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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. श्रमण परम्परा के आदर्श संत आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का जन्म विक्रम सं. १९२६ (सन् १८७२) के आषाढ़ मास कृष्ण पक्ष ६ तिथि, बुधवार को दक्षिण भारत के बेलगाँव जिले के अंतर्गत येलगुल ग्राम में हुआ था। आपका विवाह ९ वर्ष की अल्प आयु में कर दिया गया था। विवाह के ६ माह उपरांत ही उस बालिका का स्वर्गवास हो गया। पुन: विवाह का प्रसंग उठने पर आपने अपने घर वालों को स्पष्ट मना कर दिया और आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेने का प्रस्ताव रख दिया और अन्त में उन्होंने गृहत्याग कर दिया और दीक्षा ले ली। आपने अपने ३५ वर्ष की साधनाकाल के अन्तर्गत नौ हजार छ: सो अड़तीस (९६३८) उपवास किए। आपका सारा जीवन घोर तपस्या और संघर्ष में बीता। आपके आचरण में अहिंसा थी, वाणी में स्याद्वाद और चिन्तन में अनेकान्त था। आपने अपने जीवन का अन्त समय निकट जानकर श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र कुंथलगिरिजी (महाराष्ट्र) में १ अगस्त, रविवार को समाधि मरण (सल्लेखना) का निश्चय किया और १८ सितम्बर, सन् १९५५ को प्रातः ७.५० मि. पर लगभग ८४ वर्ष की आयु में समाधिपूर्वक अपने शरीर का त्याग किया। भाद्रशुक्ल दूज, आज आपका ४२वाँ समाधि दिवस है। आज के इस पावन प्रसंग पर सबसे पहले आपकी भक्ति गीत पर मंगलाचरण हुआ। इसके उपरांत आपके जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर प्रकाश डाला गया। इसके उपरांत आपकी पूजा की गई, पूजा की भक्ति गंगा में सारा जन समुदाय डूबा हुआ था। इसके उपरांत आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के मांगलिक प्रवचन हुए, आपने कहा कि मोक्षमार्ग भयभीत व्यक्तियों के द्वारा नहीं चलता कमजोर व्यक्तियों, कषायों से नहीं चलता, मोक्षमार्ग निभौंक और निरीह व्यक्ति के द्वारा चलता है। जब तक व्यक्ति पक्षपात को नहीं छोड़ सकता तब तक वह तपस्या नहीं कर सकता। मोक्षमार्ग में निष्पक्ष होना चाहिए। आपने कहा कि साधु वही कहला सकता है जो ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहता है। जो निष्पक्ष है, निग्रंथ है विषय-कषायों से दूर रहता है, राग से दूर रहता है वैराग्य ही एकमात्र जिसका जीवन हो वही साधु कहलाता है। हमको यह सोचना चाहिए कि ये हमारे गुरु हैं, ऐसा सोचना हमारी संकीर्णता है गुरु तो विश्व के होते हैं। गुरु तो सबके होते हैं गुरु वही होता है जो सबका होता है। जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है गुणों की उपासना करना और गुणों को पैदा करना। गुणों की उपासना ही हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए। आज का साधक मुनित्व की बात तो करता है लेकिन सल्लेखना को सब भूले हुए हैं। साधक की पहली साधना सल्लेखना की होना चाहिए। जोश नहीं ज्योषिता (चाह) होना चाहिए। सल्लेखना निष्ठा के बिना नहीं होती सल्लेखना के लिए निष्ठा होना चाहिए। सल्लेखना का अर्थ समाधिमरण । समाधिमरण का अर्थ आत्महत्या नहीं हैं। आत्महत्या अपराध है लेकिन समाधि मरण एक साधना है। आज प्रदर्शन के अलावा कुछ भी नहीं है, प्रदर्शन के कारण आज दर्शन लुप्त हो गया है। जीवन में दर्शन होना चाहिए प्रदर्शन में जीवन खोखला हो जाता है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की दया दृष्टि पर विचार करो पंथवाद पर नहीं। उनके आदर्श को समझो, आदर्श के बिना हमारा जीवन आदर्शमय नहीं बन सकता। किसी एक की पूजा जैन धर्म नहीं करता। पूजा व्यक्ति की नहीं व्यक्तित्व की होती है, व्यक्ति की जाति हो सकती है लेकिन व्यक्तित्व की कोई जाति नहीं होती। व्यक्तित्व एक गुण है, आदर्श है, हमको इसी आदर्श की उपासना करना चाहिए। ऐसे आदर्श पुरुष आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को समझने का प्रयास करो और उनके आदशों को अपने जीवन में उतारो ।
  2. भारत ने अपनी आजादी की पचासवीं वर्षगांठ स्वर्ण जयंती के रूप में मनाया। कोई भी हो आजादी तो सबको प्रिय होती है परतंत्र रहना किसी को भी पसंद नहीं। लेकिन हमने क्षेत्रीय आजादी की स्वर्ण जयंती मनाई। हम क्षेत्र से स्वतंत्र हुए विदेशी सत्ता से मुक्त हुए लेकिन हमने मानसिक गुलामी की जंजीरें अभी कहाँ तोड़ी हैं? आजाद तो वे हुए जिन्होंने अपनी मानसिक दासता को तोड़ डाला और अपनी स्वतंत्र जिन्दगी अपना ली। हमारी संस्कृति अध्यात्म और अहिंसा की संस्कृति है। त्याग और तपस्या की संस्कृति है। आज भी भारत में अध्यात्म और अहिंसा का, त्याग और तपस्या का दर्शन जीवित है। गौरव है हमें एक भारतीय संत पर जिन्होंने भारत के माथे को ऊँचा उठाया है। भारतीय संस्कृति को जीवन दिया। सारे भारत में जहाँ जुलूसों, जलसों, उत्सव, महोत्सवों, जश्नों में स्वर्ण जयंती मनाई, वहीं पचास युवक-युवतियों ने त्याग और संन्यास के साथ आजादी की ‘आध्यात्मिक जीवन जयन्ती' मनाई। राष्ट्र की महान् विभूति ‘आचार्य विद्यासागर जी महाराज' ने दिगम्बर जैन रेवातट सिद्धोदय तीर्थ सिद्धक्षेत्र नेमावर (खातेगाँव) में पचास युवा युवतियों को अध्यात्म और अहिंसा की दीक्षा प्रदान की। ६ जून १९९७ को २९ आर्यिका दीक्षा, ९ अगस्त १९९७ को ७ क्षुल्लक दीक्षा, १८ अगस्त १९९७ को १४ आर्यिका दीक्षा कुल ५० दीक्षाएँ दी। स्वर्ण जयंती का इतिहास इन दीक्षाओं से स्वर्णिम रहेगा और हमेशा याद किया जायेगा।
  3. इन्द्रभूत को आज के दिन आषाढ शुक्ल पूर्णमासी को गुरु की प्राप्ति हुई, उनको गुरु मिले तभी से इस तिथि को यानि आषाढ़ शुक्ल पूर्णमासी को गुरुपूर्णिमा कहते हैं। आज के दिन एक गुरु को एक शिष्य की उपलब्धि हुई या यूँ कहें कि एक शिष्य को एक गुरु की उपलब्धि हुई थी। एक योग्य शिष्य के अभाव में गुरु मौन रहे लेकिन जब उनको एक योग्य शिष्य मिल गया तो उनकी दिव्य-वाणी संसार के जीवों को संसार से पार होने के लिए मिलने लगी। वस्तुत: अहिंसा का संकल्प जब तक नहीं होता तब तक महान् साधु बोलते नहीं क्योंकि बोलना किसलिए? एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने वाले ऐसे लोगों से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। प्रयोजन की सिद्धि के लिए शब्द की आवश्यकता पड़ती है फिर भी उसको सुनकर अर्थ को समझ लिया जाए। बिना अर्थ को समझे मात्र शब्द से अपने प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती। शब्द का अपना महत्व है, वाणी का अपना प्रयोजन है लेकिन भगवान् की वाणी उसी को अच्छी लगती है जिसकी होनहार अच्छी होती है। जिसका भविष्य खराब रहता है उसका वर्तमान अच्छा कैसे रह सकता है? अत: हमको अपने जीवन को अंधकार से निकालने के लिए गुरु प्रकाश की खोज अवश्य करना चाहिए। गुरु हमारे जीवन का सृष्टा होता है, गुरु हमारे जीवन का प्रकाश होता है, गुरु की प्राप्ति से हमारी अपूर्णता पूर्ण हो जाती है अत: गुरु की प्राप्ति ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु हमको बतलाते हैं कि अहिंसा ही एकमात्र पथ है, अहिंसा ही एक मात्र धर्म है, अहिंसा को छोड़कर कोई रास्ता नहीं हो सकता और अहिंसा को छोड़कर कोई धर्म नहीं हो सकता। गुरु हमको हिंसा से बचने का उपाय बता हमको अहिंसा का मार्ग बताते हैं। गुरु कहते हैं कि अहिंसा ही हमारा जीवन होना चाहिए। जिस दिन हमारा जीवन अहिंसामय हो जायेगा उस दिन हमारे पास परिग्रेह रहे नहीं सकता क्यों की जहा परिग्रेह रहेता है वहा हिंसा रहेती है परिग्रह और अहिंसा एक साथ नहीं रह सकते। यदि हमें गुरु की खोज करना है तो सबसे पहले हमको अभी से परिग्रह का त्याग शुरू कर देना चाहिए ताकि हम गुरु के चरणों में अहिंसा और अपरिग्रह की साधना कर सकें। परिग्रह छोड़कर व्यक्ति जब अपरिग्रही बन जाता है तब उसके दिल में दया का प्रस्फुटन हो जाता है क्योंकि दया के बिना सम्यग्दर्शन कैसे रह सकता है। जीवन में दया होना अनिवार्य है। दयालु बने बिना अहिंसक नहीं बन सकते और जब तक हम अहिंसक नहीं बनते तब तक हम अपने देश और समाज की रक्षा भी नहीं कर सकते। रक्षक बनने के लिए हिंसा छोड़ना अनिवार्य है और हिंसक कभी रक्षक नहीं बन सकता। आज हमारा जीवन भक्षक बन चुका है। आदमी ने आज जानवरों से भी गया बीता काम करना शुरू कर दिया है। यह जानवर हमसे अच्छे हैं जो बिना मतलब के किसी को सताते तक नहीं लेकिन यह आज का आदमी उन मूक जानवरों को मारकर उनका मांस बेचकर अपना पैसा कमाता है। आज हम आजादी की स्वर्ण जयंती मनाने की तैयारी कर रहे हैं लेकिन देश की प्राकृतिक सम्पत्ति को विनाश कर यह स्वर्ण जयंती का मनाना कैसे सार्थक होगा? जीने का अधिकार आदमी को ही नहीं जानवरों को भी है यह जानवर भी स्वतंत्र जीना चाहते हैं मरना नहीं चाहते। हमको चाहिए कि हम भारत में इस घिनौने पाप कार्य को जल्दी बन्द करवाएँ। भारत से मांस का निर्यात करना भारत के लिए कलंक की बात है यह भारत के लिए अभिशाप है। भारत की इसमें उन्नति नहीं हो सकती, पतन अवश्य होगा। हम अपने देश की पतन से बचाएँ यही हम सबका कर्तव्य होता है। आप एक स्वतंत्र राष्ट्र में जी रहे हैं, जरा आप अपनी उस स्वतंत्र शक्ति को पहचानिए। आपने चुना है आपके प्रतिनिधि को, अपनी सरकार को। जनता ही सरकार है आप ही सरकार हैं फिर आप इस पाप कार्य को रोकने का प्रयास क्यों नहीं कर रहे हैं? आज से आपको यह संकल्प लेना है कि भारत से हो रहे मांस निर्यात के विरोध में एक आदोलन प्रारंभ करना है और एक जन चेतना जागृत करना है ताकि इस पाप पर प्रतिबंध लग जावे। भारत से मांस निर्यात तुरन्त बंद हो इसी भावना के साथ - अहिंसा परमो धर्म की जय।
  4. हरदा निकटस्थ नेमावर में स्थित सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र में रविवार १७ अगस्त को आयोजित धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा- जिसके द्वारा अहिंसा की पुष्टि नहीं हो सकती वह सत्य नहीं कहला सकता। सत्य वहीं है जहाँ अहिंसा है और अहिंसा वहीं है जहाँ सत्य है। सत्य और अहिंसा एक-दूसरे के पूरक हैं। सत्य को छोड़कर अहिंसा नहीं और अहिंसा को छोड़कर सत्य नहीं, हमारे जीवन में सत्य और अहिंसा दोनों होना चाहिए। अहिंसा के अभाव में हमारा जीवन कोई मायना नहीं रखता। आज असत्य ही सत्य सा सिद्ध हो रहा है जब सत्य असत्य के रूप में ढल जाता है तब दर्द होने लगता है। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम सत्य अहिंसा को अपने जीवन में स्थान दें आज हमारे जीवन से अहिंसा निकल गई सत्य चला गया उसी का परिणाम है कि भारत में हिंसा का दौर तेजी से शुरू हो गया। यदि देश की दशा सुधारना है, उन्नति करना है तो जीवन में अहिंसा को स्थान दीजिए। आचार्यश्री जी ने फिर कहा हमारे जीवन में प्रशम, संवेग आस्तिक्य और अनुकंपा ये चारों होना चाहिए। अनुकंपा के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं, मनुष्य की मनुष्यता अनुकंपा यानि करुणा से ही पहचानी जा सकती है। यदि मनुष्य में मनुष्यता है तो करुणा ही उस मनुष्य का मापदण्ड है दूसरा और कुछ नहीं। आज हमको आवश्यकता है कि हम अपनी मरी मनुष्यता को जिंदा करें। मनुष्य के पास जब दया रहती है तब वह भेद नहीं करता कि यह जानवर है या आदमी है, दया में भेद नहीं होता। दया समान रूप से सभी के साथ एक समान की जाती है। दया के अभाव में आज मनुष्य जानवरों से भी गया बीता हो गया, वह आज जानवरों को खाने लगा। जानवरों को खाना या जानवरों को मारना मनुष्यता की हत्या है। जीवन तो सबको प्यारा होता है फिर किसी का जीवन क्यों छठीना जाये? यह भारत विश्व प्रसिद्ध था इसने अपना आदर्श कभी न खोया। भारतीय संस्कृति बड़ी गौरवपूर्ण संस्कृति है यहाँ के लोग बड़े अहिंसक थे। एक समय था जब भारत में गाय का दूध भी लोग नहीं बेचते थे, दूध नहीं बेचने का मतलब दूध को नि:शुल्क बांट देते थे लेकिन बेचते नहीं थे। कहाँ गया वह भारत? आज तो वह गाय का खून बेच रहा है। भारत को अपनी अहिंसा को समझना होगा अपने अतीत के भारत को याद करना होगा, और इसका दायित्व हम सबका भी है। यहाँ के लोग खेती करते थे पशुओं का पालन करते थे। पशुओं का पालन करने वाला देश आज पशुओं को ही कत्ल कर रहा है जो ठीक भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है। यह तो सरासर अन्याय है कि अनुपयोगी पशुओं को काटा जाता है। कोई भी जीवन अनुपयोगी कैसे हो सकता है जीवन तो मूल्यवान होता है जीवन को अनुपयोगी नहीं कहना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि आज हमको हिंसा के विरोध में अपना अभियान चलाना होगा। लोगों को जागृत करना होगा। करुणा, दया को जागृत करना होगा तभी हम देश में कत्लखानों में हो रही इस भयानक हिंसा को रोक सकते हैं अन्यथा हिंसा बढ़ती ही जायेगी और देश का पतन होता ही जायेगा। आदमी धर्म को जानता है इसलिए तो उसे रात्रि के बारह बजे भी पूछेगे कि क्या दीक्षा लेना है? तो वह मना कर देगा। दीक्षा लेने के लिए मना क्यों कर दिया? इससे सिद्ध है कि वह अच्छी तरह जानता है कि धर्म क्या है अधर्म क्या है? आज धर्म को समझने की आवश्यकता है लेकिन धर्म को वही समझ सकता है जो अधर्म को अच्छी तरह जानता है क्योंकि अधर्म को समझना ही धर्म की पहचान है। हम धर्म को समझने की बात बहुत करते हैं लेकिन अधर्म को छोड़ने की बात नहीं करते। यदि हम धर्म को समझना चाहते हैं तो हमको धर्म के अंगों को पहले समझना होगा तभी हम धर्म अर्थात् चारित्र की बात को दूसरे के सामने कह सकते है अन्यथा नहीं। निरीह होकर, निभीक होकर बोलना तो सबको आता है लेकिन निरीह होकर, निभीक होकर चारित्र पालना सबको नहीं आता, यह तो बहुत कम लोगों को आता है। निरीह होकर वही चारित्र पाल सकता है जो निभीक रहेगा, जिसको संसार की कोई चाह नहीं, जो न ख्याति चाहता है, न पूजा,न अपना मान-सम्मान। अपने सम्मान की चाह करने वाला व्यक्ति निभांक होकर चारित्र का पालन नहीं कर सकता, निभीक होकर चारित्र पालने में स्वार्थ सबसे बड़ी बाधा है सबसे पहले हमको स्वार्थ का त्याग करना होगा स्वार्थ को त्यागे बिना हमारा कल्याण संभव नहीं। स्वार्थ परमार्थ को बिगाड़ देता है, परमार्थ के लिए स्वार्थ को पहले छोड़ना होगा। स्वार्थ को छोड़े बिना परमार्थ की साधना संभव हो ही नहीं सकती। आज हम २१ वीं सदी के प्रवेश का इंतजार कर रहे हैं लेकिन हम २१ वीं सदी में प्रवेश करें इसके साथ हमारे पास कौन से आदर्श हैं? शायद हम कत्लखाने मुक्त भारत, मांस निर्यात मुक्त भारत के साथ यदि हम २१ वीं सदी में प्रवेश करें तो बहुत अच्छा होगा। अहिंसा के साथ प्रवेश करें, अहिंसा हमारा आदर्श हो यदि हमारे साथ अहिंसा है तो समझ लेना सब कुछ हमारे साथ है और यदि हमारे पास अहिंसा नहीं तो समझो हमारे पास कुछ भी नहीं। अहिंसा का अर्थ दया है, दया के क्षेत्र में किया गया कार्य कभी भी फालतू नहीं जा सकता, जीवन का सही सदुपयोग तो यही है कि हम करुणावान हों। आप मनुष्य हैं विकासशील हैं लेकिन आपके विकास का क्या अर्थ है आपने जानवरों को क्या समझा है? अरे! जानवर भी जीव है उसके पास भी आत्मा है उसके पास भी संवेदना है। जानवरों के साथ संवेदना का व्यवहार रखो यदि संवेदना नहीं रही तो फिर आपके पास मात्र जड़ता है। आप चेतन हैं चेतना की बात करो चेतना का काम करो। मानव जीवन कल्याण के लिए है। कल्याण इसी में है कि हमारे अंदरकरुणा होदय हो, सत्य हो, बस इसी में हम सबका कल्याण है।
  5. यह तो सत्य है कि किसी क्षेत्र का पावन पुण्य ही हमको अपनी ओर आकर्षित करता है। यह नर्मदा का वही तट है जहाँ से साढ़े पाँच करोड़ मुनियों ने अपनी कठोर तपस्या/साधना से सिद्धत्व की प्राप्ति की थी। यहाँ वे सिद्ध हुए थे, अपनी आत्मा के कर्म मलों को धोकर आत्मा को साफ किया था और इस संसार से हमेशा के लिए मुक्ति पाई। अत: यह नर्मदा का पावन तट बहुत पवित्र है।हमको यहाँ आकर उन पवित्र आत्माओं की आराधना करना चाहिए, उनका गुणगान करना चाहिए उनकी पूजा करना चाहिए और अपनी आत्मा को भी उनके समान पवित्र बनाने का प्रयास करना चाहिए। यह बात भी कभी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में कर्मोदय के कारण अनेक कष्ट आते हैं, परेशानी आती हैं लेकिन यदि हमारे सामने धर्म रहता है तो उस कष्ट, परेशानी को आनन्द से जीतने की शक्ति भी हमारे भीतर प्रकट हो जाती है। अत: हमको अपने जीवन में किसी भी कष्ट या परेशानी से डरना नहीं चाहिए अपितु उसका मुकाबला करना चाहिए निश्चित ही उसमें हमारी विजय होगी और हम एक अपने निश्चित लक्ष्य तक पहुँच जायेंगे। नर्मदा के पावन तट पर आत्मा के निकट होने के लिए आपको पैसों की आवश्यकता नहीं, पैसों को भूलने की आवश्यकता है। भले आप पैसा कमाना न भूलें लेकिन पैसा को अवश्य भूलें यानि पैसा तो कमाएँ परंतु उसका दान करें उसको जोड़कर तिजोरी में न रखें दान करने के बाद उस पैसे को याद न करें यही पैसा को भूलने का अर्थ है। यह आज की तिथि आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी, बहुत महत्वपूर्ण तिथि है क्योंकि इस तिथि का इंतजार श्रावक और साधु दोनों करते हैं। साधु इस तिथि से अपने आवागमन को चार माह के लिए रोक लेते हैं। वर्षा योग करते हैं और जबकि श्रावक इस बात के इंतजार में रहते हैं कि महाराज आज से चार माह के लिए बन्धन में हो जावेंगे यानि विहार नहीं करेंगे। धन्य है वह युग जब साधकगण इस वर्षाकाल में जंगल के किसी वृक्ष के नीचे बैठकर आत्मा में लीन हो जाते थे लेकिन आज विषम काल में शारीरिक शक्ति के ह्रास के कारण हम साधुओं को जंगल छोड़ कमरों में निवास करना पड़ रहा है। फिर भी यह कम बात नहीं कि आज भी साधना की धारा वही है जो पहले थी।
  6. विवेक के साथ बुद्धिपूर्वक जो त्याग किया जाता है वही व्रत कहलाता है, वही संकल्प कहलाता है। वही सच्चा आत्म त्याग ही दीक्षा कहलाती है। यह संसारी अपने शरीर को सजाता है, लेकिन जो दीक्षा लेता है, वह शरीर को सजा देता है। एक शरीर को सजाता है और एक शरीर को सजा देता है। शरीर को सजाने का अर्थ शरीर से मोह करना, राग करना शरीर को भोगों का साधन बनाना। लेकिन शरीर को सजा देने का अर्थ शरीर से मोह छोड़ देना, विरत हो जाना शरीर को आत्म साधना का साधन बना लेना। शरीर तो शरीर है, उसी शरीर को हम वासना का साधन बना लेते हैं और उसी शरीर को साधना का साधन भी बना सकते हैं। जो शरीर को साधना का साधन बना लेते हैं, वे शरीर को सजा देते हैं और जो शरीर को वासना का गुलाम बना देते हैं वे शरीर को सजाते हैं। अत: शरीर को साधना का साधन समझो वासना का नहीं। यह उद्वार संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने ९ जुलाई को सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर में आयोजित भव्य दीक्षा समारोह में व्यक्त किए। मुनिश्री ने कहा कि धर्म की प्रभावना अपने उज्ज्वल भावों पर आधारित है। वस्तुत: अपने उज्ज्वल भावों का नाम ही तो धर्म है। हमें धर्म का पालन करने के लिए आत्म प्रकाश की आवश्यकता है क्योंकि प्रकाश के बिना पथ का दर्शन नहीं होता और दर्शन के अभाव में जीवन प्रदर्शन का केन्द्र बना रहता है, जब हमको अपने जीवन का पथ मिल जाता है तब हमें कठिनाइयों के रूप में अनुभूति नहीं होती। आत्म-पथ में कठिनाइयाँ ही तो सफलता का भवन बनाती हैं अत: हमको आत्म प्रकाश की खोज हमेशा करना चाहिए। प्रकाश में नहीं प्रकाश को देखो, प्रकाश में नहीं प्रकाश को पढ़ो। हम प्रकाश में देखते रहते हैं इसलिए हम प्रकाश को नहीं देख पाते। प्रकाश को देखना और प्रकाश में देखना दोनों अलगअलग हैं। लोग सूर्य को नहीं, सूर्य के प्रकाश को देखते हैं। आप भले कहते हैं कि हमने सूर्य नारायण के दर्शन कर लिए, परन्तु आप सूर्य नारायण के दर्शन कहीं कर पाते हैं। आप तो मात्र धूप को देखकर ही यह समझ लेते हैं कि हमने सूर्य नारायण के दर्शन कर लिए धूप को देखकर सूर्य को देखने की बात कहना भूल है यह सत्य नहीं है सत्य तो यह है कि जिस दिन तुम सूर्य को देखोगे, उस दिन तुम्हें धूप नहीं दिखेगी। सारी दुनियाँ दिखाई नहीं देगी। मात्र वहाँ तुम ही तुम नजर आओगे, इसी प्रकार जब तुम प्रकाश को देखने लगोगे उस समय तुमको यह राग रंग की दुनियाँ दिखाई नहीं देगी। तुमको दिखेगी अकेली तुम्हारी आत्मा। बस उस आत्मा को देखना ही वस्तुत: प्रकाश को देखना है क्योंकि आत्मा से बढ़कर दूसरा प्रकाश नहीं। अब ये दीक्षार्थी आरंभ और परिग्रह का काम नहीं करेंगे क्योंकि आरंभ और परिग्रह के त्याग के लिए ही तो दीक्षा ग्रहण की जाती है। जिसके माध्यम से परिग्रह का उत्पाद होता है वह आरंभ कहलाता है और जिसने आरंभ का त्याग कर दिया वह परिग्रह का उत्पादन नहीं कर सकता, अब वह कपड़ों से भी अपनी आसक्ति घट लेता है, वस्त्रों का त्याग कर देता है क्योंकि वस्त्र भी साधना में बाधक हैं। इसीलिए वह इनको भी छोड़ देता है। वस्त्र भी परिग्रह है, वह कभी भी उपकरण नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो क्षुल्लक का भोजन पात्र कटोरा है, वह भी परिग्रह है, उपकरण नहीं। इसीलिए वस्त्र और बर्तन दोनों को वह दीक्षार्थी छोड़ देता है। इस विषम काल में जहाँ चारों ओर विलासिता का तूफान है कदम-कदम में उन्मार्ग है फिर भी इन लोगों ने जो सन्यास लेने का साहस किया, वह प्रशंसनीय है क्योंकि आप सब कालेज के विद्यार्थी हैं, कालेज में पढ़ने वाले हैं। सन्यास का चोला पहन रहे हैं। यह भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और वस्तुत: इससे बड़ा आत्म उत्थान का कोई मार्ग भी नहीं है। आत्मा का उत्थान, आत्मा की उपलब्धि आत्मा के संयम बिना संभव नहीं। जो आदमी आत्मा का उत्थान चाहता है। उसको इस दुनियाँ को भूल जाना चाहिए और मात्र अपनी आस्था को ही याद रखना चाहिए। आत्मा ही आनंद का स्रोत है। अत: आत्मा को सदा याद रखो। जीवन का लक्ष्य आत्म शांति होना चाहिए। आत्म शांति इस रंग-बिरंगी मृग मारीचिका में नहीं मिल सकती। शांति भवनों में नहीं, शांति विषयों में नहीं, शांति तो अपने अन्दर है। इस शांति के लिए मात्र अपने अंदर जाना है। जब हम अपनी दृष्टि को पर पदार्थ से यानि विषय कषायों से हटा लेते हैं तो हमारे अन्दर ही शांति का झरना फूट पड़ता है। अपने भीतर देखो, अपने भीतर ही सब कुछ है, अपने भीतर जाना ही दुनियाँ को समझना है। सन्यास कोई महोत्सव नहीं, दीक्षा कोई महोत्सव नहीं, आत्म शांति का संकल्प है, विचारों की शुद्धिकरण है। आत्मा की खोज है, आत्म संयम है, आत्म पुरुषार्थ है। जीवन नश्वर है, जीवन और मरण के अलावा इस दुनियाँ में कुछ है ही नहीं। वस्तुत: मृत्यु को जीतने का जो संकल्प है, वही दीक्षा है। जीवन को समझो, जीवन समझ में आ जाने पर दीक्षा के भाव हो ही जाते हैं।
  7. राग की भूमिका में भी दृष्टि वीतरागता से ऊपर रखी जा सकती है। रागी को जिस पदार्थ पर राग झलकता है। वीतरागी वहीं वीतरागता का दर्शन करता है। राग और वीतराग पदार्थ पर नहीं हमारी दृष्टि पर जन्म लेते हैं। यदि हमारी दृष्टि में वीतरागता है तो हम राग में वीतरागता देखेंगे, अन्यथा वीतरागता में भी राग ही नजर आयेगा। अत: हमको प्रतिपल राग से हटकर वीतराग बनने की साधना करना चाहिए और यही जीवन का सार होना चाहिए। वीतरागता के प्रति गौरव होना भी राग को छोड़ने की भूमिका है। हमने अभी तक राग को वीतरागता से भी अधिक मूल्यवान समझा है। इसलिए हम राग को उपेक्षित नहीं कर पा रहे हैं। जिस राग को हम छोड़ना नहीं चाहते वह राग हमको पसंद तक नहीं करता। हमने राग को पसंद किया है राग ने हमको नहीं। इसलिए अब हमको समझना है कि महत्वपूर्ण चीज वीतरागता है, राग नहीं और उस वीतरागता की उपासना प्रारंभ करना है। वीतरागता की उपासना करना ही वीतरागता के प्रति गौरव होना है। दृष्टि का महत्व देखिए कि जिस चीज से हम अपनी भोजन सामग्री बनाते है वही चीज हमारे लिए प्रभु भजन का विषय बन जाती है। जिस जल को हम पीते हैं तो वह भोग्य सामग्री कहलाती है लेकिन जब हम उसी जल से भगवान् की पूजा करते हैं तो वही जल हमारे लिए भजन की, भक्ति की चीज बन जाती है। जिस चंदन को हम गर्मी मिटाने के लिए शरीर पर लेप करते हैं या सूंघते हैं तो वह शारीरिक सुख का कारण बनता है लेकिन उसी चंदन से जब हम भगवान् की पूजा करते हैं तो शरीर नहीं संसार ताप मिटाने की भावना करते हैं। इसी प्रकार अष्ट मंगल द्रव्य की तमाम सामग्री को समझना चाहिए। वही वस्तु घर में कलह का, झगड़े का कारण बनती है और वही मंदिर में पूजा भक्ति, भजन वंदना का कारण बनती है। हमारी पूजा का उद्देश्य वीतरागता को प्राप्त करना होना चाहिए क्योंकि हमारे उपास्य वीतरागी हैं। यदि हमारी जिन्दगी का लक्ष्य राग को घटाना बन जाये तो हम कम समय में भी अधिक काम कर सकते हैं। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम वीतरागी बनने की साधना करें और यदि हम वीतरागी नहीं बन सकते तो वीतरागी के पास जाना चाहिए। यदि हम इतना भी करते हैं तो एक दिन अवश्य वीतरागी बन जायेंगे, फिर हमारे लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा। क्योंकि राग समाप्त करने के बाद अत्याधिक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  8. लक्ष्य को देखो समय को नहीं। हमारा जीवन लक्ष्य को निर्धारित करने पर पवित्र बन सकता है समय को नहीं। हम समय की ओर देखते हैं लेकिन अपने लक्ष्य को भूल जाते हैं। यदि हम अपने लक्ष्य को याद रखें तो हमको समय की ओर देखने की आवश्यकता नहीं पड़ सकती, क्योंकि लक्ष्य स्वयं एक समय है। समय को देख-देखकर चलने में हमको समय की पहचान ही नहीं होती, लेकिन जब हम अपने शास्त्रों को देखकर चलते हैं तो समय की वास्तविकता हमारे सामने झलकने लगती है। अत: हमको घड़ी देखकर नहीं अपितु शास्त्रों को देखकर यानि शास्त्रों में बतलाए मार्गदर्शन के अनुसार चलना चाहिए। दिन रात को देखते रहोगे कुछ न कर पाओगे। दिन रात को भूल जाओगे सब कुछ पा जाओगे। आज हम घड़ी ही देखते रहते हैं महीने, वर्ष, पक्ष, दिन, रात में ही अपने को गिनते रहते हैं। समय देखने में ही हमारा समय चला जाता है और हम समय का इंतजार करते रहते हैं। इसलिए हम अपनी जिन्दगी में कुछ नहीं कर पाते। यदि हम इन सारे समयों को भूल जायें तो हम बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। हमको अपनी आत्मा को पाना है इसके लिए समय को भूल जाना है। आत्मा याद हो जायेगी। वस्तुत: आत्मा को याद कर लेना ही सही समय का सदुपयोग है। जब हमको अपनी आत्मा का परिचय मिल जाता है तब हमारे लिए काँटे नहीं फूल ही बाधक बनते हैं। काँटे तो हमको जागृत, करते हैं। फूल हमको बहका सकते हैं लेकिन काँटे नहीं, क्योंकि काँटे विरागता के प्रतीक हैं जबकि फूल राग का। हम काँटों पर चलना सीखें यानि कठिनाइयों से गुजरना सीखें। उनसे घबराए नहीं और फूलों से बचें, यानि भोग विलासिता से अपने को दूर रखें, जीवन हमारा महक जायेगा हम धन्य हो जायेंगे। मोक्ष मोह के अभाव का नाम है मोह को छोड़े बिना हम मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। मोक्षमार्ग में वही व्यक्ति चल चल सकता है जो मोह से प्रभावित नहीं होता। जो मोही होता है, वह योगी नहीं बन सकता। हमको मोक्ष को प्राप्त करना है तो मोह का त्याग करना होगा और अपनी आत्मा को समझना होगा। आत्मा को समझे बिना न आत्म शांति है न आत्म कल्याण और न निर्वाण।
  9. करुणा और दया सीखने के लिए न किसी कॉलेज जाने की आवश्यकता है और न कहीं विदेश की। भारत के कण-कण में करुणा और दया बिखरी हुई है क्योंकि यहाँ करुणा और दया के अवतार महापुरुषों का जन्म युग-युग में होता रहा है। उनका संदेश प्रकृति में आज भी ध्वनित है। महापुरुषों के महा संदेशों को प्रकृति ने आज भी नहीं भुलाया। लेकिन आदमी ने सब कुछ भुला दिया। घृणा करना आदमी ने कहाँ से सीखा? प्रकृति प्रेम करना सिखलाती है घृणा करना नहीं। जब हम दोषों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा पतन होता है और जब हम गुणों को अपनाते हैं तो हमारा उत्थान होता है। जीवन पाया है, उसका उत्थान करो, पतन नहीं। पतित मत बनो। तुम्हारे पास पापी न बनने की शक्ति है। बस तुमको दोषों को छोड़ गुणों को ग्रहण करना सीखना है। मनुष्य होने के नाते हमको यह अवश्य सोचना चाहिए कि मैं कौन हूँ? मेरा गुण क्या है? मैं कहाँ से आ रहा हूँ? मुझे कहाँ जाना है? यदि हम यह चिंतन नहीं करेंगे तो हम जीवन में भटक जायेंगे। मैं कौन हूँ? मैं मनुष्य नहीं आत्मा हूँ, शाश्वत हूँ, मैं अकेला जन्मा हूँ, अकेला ही मरण करूंगा। यह परिवार धन दौलत सब यही छूट जाये, क्योंकि यह मेरा नहीं है यह सब संयोग है जिसका एक दिन अवश्य वियोग हो जाना है। अत: मैं तो मात्र आत्मा हूँ। आत्मा के अलावा इस संसार में मेरा कुछ है ही नहीं। मैं कहाँ से आ रहा हूँ। संसार से ही आ रहा हूँ किसी मुक्ति से नहीं। चार गति हैं कभी मनुष्य गति, कभी देव गति, कभी नरक गति और कभी पशु गति, इन चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में से ही तो आ रहा हूँ। लेकिन अब ऐसी जगह जाना है जहाँ आज तक नहीं गया हूँ। जहाँ जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, बुढ़ापा नहीं, रोग नहीं, दुख-शोक-संताप कुछ भी नहीं ऐसे परम धाम को मुझे अब प्राप्त करना है और वहीं जाना है और इसके लिए मुझको संसार से मोह छोड़ना है। यह आदमी मोह क्यों करता है? मोह एक भ्रांति है। घर को घर माने उसको अपना न मानें क्योंकि घर तुम्हारा है ही नहीं। तुम चेतन हो, घर जड़ है। वह जड़ वस्तु तुम्हारी कैसे हो सकती है? यह हमारी भूल है कि हमने संसार की अचेतन वस्तुओं को अपना मान लिया है। संसार के दुख से बचने का एकमात्र यही उपाय है कि हम अपने को ही अपना मानें पर को अपना न मानें। स्व को समझना ही पर को भूलना है और जब हम संसार को भूल जाते हैं तो मुक्ति का दरवाजा खुल जाता है और हम अपने अन्दर के घर में हमेशा के लिए प्रविष्ट हो जाते हैं। जीवन की सबसे अनमोल धरोहर विवेक है, जिसके पास विवेक नहीं उसके पास कुछ भी नहीं और जिसके पास विवेक है, उसके पास सब कुछ है। ज्ञान तो सबके पास होता है, लेकिन विवेक सबके पास नहीं होता। आज के युग में ज्ञान का विकास तो हो रहा है लेकिन विवेक का नहीं, विवेक का विकास ही ज्ञान की उन्नति है। संसार का भला ज्ञान से नहीं विवेक से होता है। विवेक एक भीतरी भेद विज्ञान है जो विभाजन करता है विवेक का अर्थ ही विभाजन होता है। जैसा कि जब हम विवेक के द्वारा अपने मकान को देखते हैं तो उसमें एक सच्चाई नजर आती है क्योंकि विवेक उसको स्पष्ट कर देता है कि यह मकान तुम्हारा नहीं यह तो मिट्टी पत्थरों का है तुम इसके मालिक नहीं हो, यह तुम्हारा नहीं है तुम एक चेतन तत्व हो इस प्रकार विवेक के द्वारा हम एक सत्य को प्राप्त कर लेते हैं इसीलिए जीवन में विवेक का होना अनिवार्य है। सम्यक दर्शन हो जाने पर घर, परिवार गौण हो जाता है और मोक्षमार्ग प्रधान हो जाता है। सम्यक दर्शन का अर्थ ही यह होता है कि झूठी दुनियाँ का रहस्य खुलना और आत्मा पर सच्ची श्रद्धा होना। सच्चा विश्वास ही सच्चे मार्ग पर ले जा सकता है, झूठा नहीं। इसलिए जीवन में विश्वास की अपेक्षा सच्चे विश्वास की ही बड़ी मौलिकता होती है। मोक्षमार्ग का अर्थ मोह, माया, स्वार्थ को छोड़ने का मार्ग। मोक्षमार्ग कोई पत्थरों का मार्ग नहीं है, वह तो विश्वास का मार्ग है। आस्था का मार्ग है, संकल्प, त्याग, वैराग्य, ध्यान, तप का मार्ग है और जिसमें आस्था ही प्रधान होती है। आस्था के अभाव में ही हम कमजोर हैं। हमारी आस्था यदि मजबूत है तो हम कमजोर हो ही नहीं सकते। आस्था को मजबूत करिए। आस्था को मजबूत करने के लिए आपको कोई दवा खाने की आवश्यकता नहीं। दवा खाने से आस्था मजबूत नहीं हो सकती। दृढ़ संकल्प ही आस्था को मजबूत करता है। आत्म संयम, त्याग से ही आस्था मजबूत होती है। यदि आप अपनी आस्था को मजबूत करना चाहते हो तो आत्म संयम के मार्ग में अपने कदम आगे बढ़ाओ अन्यथा आस्था मजबूत नहीं हो सकती। आस्था की मजबूती ही जीवन की सफलता है, आस्था को कमजोर मत होने दो संकल्पों, व्रतों को कमजोर मत होने दो। जिन संकल्पों को लिया है, उनका पालन निर्दोष करो, निर्दोष व्रतों का पालन ही सही विरक्ति है, अन्यथा व्रत और विरक्ति का कोई मूल्य नहीं।
  10. सेवा करना सबसे बड़ा धर्म है, सेवा का अर्थ दूसरों की पीड़ा, दूसरों के दर्द, दूसरों के दुखों को दूर करना है, लेकिन सेवा स्वयं करना चाहिए, चाकरों के द्वारा सेवा नहीं करानी चाहिए। सही सेवा तो वही कहलाती है जो स्वयं अपने हाथों से की जाती है क्योंकि उसके साथ हमारी भावनाएँ जुड़ी होती हैं सेवा उतनी महत्वपूर्ण नहीं, जितनी कि उसकी भावना महत्वपूर्ण है। जब दवा काम नहीं करती तो हवा काम करती है और जब हवा और दवा दोनों काम नहीं करती तो दुआ (सद्धावना) काम करती है। महत्वपूर्ण दवा नहीं दुआ है। दवा तो मेडिकल स्टोर में मिल जाती है, लेकिन दुआ मेडिकल स्टोर से नहीं मिल सकती। डॉक्टर के पास भी दवा मिल सकती है लेकिन दुआ मिले यह कोई निश्चित नहीं। परन्तु यह निश्चित है कि दवा के साथ यदि दुआ नहीं है तो कभी भी मरीज ठीक नहीं हो सकता है। इसलिए डॉक्टरों के पास पैसा की अपेक्षा सेवा की भावना प्रधान होना चाहिए पैसा की भावना नहीं क्योंकि सेवा को पैसा कमाने का साधन नहीं बनाना चाहिए। डॉक्टरी एक सेवा कार्य है धर्म का कार्य है इसलिए डॉक्टरी को पैसा कमाने का साधन न बनाकर उसको मानव सेवा का कर्तव्य समझना चाहिए और वह सेवा मात्र मानव की ही नहीं प्राणी मात्र की होनी चाहिए। सेवा में कोई भेद नहीं होना चाहिए चाहे वह पशु हो, पक्षी हो या आदमी हो, दुख तो दुख होता है, पीड़ा तो पीड़ा होती है। दुनियाँ में किसी भी प्राणी को दुख अच्छा नहीं लगता। सभी जीव सुख चाहते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर हमको प्राणी मात्र की सेवा करना चाहिए। सबके दुखों को दूर करना चाहिए, जो विकलांग है उनको क्रत्रिम पैर आदि की व्यवस्था करना चाहिए | सबके दुखो को दूर करना उनको उचित शुद्ध आहार औषधि की व्यवस्था करना चाहिए, यह सबसे बड़ा धर्म है। अपना निर्वाह करने वाले तो इस दुनियाँ में बहुत हैं लेकिन जो अपना निर्वाह करते-करते दूसरों की भलाई किया करते हैं ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। सेवा करके हम संसार का भला कर सकते हैं। सेवा के लिए हमको अपने अन्दर एक भावना पैदा करना है, भक्ति पैदा करना है। यदि हमारे अन्दर भावना जाग जाये तो हम बहुत कुछ भला कर सकते हैं। हमारे पास कमी मात्र भावनाओं की है। हमारे आसपास बहुत दुखी लोग हैं, बेसहारा लोग हैं, विकलांग लोग हैं, अनाथ लोग हैं। उनकी पीड़ा को पहचानो, अपने हृदय में करुणा जागृत करो और भक्ति के साथ उनकी सेवा करो। अपनी गलतियों को स्वीकार करना ही अध्यात्म में प्रवेश पाने का पहला उपाय है। जो व्यक्ति अपनी गलती स्वीकार नहीं करता, अपनी गलती को छुपाता है वह कभी भी धर्म को समझ नहीं सकता। धर्म यही तो कहता है कि अपनी गलतियों को स्वीकारो, अपनी गलतियों का प्रायश्चित करो, अपनी गलतियों को छुपाओ मत, अपनी गलतियों का प्रकाशन करो। अपनी गलतियों को स्वीकार करने वाले व्यक्ति पापी नहीं कहलाते वरन् अपनी गलतियों को स्वीकार करना आत्मोन्नति का साधन है। अपना भला चाहते हो तो अपनी गलतियों को स्वीकार करो। जो व्यक्ति अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करता वह अपने पापों को साफ नहीं कर सकता, धर्म को समझ नहीं सकता, अध्यात्म में प्रवेश नहीं कर सकता, सच्चाई की खोज नहीं कर सकता। आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करता अपनी गलतियों को स्वीकार करने से कतराता है, रोष करता है, झगड़ता है लेकिन सत्य तो सत्य होता है वह कभी छुप नहीं सकता। वह पाप एक दिन प्रकट हो ही जाता है, यह प्रकृति का नियम है। इसलिए अपने पापों को कभी मत छुपाओ। आदमी इतना सब कुछ करता है, लेकिन अपने पापों को छुपाता क्यों है? अधर्म क्या है? अपने पापों को छुपाना ही तो अधर्म है, पाप इतना बड़ा नहीं, जितना कि पाप को छुपाना पाप है, पाप को छुपाना सबसे बड़ा पाप है। पाप को सबसे पहले छोड़ो, इस पाप को छोड़े बिना पुरुष का पुण्य कार्य प्रारंभ हो ही नहीं सकता। भय और मूच्छ जीवन के लिए सबसे अधिक खतरनाक है। भय हमारी जिन्दगी को खोखला करता है, परेशान करता है, हमको सताता है और हम भय के कारण अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं। भय एक भीतरी कमजोरी है, जो हमारी दमित भावनाओं का परिणाम है। डरो मत, डर तुमको बेकार करता है। डर तुम्हारी भीतरी शक्ति को कमजोर करता रहता है। हम कमजोर इसलिए हैं कि हमारे पास भय समाया होता है और वह भय एक ही नहीं सैकड़ों भय है, मरने का भय, रोग का भय, हानि का भय, न जाने कितने भय हैं। जीवन की उन्नति चाहते हो, जीवन को खुश करना चाहते हो तो सबसे पहले हृदय में से भय को निकाल दो और निर्भय बन जाओ। डरो मत चाहे मौत भी क्यों नहीं आ जाये। डरने से तुम समस्या से बच नहीं सकते। जो कुछ होता है होने दो, उसका सामना करो, उससे संघर्ष करो, डरो नहीं। मुसीबतों से मुकाबला करना ही मनुष्य की महानता है। योगदान ही सही दान कहलाता है, योगदान के अभाव में दान की कोई महत्ता नहीं होती। दान के क्षेत्र में दाता (दान देने वाला) और पात्र (दान लेने वाला) इन दोनों को अपनी-अपनी निष्ठा का पालन करना चाहिए। जैसे कि दाता को कभी अभिमान नहीं करना चाहिए और पात्र को कभी दीनता नहीं करना चाहिए, क्योंकि अभिमान करना दाता की कमजोरी है और दीनता करना पात्र की कमजोरी है। इसलिए इन दोनों का त्याग कर देने वाला ही सही पात्र और दाता कहलाता है। पुण्य के उदय से धन मिला है लेकिन उस धन का सदुपयोग करो, तिजोरी में भरकर मत रखो या भोग विलासिता में उसका दुरुपयोग मत करो। अपने धन से दूसरों को आजीविका प्रदान करो, जो जरूरतमंद हो उनकी अपने धन से मदद करो। धन की तीन गति हैं- दान, भोग या नाश। यदि आपको धन मिला है तो उसका अपनी शक्ति के अनुसार दान करो या उसका उपभोग करो अन्यथा एक दिन धन का नाश हो जायेगा। इसलिए दान करने में, खर्च करने में किसी प्रकार की कंजूसी मत करो। खुले दिल से धन का दान करो। आज जो देश में गरीबी फैल रही है, उसका मूल कारण यही है कि लोगों ने अपनी तिजोरियों में ताला लगा लिया है। यदि लोग अपनी तिजोरियों में से ताला खोल दें तो आज ही गरीबी दूर हो सकती है। लेकिन आज तो गरीबी मिटाने के नाम पर गरीब मिट रहे हैं। यदि आप वास्तव में देश से गरीबी मिटाना चाहते हो तो तिजोरी में धन बटोर कर मत रखो। अपितु उस धन का सदुपयोग करो। लोगों को रोजी दो, गो-शालाओं का निर्माण करो। अपने धन से लोक कल्याणकारी कार्य करो। व्यक्ति को सही रास्ते में लगाना ही सही दान कहलाता है। जो नशा करता है व्यसनों में फंसा हो धूम्रपान करता हो और भी अनेक अनैतिक काम करता हो, गलत मार्ग पर चलता हो ऐसे कुपथगामी व्यक्तियों को बुरे काम छुड़वाकर उनको सच्चाई के मार्ग पर लगा देना सबसे बड़ा दान कहलाता है। यही सबसे बड़ा धर्म है, व्यक्ति को अधर्म से बचाना ही सबसे बड़ी मानवता है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता इसी बात की है कि व्यक्ति को सही मार्ग में लाना, व्यक्ति को बुराइयों से बचाना, व्यक्ति बुराइयों से बच गया तो यह देश बहुत कम दिनों में उन्नति कर सकता है। व्यक्ति की उन्नति ही देश की उन्नति है। व्यक्ति का सुधार ही देश का सुधार है। व्यक्ति की सेवा ही देश की सेवा है।
  11. जाप करना महान् तप है, अत: प्रतिदिन जाप करना चाहिए। जाप का अभ्यास पाप को छुड़ा देता है इसीलिए पाप से बचने के लिए जाप करना चाहिए। जब हम जाप करते हैं तो हमारा मन स्थिर हो जाता है जो मन सांसारिक विलासिता में भटक रहा था, वह उससे बच जाता है, उसकी चंचलता समाप्त हो जाती है। भगवान् की पूजा उपासना का अर्थ ही यह होता है कि हम अपने मन को एकाग्र कर लें अपने मन पर विजय प्राप्त कर लें, मन पर विजय प्राप्त करना ही सही जाप है। जाप करते समय मन को एकाग्र कर लेना चाहिए एवं अपने मन को फ्री कर लेना चाहिए। यदि हम प्रतिदिन शुद्ध मन से जाप करते हैं तो निश्चित ही चिंता और तनाव दूर हो जाते हैं। भगवान् की भक्ति, प्रार्थना अच्छे भावपूर्वक की जाये तो मन की सारी थकान दूर हो सकती है। जाप में मन हल्का होना चाहिए जाप ध्यान का अच्छा साधना है जो व्यक्ति ध्यान करना चाहता है उसको पहले जाप करने का अभ्यास करना चाहिए। सुबह-शाम कम से कम कुछ समय जाप के लिए निकालो मन को हल्का करने का यह सबसे अच्छा उपाय है। जाप मानव मंत्र की साधना का विज्ञान है, जाप आत्मा का विज्ञान है। शर्त है कि जाप के लिए मन को शांत होना चाहिए। जाप करने से पहले मन से तमाम अशुद्धियों को फेंक दो, मन को खाली कर दो, मन से विचारों की कब्जियत निकाल दो, तुम्हारा जाप सफल हो जायेगा और तुम प्रशान्त हो जाओगे। यदि सुख और स्वास्थ्य को चाहते हो तो जाप की कला सीखी अशांति से बचने के लिए भगवान् के नाम के मंत्र की माला (जाप) शुरू कर दी। भगवान् का मरण नहीं होता। मरण भत्तों का होता है। भगवान् का मरण इसलिए नहीं होता, क्योंकि भगवान् की कोई उम्र नहीं होती। हमारी उम्र होती है, इसलिए हम मरते हैं। यदि भक्त भगवान् की उपासना करता है, भगवान् बनने की साधना करने लगता है तो वह भी एक दिन अमर हो जाता है क्योंकि वह स्वयं भगवान् बन जाता है। भगवान् बनने की क्षमता हमारे अन्दर है। हम भी भगवान् बन सकते हैं, लेकिन हमको पहले भक्त बनना होगा। भक्त बनकर ही भगवान् बना जा सकता है। यदि तुम भगवान् बनना चाहते तो भगवान् के चरणों में चले जाओ और भगवान् का जाप करना शुरू कर दो, तुम भगवान् बन जाओगे। खातेगाँव से आचार्य विद्यासागर हाईस्कूल की तमाम छात्राएँ अपने स्कूल के समस्त शिक्षकगणों के साथ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन के लिए पधारी । आचार्य श्री के दर्शन के उपरांत समस्त छात्राओं ने एक स्वर में ‘इतनी शक्ति हमें देना गुरुवर, मन का विश्वास कमजोर हो न' गीत का मधुर पाठ किया। इसके उपरांत स्कूल के प्राचार्य महोदय ने आचार्य श्री जी से निवेदन किया कि गुरुदेव छात्राओं के लिए कुछ आशीष वचन प्रदान करें। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने तमाम छात्राओं को संक्षेप में आशीर्वचन देते हुए कहा कि विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य, शील, कर्तव्य, विनय, सादगी एवं सदाचार का पालन करना चाहिए। विद्याध्ययन ब्रह्मचर्य के साथ ही करना चाहिए। भारत में पहले गुरुकुल होते थे, उन गुरुकुलों में विद्यार्थी विद्या का अध्ययन ब्रह्मचर्य के साथ ही करते थे। ब्रह्मचर्य के बिना विद्याध्ययन अधूरा है। ब्रह्मचर्य विद्याध्ययन का विज्ञान है। ब्रह्मचर्य का अर्थ शक्ति का संचय। ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए हमको अपनी दृष्टि पवित्र रखना चाहिए। विद्यार्थी जीवन में फैशन को सबसे पहले छोड़ना चाहिए। फैशन करने से विद्याध्ययन में बाधा उपस्थित हो जाती है। सदाचार का पालन करते रहना चाहिए। शाकाहार का ही सेवन करना चाहिए एवं अपव्यय से बचना चाहिए। माता-पिता एवं गुरुजनों की विनय करना चाहिए। सम्मान करना चाहिए, सेवा करना चाहिए। मन के विचारों को पवित्र रखना चाहिए। नशीली वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए एवं पढ़-लिखकर एक आदर्शवान नागरिक बनना चाहिए और समाज एवं राष्ट्र की सेवा करना चाहिए। आज के प्रदूषित वातावरण से अपने मन को बचाना चाहिए। अश्लील साहित्य और पिक्चर नहीं देखना चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाना चाहिए। सूर्योदय से पहले उठकर भगवान् की प्रार्थना एवं अपना अध्ययन करना चाहिए। प्रमाद से बचना चाहिए। हम शिक्षित होकर मानवीय सभ्यता और सिद्धांतों का पालन करें, समाज और राष्ट्र के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करें।
  12. मौत का क्या ठिकाना, यह निश्चित मान लें अत: आओ आज ही क्षमा माँग लें। पयुर्षण पर्व के उपरांत क्षमावाणी पर्व की परम्परा बहुत पुरानी है। क्षमावाणी के पावन प्रसंग पर समाज के सारे लोग एकत्रित होते हैं और एक दूसरे के गले मिलते हैं और अपनी परस्पर की वैमनस्यता को मिटाते हैं, अपने दिल को साफ करते हैं, अपने आपकी सफाई करते हैं। इसी पावन परम्परा के मुताबिक ही सिद्धोदय तीर्थ नेमावर में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के सान्निध्य में यह पर्व मनाया गया। क्षमावाणी को मनाने मात्र से बैर की गाँठ खुल नहीं सकती, दिल की सफाई के लिए हमको अपने विवेक को जागृत करना होगा और दूसरों के दुख-दर्द को समझना होगा अन्यथा यह एक व्यंग्य नहीं अपितु एक सचाई है हर पवाँ त्यौहारों को नाच गाकर मनाते हैं, किन्तु झगड़ों झंझटों को कहाँ मिटाते हैं। चेहरे देख-देख कर हाथ और गले मिलाते हैं, भूखों को भूल भरपेटों को पकवान खिलाते हैं। क्षमावाणी के पावन प्रसंग पर आचार्य श्री जी के प्रवचन हुए। अपार जनसमुदाय को संबोधित करते हुए आचार्य श्री ने कहा-क्षमा साधक की भीतरी परीक्षा है क्षमा उसी से माँगो जिससे तुम्हारा बैर हुआ है आपसी कलह हुआ है। मनमुटाव हुआ हो, लड़ाई हुई हो उसी से क्षमा माँगो। जिससे कुछ बिगड़ा ही नहीं उससे क्या क्षमा माँगना? यह कोई नियम नहीं है कि वर्ष में इसी दिन ही क्षमावाणी पर्व मनाएँ हमको चाहिए कि हम जिस वक्त जिससे जो कुछ खट-पट हुई हो उससे तुरन्त हमें क्षमा माँग लेना चाहिए। क्षमा माँगना बहुत अच्छा कार्य है लेकिन इससे भी अच्छा कार्य तो क्षमा करना होता है। क्षमा करने में कुछ देर नहीं लगती यह तो एक तात्कालिक घटना है। क्षमा करने के लिए हमको कुछ हाथ पैर नहीं चलाना है। अपितु हमको अपने स्वोन्मुखी होना है। दीनता और तीव्रता दोनों नहीं करना ही उत्तम क्षमा पर्व का सार है। न दीनता करो न तीव्रता करो, बस तटस्थता से रहो। न किसी से बैर करो, न बुराई करो, न किसी का अपमान करो, न अपशब्द कहो। आचार्य श्री जी ने कहा आज क्षमावाणी पर्व है हम भी आप से क्षमा माँगते हैं। सारे जनसमुदाय में तालियों के साथ जमकर हँसी फूट पड़ी, तो आचार्य श्री जी ने कहा कि क्या हो गया? क्या यह पर्व मात्र आप लोगों का है? क्षमा करें, क्षमा माँगे और अपने दिल को साफ करें। राग प्रमाद की जड़ है हमने आज तक न राग को समझा न प्रमाद को अन्यथा हम राग क्यों करते? प्रमाद क्यों करते? हमारे दुख का कारण हमारा राग है, हमारा प्रमाद है, हम राग का त्याग करें। प्रमाद का त्याग करें। अन्यथा हम अपनी भीतरी साधना की सुरक्षा नहीं कर सकते। हम बाहरी निमित्तों पर टूट पड़ते हैं। अपने उपादान की ओर दृष्टिपात नहीं करते। यदि हम अपने भीतरी कर्म पर विश्वास कर लें तो गुस्सा कर ही नहीं सकते। हम गुस्सा क्यों करते हैं? अज्ञानता के कारण हम गुस्सा करते हैं प्रमाद और राग के कारण गुस्सा करते हैं। क्षमा को समझने के लिए हमको अपने स्वभाव को समझना होगा। हमारी आत्मा का स्वभाव गुस्सा करना नहीं है। हम गुस्सा करते हैं, अपनी आँखें लाल-लाल करते हैं, दूसरों को आँख दिखाते हैं, चिल्लाते हैं, गरजते हैं यह सब हमारी विवेक-हीनता का प्रतीक है। वस्तुत: ऐसे आयोजन समाज में होने चाहिए, इससे समाज में एक अच्छा वातावरण तैयार होता है, जो कि बहुत अनिवार्य है। समाज में लड़ाई झगड़ा न हो, हिल-मिलकर रहें आपसी फूटन हो आपसी विवाद न हो इसके लिए यह अनिवार्य है कि हम समाज में ऐसे वातावरण को सदा तैयार रखें, जिससे वात्सल्यता, प्रेम, स्नेह, सहयोग, सहानुभूति, संवेदना आपस में बनी रहे। इन औपचारिक आयोजनों के द्वारा भी परमार्थ का रास्ता खुल सकता है इसमें हमारा उद्देश्य ठीक होना चाहिए। हम अपने उद्देश्य को ठीक करें अपने लक्ष्य को बनाएँ और अपनी आत्मा को समझे यही क्षमावाणी पर्व की सफलता है। आचार्य श्री जी के प्रवचन के बाद भगवान् का अभिषेक पूजा भक्ति का कार्यक्रम हुआ, और इसके बाद लोगों में आपसी क्षमा याचना का सिलसिला शुरू हुआ।
  13. संसार की पराई वस्तुओं में अधिकार नहीं करना ही सच्चा त्याग है। हमारी यह झूठी मान्यता है कि ‘यह मेरा है।' 'यह मेरा है', मेरा-तेरा का त्याग करना ही सच्चा त्याग है। संसार में किसी भी वस्तु में अपना अधिकार जमाने की कोशिश मत करो, वस्तुत: त्याग होता ही नहीं क्योंकि जब संसार में हमारा कुछ है ही नहीं तो फिर किसका त्याग? हमारा संसार में यदि कोई है तो वह है एक आत्मा।आत्मा के अलावा हमारा कुछ नहीं और उस आत्मा का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो राग, द्वेष, मोह का किया जाता है। हम दुनियाँ में सब कुछ खरीद सकते हैं लेकिन भगवान् को नहीं खरीद सकते। भगवान् की उपासना करो, प्रार्थना करो, भगवान् की उपासना करना ही त्याग के मार्ग पर बढ़ना है क्योंकि भगवान् का उपदेश यह है कि पर द्रव्यों का त्याग करो और आत्म पुण्य का सम्मान करो। त्याग के बिना तपस्या निष्फल है, तपस्या में लगें, लेकिन त्याग के साथ लगें। परिग्रह के त्याग के बिना तपस्या नहीं हो सकती, तपस्या त्याग के साथ होना चाहिए। त्याग करो, किसका त्याग? ममत्व का त्याग, शरीर के प्रति जो मोह है, ममत्व है, उसी का त्याग करना। कायोत्सर्ग का अर्थ ध्यान नहीं, अपितु काय अर्थात् शरीर और उत्सर्ग का अर्थ त्याग। अर्थ यह हुआ कि शरीर के प्रति ममत्व का त्याग ही कायोत्सर्ग है। जो फूल जाता है वह रागी माना जाता है, जो फूलता है वह गिरता है। वृक्ष में फूल लगा है, लेकिन वह फूल एक दिन मुरझा जाता है और वृक्ष के नीचे धूल में गिर जाता है लेकिन काँटा कभी धूल में नहीं गिरता। फूल धूल में धूमिल हो जाता है लेकिन काँटा वृक्ष के नीचे नहीं गिरता वह तो वृक्ष पर ही लगा रहता है। काँटा वैराग्य का प्रतीक है जबकि फूल राग है। राग भले आपको अच्छा लगे लेकिन वह आपके लिए घातक है। जीवन में त्याग की आवश्यकता है राग की नहीं। मरने के बाद तुम्हारा कुछ भी नहीं है इसलिए जीते जी कुछ त्याग कर लो, चाहे वह सोना हो, चाँदी हो, हीरा हो, मोती हो कुछ भी हो वह आखिर पत्थर ही तो है। आप अपने गले में पत्थर पहने हैं। आत्मा का स्वरूप समझो, आत्मा न गरीब है न अमीर, आत्मा न छोटा है और न बड़ा। इसलिए गरीबों को हीन दृष्टि से मत देखो, तुम्हारी आत्मा और गरीब की आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। आत्मा सबकी एक है। सारी विषमताओं को छोड़ दो। यह संसार तुम्हारा नहीं है और न तुम इसके हो। तुम तो मात्र आत्मा हो उसी मात्र एक आत्मा का ध्यान करो उसका कल्याण करो। शरीर को वासना का साधन मत बनाओ उसको उपासना का साधन बनाओ । यह आदमी अपने शरीर को वासना का साधन बना लेता है और भोग विलासों में लिप्त रहता है। लेकिन जिस व्यक्ति को अपनी आत्मा का परिचय मिल जाता है वह व्यक्ति अपने शरीर से अपनी आत्मा की उपासना करता है। शरीर को वह आत्मसाधना का साधन समझता है। इस शरीर से साधना करो, इससे उपासना करो, इस संसार को धर्म करने का उपकरण समझो। अन्यथा इससे राग करने से कोई भी प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। भोग्य सामग्री का मूल्य तभी तक है जब तक कि भोक्ता उपस्थित है, उपभोक्ता के अभाव में भोग्य सामग्री का क्या मूल्य? यह शरीर भी इसी प्रकार का है। जब तक आपकी सांसें चल रही हैं शरीर में स्पन्दन चल रहा है, जीते जी इससे कुछ काम ले लो अन्यथा मरने के बाद तो इसको जला दिया जाना है फिर इसकी कोई कीमत नहीं होती। किसी के प्रति राग नहीं करना ही उत्तम त्याग है। जो वस्तु जिस प्रकार है उसको उसी रूप में जानो, उसमें अपनी ओर से कुछ भी लाग लपेट मत लगाओ। मेरा मकान है, मेरी दुकान है, मेरे बच्चे हैं, मैं इसका मालिक हूँ, ये मेरे नौकर हैं इस प्रकार जो दूसरी वस्तुओं में अहं भावना है यही तो मोह है, मायाजाल है, संसार है। इसी को छोड़ना है। मकान को मकान समझो, उसमें ममत्व की बुद्धि मत करो। उस मकान को एक पक्षी के घोंसले के समान समझो, जिस प्रकार पक्षी किसी वृक्ष के ऊपर बैठकर रात काट लेते हैं और प्रात: काल उड़ जाते हैं उसी प्रकार हमको भी एक दिन यहाँ से उड़ना है, यहाँ स्थाई कोई नहीं है। फिर उसमें मोह क्यों? राग क्यों? अहंकार क्यों? अधिकार क्यों? राग का त्याग ही अध्यात्म है। राग, द्वेष माया को छोड़ना ही त्याग है। यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो सबसे पहले अध्यात्म को समझो। अपनी आत्मा के स्वरूप को समझो। तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं है, तुम व्यर्थ में दुनियाँ को अपनी मान रहे हो, तुम्हारा तो मात्र आत्मा है, उसी आत्मा को समझने का प्रयास करो। मोह को कम करो, किसी से राग मत करो द्वेष मत करो, राग करने से कर्म का बन्ध होता है। दुनियाँ में रहो लेकिन वैराग्य के साथ रहो, जगत् में रहो लेकिन जागते रहो गफलत मत होओ। तुम्हारी आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है। तुम परमात्मा बन सकते हो। परमात्मा बनने की प्रक्रिया यही है कि तुम किसी को अपना मत समझो।'पर' को छोड़ो और 'स्व” को समझो। स्व यानि आत्मा, उस आत्मा को समझकर उसके स्वरूप में आचरण करना ही आत्म कल्याण का मार्ग है। और वस्तुत: यही मनुष्य जीवन का सार है, बाकी सब बेकार है।
  14. यह संसारी प्राणी आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं से पीड़ित है। आहार से पीड़ित है यह प्राणी मैथुन (वासना) से पीड़ित है परिग्रह मूच्छा से पीड़ित है और भय से पीड़ित है यह आदमी। मानव जीवन पाया है तो इन पर विजय प्राप्त करें, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं (इच्छाओं) में सबसे प्रबल संज्ञा मैथुन (वासना) है। वासना को जीतना बहुत मुश्किल है, वासना पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है। दुनियाँ के तमाम जीव इस वासना के चक्कर में लगे हुए हैं वीर वही होता है जो वासना के काबू में नहीं होता। यह संसारी प्राणी शील (ब्रह्मचर्य) से रहित है जबकि भगवान् शील के शिखर हैं। वासना को जीतने के लिए साहस की आवश्यकता पड़ती है लेकिन श्रद्धान के बिना साहस कमजोर ही रहता है। सबसे पहले अपने में अपना विश्वास कीजिए अपना विश्वास मजबूत कीजिए, यदि आप अपना विश्वास मजबूत कर लोगे तो आपको वासना पर विजय प्राप्त करने के लिए कुछ भी कठिनाई का अहसास नहीं होगा। जीवन में शील (ब्रह्मचर्य) की बहुत महत्ता है, ब्रह्मचर्य के अभाव में साधना नहीं हो सकती, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। शील का श्रृंगार जीवन की शोभा है, शील के अभाव में जीवन का कोई मूल्य नहीं है। हम वासना में जकड़े हुए हैं वासना के चक्कर में लगे हम अपनी शक्ति की खोज नहीं कर पा रहे हैं। ब्रह्मचर्य शक्ति है जबकि वासना कमजोरी है। वासना का अर्थ ही यह है कि वेदना का प्रतिकार करना। वासना एक वेदना है, एक पीड़ा है, यह संसारी जीव उसी वासना की वेदना को सहन करने में असमर्थ रहता है इसीलिए उसके प्रतिकार के लिए लगा रहता है। वासना की उत्पत्ति क्यों होती है? वासना की जागृति इसीलिए होती है कि हम जड़ तत्व में हाईलाइट देते हैं। यदि हम अपनी आत्मा में हाईलाइट देना प्रारम्भ कर दें तो हमारा जीवन सफल हो सकता है। हम वासना को हाईलाइट देते हैं इसीलिए पीड़ित रहते हैं। हाईलाइट का अर्थ विशेष रेखांकन यानि अण्डर लाइन, अपने जीवन में अक्षर लाइन लगाओ, तुम्हारी दूसरों के अण्डर रहने की कमजोरी समाप्त हो जायेगी। अपने अन्दर चले जाओ बाहरी चमक-दमक से बचो। अपनी आत्मा को समझो आत्मा के स्वरूप को समझो और अपनी आत्मा का कल्याण करो, कल्याण करना ही सही ब्रह्मचर्य है। शील (ब्रह्मचर्य) का पालन गृहस्थों को भी करना चाहिए। गृहस्थ जीवन में श्रावक का एक ‘स्वदारसंतोष' नामक ब्रह्मचर्य व्रत होता है जिसका अर्थ होता है अपनी धर्मपत्नी में ही सन्तोष रखना और बाकी की समस्त नारी जगत् में माँ बहन और बेटी की दृष्टि रखना। यह एक पत्नीव्रत विवाहित जीवन व्यतीत करने वालों के पास होना चाहिए। ऐसी ही साधना करना चाहिए यह गृहस्थ जीवन का आदर्श है शील की रक्षा आज होना चाहिए। आज दिनों दिन शील का अभाव होता जा रहा है तो चिन्तनीय है। आज गर्भपात की हवा ने शील को तबाह कर दिया। इस गर्भपात के पाप को रोकना चाहिए, यह गर्भपात महापाप है, इससे समाज को बचाइए। अश्लील साहित्य, पिक्चर, गाने से अपने बच्चों को बचाइए, अपने बच्चों पर अच्छे संस्कार डालिए। अपने बच्चों को शीलवान बनाइए। शील के बिना विवेक भ्रष्ट हो जायेगा, नैतिकता मर जायेगी, सदाचार का लोप हो जायेगा । जब से शील का पालन समाप्त हुआ तभी से गर्भपात का पाप तेजी से फैल रहा है, इस पाप को रोकिए, गर्भपात महा हिंसा है। गर्भपात मानव जाति में कलंक है। मानव जाति पर गर्भपात के पाप का कलंक मत लगाओ। शील के संस्कार आप अपने बच्चों पर डालें ताकि आपके बच्चों पर धार्मिक संस्कार पड़े। धर्म का विकास संस्कारित जीवन में ही होता है अत: अपने बच्चों पर धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण करें। भारतीय संस्कृति के अनुसार पहले बन्धन होता है बाद में प्यार लेकिन आज तो पहले प्यार होता है बाद में बन्धन इसीलिए आज तलाक की रफ्तार तेजी से फैल रही है। 'लव मैरिज' भारतीय संस्कृति के अनुसार ठीक नहीं। भारत में माता-पिता के द्वारा ही विवाह तय किया जाता है, मातापिता की आज्ञा, आशीर्वाद के बिना विवाह सामाजिक दृष्टि से एवं नैतिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता। प्रेम विवाह सामाजिक दृष्टि से एवं नैतिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता। विवाह भी एक संस्कार है जिसको धार्मिक संस्कारों द्वारा होना चाहिए। समाज का भी कर्तव्य है कि वह अपनी समाज में एक ऐसी आचार संहिता का निर्माण करें जो युवा युवतियों में आज पाश्चात्य संस्कृति का नशा चढ़ रहा है वह रुके और वे अपनी सामाजिक एवं पारिवारिक मान मर्यादाओं में रहकर अपने जीवन का निर्माण करें। निराश्रित परिवारों के बारे में सोची। निराश्रित परिवारों को आजीविका देना धन का सही सदुपयोग है, समाज में ऐसे कितने लोग हैं जो निर्धन हैं, उनके पास आजीविका का साधन नहीं हैं वो आजीविका के अभाव में दर-दर भटकते रहते हैं और अनेकों संकट उठाते हैं। यदि हमारे पास धन है तो अवश्य हमको यह कार्य करना चाहिए कि आजीविका विहीन परिवारों को आजीविका देना चाहिए। यह भी एक धर्म है हमारे धन से यदि किसी का परिवार सुखी रहता है, उसका पालनपोषण होता है तो यह कितना अच्छा होगा। हमारा कितना पैसा यूँ ही बर्बाद हो जाता है। शादीविवाह में, आतिशबाजी में लाखों रुपये खाक हो जाते हैं मात्र आवाज के लिए जिससे कुछ भी लाभ नहीं होता, मात्र जीवों की हिंसा और पैसों की बर्बादी। अत: सम्पन्न परिवारों को चाहिए कि वे निराश्रित परिवारों को आजीविका में लगायें। धन की पूजा करने से धन का विकास नहीं होता, धन को तिलक लगाने से धन की उन्नति नहीं होती। धन का सदुपयोग ही धन का विकास है। अभयदान देना आज की पहली आवश्यकता है, जो भयभीत हैं, उनको भय से मुक्त करें, उनकी पीड़ा को दूर करें, उनकी वेदना को समझे। आप यदि एक-एक गाय भैंस आदि अनाथ, निराश्रित जानवरों को अपनी गोद लेते हैं तो भी आप बड़े सौभाग्यशाली हैं। इन जानवरों के लिए ए.सी. की कोई आवश्यकता नहीं, इनके लिए संगमरमर वाले मकानों की कोई आवश्यकता नहीं, उनको तो रूखा-सूखा घास भूसा चाहिए। वे तो बिना खप्पर वाले मकानों में भी रात काट लेते हैं। उनको विशेष व्यवस्था नहीं चाहिए। ऐसे मूक अनाथ निराश्रित जानवरों की रक्षा करना हमारा पहला कर्तव्य है। अब जीवन को ज्ञान नहीं दया चाहिए, अब दया का प्रयोग करिये, हमारे पास ज्ञान की कमी नहीं है दया की कमी है। जीवन में ज्ञान की कमी इतनी खतरनाक नहीं जितनी कि दया की कमी खतरनाक है। हमारे जीवन में दया हो हम दूसरों की पीड़ा को, वेदना को समझने का प्रयास करें। परोपकार करना जीवन का कर्तव्य बनायें और दूसरों का परोपकार करें और मनुष्य जीवन को सफल बनाएँ।
  15. आप विदेश जायें लेकिन वहाँ अपने देश की चीजें देखकर आयें, विदेश की चीजें न लायें क्योंकि भारत में किसी बात की कमी नहीं है, भारत के पास सब कुछ है। आज हम भारतीय विदेशी वस्तुओं को अपना कर अपने देश का बहुमान कम कर रहे हैं हमको अपने देश पर बहुमान होना चाहिए। लेकिन हमको तो आज विदेशी वस्तुएँ ही पसन्द आती हैं स्व-देशी नहीं। 'मेड इन इंडिया' हमको पसंद नहीं। हम तो 'मेड इन जापान' पसन्द करते हैं भले वह भारतीय चीज ही क्यों न हो लेकिन उसमें यदि लेबल जापान का लगा हो तो हम उसको पसन्द कर लेते हैं। आज हम बाहरी लेबल में अपने आपको भूल रहे हैं। भारत की प्रतिष्ठा, भारत की गरिमा को याद करो, भारत की संस्कृति बड़ी उज्ज्वल संस्कृति है। जो साहित्य आपके मन को दूषित करे, गन्दा करे, विकृत करे ऐसा प्रदूषित साहित्य यदि आपको मुफ्त में भी मिलता हो तो उसको मत लीजिए, क्योंकि साहित्य का मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, अश्लील और कामुक साहित्य से विचार गन्दे हो जाते हैं, भावनाएँ खराब हो जाती हैं और हम नैतिकता से बहुत नीचे गिर जाते हैं, अपने कर्तव्य भूल जाते हैं लज्जा और मर्यादा खो जाती है अत: हमको ऐसे अश्लील, खोटे दूषित साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए। साहित्य तो वही कहलाता है जिसके द्वारा हमारा हित होता हो, जो साहित्य हमको अहित की ओर ले जाये, कुपथ में ले जाये ऐसे असत् साहित्य से हमको बचना चाहिए और अच्छे साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। मूल्यवान किताब नहीं मूल्यवान तो समय है, यह हमारी कमजोरी है कि हम किताबों के मूल्य में ही बह जाते हैं और जिस किताब की कीमत जितनी अधिक होती है उसको हम उतनी ही अधिक मूल्यवान समझते हैं। हमने समय से अधिक किताबों को समझ रखा है। क्या कभी आपने सोचा कि समय का कोई मूल्य नहीं होता वह तो अमूल्य होता है। लेकिन हम पाँच सौ रुपये की किताब को एक वर्ष में पढ़ते हैं और एक वर्ष के लम्बे समय को पाँच सौ रुपये में ही बड़ा समझते हैं। आप किताबों को अलमारी में रखते हैं फिर आप अपने आपकी सुरक्षा नहीं कर पाते। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने समय को सुरक्षित रखें, समय की कीमत करें, समय का सदुपयोग करें, समय का आदर करें, यदि आप समय की कीमत समझ लोगे तो निश्चित ही आपका जीवन महान् बन सकता है, आदर्श बन सकता है। बस! आप अपनी आत्मा को समझते हुए अपने और पराये दोनों के कल्याण में लगें। वाणी की शुद्धि अलग है और मुँह की शुद्धि अलग है। वाणी की शुद्धि व्याकरण से होती है जबकि मुँह की शुद्धि नीम की दातौन आदि से हो जाती है जीवन में दोनों शुद्धियाँ अनिवार्य हैं, वचन शुद्धि और मुखशुद्धि। हम अपने शरीर की शुद्धि जल से कर लेते हैं लेकिन हम अपने चित्त को, मन को, पानी से साफ नहीं कर सकते। मन की शुद्धि के लिए योग की आवश्यकता है। योग के बिना हमारा चित्त शुद्ध नहीं हो सकता। आज का आदमी अपने शरीर की शुद्धि तो कर रहा है लेकिन मन की शुद्धि का काम नहीं कर रहा है। पानी की सफाई कोई सफाई नहीं है, वह तो आत्मा की सफाई नहीं है वह तो शरीर की सफाई है शरीर की सफाई आत्मा की सफाई नहीं है। आत्मा की सफाई रत्नत्रय से होती है जिसके जीवन में रत्नत्रय है उसकी आत्मा पवित्र है लेकिन जिसके पास रत्नत्रय नहीं वह पवित्र नहीं। जैन दर्शन कहता है कि 'मैं' को भूल जाओ और 'मैं' को याद भी रखो। दूसरों के सामने 'मैं' अर्थात् अहं को भूल जाओ और अपने लिए 'मैं' को याद रखो। अहं को भूलो और आत्मा को याद रखी। आज का विज्ञान पर का शोध करना सिखलाता है जबकि भेद-विज्ञान सरल ज्ञान ‘स्व' की खोज करना सिखलाता है। 'स्व' की खोज ही आत्मा की शोध है। जो व्यक्ति स्वयं मलिन है वह दुनियाँ को निर्मलता का बोध नहीं दे सकता। जिसका मन अशुद्ध है वह शांति का अनुभव नहीं कर सकता। मन को सबसे पहले शुद्ध करो, आपके वस्त्र शुद्ध हैं, आपका शरीर शुद्ध है लेकिन वस्त्रों की शुद्धि मात्र से मन की शुद्धि होने वाली नहीं है। यदि हम शान्ति को चाहते हैं तो हमको अपने मन को शुद्ध करना चाहिए। नीति का अर्थ समझो नीति का अर्थ क्या है? ‘नी' का अर्थ निश्चय और 'इति' का अर्थ विश्राम करना। अर्थात् अपनी आत्मा में विश्राम करना ही नीति का सही अर्थ है। हमने नीति की परिभाषा को क्या बना दिया है। आज हमारी नीति की परिभाषा कितनी बदनाम है, जरा सोचो इस नीति की परिभाषा को बदली। आत्मा की नीति ही सही नीति है। आज का जमाना इस नीति की परिभाषा को भूल गया है, इसीलिए तो युग भटक रहा है। आज हमको आवश्यकता इस बात की है कि हम भारतीय नीति की सात्विक परिभाषा को समझकर अपने देश को, अपने मन को शुद्ध करें। आत्म नीति ही आत्म शांति का कारण है राजनीति नहीं।
  16. जो सीधे होते हैं वे ही सीझते हैं यानि वे अपनी आत्मा का कल्याण कर लेते हैं। जो व्यक्ति सीधे नहीं है वे कभी सुलझ नहीं सकते क्योंकि उल्टा व्यक्ति अपने स्वभाव की पहिचान नहीं कर सकता। हमारे लिए टेढ़ापन खतरनाक है, टेढ़ापन तेरापन नहीं है। जो व्यक्ति साध्य को प्राप्त कर लेता है वह पूज्य बन जाता है, पूज्य बनने के लिए पूजा करवाने की आवश्यकता नहीं पूज्य बनने के लिये उद्देश्य को बनाने की आवश्यकता है। आर्जव यानि सीधापन कथन का विषय नहीं यह तो यतन यानि चारित्र अपनाने का विषय होना चाहिए जब तक हम टेढ़ापन को नहीं छोड़ते हमारे जीवन में सीधापन आ ही नहीं सकता। जीवन में जानना, मानना, अनुभूति इन तीनों में अनुभूति ही महत्वपूर्ण है। जानना शब्दों के माध्यम से होता है, मानना आस्था के माध्यम से होता है जबकि अनुभव चेतना से होता है, शब्द सो आस्था नहीं, शब्द सो अनुभव नहीं। जीवन में भावों की महत्ता होती है। भावों के बिना सब व्यर्थ है, हम यदि भावपूर्वक अपना कार्य करते हैं तो उसकी सफलता होती है। हम धर्म करें, भावपूर्वक करें, माला-जाप करें भाव पूर्वक करें, पूजा करें भावपूर्वक करें, भावपूर्वक करना ही अच्छा है। जीवन को समझो परिग्रह को समझो, परिग्रह पीड़ादायी होता है जिस प्रकार भोजन करते समय श्वांस नली में अनाज का एक दाना भी चला जाता है तो हमको ठसका लग जाता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में परिग्रह का एक कण भी क्यों न हो उसका ठसका लगता है। परिग्रह से बचो। परिग्रह के कारण हम अपनी साधना को भूल जाते हैं परिग्रह हमारे लिए अभिशाप है। परिग्रह ही वस्तुत: सही शनिश्चर है। इस परिग्रह रूपी शनिश्चर से बचो। सीधापन को पाने के लिए भूत और भविष्य को भूलना पड़ता है। हम भविष्य में जीते हैं, अतीत में जीते हैं। वर्तमान को भूले रहते हैं। सबको भूलो, वर्तमान ही याद रखो, वर्तमान ही वर्द्धमान होता है। वर्तमान को सीधा रखो, भविष्य अपने आप उज्ज्वल बन जायेगा। हमारा जीवन आस्था, जिज्ञासा और भरोसा में ही गुजरता रहता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि आशा हमको निराशा ही देती है फिर भी हम आशा को पहिचान नहीं पाते। वस्तु को कालों में मत बांटिए क्योंकि वस्तु का परिणमन कालातीत होता है। हमको काल की ओर दृष्टि न डालकर वस्तु की ओर दृष्टिपात करना चाहिए अन्यथा हम आत्मा को नहीं समझ सकते। सीधेपन में ही आनन्द है। टेढ़ेपन में तो मात्र दुख और तकलीफ है। भगवान् और आप में इतना ही अन्तर है कि भगवान् नाशा पर दृष्टि रखते हैं और आप आशा पर। आप आशा करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं, लगता तो ऐसा है कि हम वर्तमान में बैठे हैं लेकिन हम आशा और प्रतीक्षा के कारण अतीत और भविष्य में जीते रहते हैं। बाण की गति यदि टेढ़ी हो तो वह बाण अपने निशाने तक पहुँच नहीं सकता इसी प्रकार जब तक हमारी दृष्टि टेढ़ी रहेगी हम अपने लक्ष्य के निशाने तक पहुँच नहीं सकते। यदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचना है तो हमको सबसे पहले दृष्टि की वक्रता को छोड़ना होगा। अपने स्वभाव को जानी। गाय भले काली हो लेकिन उसका दूध काला नहीं होता। उसी प्रकार यह आत्मा विभाव भावों के कारण टेढ़ी हो रही है लेकिन उसका स्वभाव तो टेढ़ा नहीं है। हाथ टेढ़ा हो, पैर टेढ़ा हो लेकिन आत्मा तो टेढ़ी नहीं होती, उसका स्वभाव तो सीधा है, हमारे विचारों के कारण ही यह आत्मा टेढ़ी हो रही है। लोहे की रॉड को सीधा करने के लिए गरम करना पड़ता है यानि उसको मुलायम करना पड़ता है, लोहे को मुलायम बनाने के लिए उसको अग्नि में तपाना पड़ता है बिना तपे लोहा मुलायम नहीं बनता इसी प्रकार जीवन को मुलायम बनाने के लिए बहुत तपस्या करना पड़ेगी। साधना अपनाये बिना जीवन का विकास सम्भव नहीं है, जीवन का विकास आत्म साधना के माध्यम से ही हो सकता है और वह साधना क्या है? सीधापन ही जीवन की साधना है, हमारे पास जो वक्रता है, टेढ़ापन है उसका विमोचन ही जीवन की साधना है। तुम भी इस सीधेपन की साधना करो। छल-कपट मत करो, छल-कपट करना आत्मा का स्वभाव नहीं है अपितु छल कपट को भूल जाना ही आत्मा का स्वभाव है। छल-कपट से बचना बहुत बड़ा पुरुषार्थ है, बहुत बड़ी साधना है। हमारा जीवन नीचे गिर जाता है क्योंकि हमारी दृष्टि नीचे गिर जाती है। पहले हमारी दृष्टि गिरती है फिर बाद में हम गिरते है। कदमों का गिरना कोई गिरना नहीं है जो अपने चरित्र से गिर गया वस्तुत: वह पतित हो गया इसलिए अपने चारित्र की उज्ज्वलता के लिए अपनी दृष्टि को सीधा रखें यानि पवित्र रखें दृष्टि की पवित्रता ही जीवन की पवित्रता का मार्ग है और यही महानता का मार्ग है।
  17. दु:खियों को देखकर कभी भी किसी को अभिमान नहीं होता। अभिमान वहाँ होता है जहाँ हम अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं। जहाँ जितना परिचय होगा वहाँ उतना ही अधिक संघर्ष होता रहा है। भगवान् को देखकर कभी किसी को अभिमान नहीं होता, अपितु अहंकार चला जाता है, और वस्तुत: अहंकार को चकनाचूर करना ही भगवान् की सही उपासना करना है। अहंकार मत करो चाहे महल हो या झोपड़ी किसी का अभिमान मत करो क्योंकि ये दोनों छूटने वाले हैं फिर अभिमान किसका करना यह आदमी अपनी मान प्रतिष्ठा के लिये अपना और दूसरों का शिकार करता है यानि अहंकारी अपना और पराये का विनाश करता है अहंकार मत करो यह प्रतिष्ठा किसके लिए, कल मर जाओगे कुछ भी साथ नहीं जायेगा ये झूठे अहंकार के लिये क्यों अपना माथा काट रहे हो। दरिद्रता में कभी अहंकार नहीं होता, अहंकार वहाँ ही जन्म लेता है जहाँ धन-दौलत की धनाड्यता होती है। दुनियाँ में सबसे अधिक अनर्थ, पाप अहंकार के कारण ही होता है। आज दुनियाँ में जो संघर्ष छिड़ा है वह अहंकार का तमाशा ही है और कुछ नहीं आज जितना धन सौरमण्डल की खोजों में खर्च किया जा रहा है उससे विश्व की तीन वर्ष तक की खुराक की पूर्ति की जा सकती है। अहंकार झूठा है, यदि हम दीन-दुखियों के बारे में सोचना प्रारंभ कर दें तो हमको अहंकार नहीं हो सकता हम अपने समान वालों के बारे में सोचते हैं। एक धनी, धनी के बारे में सोचेगा तो निश्चित ही वहाँ अहंकार का ही कार्य होगा, दुखियों के बारे में सोची, गरीबों के बारे में सोची, दरिद्रों के बारे में सोची, तुम्हारा अहंकार मर जायेगा, अहंकार को जीतना ही मनुष्य जीवन की सफलता है। अपने अहंकार, मान, प्रतिष्ठा के कारण हमने बहुत सारे गुणों का अनादर किया। अहंकारी व्यक्ति गुणों का सम्मान नहीं कर सकता, अहंकारी अपने जीवन को छोड़ देता है लेकिन अहंकार नहीं छोड़ता। रावण अहंकार के कारण ही नरक गया। याद रखो, यदि हम अहंकार करते हैं तो हम भी रावण से कम नहीं और हमारी गति भी नरक गति हो सकती है। अहंकार करना छोड़ दो अनर्थ अपने आप छूट जायेगा। तत्वज्ञान का सम्मान करो, ज्ञानी का सम्मान करो, अज्ञानी का सम्मान मत करो क्योंकि ज्ञानी का सम्मान करने से बहुत से अज्ञानी ज्ञानी बन जाते हैं जबकि अज्ञानी का सम्मान करने से उस अज्ञानी का अहंकार उसके लिए पतन का कारण बन जाता है इसीलिए तो अपने धन का घमण्ड मत करो अपनी जाति का घमण्ड मत करो। जिसका तुम घमण्ड कर रहे हो यह मद का विलोम ही दम होता है याद रखो मद के कारण ही दम घुटता है तुम्हारा दम घुट रहा है क्योंकि तुम मद कर रहे हो, मद करना छोड़ दो दम घुटना बंद हो जायेगा।घमण्ड करने वाले अन्धे होते हैं तुम्हारे पास ज्ञान की आँखें है उस ज्ञान की आँखों से देखो अहं धन, दौलत, रूप, बल, जाति, वंश किसी का भी अहंकार मत करो अहंकार से जीवन का पतन होता है यदि तुम अपना उत्थान चाहते हो तो दूसरों का सम्मान करना प्रारंभ कर दो। जीवन में दूरदृष्टि की आवश्यकता है दूरदर्शन की नहीं। दूरदर्शन से आँखें खराब होती हैं जबकि दूरदृष्टि से मानसिकता का विकास होता है आज हम दूरदर्शन के आदी होते जा रहे हैं जबकि हमको दूरदृष्टि को मजबूत करना है। जिसके पास दूरदृष्टि है वही आत्मा को समझ सकता है दूरदर्शन में तो दुनियाँ की खबरें है आत्मा की नहीं। आज हमको इस बात की आवश्यकता है कि हम अपनी दृष्टि को उन्नत दृष्टि बनायें यानि हम अन्तर्मुखी बनें। मनुष्य को तो दूरदृष्टि वाला होना ही चाहिए क्योंकि मनुष्य मनु की सन्तान है मनुष्य को मनु के अनुसार चलना चाहिए। मनु मान नहीं करते वह तो मान सम्मान सिखलाने वाले होते हैं हम मनु को भूल गये हैं इसीलिये मान करने लगे अत: हमको किसी भी कीमत पर मान (घमण्ड) नहीं करना चाहिए। आप अपनी पेटी नहीं पेट भरो। पेट तो आधे घण्टे में भी भर सकता है जबकि पेटी जीवनभर में भी नहीं भर सकती आज हम अपनी पेटी के चक्कर में लगे हैं इसलिए हम अपना पेट नहीं भर पा रहे हैं। पेट पापी नहीं है, पेटी पापी है क्योंकि आदमी पेट के लिये कम पेटी के लिये अधिक पाप करता है। आज की दुनियाँ में पेटी भरने के लिये ही लोग पाप कर रहे हैं। यह कौन सा जमाना है कि लोगों की पेटियाँ लबालब भरी हैं लेकिन पेट खाली है। पेट भरने वालों ने लोगों का पेट खाली किया है। अपना पेट भरो पेटी नहीं। भारत की संस्कृति अहिंसा है और उस संस्कृति की रक्षा अहिंसा से होगी साहित्य से नहीं। आज साहित्य का प्रकाशन एवं संरक्षण तो कर रहे हैं लेकिन जिससे हमारी संस्कृति जिन्दा रहने वाली है उसको हम भूलते जा रहे हैं। अहिंसा को भूलकर अकेला साहित्य क्या करेगा। आखिर हमारा साहित्य भी तो इसीलिए है कि हम हिंसा को छोड़कर अहिंसक बनें, साहित्य अहिंसा ही तो सिखलाता है। भारतीय साहित्य यह कभी नहीं कहता कि तुम हिंसा करो, वह तो अहिंसावादी है। क्योंकि उसका सृजन अहिंसकों के द्वारा हुआ है हिंसकों के द्वारा नहीं। जब हमारा साहित्य अहिंसावादी है, हमारी संस्कृति अहिंसावादी है तो फिर हमारी सरकार अहिंसावादी क्यों नहीं बन रही है? कत्लखाने खोलना, मांस निर्यात करना, यह कहाँ तक उचित है अहिंसक भारत के लिए? भारत की शान मांस निर्यात करने में नहीं है, भारत का गौरव, भारत की प्रतिष्ठा, भारत की विजय मांस निर्यात करने में नहीं है, कत्लखाने खोलकर खून, मांस बेचकर क्या हम विश्वशांति ला सकते हैं? हमें विश्व शान्ति की आवश्यकता है कत्लखानों की नहीं।
  18. मानव जीवन में ड्यूटी की आवश्यकता है ब्यूटी की नहीं, जीवन को कर्तव्य चाहिए सुन्दरता नहीं क्योंकि समीचीन ज्ञान की शोभा कर्तव्य है, सुन्दरता नहीं। सुन्दरता तो बाहरी होती है, शरीर की होती है लेकिन कर्तव्य आत्मा का होता है, भीतर का होता है। हमारे जीवन में आज ब्यूटी (सुन्दरता) की कमी नहीं है। हमारे घरों में सैकड़ों सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री रखी है, सुन्दरता की सामग्री बाजारों में मिल रही है लेकिन कर्तव्य की वस्तु बाजारों में नहीं मिलती। जीवन में लाइट जलाने की आवश्यकता नहीं अपितु जीवन को लाइट में लाने की आवश्यकता है। जीवन को लाइटिड ( प्रकाशित) करिए लेकिन लाइट से नहीं कर्तव्य से। जब आपका जीवन कर्तव्य से लाइटिड हो जायेगा, तो यह सारी दुनियाँ के लोगों की भलाई का साधन बन जायेगा। वस्तुत: जो व्यक्ति कर्तव्यों का पालन कर रहा है वह प्रतिदिन पर्व मना रहा है, कर्तव्य का पालन ही तो सबसे बड़ा पर्व है। आप अपने कर्तव्यों की ओर देखिए, अपने जीवन का एक निश्चित लक्ष्य अपनाइए। और अपने मानव जीवन को सफल बनाइए। मानव जीवन को कर्तव्य की ओर लगाना ही इसकी सफलता है। हिंसा को रोकने के लिये क्रोध करना भी क्षमा है। यानि कोई निरपराध प्राणियों को सताता है और यदि आप उन प्राणियों की रक्षा के लिए क्रोध भी करते हैं तो आपका वह क्रोध भी उत्तम क्षमा है। क्रोध और क्षमा ये दोनों बाहरी चीजें नहीं यह तो विचारों के ऊपर डिपेण्ड है। यदि आपका उद्देश्य ठीक है, विचारों में अहिंसा है, भावनाओं में करुणा है, हृदय में विशालता है तो आपका क्रोध करना भी उत्तम क्षमा है। क्योंकि आप जो क्रोध कर रहे हैं वह किसी को धमकाने, डराने के लिए नहीं कर रहे हैं, अपितु जो भयभीत है, डरा हुआ है, घबड़ा रहा है, उसका जीवन खतरे में है और यदि आप उसकी जान बचा लेते हैं, उसको जीवन दान देते हैं तो आपका यह सारा प्रयास महान् अहिंसा की कोटि में आता है, क्षमा की कोटि में आता है। जीवों की रक्षा करना ही पर्व है, किसी जीव को मत सताओ, जो जीवों की रक्षा कर रहा है वह प्रतिदिन पर्व मना रहा है। पशुओं से प्रेम करना भी पर्व है, पशुओं की रक्षा करना, पशुओं का संरक्षण करना, उनका पालन पोषण करना महान् पर्व है। पर्व क्या चीज है? हमारे द्वारा जो कर्तव्यनिष्ठा के साथ सद्वयवहार किया जाता है वही तो पर्व है। आज पशुओं पर बहुत जुल्म हो रहे हैं, पशुओं का कत्ल हो रहा है, पशुओं का मांस निर्यात हो रहा है, जो व्यक्ति इतनी बड़ी हिंसा को रोकने की आवाज लगा रहा है, पशु हिंसा का विरोध कर रहा है, वह व्यक्ति बहुत बड़ा पर्व मना रहा है, वह तो संसार की बहुत बड़ी भलाई कर रहा है। आज आवश्यकता इसी बात की है कि हम मानवता को जिन्दा रखें। जीवों की रक्षा मानवता की पहिचान है। मानवता ही तो धर्म है, मानव की कीमत नहीं होती कीमत तो मानवता की होती है, हमारे अन्दर मानवता लगे, पशुता का अभाव हो। हिंसा पशुता की पहचान है जबकि अहिंसा मानवता का चिह्न है, पशुओं को सताना हिंसा है जबकि उनकी जान बचाना महान् अहिंसा है। तन कमजोर है रहने दो लेकिन मन को कमजोर मत करो यदि तुम्हारा मन कमजोर हो गया तो तुम कुछ भी नहीं कर सकोगे। मन की ताकत अपूर्व है धन की शक्ति, वचन की शक्ति और शरीर की शाक्त से कई गुना अधिक है मन की शक्ति। इसी लिये तो मन को कमजोर मत होने दो तुम अपना मन बलवान करो तुम्हारी जीत होगी, अपनी भावना को कमजोर मत होने दो तुम अपना मन बलवान करो तुम्हारी जीत होगी, अपनी भावना को सात्विक बनाओ। हृदय की हाईट बढ़ाना हृदय की विशालता नहीं है वह तो खतरे की निशानी है अपने अभिप्रायों, विचारों, उद्देश्यों, भावनाओं को बड़ा, तभी आप विशाल हृदय कहला सकते हैं। जिसकी भावनाएँ बड़ी हैं वही बड़ा व्यक्ति है, जिसके विचार बड़े हैं वही बड़ा व्यक्ति है जिसका उद्देश्य महान् है वही बड़ा व्यक्ति है। खर्च कम और आमदनी ज्यादा यह हमारी आर्थिक उन्नति का लक्षण है। हम अपनी उन्नति करना चाहते हैं, अपना विकास चाहते हैं लेकिन खर्च अधिक करते हैं, जबकि हमारी आमदनी बहुत कम है। हमारी खर्चीली आदतें, विलासितापूर्ण जीवन ही हमारे लिए गरीबी का कारण सिद्ध हो रहा है। हमको अपनी प्राचीन प्रणाली को लागू करना होगा जो हमारे पूर्वजों के पास थी, उनका जीवन सादगीपूर्ण था हमारा आडम्बरपूर्ण है। हम प्रदर्शन में जी रहे हैं जबकि हमारे पूर्वज दर्शन में जीते थे। हमको आडंबरों को छोड़कर, सन्तोष और सरलता की जिंदगी अपनाना होगी तभी हमारा विकास हो सकता है अन्यथा कुछ नहीं। दुकान तो नौकरों के द्वारा भी चल सकती है लेकिन धर्म का पालन नौकरों के हाथ नहीं हो सकता, धर्म दूसरों की चीज नहीं धर्म के लिए हमको अपनी कमर ही कसना होगी। क्योंकि धर्म आत्मा की वस्तु है। धर्म भावों पर जीता है, भावों पर चलता है। हमारे भाव हमारे लिए हैं दूसरों के भाव हमारे लिए नहीं हो सकते। अपने पास संतोष होगा उससे शांति हमको मिलेगी, हमारे पास लोभ होगा हमारे पास अशान्ति होगी। आत्म शांति की अनुभूति दूसरों के द्वारा हमको नहीं हो सकती। मानव जीवन मिला है, जीवन को समझो अपने मन को बलवान बनाओ आगे की ओर चलो जीना चाहते हैं तो जीवन को 'जीना' पर अर्थात् सीढ़ी पर अग्रसर करो जीवन का विकास 'जीना' पर चढ़े बिना नहीं हो सकता। जीवन विकास की सीढ़ियाँ करुणा और अहिंसा हैं, हिंसा को रोकने का काम करो, देश में, परिवार में, घर में शांति की स्थापना करो। और अपने देश और समाज की सेवा करो, जिससे अपना और दूसरों का भला हो।
  19. यह आदमी जहाँ रोना चाहिए था वहाँ रोता नहीं जहाँ बोलना चाहिए वहाँ बोलता नहीं। हमको भगवान् के सामने जाकर रोना चाहिए अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहिए लेकिन हम भगवान् के पास रोते नहीं हम तो अपने घर में रोते हैं। यदि हम अपने पापों के पश्चाताप में रोने लगें तो हमारे सारे पाप धुल जायें। हम अपने पापों को धोना कहाँ चाहते हैं। भगवान् के पास जाकर रोना प्रारंभ कर दो तो तुम्हारे सारे पाप धुल जायेंगे। इसी प्रकार हमको जहाँ बोलना चाहिए वहाँ हम मौन रहते हैं। घरों में दुनियाँ की बातें करते हो, यहाँ वहाँ की बातें करते हो, बेअर्थ और बेकार की बातें करते हो, अपने मतलब की बातें करते हो लेकिन भगवान् के सामने जाकर अपने पापों की बातें क्यों नहीं करते? अपने पापों की बात करो। अपने पापों की निन्दा करो, अपने पापों की आलोचना करो यदि तुम अपने पापों की आलोचना करना प्रारंभ कर दोगे तो तुम्हारा बोलना सार्थक हो जावेगा। आवेग नहीं वेग बढ़ाओ और वह वेग-निर्वेग बढ़ाओ संवेग को बढ़ाओ यदि संवेग व निर्वेग का विकास हो जायेगा तो तुम अपनी आत्मा में लीन हो जाओगे लेकिन किसी भी हालत में आवेग मत बढ़ाओ। यह आवेग, उद्वेग हमको आकुल व्याकुल करते हैं। इनसे हम परेशान होते हैं यह आवेग हमारे मन को विचलित करते हैं, चंचल करते हैं इन आवेगों से हमारा मन कमजोर हो जाता है अपने स्वभाव से च्युत हो जाता है। अत: उन आवेगों को सबसे पहले छोड़ दो और आवेगों को छोड़ने का सरल तरीका यही है कि हम उपेक्षा वृत्ति को अपना लें। उपेक्षा का अर्थ द्वेष नहीं है उपेक्षा तो ज्ञान का फल है अत: इस उपेक्षा वृत्ति को अपने जीवन में स्थान दो। उपेक्षा का अर्थ तिरस्कार नहीं है अपितु समदृष्टि, समता, समभाव है। आप अपने अंदर जाना सीखी। आपके भीतर सुख का खजाना है लेकिन आप उस सुख को भूलकर बाहर भटक रहे हो। जो अपने अन्दर रहते हैं वे मुनि महाराज कभी बाहर आना नहीं चाहते। जिस प्रकार आप एअर कण्डीशन (ए.सी.) से बाहर निकलना नहीं चाहते जिसके अन्दर अध्यात्म की ए.सी. लगी है वह उसको कभी छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि वह उसकी ए.सी. कभी समाप्त नहीं होगी। जबकि आपकी ए.सी. कभी भी बिगड़ सकती है। अपने अन्दर पहुँच जाओ बस। तुमको सब कुछ मिल जायेगा। तुम्हारे अन्दर वह सत्य छुपा है, वह धर्म छुपा है, वह अध्यात्म छुपा है यदि तुम एक बार भी अपने अन्दर झांक लोगे तो तुम्हारी अनन्तकालीन प्यास एक क्षण में तृप्त हो जायेगी। सत्य की पहिचान, सत्य की परिभाषा बहुत गहराई में छुपी है, सत्य का निर्णय कठिन है जल्दबाजी करने से सत्य भी असत्य सा प्रतीत होने लगता है। असत्य से विरक्ति ही सत्य है। सत्य बोलने का नाम सत्य नहीं, अपितु झूठ नहीं बोलना सत्य कहलाता है। सत्य को प्राप्त करने के लिए क्रोध, मान, माया, एवं लोभ इन चारों पर नियंत्रण करना बहुत जरूरी है क्योंकि हम क्रोध की वजह से झूठ बोलते हैं अहंकार की वजह से झूठ बोलते हैं, छल की वजह से झूठ बोलते हैं, लोभ की वजह से झूठ बोलते हैं। हम इन चारों को जीतें तब ही सत्य का पालन कर सकते हैं। सत्य का आचरण किया जा सकता है लेकिन उसका प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। सत्य दर्शन का विषय है प्रदर्शन का नहीं। जो व्यक्ति सत्य का प्रदर्शन करता है वह अभी सत्य से परिचित ही नहीं है। अत: सत्य का आचरण करो। सत्य ही जीवन का सार है। हम ऐसा सत्य बोलें जिससे हमारा और दूसरों दोनों का कल्याण हो। लेकिन ऐसा सत्य भी नहीं बोलें जिससे दूसरों पर संकट खड़ा हो जाये। सत्य स्व और पर दोनों के लिये कल्याणकारी होना चाहिए। 'व्रत' और 'सत्य' में क्या अन्तर है? व्रत अपने लिये होता है और सत्य दूसरों के लिये होता है। सत्य के माध्यम से हम दूसरों का भला करें। व्रत के माध्यम से हम अपना कल्याण करते हैं। सत्य से कभी अकल्याण नहीं हो सकता। असत्य से बचने के लिये हमें प्रमाद से बचना चाहिए क्योंकि हम प्रमाद से ही असत्य का काम करते हैं। कषायों से बचना बहुत कठिन है और उनको जानना और भी कठिन है हमको इन कषायों की जानकारी करना चाहिए ताकि हम अकल्याण से बच सकें। सत्य का पालन बाहरी दुनियाँ को देखने से नहीं हो सकता। सत्य के लिये अपने अन्दर देखना पड़ेगा। सत्य की रक्षा, सत्य का संरक्षण अपने भीतरी भावों को देखे बिना नहीं हो सकता। मौन का पालन करो। लेकिन विदाऊट इंडिकेशन यानी बिना संकेत दिये मौन का पालन करना चाहिए। मौन का पालन वही व्यक्ति कर सकता है जो अपनी भीतरी आकुलता को सहन करने वाला हो क्योंकि हम आकुलता के कारण ही बोलते हैं। हम बोलना क्यों चाहते हैं क्योंकि हम आकुल हैं। यदि हम अपनी भीतरी आकुलता को जीत लें तो हम आज भी मौन हो सकते हैं सत्य बोलने मात्र से सत्य का पालन नहीं हो सकता है अपितु सत्य को जीवन में उतारना है। जो व्यक्ति अपने जीवन में सत्य का पालन नहीं करता उसका सत्य बोलना कोई मायने नहीं रखता। जीवन में सत्य का पालन करो। सत्य का पालन करने का अर्थ ही अपने अस्तित्व की पहचान है।
  20. धर्म के अभाव में भारत को भारत नहीं कहा जा सकता, भारत बिलिंडगों, भवनों का राष्ट्र नहीं, भारत मशीनों का राष्ट्र नहीं, भारत बाँधों का राष्ट्र नहीं, भारत धर्म का राष्ट्र है। क्या मशीनों का नाम राष्ट्र है ? क्या बिलिंडगों का नाम राष्ट्र है? क्या बाँधों का नाम राष्ट्र है? यदि सात्विक जीवन जीने वालों का अभाव हो जायेगा तो राष्ट्र का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा क्योंकि सात्विकता के अभाव में राष्ट्रीयता कैसे जिन्दा रह सकती है और जब राष्ट्रीयता का ही अभाव हो जायेगा तब क्या ये मशीन, ये भवन, ये बाँध राष्ट्र को सुरक्षित रख सकते हैं? नहीं। हमें भवनों की नहीं सात्विकता की सुरक्षा करना है और वह सात्विकता मशीनों से सुरक्षित नहीं रह सकती, उस सात्विकता को सुरक्षित रखने के लिए अहिंसा चाहिए, संवेदना, सहानुभूति, विवेक चाहिए, करुणा चाहिए तभी राष्ट्र उन्नत हो सकता है। अत: आज हमको सात्विकता की आवश्यकता है भवनों और मशीनों की नहीं। हमारे पास मशीन तो बहुत हैं बिलिंडग भी बहुत हैं लेकिन सात्विकता की कमी है संवेदना की कमी है, अहिंसा की कमी है। जीवन में प्रण महत्वपूर्ण है प्राण नहीं क्योंकि प्राण तो बार-बार मिल जाते है लेकिन प्रण बार-बार नहीं मिलता। प्रण के लिए आस्था और विश्वास चाहिए लेकिन प्राणों के लिए इनकी आवश्यकता नहीं। प्राण तो सबके पास होते हैं लेकिन प्रण सबके पास नहीं होता अत: जीवन में प्राण को नहीं, प्रण को महत्व दो, प्रण की रक्षा करो, प्रण की रक्षा ही प्राणों की सुरक्षा है क्योंकि जिसका प्रण सुरक्षित है उसके प्राण कभी खतरे में नहीं पड़ सकते और वस्तुत: प्राणों को कोई खतरा नहीं। जो व्यक्ति अपने प्रण को आस्था और विश्वास के साथ पालता है उसका जीवन ही सही मायने में सही जीवन है। हमारे पास प्राण हैं लेकिन प्रण नहीं है हमको आज यह प्रण लेना है कि हमारे देश में हिंसा रुके, हिंसा को रोकने का प्रण लीजिए, यदि हिंसा रुक जायेगी तो आपके प्राण सार्थक हो जायेंगे और जो भी जीव हैं उनके प्राण भी बच जायेंगे। जीवों के प्राणों को बचाने का संकल्प लीजिए जीवों की रक्षा करने का प्रण लीजिए, सभी जीव सुखी रहें, इस प्रकार का प्रण लीजिए। भारतीय इतिहास और दण्ड संहिता कहती है, हिंसा को रोकने के लिए दण्डित करना चाहिए, हिंसक को समाप्त करने के लिए नहीं। दण्ड देना बुरा नहीं लेकिन क्रूरता के साथ दण्ड नहीं देना चाहिए, क्योंकि यदि अपराधी को क्रूरता के साथ दण्ड देंगे तो वह शायद कभी सुधरे परन्तु उसको विवेक के साथ दण्डित किया जाये तो सुधर भी सकता है, अहिंसक भी बन सकता है, और जीव रक्षा का प्रण भी ले सकता है। दण्ड का विधान ही इसलिए किया गया है कि व्यक्ति उद्धृण्डता न करे उद्धृण्डता के लिए दण्ड अनिवार्य है ताकि उद्ण्डता रुक सके। हिंसा सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, क्रूरता के साथ धन अर्जन करना सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, जीवों को सताना, मारना सबसे बड़ी उद्ण्डता है।इस उद्धृण्डता को रोकना अनिवार्य है। भारत में यह आज बहुत हो रही है, दुधारू जानवरों को मार करके उनका मांस बेचना कितनी क्रूरता के साथ धन कमाने का साधन है। भारत को इस क्रूर वृत्ति का त्याग करना चाहिए क्रूरता से राष्ट्र का भला नहीं, भारत को मांस निर्यात बंद करना चाहिए और दूध का निर्यात करना चाहिए, खून मांस का नहीं। आचार्य श्री ने एक मांसाहारी जानवर की अहिंसा और संकल्प की निष्ठा का उदाहरण देते हुए कहा कि एक मांसाहारी सियार ने किसी साधु से रात्रि में पानी नहीं पीने का संकल्प ले लिया, एक दिन जब वह प्यासा जल की तलाश करते-करते एक बावड़ी कुआं के पास पहुँचा और जब वह पानी पीने नीचे उतरा तो नीचे अंधेरा होने की वजह से उसने समझा कि अभी रात्रि है लेकिन जब वह कुंआ के बाहर आता तो दिन था नीचे आता तो अंधकार, ऐसा कई बार किया और इसी दौरान उस जानवर के प्राण निकल जाते हैं। क्या समझे आप इस कहानी से? एक जंगल का मांसाहारी जानवर भी अपने प्रण के लिए प्राणों की परवाह किये बिना मर जाता है लेकिन उसने अपने प्रण को नहीं तोड़ा एक मांसाहारी जानवर ने भी रात्रि में पानी का त्याग कर दिया। आप क्या समझते हो इन जानवरों को? इन जानवरों के पास भी धैर्य होता है, इसके पास भी अहसास होता है लेकिन हम तो जानवरों को जान वाले समझते ही नहीं। यह मनुष्य है जो अपने को ही सब कुछ समझता है पर दूसरों को बेजान समझता, उनसे दुव्र्यवहार करता है। इन छोटे-छोटे पशु पक्षियों में भी प्राण हैं उसके पास भी ज्ञान है सोचने विचारने की शक्ति है। वे भी धर्म को समझ जाते हैं और अपने जीवन की उन्नति कर लेते हैं। हमारा इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करना परम कर्तव्य है, ये जानवर प्रकृति के संतुलन हैं। यह धरती की हरियाली जानवरों की किस्मत से है मनुष्य की किस्मत से नहीं। यदि ये जानवर समाप्त हो जायेंगे तो धरती की हरियाली भी समाप्त हो जायेगी और हरियाली के अभाव में यह मनुष्य जाति भी जिंदा नहीं रह सकती, अत: जानवरों की रक्षा करना ही हरियाली को जिन्दा रखना है। मनुष्य ने आज जानवरों पर बहुत जुल्म करना प्रारंभ कर दिया। लगता है आज मनुष्यता मर चुकी है, पशुओं में भी इतनी क्रूरता नहीं जितनी आज मनुष्य में दिखाई दे रही है। प्राणी संरक्षण आज बहुत कठिन हो गया है जो मनुष्य का पहला कर्तव्य था। अहिंसा की उपासना कोई तिलक लगाने वाला कर रहा है यह कोई नियम नहीं है क्योंकि अहिंसा का कोई तिलक नहीं होगा। अहिंसा आत्मा की वृत्ति है और वह आत्मा पशुओं के पास भी होती है संसार में ऐसा कोई जीव नहीं जिसके पास आत्मा न हो आत्मा के बिना जीव ही नहीं हो सकता। यह आत्मा सबके पास है आपके पास भी है लेकिन आपके पास अहिंसा नहीं, अहिंसा के अभाव में आपकी आत्मा हिंसक हो गई है क्रूर हो गई है, आप अपनी आत्मा में अहिंसा की प्रतिष्ठा करें। जीवन को अहिंसक बनायें इसी में जीवन की सार्थकता है। अहिंसा को न भूलें धर्म को न भूलें लेकिन यह भी याद रखें कि मंदिर जाकर घंटी बजाना ही धर्म नहीं है। धर्म तो करुणा/दया का नाम है। जो ट्रकों में भरकर जानवर कत्लखाने जा रहे हैं इन जानवरों की रक्षा करो इनकी जान बचाओ यही सही धर्म है।
  21. ओवर कॉन्फीडेन्स मात्र, मनुष्य में ही पाया जाता है, जानवरों में नहीं। जीवन के लिए कॉन्फीडेन्स चाहिए ओवर कॉन्फीडेन्स नहीं। पाप करने में मनुष्य जितना आगे बढ़ जाता है उतना जानवर नहीं। सबसे अधिक क्रोध करने में, सबसे अधिक अहंकार करने में, सबसे छल कपट करने में और सबसे अधिक लालच करने में मात्र मनुष्य ही आगे रहता है जानवर नहीं। मनुष्य क्या-क्या नहीं करता सभी कुछ तो करता है, इस मनुष्य ने सबको सुखा दिया और स्वयं ताजा रहना चाहता है, वह मनुष्य है जो हरी को समाप्त करके हरियाली की चाह करता है, स्वयं टमाटर की तरह लाल रहना चाहता है और दूसरों को काला करने की सोचता है। यह मनुष्य ही अतिक्रमण करता है प्रतिक्रमण करता है। यह अनुसंधान तो करता है अतिसंधान भी करता है इस प्रकार यह मनुष्य इस सृष्टि में नाश और विनाश के काम करता है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को अतीत के समस्त पापों का प्रायश्चित कर लेना चाहिए और अपनी आत्मा को पापों से दूर कर लेना चाहिए, और हमेशा पाप से घृणा करना चाहिए पापी से नहीं। स्टेण्डर्ड से पहले अन्डर स्टेण्डिंग (समझदारी) होना चाहिए। आज स्टेण्डर्ड के नाम पर मनुष्य बहुत कुछ करता जा रहा है लेकिन उसके पास जो स्टेण्डर्ड है उसकी अपनी कोई अंडर स्टेण्डिंग नहीं है। स्टेण्डर्ड का अर्थ तो आदर्श होता है हमारे जीवन में आस्था, विवेक और कर्तव्य का स्टेण्डर्ड होना चाहिए और वह आस्था अन्धी न हो अपितु विवेक के साथ हो और वह विवेक, कर्तव्य के साथ हो। यदि हमारे जीवन में आस्था, विवेक और कर्तव्य तीनों का एक साथ गठबन्धन हो जाये तो हमारा जीवन महक उठे, सुगन्धित हो जाये। जीवन महान् बन सकता है हम दूसरों के लिए आदर्श बन सकते हैं, उदाहरण बन सकते हैं, शर्त है कि हम अपनी आत्म प्रशंसा न करें। आत्म प्रशंसा हमको अपने कर्तव्यों से चलित करती है, विमुख करती है, आत्म प्रशंसा हमको कमजोर करती है और अहंकार को पुष्ट करती है। अत: हम अपनी आत्म प्रशंसा कभी न करें क्योंकि जो प्रशंसनीय होता है उसकी प्रशंसा स्वयं होती है करने की आवश्यकता नहीं। जीवन को उन्नत बनाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम अपने द्वारा किये गये अतीत के अनर्थ की ओर देखें और उनका संशोधन करें उनका परिमार्जन करें और आगामी काल में उन अनर्थ को नहीं करने का संकल्प करें, इस शरीर को अहिंसा के लिए काम में लायें और मन को भविष्य के उज्ज्वल के लिए लगायें, दूसरों की अच्छाई करने में अपनी बुद्धि लगायें और कर्तव्य की ओर आगे बढ़ें तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता है अन्यथा नहीं। अनर्थ वही करता है जो परमार्थ को भूल जाता है जो परमार्थ को याद रखता है वह व्यक्ति अनर्थ नहीं कर सकता, अपने स्वभाव को याद रखना ही परमार्थ को नहीं भूलना है क्योंकि स्वभाव ही तो परमार्थ है, अपनी आत्मा का ख्याल ही तो सही परमार्थ है, अनर्थ से बचना ही तो परमार्थ है, पापों को तोड़ना ही तो परमार्थ है, और अहिंसा ही सही परमार्थ है। हम अहिंसा को जीवन में उतारें तभी सही मायने में हमारा जीवन उन्नत हो सकता है अन्यथा अवनति ही होगी। आचार्य श्री जी ने अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी की राष्ट्रीयता के बारे में बताया कि आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज कहा करते थे कि- "यह मेरा तन भी वतन की सम्पदा है, यह शरीर भी राष्ट्रीय संपत्ति है इसका दुरुपयोग मत करो" इससे बड़ी राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र भक्ति और राष्ट्रीयता की मिसाल और क्या हो सकती है। यह राष्ट्रीयता का जीवन आदर्श है। आज हम अपने राष्ट्र को भी अपना राष्ट्र नहीं समझ रहे हैं तो फिर इस शरीर की तो बहुत दूर की बात है। वस्तुत: हमारा यह तन राष्ट्रीय संपत्ति ही है और समझना चाहिए। प्रत्येक का तन राष्ट्रीय संपत्ति है इतना ही नहीं चाहे वह मनुष्य हो या जानवर वे सब राष्ट्रीय धरोहर हैं, राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होता है कि वह अपने देश की रक्षा में अपना सहयोग दे। दूसरे के तन को खाकर वतन की रक्षा नहीं हो सकती, जब जानवर भी राष्ट्रीय संपदा हैं फिर उनका कत्ल क्यों किया जाये? राष्ट्र की उन्नति का यह अर्थ कतई नहीं हो सकता कि हम अपने अर्थ के लिए उनको समाप्त करें और विदेश से मुद्रा कमायें। मनुष्य को चाहिए कि वह जानवरों के लिए आदर्श बनें। याद रखो। पशुबलि भी नर बलि की ओर ले जा सकती है। देवता बलि नहीं चाहता क्योंकि देवता तो अहिंसा की ओर ले जाता है हिंसा की ओर नहीं। राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह देश में हो रही पशुबलि (कत्लखाने, मांस निर्यात) को बन्द करवायें। राजा पालक होता है मारक नहीं, लेकिन जब राजा अपनी मनमानी करने लगता है तब प्रजा दरिद्र बन जाती है। आज यही तो हो रहा है नेतृत्व हीनता के कारण प्रजा अन्धी हो गई है घर-घर राजा बन गये हैं इसलिए कोई किसी की नहीं सुन रहा है। स्व-राज्य उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि उसको अपने लक्ष्य तक पहुँचा देना महत्वपूर्ण है। हम अपने लक्ष्य तक पहुँचें सबसे पहले हम अपने लक्ष्य को निर्धारित करें इसके बाद अपना कदम बढ़ाएँ देश की उन्नति अवश्य होगी। जो व्यक्ति बड़े पद को पाकर अयोग्य काम करता है वह अपने देश को बहुत नुकसान पहुँचाता है। और अपनी भी अवनति करता है। योग्यता का मूल्यांकन करना चाहिए, जिस व्यक्ति के पास जैसी क्षमता है, योग्यता है उसको वैसा ही पद देना चाहिए। यदि व्यक्ति को योग्यता के अनुसार पद दिया जाता है तो वह अपनी एवं अपने राष्ट्र की उन्नति ही करता है। यदि आप कुछ भी नहीं करना चाहते हो तो न सही लेकिन दो काम अवश्य करो पहला निर्बलों को मत सताओ और दूसरा संग्रह वृत्ति मत रखो। संग्रह वृत्ति मात्र मनुष्य ही करता है, जानवर नहीं। वह जंगल का राजा शेर भी किसी का संग्रह नहीं करता, शेर कभी भी मार करके अपने शिकार को कल के लिए नहीं रखता। लेकिन नृसिंह जंगल के शेर से भी अधिक खतरनाक है। पशु तो आज भी अपनी मर्यादाओं में रहते हैं लेकिन इस मनुष्य ने सारी मर्यादाओं को छोड़ दिया। मनुष्य को अपनी जीवन शैली शुद्ध कर लेना चाहिए। यदि मनुष्य सुधर जायेगा तो सारी दुनियाँ सुधर जायेगी, खतरा प्रकृति से नहीं खतरा मनुष्य से है प्रकृति ने मनुष्य को खराब नहीं किया लेकिन इस मनुष्य ने प्रकृति को तबाह कर दिया आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य प्रकृति के अनुरूप चले।
  22. यदि हम अपने देश की समृद्धि चाहते हैं तो वह समृद्धि उद्यम से ही हो सकती है, ऊधम से नहीं। लेकिन आज हम उद्यम कम ऊधम ज्यादा कर रहे हैं। ऊधम से दम घुटता है, हम उद्यम करें ऊधम नहीं। यदि हम उद्यम करेंगे तो हम एक सही आदमी बन सकते हैं और सही आदमी बनने के बाद ही हमारा कदम एक आचरण की कोटि में आ सकता है अत: हम उद्यम करें, ऊधम नहीं। मांस का निर्यात करना देश के साथ ऊधम करना है क्योंकि यह उद्यम नहीं कहलाता। आज हमारे सामने हमारा कोई उद्देश्य नहीं है, विश्व का कल्याण तभी हो सकता है जबकि उसके सामने अपना एक उद्देश्य हो, यदि उद्देश्य दृष्टि में नहीं रहता तो देश क्या प्रदेश में भी शान्ति नहीं हो सकती। पचास वर्ष के बाद भी हमने अपना कोई उद्देश्य नहीं बनाया। आज हम आजादी की स्वर्ण जयन्ती मना रहे हैं लेकिन स्वर्ण अवसर को खोकर ! आजादी प्राप्त की हमने अपने देश की उन्नति करने के लिए, देश का विकास करने के लिए। देश में सत्य, अहिंसा संस्कृति, संस्कार को पुन: प्रतिष्ठित करने का कितना अच्छा स्वर्ण अवसर पाया था लेकिन हमने उस स्वर्ण अवसर को भुला दिया क्योंकि हमने आजादी की गुणवत्ता को समझा ही नहीं। काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले भारत को आज नजर लग गई है, सोचो वह कितनी बड़ी नजर होगी। आज तक किसी पशु की नजर आदमी को नहीं लगी मनुष्य की नजर बहुत विषैली है इतनी विषैली कि गाय के स्तनों में भरा दूध भी सूख जाता है, पत्थर कट जाता है, पिघल जाता है। आज आदमी की नजर पशुओं को लगी हुई है, आज आदमी विश्व भक्षी बन गया है उसने गाय, बैल, भैंस आदि मूक पशुओं को भी मारना प्रारम्भ कर दिया है। यह मनुष्य ही है जो खाता तो मीठा है लेकिन कहता है मुँह कड़वा हो गया, कितना कड़वा है यह आदमी। कितने सीधे साधे हैं ये जानवर, मूक हैं फिर भी मनुष्य ने इनको अपना शिकार बना लिया यह मनुष्य के लिए कलंक है। पशुओं के साथ दया का व्यवहार कीजिए, मानव का यह कर्तव्य है कि वह मूक जानवरों पर हमला न करे, लेकिन मनुष्य ने आज इन मूक प्राणियों पर जो अत्याचार किया है वह बड़ा अमानुषिक है। स्वतंत्रता का यह विकराल रूप देखने को मिल रहा है कि आदमी ने कत्लखाने खोलकर पशुओं को काटना प्रारंभ कर दिया। आपको जन्म मिला है और जीने का जन्मसिद्ध अधिकार मिला है। स्वतंत्रता सबको प्रिय है, जानवर भी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। पशुओं को कत्ल करना यह स्वतंत्रता नहीं कहला सकती। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ तो सबको जीवन जीने का समान अधिकार है। हम अपना जीवन जीना चाहतें हैं फिर पशुओं को वध क्यों करें? भारत सरकार को चाहिए कि वह भारत से मांस निर्यात बंद करे और पशु हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाए। करुणा की तस्वीर यदि आपके हृदय पटल में छप जावे तो फिर कैलेंडर छपवाने की कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन आज करुणा का तो अभाव हो गया आज आवश्यकता करुणा की है। करुणा के अभाव में ही भारत गायों का वध कर रहा है। क्या यह भारत है? ऐसी-ऐसी गायें पकड़ी गई हैं जो कत्लखाने कटने जा रही थीं जिन्होंने बछड़ों को जन्म दिया, वे आज दूध दे रही हैं। गर्भवती गायें भी कटने लगीं भारत में? यह भारतीय संस्कृति नहीं, भारतीय संस्कृति में प्रत्येक प्राणियों पर अभय का वरदान दिया जाता है। कोई भी पार्टी हो, सत्ता हो, हमको मतलब नहीं लेकिन देश में हिंसा नहीं होना चाहिए। मांस निर्यात रुकना चाहिए। हमको चाहिए वह व्यक्ति जो देश का पक्ष लेता है। आज कोई इस पक्ष का है कोई उस पक्ष का है एक दूसरे के लिए दोनों विपक्ष के हैं पक्ष के कोई नहीं, फिर भी आप किसी भी पक्ष के रहो लेकिन देश का पक्ष गौण नहीं होना चाहिए। आप देश का पक्ष मजबूत करो, पार्टी का नहीं। भारत की दशा आज क्या हो गई? अहिंसा का नाम लेने पर लोग हंसते हैं, संस्कृति तो मिटी प्रकृति भी मिट रही है। संस्कृति से भी अच्छी प्रकृति मानी जाती है क्योंकि संस्कृति सभ्यता है और प्रकृति स्वभाव है। अपने स्वभाव को पहचानो अपनी संस्कृति पर गौरव करो अपनी सभ्यता पर गर्व करो। हमारी संस्कृति, प्रकृति और सभ्यता ये तीनों अहिंसा प्रधान रही हैं। लेकिन आज हमने इन तीनों को हिंसक बना दिया। हिंसा ही राजधर्म बन गया। हमने गरीबी मिटाने के नाम पर गरीबों को मिटा दिया, धनी होने के वास्ते देश को कंगाल बना दिया, ठीक ही है हिंसा से हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, यदि हम कुछ अच्छा चाहते हैं तो हमको देश से हिंसा को निकालना होगा, जब तक हिंसा नहीं निकलेगी देश अपना सुधार नहीं कर सकता। बन्धन किसी को भी स्वीकार नहीं होता मुझे भी नहीं है लेकिन धर्म के लिए बन्धन भी मैं स्वीकार कर सकता हूँ क्योंकि धर्म का बन्धन कोई बन्धन नहीं है। यदि अहिंसा के लिए हमें बन्धन भी स्वीकार करना पड़े तो कर लेना चाहिए लेकिन हिंसा के लिए स्वतंत्रता भी ठीक नहीं है। देश में आज अहिंसा की धारा बहना चाहिए थी, न्याय की धारा बहना चाहिए थी लेकिन यह कहाँ हुआ? सत्ता की भूख सत्य को नष्ट कर देती है। आज बहुमत के माध्यम से देश चल रहा है, बुद्धिमत्ता के बल पर नहीं। पचास वर्ष का इतिहास हमारे सामने है अब आप लोगों को सोचना है कि क्या करना है, क्या उचित है? अहिंसा को भूलकर आजादी की स्वर्ण जयन्ती का जश्न मनाना कोई मूल्य नहीं रखता। आज हमको अहिंसा की बड़ी महती आवश्यकता है अहिंसक बनना ही सही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है।
  23. श्री दिगम्बर जैनरेवातट सिद्धोदय तीर्थ नेमावर में राष्ट्र की महान् विभूति आचार्य विद्यासागर जी महाराज के पावन सान्निध्य में आजादी की स्वर्ण जयन्ती का एक ऐतिहासिक अभूतपूर्व जश्न मनाया गया। राष्ट्र के भावी नागरिक राष्ट्र की महान् संपत्ति जो अभी बालक कहलाते हैं ऐसे बच्चों की उपस्थिति जयन्ती के महोत्सव में काफी रही। यानि श्री दिगम्बर जैन विद्या मन्दिर खातेगाँव, सरस्वती शिशु मंदिर खातेगॉव, उच्चतर माध्यमिक शाला नेमावर के सभी शिक्षक गण अपने सभी छात्रों के साथ उपस्थित थे कार्यक्रम का शुभारम्भ ब्राह्मी विद्या समिति खातेगाँव की बहनों द्वारा मंगलाचरण से शुरू हुआ मंगलाचरण के बोल थे। इंसान को इंसान बनाएं मानव को प्रेम की परिभाषाएँ समझाएँ देश की अखण्डता खण्ड-खण्ड हो रही, देश को अखण्डता का दान दो, देश को एकता का दान दो................. इसके उपरांत महावीर प्रसाद झांझरी झूमरी वालों के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित किया गया। इसके उपरांत आचार्य श्री जी की आरती की गई। इसके उपरांत श्री दिगम्बर जैन विद्या मंदिर खातेगाँव के बाल-छात्रों द्वारा एक अनुपम विचार संगोष्ठी सम्पन्न हुई। राष्ट्रीय विचारों से छोटे-छोटे बालकों ने जन समुदाय को मंत्रमुग्ध कर दिया। सबसे पहले स्वयं प्रकाश राठौर ने अपने विचार रखे कि- आज हमको आजादी प्राप्त किये पचास वर्ष हो रहे हैं आज हम स्वर्ण जयंती मना रहे हैं लेकिन हमारा स्वर्ण जयंती मनाना क्या मायना रखता है ?, आज देश में चारो ओर गरीबी, भुखमरी, बीमारी, घोटाला, पतन, पशु हत्या, मांस निर्यात, जैसे घृणित कुकर्म की वृद्धि हुई है। हमारा स्वर्ण जयंती मनाना तभी सार्थक होगा जबकि हम अपने देश से इन सभी कुरीतियों को दूर कर दें। इसके उपरांत नीरज सेठी ने अपने विचार रखे-गाय हमारी माता है, वह हमको दूध देती है, उसकी रक्षा करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य होता है। आज हमारी सरकार जो गायों का वध कर रही है यह सरकार का गलत कदम है अत: स्वर्ण जयंती के इस महान् अवसर पर भारत सरकार को गी हत्या बन्दी कानून बना देना चाहिए। इसके उपरांत पुनीत पट्टा ने अपनी क्रांतिकारी कविताओं से सारे जन मानस को गर्म कर दिया उनके बोल थे। भारत का उत्थान न होगा, मांस निर्यात की कमाई से। विनाश होगा इस देश का, पशुओं की अवैध कटाई से॥ उन्होंने आगे कहा कि - सरकार कमा रही अपना रूपैय्या हिन्दुस्थान में कट रही हिन्दु की गैय्या रोको रे यह कटती गैय्या यह पाकिस्तान नहीं, हिंदुस्तान है भैय्या। इन्होंने आगे अण्डों के बारे में कहा कि मुझसे एक व्यक्ति ने पूछा की क्या अण्डा शाकाहारी है? मैंने कहा नहीं, अण्डा मांसाहारी ही है अण्डा कभी भी शाकाहारी नहीं हो सकता फिर भी यदि आप अण्डे को शाकाहारी मानते हैं तो वह इस प्रकार होगा अण्डे को शाकाहारी मानना ऐसा होगा वैश्या को माँ बनाने जैसा होगा!!! इसके उपरांत कुमारी चन्दु झाला ने अपने कारुणिक विचार रखे- हमारी भारतीय संस्कृति में गाय को माता कहा जाता है जिस माता की हम पूजा करते हैं उसी को हमारी भारत सरकार कत्लखानों में काट रही है, क्या यही हमारी संस्कृति है? क्या यही हमारा धर्म है? कि हम पशुओं को काट रहे हैं, मांस निर्यात कर रहे हैं। भारत सरकार को इस पशु बलि को बन्द करना होगा, मांस निर्यात रोकना होगा। पशुओं की रक्षा करना ही न्याय है। आज हमको आवश्यकता है कि हम सब लोग जागें और भारत से मांस निर्यात बन्द करवायें। इसके उपरांत शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला नेमावर के छात्र भारमल चावड़ा ने अपने विचार व्यक्त किये- मांस निर्यात और मांसाहार दोनों हमारे देश के लिए ठीक नहीं है मांसाहार से बीमारियाँ फैलती हैं, आदमी के लिए तो शाकाहार ही सर्वोत्कृष्ट आहार है। मानव को अपनी प्रकृति का उल्लंघन कर मांसाहार का सेवन नहीं करना चाहिए। आज हमारे देश की स्वर्ण जयंती का दिन है। इस पावन अवसर पर हमको मांस निर्यात और मांसाहार को पूर्णत: समाप्त करने का संकल्प कर लेना चाहिए। इसके उपरांत श्री दिगम्बर जैन विद्या मंदिर की शिक्षिका कविता कासलीवाल ने अपने ओजस्वी विचारों से सारे जन मानस को हिलोर दिया उन्होंने कहा- हमारा देश कहाँ जा रहा है? हम किस ओर जा रहे हैं? वे व्यक्ति कहाँ गये जिन्होंने देश को आजाद कराया? उनके आदर्श, उनकी महानता आज हम भूलते जा रहे हैं, भारतीय संस्कृति को छोड़ते जा रहे हैं। चंद चाँदी के टुकड़ों के लोभ में हम विदेशी मुद्रा कमा रहे हैं पशुओं को कत्ल करके, ऐसी कमाई से क्या लाभ जो खून से सनी हुई है। आज पहली आवश्यकता इस बात की है कि देश के तमाम कत्लखानों पर ताला डाल दिया जाये। कत्लखानों को बन्द किये बिना भारत की उन्नति कभी भी नहीं हो सकती। इसके उपरांत प्रदीप काला खातेगाँव ने अपने विचार रखे-वह पहली खुशी थी जब हम स्वतंत्र हुए थे लेकिन आज सबसे बड़ा दुख इस बात का है कि हमारे स्वतन्त्र भारत में मांस निर्यात हो रहा है। इसके उपरांत शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला नेमावर के प्राचार्य महोदय ने भी अपन विचार व्यत किये-बड़े सौभाग्य की बात है कि माँ नर्मदा के पावन तट पर सन्त शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी वर्षायोग कर रहे हैं जिनके दर्शन मात्र से युगों-युगों के संचित पाप नष्ट हो जाते हैं। यह वही भारत है जहाँ दूध और दही की नदियाँ बहती थीं, यह वही भारत है जहाँ राम, महावीर, कृष्ण, गौतम एवं अहिंसावादी पुरुषों का अवतार हुआ लेकिन आज इस भारत को क्या हो गया जो मांस निर्यात जैसे पाप कार्य में लिप्त है। मुद्रा कमाने के और भी साधन हैं उन अहिंसक साधनों को अपनाना चाहिए। इसके बाद नीरज जैन सतना वालों के विचार- कि आज १८ वर्ष के बच्चे को मतदान का अधिकार तो दे दिया गया लेकिन हमने मतदान देने की विधि नहीं सिखाई। इसके उपरांत आचार्य श्री जी के प्रवचन हुए।
  24. हरदा-निकटस्थ नेमावर स्थित सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र में एक विशाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि अपने दुखों में रोने वाले, आँसू बहाने वाले इस दुनियाँ में बहुत हैं लेकिन जो दूसरों के दुखों में रोते हैं, आँसू बहाते हैं, दूसरों के आँसू पोछते हैं ऐसे लोगों की संख्या इस दुनियाँ में बहुत कम है। अब आप दूसरों के आँसू पोंछना सीखिए अपने आँसू तो सभी पोंछ लेते हैं, अपने आँसू पोंछना धर्म नहीं, दूसरों के आँसू पोंछना धर्म है। आज दुनियाँ में बहुत आँसू है फिर भी हमारी आँख में आँसू नहीं आ रहे है हमारी आँख गोली नहीं हो रही है हमारे पास आँख तो हैं लेकिन आँसू नहीं। अहिंसा की पहिचान अस्त्रों से नहीं आँसू से होती है। लेकिन आँसू उसी आँख में आ सकते हैं जिस दिल में करुणा होगी, दया होगी। करुणा से खाली दिल वाले की आँख में आँसू नहीं आ सकते। आज जो मूक हैं, निर्दोष हैं, अनाथ हैं, ऐसे निरीह जानवरों की आँखों में आँसू हैं वो पशु अपनी करुण पुकार कैसे कहें क्योंकि उनके पास शब्द नहीं वे बोल नहीं सकते शायद यदि वे मूक प्राणी बोलना जानते तो अवश्य किसी कोर्ट में अपनी याचिका दायर कर देते, अपने अत्याचारों की कहानी सुना देते लेकिन हम इन्सान हैं जो बोलने सुनने वाले होकर भी कुछ न समझ रहे हैं और न सुन रहे हैं। आचार्य श्री ने आगे कहा कि याद रखो अभिशाप सबसे बड़ा शस्त्र है। यदि हमें इन मूक पशुओं की श्राप, बदुआ लगी तो हमारा देश तबाह हो सकता है। आज तो वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया कि हिंसा, कत्ल की वजह से भूकम्प आते हैं। आज प्रकृति में जो घटनाएँ घट रही हैं, कहीं अकाल, कहीं भूकंप, कहीं बाढ़, ये सारे रूप हिंसक कार्य के ही हैं। हिंसा से सारी प्रकृति आन्दोलित हो जाती है, क्षुब्द हो जाती है, वातावरण उत्तेजित हो जाता है पर्यावरण नष्ट हो जाता है यदि हमारे देश में हिंसा, कत्ल होता रहा, कत्लखाने खुलते रहे, मांस निर्यात होता रहा तो क्या हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह सकता है? और जब हमारा पर्यावरण ही नष्ट हो जाये तब हमारी उन्नति का क्या अर्थ? क्या विदेशी मुद्रा पर्यावरण को बचा लेगी? जब आदमी का ही जीना मुश्किल हो जायेगा तब दुनियाँ की सारी संपत्ति किस काम की? पर्यावरण और स्वास्थ्य का ठीक रहना ही मानव जाति का विकास है, पर्यावरण को बिगाड़ करके हम अपने स्वास्थ्य को जिन्दा नहीं रख सकते अत: पर्यावरण की रक्षा के लिए हिंसा, कत्ल के काम छोड़ने होंगे, पशुओं को बचाना होगा। सुनते हैं कि पहले देवताओं के लिए पशुओं की बलि चढ़ाते थे लेकिन आज आदमी के लिए पशुओं की बलि चढ़ाई जा रही है। आदमी के लिए पशु का कत्ल हो रहा है, देश की उन्नति के लिए पशुओं का वध हो रहा है, खून मांस बेचकर देश की उन्नति का स्वप्न देश की बर्बादी का लक्षण है। आदमी के पास भुजाएं हैं फिर उन भुजाओं का सही दिशा में पुरुषार्थ क्यों नहीं किया जा रहा है? आज भुजाओं से भी पैर का काम लिया जा रहा है। भला हुआ कि आदमी के पास सींग नहीं हैं अन्यथा यह आदमी क्या-क्या करता पता नहीं। दूसरों के पैर तोड़कर हम अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते, मैं राष्ट्र को पंगु देखना नहीं चाहता पशुओं के अभाव में भारत पंगु हो जायेगा, भारत कृषि प्रधान देश है यहाँ की जनता सदियों से पशु पालन और उनके माध्यम से अपना निर्वाह करती चली आ रही है कृषि उत्पादन के क्षेत्र में गो-वंश का उपकार भुलाया नहीं जा सकता। आज अध्यात्म के शिविर लगाने में जितना पैसा खर्च किया जा रहा है यदि वह पैसा मांस निर्यात रोकने के क्षेत्र में लगाया जावे तो बहुत अच्छा होगा और अब शिविर शहर में नहीं राष्ट्रपति भवन में लगाओ और वह शिविर, दया का, अनुकम्पा का, करुणा अहिंसा का हो, जिससे लाखों करोड़ों जानवरों का कत्ल रुके। देश के राष्ट्रपति को देश की पशु सम्पदा का ध्यान होना चाहिए लेकिन आज नहीं है इसीलिए नागरिको अब जागो और मूक पशुओं की आवाज को राष्ट्रपति भवन तक पहुँचाओ ताकि वह भवन पशुओं की पुकार से हिल उठे और पशुओं का कत्ल होना बन्द हो जाये मांस नियति रुक जाये। वस्तुत: आज हमको जागृत होने की जरूरत है। यह हमारा देश युगों-युगों से सत्य अहिंसा का सन्देश देता आ रहा है हम अपने इतिहास को खोलें अपनी संस्कृति को पहिचानें उसका अध्ययन करें। भारतीय इतिहास, संस्कृति और सभ्यता पशु-वध की इजाजत नहीं दे सकती। वध तो वध है चाहे जानवर का हो या मनुष्य का इसमें अन्तर नहीं है। आओ हम सब मिलकर अपने देश से इस पशु वध को रुकवायें। पशु-वध रुकवाना ही आज की अनिवार्यता है। आचार्य श्री ने एक जंगली प्राणी की महानता और उसकी सेवा, करुणा का उदाहरण देते हुए कहा कि एक जंगल में आग लग गई, सारा जंगल जल रहा था सारे जंगल के प्राणी यहाँ वहाँ भाग रहे थे एक स्थान पर एक तालाब था उसी तालाब के पास सारे जंगल के प्राणी पहुँच गये। वह तालाब जंगली जानवरों से खचाखच भर गया। उसी तालाब में प्राणियों के झुण्ड में एक हाथी था अचानक हाथी ने अपना एक पैर उठा लिया बस उसी वक्त उस हाथी के पैर के उठाये वाले स्थान पर एक छोटा सा खरगोश का बच्चा आकर बैठ गया हाथी ने देखा कि पैर रखने के स्थान पर एक खरगोश का बच्चा बैठा है यदि मैं अपना पैर रखता हूँ तो वह खरगोश का बच्चा मर जायेगा। अत: वह हाथी तीन पैर से खड़ा रहा उसने अपना पैर धरती पर नहीं रखा। एक दिन, दो दिन, तीन दिन तक तीन पैरों पर खड़े-खड़े वह हाथी इतना जकड़ जाता है उसका पैर फूल जाता है अन्त में वह हाथी नीचे गिर गया और मर गया लेकिन उसने अपना पैर जमीन पर नहीं रखा, यह है जगली जानवर की महानता/ करुणा की जीवन्त कहानी। एक जंगली प्राणी भी एक जीव की रक्षा के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर सकता है लेकिन आज हम हैं जो जंगल में नहीं शहर में रहते हैं गुफाओं में नहीं भवनों में रहते हैं शिक्षित और सभ्य होकर बर्बरता और क्रूरता का काम कर रहे हैं। जंगल में रहने वाले भी अहिंसा/करुणा का पालन करते थे। और आज हम शहरों में रह करके भी हम में अहिंसा और करुणा नहीं हैं। हमारी साक्षरता का क्या अर्थ है? वह जंगली हाथी साक्षर नहीं था उस हाथी ने किसी स्कूल कालेज में नहीं पढ़ा था वह निरक्षर था फिर भी उसमें मानवता थी लेकिन हमारे पास आज मानवता मर गई है अरे! धर्म करने वालो जरा सोचो तुमने आज तक कितना धर्म किया, कितना दान किया? कितना त्याग किया? जीवन में जीवित धर्म का पालन करो। पशुओं के पास भी धर्म होता है भले वे किसी मंदिर नहीं जाते उसके पास भी अहिंसा और करुणा होती है आप जरा विचार करिये जब एक हाथी भी एक खरगोश को अपने पैर के नीचे जगह दे सकता है, जीवनदान दे सकता है तब फिर आप तो आदमी हैं क्या आप पशुओं को जीवनदान नहीं दे सकते?
  25. हम भारत में रहते हैं, भारत में कमाते हैं, भारत का अनाज खाते हैं भारत का पानी पीते हैं लेकिन हम अपना धन विदेश में रखते हैं, क्या भारत के ऊपर विश्वास नहीं? जिस माटी पर जीते हैं उसी को सन्देह से देखते हैं, बस यही भारत की कंगाली का कारण है। ‘तन भारत में और धन विदेश में इसीलिए गरीबी है वतन में” भारत कंगाल हो रहा है ऋण के भार से दब रहा है, कर्ज बढ़ रहा है और हमारे ही देशवासियों का धन विदेशों की बैंकों में रखा है, हम कैसे कहें कि हम अपने देश का विकास कर रहे हैं। यदि हम भारत को गरीबी से मुक्त करना चाहते हैं, कंगाली मिटाना चाहते हैं तो अपने देश का धन विदेशों में नहीं रखना चाहिए विदेश में धन-रखने वालों ने ही देश को गरीब बनाया है। आज हमको इस बात की महती आवश्यकता है कि हम अपने देश को कर्ज से मुक्त करने के लिए अपना धन विदेश में न जाने दें। देश को कर्ज से मुक्त करना ही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता होगी। आज देश को आजाद हुए पचास वर्ष होने को आ रहे हैं लेकिन पचास वर्ष में हमारे देश का कर्जा ही बड़ा कौन सी तरक्की की है, पचास वर्ष के उपरांत भी देश को कर्ज से मुक्त न कर सके, गरीबी न भगा सके हिंसा आतंक न रोक सके फिर किया ही क्या? कर्ज ले-लेकर देश को कब तक चलायेंगे? देश प्रेमियों देश को कर्ज से मुक्त करो भारत की सम्पदा भारत में रहने दो वस्तुत: भारत को धन की आवश्यकता नहीं भारत तो धनी ही है उस धन को विदेश से वापस ले आओ। पचास वर्ष के उपरांत भी हमको यह ज्ञात नहीं की क्या करना है, क्या नहीं करना है फिर स्वर्ण जयन्ती मनाने से क्या लाभ? पचास वर्ष के उपरांत मात्र हमने इतना याद रखा है कि १५ अगस्त को हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। पचास वर्ष के बाद भी हम ऋणी ही हुए जबकि हमको धनी होना था। ऋणी होना भी अच्छा है लेकिन धन से नहीं आदर्श से हम ऋणी हैं हमारे पूर्वजों के कि जिन्होंने हमारी संस्कृति को यहाँ तक लाया, देश को आजाद कराया, उन्होंने बहुत कष्ट उठाये, मुशीबतें सही, अनेक बाधाओं से जूझे, जीवन-मरण से लड़ते रहते, और निस्वार्थ भावना से देश और देश वासियों की सेवा की, ऐसे कर्तव्य शील, निष्ठावान, अहिंसक पूर्वजों के हम ऋणी हैं। हमारे पूर्वजों ने जीना सिखलाया लेकिन हम उनको कहाँ तक आदर्श मानते यह हमको ज्ञात है। अपने पूर्वजों के आदशों को याद करो, उनके ऋणी बनो और देश को ऋण से मुक्त करो। आजादी की स्वर्ण जयन्ती पर देश को कर्ज से मुक्त करने का संकल्प लो। यही सच्ची भारतीयता, राष्ट्रीयता है। यह कैसी विडम्बना है कि भारत का धन विदेशों में रखा है और भारत अपना ही धन अपने लिए कर्ज के रूप में ले रहा है। अपनी मुद्रा विदेश में रखकर और विदेशी मुद्रा के लिए मांस बेचकर विदेशी मुद्रा कमा रहा है? यह कौन सी कमाई है, कि अपने धन को नष्ट करना और विदेश के धन को इकट्ठा करना यह नीति नहीं यह तो अनर्थ नीति है। इस अनर्थ नीति को पहले समाप्त करो अन्यथा देश कभी भी आर्थिक सम्पन्न न होगा। कोई भी पार्टी हो वह सत्ता की ओर न देखे परन्तु देश की सत्ता देश की अस्मिता की ओर देखे, सत्ता की ओर देखने से अहंकार होता है, स्वार्थ होता है, लेकिन जब हम देश की सत्ताअस्मिता की ओर देखते हैं तो स्वाभिमान होता है, कर्तव्य का बोध होता है, दायित्व का बोध होता है। सत्ता (पार्टी) की ओर मत देखो देश की अस्मिता की ओर देखो, भले तुम किसी भी पक्ष के रहो, चाहे तुम पक्ष के हो या विपक्ष के लेकिन देश का पक्ष कभी भी मत भूलना यह देश की अस्मिता को देखने का अर्थ है जो व्यक्ति देश का पक्ष लेगा वह अपना धन विदेश में नहीं रख सकता। देश को कर्जदार नहीं बना सकता है इसलिए तुम भी याद रखो। मरना है तो मरजा लेकिन मरने से पहले कुछ कर जा पर न कर कर्जा देश के लिए कुछ कर जाओ लेकिन कर्जा मत कर, हमने आज भारत की क्या दशा कर दी। अंग्रेजों के जमाने में मांस का नियति नहीं होता था लेकिन आज स्वतंत्र भारत में मांस का निर्यात हो रहा है, अंग्रेज विदेशी थे, लेकिन हम तो देशी हैं। फिर भी अपने देश की स्थिति खराब कर डाली। मांस निर्यात भारत के लिए बहुत बड़ा कलंक है। स्वर्ण जयंती के अवसर पर इस कलंक को धोने का संकल्प ले लेना चाहिए यही भारत को सुधारने का सही संकल्प है। भारत इतना क्रूर बन गया है भारत के पास आज दया का अभाव हो चुका है, दया के अभाव में ही यहाँ प्रलय का वातावरण तैयार हो रहा है। हम अपने देश की तरक्की दया के रहते ही कर सकते हैं दया के अभाव में क्रूरता से किसी का भला नहीं है, दया जीवन है क्रूरता मौत है, क्रूरता को छोड़ो दया को अपनाओ। देश में सुभिक्ष ही ऐसी कामना करो, भावना करो। दुनियाँ में सुभिक्ष हो, मंगल हो लेकिन उसके पहले यह बात ध्यान रखो कि सुभिक्ष के लिए किसी की हत्या न हरना पड़े, किसी का वध न करना पड़े, किसी को कष्ट दुख देना न पड़े। आज हम अपने देश में सुभिक्ष लाना चाहते हैं आदमी का जीवन सुरक्षित रखना चाहते हैं लेकिन यह होगा कैसे क्योंकि हमारे पास मानवता नहीं है। दूसरों की हत्या करके, दूसरों का खून करके हम अपने देश की उन्नति कैसे कर सकते हैं। क्या यही मानवता है?, यही अहिंसा है? यही सत्य है? मांस निर्यात करने वाला देश अहिंसा का सन्देश कैसे दे सकता? यदि हम अहिंसा, सत्य, करुणा का सन्देश देना चाहते हैं एवं मानवीय चेतना जागृत करना चाहते हैं, राष्ट्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो इसके लिए हमको एक मानवीय क्रान्ति लाना होगा। वह मानवीय क्रान्ति सभा समारोहों में नहीं उसके लिए जीवन परिवर्तित करना होगा। देश में हिंसा के सारे कार्य रोकना होगा। जो देश अहिंसा के सहारे आजाद हुआ वही देश आज हिंसा प्रधान हो रहा है। हिंसा से हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह सकती। देश को सुरक्षित रखने के लिए भारत को हिंसा से मुक्त करना होगा और मांस निर्यात वर्तमान की सबसे बड़ी हिंसा है इसको रोकना होगा। आज कितनी तेजी से जानवर कट रहे हैं यदि यही रफ्तार रही तो एक दिन सारे जानवर समाप्त हो जायेंगे और फिर नम्बर आयेगा किसका? आदमी का, प्रकृति का नहीं क्योंकि प्रकृति में मांस नहीं। प्रकृति जीव तो पैदा करती है लेकिन मांस पैदा नहीं करती प्रकृति तो शुद्ध है। आज हम अपनी प्रकृति का विनाश कर रहे हैं लोग पर्यावरण की चर्चा करते हैं प्रदूषण हटाने की बात करते हैं लेकिन प्रदूषण-लाने का काम बंद नहीं करते। ये कत्लखानों से सारी धरती में प्रदूषण फैल रहा है, नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है, वातावरण गन्दा हो रहा है, प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ रहा है, लेकिन हमको इसकी चिन्ता नहीं है। हम तो मात्र चिल्लाना जानते हैं पर्यावरण बचाने का काम मात्र वृक्ष लगाने से नहीं हो सकता हम वृक्षों को लगाने की बात करते हैं, लगाते हैं, लेकिन पशुओं को काट रहे हैं, यह प्रक्रिया हमारे लिए घातक है इसको हमें रोकना चाहिए। भारतीय संस्कृति में दृश्य का नहीं दृष्टा का मूल्य है, जड़ का नहीं चेतन का मूल्य है, 'पर' का नहीं ‘स्व' का महत्व है। आज हम अपनी संस्कृति को लुटा रहे हैं, मिटा रहे हैं मात्र चंद चाँदी के टुकड़ों में। ये गाय, बैल भैंस, इत्यादि जो जानवर हैं ये जीवित हैं, चेतन हैं, चेतन धन को नष्ट करके जड़ धन की कमाई करना राष्ट्र को समाप्त करना चाहिए। जीने का अधिकार सबको है। यह हमारा स्वार्थ है कि हमने जानवरों को यूजलैस(अनुपयोगी) कह दिया जीवन किसी का हो चाहे वह जानवर का हो या आदमी का वह कभी यूजलैस (अनुपयोगी) नहीं होता, यूजलैस (अनुपयोगी) तो हमारा स्वार्थ होता है, हमारा अज्ञान होता, अन्याय होता है। हमारे यूजलैस(अनुपयोगी) स्वार्थ ने जानवरों को यूजलैस (अनुपयोगी) कह दिया जिसका परिणाम है कि भारत आज मांस का व्यापार करने लगा। स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है, आज हम स्वतंत्र होकर भी समझ नहीं पाये हैं और न जाने कब समझेंगे? आज हमको पचास वर्ष हो रहे है स्वतंत्रता प्राप्त किये, लेकिन हम कहाँ देख रहे हैं और क्या समझ रहे हैं? पचास वर्ष के उपरांत भी हम यह समझ नहीं पाये कि अहिंसा क्या है यदि अहिंसा को समझ लेते तो मांस का निर्यात क्यों करते? कत्लखाने क्यों खोलते? यदि आपको अपने देश की रक्षा करना है, देश को बचाना है तो अपने अन्दर स्वाभिमान जागृत करो, अपने कर्तव्यों को समझो, अपने दायित्वों का पालन करो, अपने आप का बोध प्राप्त करो, निश्चित ही हमारे देश में एक ऐसा वातावरण तैयार होगा जो हिंसा के तूफान को रोक देगा। हिंसा को रोकने के लिए हमें किसी धन की आवश्यकता नहीं, हिंसा धन से रुकने वाली भी नहीं है क्योंकि हिंसा का स्रोत तो हमारा स्वार्थी मन है, झूठी प्रतिष्ठा है, सत्ता की लोलुपता है। हम अपने मन से स्वार्थ को निकाल दें, सत्ता की लम्पटता को छोड़ दें, हमारे विचारों को पवित्र बना लें हिंसा रुक जायेगी। विचारों में पवित्रता अहिंसा से ही आ सकती है, हिंसा से नहीं क्योंकि अहिंसा पवित्र है और हिंसा अपवित्र है। यदि भारत की पवित्र संस्कृति और सभ्यता को पवित्र रखना चाहते हो तो भारत से मांस का निर्यात बंद कर दो मांस बेचना भारतीय संस्कृति नहीं, बस। यही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है।
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