विराटता की ओर दृष्टि जाने पर आश्चर्य होता है किन्तु इकाई की ओर दृष्टि जाने पर विस्मय समाप्त हो जाता है। अज्ञान दशा में विस्मय होता है, पर बोधि प्राप्ति हो जाने पर विराट को देखने पर आश्चर्य नहीं बल्कि सुखद आनंद की अनुभूति होती है। प्रभु की विराटता या निर्माण स्रोत उद्गम का बोध नहीं होने पर ही संसार का निर्माण होता है। जिसने इस रहस्य को जाना उसने विराटता में स्वयं को समाहित-अवगाहित कर लिया है। जल बिन्दु धूल में गिरकर समाप्त हो जाती है। किन्तु वही जल बिन्दु दूसरी जल बिन्दुओं से मिलती हुई सिन्धु का आकार ले लेती है। ऐसे सिन्धु का ज्ञान होना आवश्यक है। हम अपने भीतर छिपे विराट सिन्धु परमात्म तत्व का ज्ञान नहीं होने के कारण दुखद परिणाम आज तक प्राप्त कर रहें हैं। आचार्य श्री ने कहा है -
बूंद-बूंद के मिलन से, जल में गति आ जाये।
सरिता बन सागर मिले सागर बूंद समाय॥
जो भी आज तक परमात्म पद को प्राप्त हुए उन्होंने भी अपने से पूर्व के महान् लोगों को आदर्श माना है। पसीने की एक-एक बूंद महान् पुरुषार्थ का बोध कराती है। जिसके कारण पत्थर से भी पानी निकाला जा सकता और स्वयं के भीतर छुपी महानता को साकार किया जा सकता है। प्राथमिक दशा में बालकों को गुरुदेव हाथ में पेंसिल देकर हाथ पकड़कर रेखायें खींचना सिखाते हैं। उन रेखाओं के मुड़न और जुड़न से पहले ये १४ स्वर एवं बाद में ३३ व्यंजनों की आकृति निर्माण होती है। वस्तुत: उन १० रेखाओं का वास्तविक ज्ञान ही उन बालकों को पाठ का ज्ञान कराते/है जैसे जहाँ जैसी आवश्यकता होती वहाँ वैसी ही आकृति बनाना शुरू करते लेकिन बनाते-बनाते भी वह आकृति नहीं बनती। वह इतनी बड़ी हो जाती है कि उसे नहीं बना पाने के कारण गुरुदेव का डण्डा खाकर हमें भूल का अहसास होता है। कमी होने पर गुरुओं के द्वारा रेखा के ही प्रतीक डण्डे के कारण हमारी रेखा की कमी दूर हो जाती है। जो लोक विधि विधान आस्था की कलम से ही संभव होता है।
तीन-चार मंजिला लकड़ी के बड़े रथ का निर्माण हुआ उसमें यथास्थान दो चक्र (चाक) भी लगाये गये। पर लगाते समय एक भूल हो गयी जिस पर ध्यान नहीं गया। रथ को खींचा गया और देखते ही देखते लाखों रुपयों की लागत से निर्मित रथ जमीन पर गिर पड़ा। कारण खोजने पर पाया कि उसमें लगे दोनों चाक इसलिये उसमें से निकल गये क्योंकि उसमें डण्डेरेखा की प्रतीक कील नहीं थी जो रथ के चाक को निकलने से रोकती थी। भरत चक्रवर्ती के स्वप्न के अनुसार जिनशासनरूपी रथ में श्रावक और श्रमण रूपी दो चाक आवश्यक हैं। यदि दोनों में तालमेल गठबंधन साम्य और लक्ष्य एक नहीं होगा तो रथ आगे नहीं बढ़ सकेगा। उसके लिये तो धर्म का डण्डा साथ में लगा होने पर ही लक्ष्य की प्राप्ति होगी। आचार्य श्री ने लिखा -
'ही' से ' भी' की ओर ही, बढ़े सभी हम लोग।
छह के आगे तीन, हो विश्व शान्ति का योग।
देश में जैन समाज की स्थिति आटे में डले नमक के समान है पर नमक के बिना रोटी खाने लायक नहीं होगी, ध्यान रहे नमक की रोटी नहीं बनती। एकता गठबंधन इकाई के बिना भगवान् महावीर के इस तीर्थ को कंधे से कंधा मिलाये बिना तथा तन-मन-धन के सहयोग के बिना अहिंसा वीतरागता का संदेश विश्व में जनमानस को नहीं पहुँचाया जा सकता। सामाजिक क्रांति के बिना विनाश की ओर ही यात्रा होगी। सैनिक शक्ति तथा आण्विक संयंत्र शक्ति से युक्त विश्व में अग्रणी रूस अपने अभिमान के कारण विखण्डित होकर १६-१७ टुकड़ों में विभाजित हो गया। आज मानव शांति की खोज में संयम के बिना अशांत है। शान्ति के लिये विज्ञान की नहीं अध्यात्म के अनुशासन की आवश्यकता है। इसके बिना अध्यात्म में प्रवेश हो ही नहीं सकता। जितने भी साधु-संत, ऋषि-मुनि या धार्मिक श्रावकगण हुए हैं। वे सभी दिन में तीन बार डण्डा रूपी प्रतिक्रमण करके भगवान् महावीर के धर्म को आचरित कर रहे हैं। अत: जीवन में संयम अभिशाप नहीं अपितु वरदान है।
धर्मध्वजा को फहराना, सुरक्षित रखना मात्र बातों से नहीं हो सकता। इसे अक्षुण्ण रूप से आज तक संतों और श्रावकों ने रखा है। अनेक तूफानी परेशानियों के बीच रहकर भी धर्म ध्वजा को गिरने एवं झुकने से बचाया है/सदैव उसे एक हाथ से दूसरे हाथ में सौंपकर मजबूती प्रदान की है। ध्वजा की पहचान प्रतीक चिह्न से होती है, उन चिहों से जिन्होंने धर्म की पहचान को धारण किया था। वह ध्वजा मजबूत आधारभूत दण्ड के सहारे स्थिर रह पाती है। इसलिये वास्तुशिल्प से निर्मित ध्वज दण्ड स्थल का भी, निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान होता है।
जीवन में संयम अपनाकर पुरुषार्थ को जागृत कर प्रकृति के थपेड़े सहकर मानव सजग बनता है। वही जन्म और मृत्यु पर विजय पाने का उद्यम कर मृत्युञ्जयी होता है। अत: खुद को खुदा बनाने के लिये आत्म ज्योति को प्रकाशित कर संयम का डण्डा लगाकर स्वयं को खुदा बनाया जा सकता है।
तन मिला तुम तप करो, करो कर्म का नाश।
रवि शशि से भी अधिक है, तुममें दिव्य प्रकाश॥
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