देता है, किन्तु ज्ञानी व्यक्ति परमार्थज्ञान प्राप्त कर विषय कषायों के बीच में रहकर भी उससे निलिप्त है।
  22. ‘वचन की शुचिता एवं शरीर की शुचिता के लिए सभी प्रयास करते हैं। वचनों में शब्दों और अर्थ की शुद्धि के साथ शरीर की शुद्धि कर, पर को प्रभावित/आकर्षित करने का प्रयास होता है। ये दोनों नहीं हों किन्तु मन की शुचिता हो तो वह भी पर्याप्त है। शुचिता के अभाव में हानि की हानि है। शरीर की शुचिता स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद तथा वाचनिक शुचिता पर को स्पष्ट बोध तथा आकर्षण का कारण होती है। मन की शुचिता नहीं कर पाने का दुष्परिणाम हमें आज तक भोगना पड़ रहा है। शौच धर्म, क्रोध, मान, माया लोभ आदि कषायों की प्रकर्षता को भी शुचिता में ढाल देता है, उसे कम या समाप्त कर देता है।' पूज्य-पाद गुरु पाद में, प्रणाम हो सौभाग्य। पाप ताप संताप घट, और बढ़े वैराग्य || हम बाहर तो दीपावली मनाते, किन्तु भीतर होली खेलते रहते हैं। दीपावली पर्व पर सभी लोग अपने भवन को अन्दर/बाहर से रंगरोगन-वान बनाते हैं। होली पर्व पर नहीं परन्तु जब तक भीतरी क्षेत्र-वातावरण को साफ-सुथरा नहीं बनाया जाता, तब तक वह सारा प्रयास व्यर्थ है। हमारी वर्तमान दशा पूर्व में किए कार्यों के फलों को दर्शाती है। मल भले ही जल के भीतर किया जावे पर वह ऊपर तैरकर आता ही है वैसे ही हम भीतरी भावों/परिणामों को छुपाने का प्रयास भले ही करें, परन्तु वह बाहर प्रकट हो ही जाते हैं हमारे स्वयं के हावों-भावों से। आप प्रतिदिन साबुन से स्नान करके वस्त्र से पोंछ कर शरीर आदि को स्वच्छ बनाते हैं। धार्मिक क्षेत्र में शौच धर्म वह औषधि रसायन है जो इस लोक तथा परलोक दोनों को सुधारने वाला है। धर्म-अर्थ एवं काम तीन में से धर्म पुरुषार्थ गृहस्थों के लिए मुख्य है और जो ग्रहण किया था उसे त्याग करने रूप मोक्ष पुरुषार्थ श्रमणों के लिए है। साधु जीवन में उपकारी उपकरणों के प्रति मोह को त्यागने में ही धर्म का आस्वादन आता है। पर गृहस्थ कर्म को छोड़कर उससे दुगुना पाने के लिए धर्म करता है, परिग्रह के प्रति यही आसक्ति उसकी मानसिक अशुचिता का कारण बनती है। १० या २५ नहीं बल्कि ६० प्रतिशत अर्जित धन संपति को देना'दान' परन्तु त्याग तो सर्वथा छोड़ना है, जो रखा उसके रक्षण संवर्धन के भाव आते हैं। गृहस्थ एक-एक पैसा जोड़ने को अपने धन का विकास मानता है एवं खर्च करने पर उसे पसीना आता है। संत रूपी दर्शन-दर्पण में आत्म स्वरूप की निर्मल दशा झलकना ही प्रसन्नता है। भगवान् को देख हम भी प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मुखमुद्रा में लोभ, लालच या संक्लेश नहीं अपितु आनंद का सरोवर लहराता है। वह उनकी आंतरिक शुचिता का ही प्रतिफल है। जैसे स्वच्छ जल में भले ही लहरें उठ रही हों तब भी भीतरी वस्तु को देखा जा सकता है। पर आपकी लहरें अलग ही हैं जैसे कीचड़दार जल लहर रहित होने पर भी उसमें मलिनता होने के कारण भीतरी परिणति को नहीं आंका जा सकता। अत: मन को शुद्ध रखने के लिए ही धार्मिक अनुष्ठान किए जाते, इसके अलावा और कोई साधन नहीं है। हमारे अलावा अन्य के भी मन: परिणाम शुद्ध हों ऐसी भावना करने से भविष्य सुधरेगा पर यह तभी संभव हो सकेगा जब हमारा मन अन्तर से उज्ज्वल हो। शौच धर्म की पवित्रता-गहराई दूसरों के लिए नहीं अपितु स्वयं के लिए हैं। सूत्र/धर्म को पर के लिए कहना ही गलत धारणा है, अत: इसे मन से निकाल दें। दर्पण को देखकर जैसे स्वयं के मुख को साफ करते हैं, ऐसे ही पर के निमित से स्वयं को साफ-स्वच्छ किया जा सकता है। हम आज दूसरों की गंदगी को देखते हैं स्वयं की नाक में भरे हुए मल को नहीं, पर की आँख की लालिमा को तो देखते, पर स्वयं की आँख की लालिमा को महसूस ही नहीं करते। वस्तुतः दूसरों की ओर देखना जैनाचार्यों ने दोष माना है। संसारी प्राणी को मन धोने में पसीना आता और तन धोने में आनंद। तन को स्नपित कराने के उपरांत जैसे भूख खुलती है, वैसे ही मन को शुद्ध कर लेने पर आत्मानुभूति रूप भूख खुलती है। ‘समयसार" में कथन है कि हमने काम-भोग एवं बंध की कथायें तो बार-बार की हैं, अनादिकाल से करते आ रहे हैं पर शुद्ध आत्मतत्व का अनुभव, चिंतन कब हो, ऐसा प्रयास कभी नहीं किया। यह आत्म तत्व का अनुभव उसे ही प्राप्त होता है जो दूसरे के मन-वचन एवं काय की नहीं बल्कि स्वयं की भीतरी चेष्टा को देखता है। तीर उतारो तार दो, त्राता! तारक वीर। तत्त्व-तन्त्र हो तथ्य हो, देव-देवतरु, धीर॥ आत्म तत्व को धोने/साफ करने के लिए घंटों या वर्षों नहीं बल्कि एक अंतर्मुहूर्त ही पर्याप्त है। मन गंदा होने का कारण यह है कि भीतर लोभ जागृत होता है। वस्तु मिले या न मिले पर वह उसे प्राप्त करने की योजना अवश्य बनाता है/उसी उधेड़ बुन मायाचार में लगा रहता है, उसके मिल जाने पर मान करता और नहीं मिलने पर क्रोध करता है। ऋण एवं अग्नि को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। अग्नि की छोटी-सी कणिका विशाल भवन को खाक कर देती है और छोटा-सा वृण बढ़कर घाव-नासूर बना जाता तथा छोटा-सा भी ऋण बढ़कर मूल की अपेक्षा ब्याज प्रतिफल बढ़ाता जाता है। मुंशी प्रेमचन्द्र की कहानी 'सवाशेर गेहूँ-बंधुआ मजदूर’ अत: इनके प्रति प्रमाद न करें बल्कि शीघ्र ही इन्हें समाप्त कर देना चाहिए। वैसे ही वचन व तन के साथ मन को भी शुचि बनायें अन्यथा हमारी चेष्टा सरोवर में स्नान करके बाहर आए हुए हाथी के समान ही होगी। जो बाहर आते ही धूल को अपने सिर पर डालता है। भगवान् महावीर का यही संदेश है कि परिग्रह के कारण कषाय जागृत होती है और उसी के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का वैभव फैलता है। संतोष रखने से अपने आपको स्वस्थ बनाया जा सकता है। मन को शुद्ध बनाये रखने के लिए अपने ऊपर जो परिग्रह का अंबार लाद रखा है उसे समाप्त करना होगा। सुख चाहने मात्र से दुख से छुटकारा नहीं होगा। छहढाला में कहा- सुख चाहें दुख ते भयवन्त - उसके लिये अथक प्रयास कर परिग्रह का विमोचन कर तप-त्याग के पथ पर आगे बढ़ेंगे, तभी परम सुख के लिये प्राप्त होंगे। महावीर भगवान् की जय!
  23. वेश और परिवेश बदलने मात्र से मोह-मूच्छ, ममत्व या आसक्ति का अभाव नहीं होता। परस्पर विचारों के परिवर्तन से भी परिवर्तन नहीं आता इनमें परिवर्तन तो लक्ष्य को बदलने पर ही संभव है। इसके बिना तन, मन, धन या बर्तन भी बदलने से कुछ नहीं होगा। जीवन का मूल्य नहीं समझने के परिणाम स्वरूप ही मूच्छी होती है। अर्थ को पीठ पीछे छोड़ने पर ही परमार्थ होता है। किन्तु आज सिर के ऊपर परमार्थ नहीं अर्थ सवार है और सभी उसके नौकर-गुलाम हैं। जीवन के अमूल्य क्षण यूँ ही बीतते चले जा रहे हैं फिर भी हम अर्थ का संग्रह किए जा रहे हैं। जीवन कितना व्यतीत हो गया उस ओर दृष्टि नहीं होने से पहले रुपयों को जमीन में गाढ़ा जाता था। आज तो नोटों का जमाना है अत: उन्हें गड़ाते नहीं बल्कि विदेशों में गुप्त रखने का लक्ष्य हो गया है। विदेशों में धन रखने के चक्कर में भारतीय लोग बहुत अग्रणी (अगुआ) हैं। वह धन कहाँ, कितना, किसके द्वारा रखा है मात्र उसे यह ज्ञात है, अन्य किसी को नहीं। ऐसे धन का लाभ उस व्यक्ति के परिवार-समाज-राज्य या राष्ट्र को भी नहीं मिलता क्योंकि वह काला धन है और उसके अर्जन करने वाले का मुख भी काला होता है। दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। तोलो दया न छाड़िये, जबलों घट में प्राण। धर्म का अर्थ वस्तु नहीं अपितु भाव है। अच्छे भाव ही धर्म है तथा बुरे भाव ही अधर्म हैं, अत: भावों के ऊपर ही धर्म का प्रासाद टिका होता है। भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए धर्म है। आँखों में आँसू लाना मात्र धर्म नहीं बल्कि जीवन में कुछ न कुछ सुखद घटित होना चाहिये, उसके बिना यह अभिनय मात्र होगा। मूच्छ का अभाव उसी के जीवन में होता है जिसने दया को जीवन में उच्च स्थान दिया है। फिर वह भटकता नहीं बल्कि भटकों को लक्ष्य पर लाने में सहायता प्रदान करता है। संतों ने दया को छोड़कर अन्य कोई धर्म नहीं कहा, आदिप्रभु ने भी मुक्त कंठ से दया धर्म की घोषणा की है। सभी धर्म ने दया को स्थान दिया है मनुष्य के द्वारा करने योग्य कार्य नहीं करने के कारण नर ही नारकी बनता है तथा कर्तव्य पालन करके-'नर से नारायण' बनता है। नारकी बनने का कार्य अतीत में अनंत काल से होता आया है अत: नारकी बनने का कार्य न करें। करने योग्य कार्य एवं कर्तव्य पालन के लिए अनेक प्रकार से उचित साधनों को जुटाया जा सकता है। अपराध या गलत कार्य नहीं करना ही हमारी परीक्षा है और सवार्थ यानी स्वयं को परमार्थ की प्राप्ति कहा है। अपने जीवन की रक्षा के लिये अन्य जीवों को समाप्त न करें।' दीवान अमरचन्द ने सिंह को जलेबी और दूध पिला कर अहिंसा धर्म की रक्षा की। राणा प्रताप जैसे शासकों ने घास की रोटी खाकर अहिंसा धर्म जीवन में चरितार्थ किया था। जीव-रक्षा के माध्यम से ही अहिंसा धर्म का पालन हो सकता है। एक जीवन को समाप्त करके नया जीवन पाना भी हिंसा है। अहिंसा को जीवन में आचरित करने से देव भी उसके चरणों में आकर नत मस्तक होते हैं। मनु का अनुकरण करने से मनुष्य मानव कहलाता है परंतु आज मनुष्य मात्र मनुष्य रह गया और मनु तो बहुत पीछे छूट गया है। इंसानियत की रोशनी गुम हो गई कहाँ। सामे है आदमी के मगर आदमी कहाँ || हमें अपने पूर्वजों बाप, दादाओं के प्रयासों-प्रयत्नों की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमारे कदम भले कितने ही आगे की ओर हों पर संस्कृति का गौरव बहुमान रखना भी हमारा कर्तव्य है। अन्यथा प्राचीन संस्कृति में विरासत मात्र कागजी शोध का विषय रह जायेगी। शोध केवल पार्थिव जीवन/जड़ पदार्थों के संबंध में होता है। राख में दबी अग्नि के समान मनुष्यत्व को उद्घाटित करें अन्यथा बहुत अधिक समय तक राख से ढकी अग्नि के समान वह अग्नि रूप मनुष्यत्व का गौरव समाप्त या नष्ट हो जायेगा। मूच्छ ममत्व के कारण हमारी भीतरी अग्नि प्राय: बुझती जा रही है परंतु पूर्वाचार्यों-संतों ने जो उपदेश दिये हैं। उन्हें धारण कर यदि हमने प्रकाश की एक किरण-एक कणिका मात्र को भी उद्घाटित कर लिया तो संसार बंधन नष्ट करने में हम सक्षम हो सकेंगे। आज ही आप कृत संकल्पित हों कि जीवन में ऐसा कोई भी कार्य नहीं करेंगे जिससे दूसरे का जीवन धर्म से विमुख होकर समाप्त हो अथवा जिनके कारण स्वयं का जीवन ही अनर्थ की गोद में चला जाये। भले ही जीवन में छोटा-सा कार्य करें पर अन्य प्राणियों का जीवन समाप्त न करें इतना ध्यान रखें। आचार्य श्री ने कहा- मरहम पट्टी बाँध कर, वृण का कर उपचार। यदि ऐसा न बन सके, डण्डा तो मत मार॥ भगवान् महावीर स्वामी के सिद्धांतों को जीवन में स्थान देने वाला ही धर्मात्मा पुण्यशाली है। इसी कारण से वह ऐसी साधन-सामग्री जुटाता है जो निश्चय से पर कल्याण में सहायक होती है। वही व्यक्ति आराधना के लिए प्रभु के पास जायेगा और शीघ्र ही प्रभु सम बन जायेगा। अपने जीवन की चिंता नहीं कर सामने वाले के ऊपर दया दृष्टि रख, सहायता कर के उनत बनाना ही तो स्वयं की उन्नति है। जिसे आज हम भूल चुके हैं। धर्म पर के द्वारा नहीं होता, किन्तु उसके लिए पर को माध्यम बनाया जा सकता है। धर्म का अनुपालन करते हुए पर का कल्याण हो या नहीं पर स्वयं का कल्याण तो होता ही है। अन्याय या अत्याचार करते हुए लाखों-करोड़ों बँटोरकर उसमें से कुछ दे देना दान की कोटि में नहीं आता बल्कि वह तो आदान है। क्योंकि अत्यधिक लोभ आशक्ति के कारण धन को कमाया गया और मान की प्राप्ति के लिये देना यह तो व्यवसाय ही हुआ, दान या त्याग नहीं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज व्यवसाय आता जा रहा है और धीरे-धीरे बाजार से होता हुआ भगवान् की वेदी तक पहुँचता जा रहा है। यह सब अज्ञानता या धर्म के सही स्वरूप को नहीं समझने का परिणाम है। 'ओ तृष्णा की पहली रेखा अरी विश्व बन की व्याली' अर्थात् सर्प-नाग के काटने पर उसका प्रतिकार रूप चिकित्सा है किन्तु मोह-मूच्छ रूप नागिन ऐसी है जिसके काटने से भव-भव में मृत्यु होती है। नाव तैरते हुए स्वयं को एवं दूसरे बैठने वाले को भी पार लगाने वाली होती है। यदि उसमें अतिभार हो जाये तो यह तैरने की अपेक्षा डूब जावेगी। जो पानी के ऊपर चलती थी उसमें ऊपर से पानी आकर भर जाता और वह सवार को डुबो देती, वैसे ही मोह मूच्छ के अतिरेक के कारण पाप का भार बढ़ जाता है अन्याय सिर से ऊपर हो जाता है और न्याय डूबता जाता है। ये अन्याय कभी डूबता नजर नहीं आता बल्कि जीवन में अन्याय का भार बढ़ जाने से न्याय रूपी नाव ही डूब जाती है। नाव स्वयं के कारण कभी नहीं डूबती, अन्याय नहीं बल्कि न्याय को भूल जाने के कारण उसमें बैठे सवार की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती और मोह-मूच्छ के कारण वह पाप में लिप्त हो न्याय को भूल जाता है। जीवन को जानने, सोचने और पहचानने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है जो मूच्छ के कारण कुण्ठित हो जाती है। अत: ऐसे जीवन से क्या मतलब जिससे स्वयं तथा अन्य का जीवन खतरे में पड जावे। पानी बढ़े नाव में घट में बाढ़े दाम। दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम॥ मूच्छ को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने बताया है कि धर्म को प्राप्त करने के लिए, निष्परिग्रह भाव आवश्यक है जो मूच्छा के अभाव रूप होता है। रोग से पीड़ित व्यक्ति जब मूच्छित हो जाता है तो स्व-पर को या कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं पहचान पाता । ऐसी ही कुछ आदतें निर्मित हो जाने पर उससे सहजता से छूट नहीं पाती, उसी में मूच्छ ऐसी है जिसके कारण व्यक्ति मुर्दे के समान हो जाता है। शरीर के साथ आत्मा भी शून्य सी हो जाती है। व्यक्ति धन की लिप्सा के कारण नर बलि चढ़ाने को भी तत्पर हो जाता है। सोना-चाँदी के प्रलोभन के कारण जिस व्यक्ति के मुँह में पानी आ जाता है। उसे ऐसी बली होते हुए देखकर भी आँखों में पानी नहीं आना भी मूच्छ का ही परिणाम है। जिसके कारण ये प्राणी नरक निगोद की यात्रा करता है। अहिंसा परमो धर्म की जय !
  24. अहिंसा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है जैनदर्शन में ज्ञान और दर्शन को अहिंसा के कारण ही धर्म की संज्ञा प्राप्त है। अहिंसा से ही ज्ञान समीचीन माना जाता है। उसकी स्वीकारता से ही रत्नत्रय की प्राप्ति होती है और इस नश्वर शरीर के माध्यम से वह अविनश्वर दशा प्राप्त की जाती है। जीवन में एक ओर पुरुषार्थ होता है तो दूसरी ओर भाग्य। बुद्धि पूर्वक किया गया पुरुषार्थ नहीं तथा शरीर को छोड़कर चले जाना मात्र ही मृत्यु नहीं है। संयोग-वियोग से ऊपर उठकर सोचने से ही जीवन का यथार्थ बोध हो सकता है, संयोग होने पर हर्ष तथा वियोग होने पर आँसू आ जाने मात्र से नहीं। इस जड़ द्रव्य के दान के साथ कथचित् आदान का भी भाव आ जाता किन्तु चेतना/भावों का दान भी दान है। चिकित्सा के क्षेत्र में रोगी के प्रति अपनत्व, प्रेम वात्सल्य तथा अभयदान के कारण उसकी बाधा यूँ ही समाप्त हो जाती है, जिसे पैसे से दूर नहीं किया जा सकता। अत: वैद्य या चिकित्सक प्राणों की रक्षा तथा रोग को दूर करने का संकल्प करते हुए इस कार्य हेतु प्रभु स्मरण कर सफलता प्राप्ति हेतु कामना करते हैं। इसलिये हमें शारीरिक चिकित्सा करने के पूर्व उसे अभयदान देना आवश्यक है। जीवन केवल रोटी, कपड़ा और मकान, आवास आदि से नहीं, उसके लिये तो ऐसे अनेक कारण हैं जिन्हें हम समझ ही नहीं पाते। हृष्ट-पुष्ट देह का धारक भी मरण को प्राप्त हो जाता-जबकि दुबले-पतले शरीर वाला वर्षों निकाल लेता है। मृत्यु आज ही नहीं हुई वह तो पहले भी हुई अत: मृत्यु से बचने के लिये मृत्यु और जीवन के वास्तविक कारणों को समझना अनिवार्य है। हम ऐसी भावना करें ताकि दूध और पानी की मित्रता के समान सभी का संबंध परस्पर जुड़ सके। जो संकटों में है, उनके दुख दूर हों, ऐसा रचनात्मक प्रयास करना आवश्यक है। जीव को पहचानने के लिये सेवा, परोपकार, प्रेम या वात्सल्यमय भाव ही शाश्वत माध्यम है। जैन धर्मावलम्बियों को आह्वान करते हुए कहा है कि मात्र आत्मा-आत्मा की बात कर लेने से जैन धर्म की प्रभावना पूर्ण नहीं होगी। संगोष्ठी, शिविरों के माध्यम से अथवा शास्त्र-प्रकाशन करने मात्र से नहीं बल्कि ऐसे रचनात्मक कार्य जो शास्त्र के अनुरूप हैं उन्हें जीवन में उतार कर रुग्ण प्राणियों की सेवा कर स्वयं तप को अंगीकार करें। व्यक्ति त्यागी हो या गृहस्थ वह दया के बारे में अवश्य सोचे तथा अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार करे। अत: सेवा के, बंद द्वार को खोलकर सम्यग्दर्शन के अंगभूत अनुकंपा गुण को चरितार्थ करे और ऐसा पथ प्रशस्त करें ताकि पतित जीवन भी पावन बन जाये। सीमा तक तो सहन हो अब तो सीमा पार। पाप दे रहा दण्ड है, पड़े पुण्य पर मार॥ जीवन में सम्मान आवश्यक तो है, अनिवार्य नहीं। वह अनिवार्य इसलिए नहीं क्योंकि जिसका सम्मान होता है उसके कदम विकास हेतु कथचित् रुक जाते हैं। जबकि आगे बढ़ना अनिवार्य है, अत: वह पीछे या आजू-बाजू मुड़ सकता। ज्ञान के कारण प्रभावित होकर अभिमान में ढलकर पतन की ओर चला जाता है। ज्ञान का संयत नहीं होने से मान-सम्मान की भूख जागृत होती है, जबकि सफलता की प्राप्ति ही उसकी संतुष्टि है। ज्ञान जब पुष्ट या बलवान होता अनुभव की गहराई में उतरकर स्वयं अपने आप ही पुरस्कृत हो जाता है। वह अपने गुणों के कारण दूसरों से नहीं अपितु अपने कर्तव्य से ही गौरवान्वित होता है। कृति स्वयं ही कर्ता का परिचय देती है। कर्तृत्व एवं कर्तव्य में यही भेद है। कर्म या कार्य करते हुए भी फल की इच्छा न करें, किन्तु कर्मयोगी बनें या नहीं, पर कर्म के फल को देखने की उत्कण्ठा बनी रहती है। वस्तुत: कार्य करते हुए फल की आकांक्षा नहीं होने पर वह अपनी सुगंध से स्वयं ही परिसर को सुवासित कर देता है। किन्तु आज तो एक्शन का प्रतिफल रिएक्शन में ही हो रहा है और इसी का बाजार गर्म है। कर्तृत्व अभिमान का तथा कर्तव्य सम्मान का प्रतीक है। राम कर्तव्य के तथा रावण कर्तृत्व के प्रतीक थे। आज चारों ओर मारकाट चल रही है, कहते हैं कि ज्ञान का विकास चहुँमुखी हो रहा है? पर ज्ञान का फल क्या? यह ज्ञात नहीं, हम शासन की बात तो करते पर स्वयं अनुशासित नहीं हो पाते यही कमी है। युग के आदि में भगवान् वृषभनाथ ने सम्पूर्ण प्रजा को योग्यता के अनुरूप अनुशासित किया था परन्तु आज लगता है अनुशासन शब्द बोध में ही रह गया है। आत्मानुशासन तो महावीर के साथ ही चला गया-ऐसा लगता है। वस्तुत: अनुशासित हुए बिना विवेक ही नहीं होता। आज अनुशासन हीनता के कारण व्यक्ति एवं समाज का सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक पतन होता जा रहा है। आचार्य श्री ने मानव जीवन पर चोट करते हुए कहा कि- साधना अभिशाप को वरदान बना देती है | भावना पाषाण को भगवान् बना देती है || विवेक के स्तर से नीचे उतर जाने पर | वासना इंसान को शैतान बना देती है || मनुष्य इंसानियत के बिना दुर्गति का पात्र होता और इंसानियत के साथ हो तो स्वयं ही ईश्वर बन सकता है। ऊधम से नहीं, उद्यम करने से सफलता प्राप्त होती परन्तु आज तो चारों ओर ऊधम ही ऊधम हो रहा है। सात्विक भावों के कारण उल्लास, संतुष्टि पूर्वक कर्म फल चिंतन करने से स्वास्थ्य में सुधार होता है जो भीतरी भावों में सुधार होने का परिचायक है। लोगों को यहाँ विश्व शांति की बात करने की अपेक्षा पहले स्वयं परिवार को संभालने से मिलकर रहने से विश्व शांति का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त हो जाता है। सफलता मिलने पर आनंद की लहर छा जाती, आनंद का अनुभव होता है तब बाहरी एवं भीतरी विकार निकल कर कार्य पूर्ण हो जाता और आत्मा-परमात्मा में परिणत हो जाती है। मानव के कर्तव्यों पर चोट कर पशुता की दुहाई दी है "ये बखूबी ये कौन-सी बशर है। सारी शक्ल लंगूर की पर दुम की कसर है" अज्ञातदशा में किए अनर्थों को ज्ञात करके पश्चाताप करने से सुधार संभव है। ज्ञान-ज्ञान मात्र रहे तो ठीक है, अन्यथा वह ज्ञान मान के कारण प्रमाण या पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता और मान-अभिमान के कारण भवभव में भटकन का कारण हो जाता है। हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पा रहे उसकी बहुमूल्यता को नहीं आक रहे हैं। कर्तव्य को निष्ठा पूर्वक धर्म समझकर करने से समीचीनता प्राप्त होगी। किन्तु बीच में प्रतिष्ठा की बात नहीं करें, तभी सही पथ प्रशस्त होगा। मार्ग में इधर-उधर देखने पर व्यवधान पाकर गति ही बिगड़ सकती, अत: जीवन में ‘कहना' ही नहीं 'करना' भी महत्वपूर्ण है जिससे सफलता प्राप्त होती है। महावीर भगवान् की जय!
  25. सूर्य प्रतिदिन निकलता है और अपना प्रकाश फैलाता जाता है। जो सोकर उठ जाता वह प्रकाश पा जाता है तथा जो सोकर नहीं उठता वह उससे वंचित रह जाता है। कुछ लोग घर में बिस्तर में पड़े रहकर भी उठना नहीं चाहते, उनके लिये भी सूर्य के प्रकाश की किरणें छतों की सुराख से गर्मी पहुँचाकर उठा देती हैं अथवा सोते समय जो रजाई से मुख को ढाँककर रखें हों उसकी रजाई को ऊष्मा से तपाकर भीतर पसीना ला जगा देती हैं। सूर्य प्रकाश का लाभ उपयोग करने वाला ही ले पाता, सभी लाभ लें यह भावना अवश्य की जा सकती है। उत्त विचार जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के कुण्डलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री श्री मुकेश नायक से साहित्यिक चर्चा के दौरान उस प्रश्न के उत्तर स्वरूप प्रदान किये, जिसमें उन्होंने जानना चाहा कि आज देश में जाति, वर्ग तथा क्षेत्र आदि की समस्याओं के कारण लोगों में बुद्धि, आनंद एवं शक्ति संचार के अवरुद्ध द्वार कैसे खुले? व्यक्ति के अंदर सोयी शक्ति उद्घाटित हो सके और वह पतित दशा से ऊपर उठकर, पावन बन सके यह मूल उद्देश्य इस रचना का है। जब तक मिट्टी के कण बिखरे रहते वह निजीव मानी जाती है। किसी विशेष कार्य को संपन्न नहीं कर पाती न जल धारण कर सकती। घट का रूप होने पर ही वह जल धारण करने की योग्यता पाती है। संसारी प्राणी की बिखरी शक्ति पतित दशा में खोई-सी रहती है। किन्तु पुरुषार्थ करने से विश्व को भी जानने की क्षमता उसमें उद्घाटित हो जाती है। कणों के रूप में वह मिट्टी जल में घुलकर डूब जाती है जबकि घट के रूप में वह स्वयं भी जल में नहीं डूबती और डूबते को भी पार उतारने में सहायक बन जाती है। ऐसी क्षमता सबमें उद्घाटित हो यही मूल स्वरूप इस रचना का है। उपादान की योग्यता, घट में ढलती सार | कुंभकार का हाथ हो, निमित्त का उपकार || इसी प्रकार संसारी प्राणी की शक्ति जब तक बिखरी रहती है, पतित दशा में खोई रहती। वह पुरुषार्थ के द्वारा एक रूपता ग्रहण कर आत्म कल्याण करती है और पर के कल्याण में सहायक बनती है। वीतराग-विज्ञान विराट ज्ञान धारण करने की क्षमता उत्पन्न करता है, जिसकी प्राप्ति हेतु सर्व प्रथम राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, विषय-कषायों तथा पाप प्रवृत्तियों को त्याग कर उनसे ऊपर उठना होता है, तभी यह क्षमता उद्घाटित होती है। इसी वीतराग विज्ञान के माध्यम से ही पतित से पावन बनने का पथ प्रशस्त होता है। इस हेतु व्यक्ति को संयत एवं वीतरागी होना आवश्यक है, तभी अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति होगी। अन्यत्र इसे 'स्थित प्रज्ञ' भी कहा गया है। हमारी प्रज्ञा या बुद्धि यहाँ-वहाँ दौड़ती रहती, स्थित नहीं हो पाती। प्रज्ञा जब स्थित हो जाती है तो सही दिशा में प्रयास करती है, जिससे अपूर्व आनंद की उपलब्धि होती है। ज्ञाता मूल द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है तथा ज्ञेय यानि जानने योग्य पदार्थ। हम ज्ञेय भूत जड़ पदार्थों की ओर देखते हैं किन्तु उसके भीतर जानने योग्य छुपी क्षमता को नहीं देख पाते। मूकमाटी में यह प्रेरणा दी गई है कि हमारी चेतना का विषय मात्र ज्ञान बन सके अथवा अनुभूति मात्र ज्ञान का विषय बन सके। इसके लिये हर्ष-विषादों से ऊपर उठकर तथा संघर्षों के बीच से गुजरते हुए आगे बढ़ने की आवश्यकता है तभी पतित से पावनता प्राप्त की जा सकती है और शुद्ध चेतन बनने का प्रयास किया जा सकता है। संतों ने सर्वप्रथम संस्कृति को सामने लाने के लिए प्राकृत भाषा को माध्यम चुना था। जीवन के उत्थान में वही शिल्प विधान मुख्य है जो आत्म तत्व को स्वभाव की ओर मुड़ने की दिशा प्रदान करे। मूकमाटी में यही दिग्दर्शन कुंभकार के माध्यम से किया गया है। युग के आदि से ही शिल्पकार कुंभकार है जिसने अपने शिल्प को अपव्यय से दूर रखा। वही ऐसा शिल्पी है जिस पर सरकार का कोई टेक्स नहीं है। भारतीय संस्कृति में वही शिल्प अद्वितीय माना जाता है जो बिखराव में जुड़ाव के साथ, खंडित को अखंडित करने वाला हो। यही मूकमाटी का ध्येय है। आचार्य श्री कहते हैं हम दूसरे पर उपकार करना चाहते हैं किन्तु जिस पर उपकार करना चाह रहे हैं उसमें ऐसी योग्यता भी होनी चाहिए। जैसे मिट्टी की योग्यता कुंभकार के द्वारा उदघाटित होती है। माटी में जो विराट योग्यता है वह अन्यत्र नहीं! उसके विकास एवं उन्नति का श्रेय कुंभकार को जाता है। ऐसे ही प्राणी मात्र को दिशा बोध प्राप्त हो, ताकि वह भी अपना कल्याण कर सके, यही इसका संदेश है। उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर। आत्मबोध हो तुरत ही,मुख संयम की ओरा॥ जैसे अंकुर फूटते ही उसका मुख अपने आदर्श, उर्जा स्त्रोत सूरज की और होता है वेसे ही अंदर उपादान में वैसी ही शक्ति छुपी है जो विभिन्न बाह्य निमित्तों/साधनों के माध्यम से उद्घाटित हो जाती है। उन्नति एवं विकास के लिए निमित्त की आवश्यकता होती है, जो धरती में पाई जाती है। ‘स्वर्गीय भूमि को उत्तम क्षेत्र नहीं माना अपितु पतित से पावन बनने के लिये धरती को ही उत्तम क्षेत्र माना-स्वर्ग को नहीं।' आचार्य श्री ने बताया कि सजीव पात्रों की अपनी सीमायें होती हैं। किन्तु निर्जीव पात्र को प्राणवान बनाकर उसके माध्यम से उसकी वास्तविक वेदना को अभिव्यक्ति प्रदान की जा सकती है, जो सजीव दशा में व्यक्ति नहीं कर पाता है। वैसे भूमि सभी को आश्रय प्रदान करती है, इसीलिये उसे धरा, पृथ्वी, जमीन, क्षमा आदि कहा जाता है। जबकि जल को साहित्य में जड़ कहा जाता है। वह जड़ होकर भी धरती का आधार/आश्रय पाकर ज्ञान पा लेता है, अपने आपको उपयोग शील बनाने पर कृतार्थ हो जाता है। सघन मेघों से गिरी हुई बूंदें सागर में गिरकर उसी में विलीन हो, खारी हो जाती हैं, जब तक वे बूंदें धरती का सहारा नहीं लेती वे मुता नहीं बन पातीं। मेघ से गिरा जल नीचे आकर सीप की गोद में जाकर मुक्ता का रूप धारण करता है। इसीलिए धरती की महत्ता है उसके कारण ही जलतत्व में पूज्यता/श्रेष्ठता आती है। मूकमाटी में धरती के अंश माटी को इसीलिए मुख्यता प्राप्त हुई हैं। निज में यति ही नियति है, ध्येय 'पुरुष' पुरुषार्थ। नियति और पुरुषार्थ का, सुन लो अर्थ यथार्थ॥ मूकमाटी सृजन यात्रा शब्द से अर्थ एवं अर्थ से भाव की ओर नहीं हुई बल्कि भीतर से बाहर की ओर हुई। भाव-संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली है। भारतीय संस्कृति में दृश्य नहीं दृष्टा महत्वपूर्ण है। दृश्य को देखकर कई प्रकार के भाव हो सकते हैं जो व्यक्ति की मन:स्थिति या उपयोग पर आधारित हैं। जो दिख जाता है उसमें देखने वाले के विचार मुख्य हैं। दृश्य को देखकर और भी अनेक प्रकार के भाव हो सकते हैं। वस्तुत: यह दृष्टा को नहीं समझ पाने का परिणाम है। मूकमाटी के एक प्रकरण में यह भाव स्पष्ट किया गया है कि पुरुष यानि आत्मा सब में है यह जो ऊपर दिख रही यही तो प्रकृति है। इस वास्तविकता को नहीं समझ पाने के कारण ही संसार में भटकन हो रही है। अत: उलझन के 'उ' को निकाल 'सु' करना ही सुलझन आत्म कल्याण का मार्ग है। अहिंसा परमो धर्म की जय !
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