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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 2 - न पद रहे न पद चिह्न

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    जहाँ थोकमाल बिकता हो वहाँ फुटकर में समय निकल जाये तो ठीक नहीं परन्तु एक नीति है कि दुकान पर आया हुआ ग्राहक माल खरीदे बिना वापिस ना जाने पाए। इस नीति के अनुसार थोक दुकान पर फुटकर ग्राहक कल थोक माल खरीदने वाला बन सकता है। (प्रवचन से पूर्व दिलीप गांधी सूरत, मूलचन्द्र बुखारिया अहमदाबाद वालों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लिया और दिलीप गांधी की धर्म पत्नि ने दो प्रतिमाएँ लीं। उन्हीं को लक्ष्य बनाते हुए उपरोक्त बात आचार्य महाराज ने कही)।

     

    सभी पशुओं में हाथी विशालकाय होता है जबकि वह क्या खाता है और क्या पीता है यह सबको ज्ञात है। फिर इतना विशालकाय क्यों होता है ऐसा प्रश्न सहज ही सामने आता है ? ऐसा ही एक विशालकाय शक्तिशाली हाथी राजा के साथ कई रूपों में रहा। कभी मित्र रूप में, कभी पिता रूप में, कभी भाई रूप में और राजा को सब कुछ प्रदान कर हर बार विजय दिलाता रहा।

     

    जीवात्मा का सिद्धांत बड़ा अद्भुत है। जो अनादिकाल से चला आ रहा है। इसका प्रारंभ कहाँ और अंत कहाँ ज्ञात नहीं। जीवात्मा का जीवन क्रम हमेशा एक सा नहीं रहता, प्रति समय परिवर्तित होता रहता है। इस सिद्धांत के अनुसार वह हाथी भी बूढ़ा हो गया, शारीरिक बल कम हो गया, जैसे जैसे जीवन बढ़ता है वैसे वैसे आयु छोटी (कम) होती चली जाती है, बाल, तरुण, युवा आदि पर्यायें नष्ट होती चली जाती हैं। पर्याय दृष्टि के कारण ही मान सम्मान, हर्ष विषाद आदि घटनायें घटती हैं। यदि हम अपनी ओर दृष्टिपात कर लें तो वे सब समाप्त हो जाती हैं।

     

    जैसे जल में तरंगें उठती हैं बनती हैं मिटती रहती हैं, परन्तु जल ज्यों का त्यों बना रहता है वैसे ही पर्याय बनती मिटती रहती हैं, लेकिन द्रव्य ज्यों का त्यों बना रहता है। पर्याय की ओर देखने से तेरामेरा, छोटा-बड़ा, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा आदि दिखती है ध्रुव सत्य की ओर देखने पर सब गायब हो जाता है।

     

    इस तपोवन में किसी के पद चिह्न नहीं मिलेंगे थोड़ी हवा आते ही सब मिट जाते हैं, तूफान आने पर तो न पद रहते हैं न पद चिह्न। पता नहीं कितने आए और कितने चले गए परन्तु आज किसी के पद चिह्न नहीं रहे। बंधुओं यह मत देखो यह चरण चिह्न किसका है, बस बढ़ते चले जाओ दूसरों के चरण चिह्न से पर की पहचान होती है, अपनी नहीं। 

     

    जिस प्रकार आकाश में ध्वनि विलीन हो जाती है वैसे ही इस धरती से सब के नाम, चरणचिह्न और पर्यायें विलीन हो गयीं। मरना और जन्म लेना पर्याय है। आप पढ़ते हैं 'मरना सबको एक दिन' बंधुओं एक दिन नहीं एक पल में सबको मरना है। सुनने में आता है कि वह चला गया-वह चला गया पर यह सुनने में नहीं आता कि क्या साथ ले गया, फिर भी आप वर्षों की बात करते हो अरे परसों की बात करो। बारह भावना में ये भी कहा है -

    कहाँ गए चक्री जिन जीता भरत खंड सारा,

    कहाँ गए वे राम अरु लक्ष्मण जिन रावण मारा।

     

    थोड़ा इन पंक्तियों पर भी विचार करो। चिंतन करो। निगोद से २ हजार सागर के लिए त्रस पर्याय के लिए निकलना होता है, निगोद में रहने का कोई लेखा जोखा नहीं है, (वह तो संसारी प्राणी के लिए माँ की गोद के समान है)।

     

    जीवन के क्रम और पर्यायों वाली घटना उस हाथी के साथ भी घट रही थी। हाथी वृद्ध हो जाने पर स्वतंत्र छोड़ दिया गया। घूमते-घूमते एक तालाब के अंदर कीचड़ में फंस गया। वह निकलना चाह रहा है पर निकल नहीं पा रहा है, वह सोचता है कोई आयेगा निकालने, किन्तु कोई नहीं आया। प्राय: देखा जाता है कि संकट के समय कोई दूसरा काम नहीं आता। फिर वह हाथी सोचता है क्या पर्याय की दुर्दशा है मैं कितना बोझ ढोता था पर आज अपना शरीर भी नहीं ढो पा रहा हूँ। इसी बीच रणभूमि में रण भेरी बजती है उसे सुनकर हाथी जो जोश आ गया, आवेग आ गया और वह हाथी उस आवेग में तालाब के बाहर आ गया।

     

    युद्ध में जीत बिना आवेग/जोश के नहीं हो सकती इसीलिए आवेग लाने के लिए पहले रणभूमि में भेरी बजती थी और सैनिकों की बाहुओं में खून दौड़ने लगता था कि पर चक्र आया है उससे स्वचक्र की रक्षा करना है। पर आज युवाओं में जोश का अभाव है। आज के युवा एयर कंडीशन में रहते हैं फ्रिज का ठंडा खाते हैं और कूलर की ठंडी में रहते हैं, अतः अब उनमें जोश लाने के लिए हीटर लगाकर गर्म करने की आवश्यकता है। ठंडी में रात भर गाड़ी खड़ी रहने पर धक्का लगाने की आवश्यकता पड़ जाती है, आज तो ट्रैक्टर से खिचवाना पड़ती है तब कहीं चालू होती है, किन्तु आपकी गाड़ी कब से खड़ी है पता ही नहीं।

     

    जैसे बूढ़ा हाथी भी जोश में आकर पूरी शक्ति लगा कर कीचड़ से बाहर आ सकता है वैसे ही आप भी पूरी शक्ति लगा दें तो इस संसार रूपी कीचड़ से पार हो सकते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है आज के बूढ़े भी उस बूढ़े हाथी की तरह शक्ति तो लगा रहे हैं पर विषय भोगों में, न कि संसार समुद्र में कीचड़ से पार होने में। बस एक बार शक्ति का समीचीन प्रयोग करने की आवश्यकता है, अपने स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने की आवश्यकता है अपने स्वाभिमान को जागृत करने की आवश्यकता है। यदि एक बार स्वभाव की पहचान हो जाय, एक बार चेतना जागृत हो जाय और पूरी शक्ति लगा दें तो चुटकी बजाते ही कार्य सिद्ध हो जायेगा। अपनी (निज की) भूल ही संसार चक्र में भ्रमण का कारण है। आदिनाथ भगवान् के जीव ने भूल की तो संसार में भटक गया जब अपनी भूल ज्ञात हुई तो इस संसार समुद्र से पार हो गया।

     

    यह सिद्धक्षेत्र बताता है कि यहाँ अनेकों आत्माओं ने अपना स्वाभिमान जागृत किया, अपनी भूल को सुधारा और अपनी सोई हुई शक्ति को उद्घाटित किया। यह कार्य बाल, वृद्ध और दुर्बल सभी ने किया है। संतों के ये उपदेश सोई हुई शक्ति को उद्घाटित कराने वाले होते हैं, समीचीन दिशा बोध देने वाले होते हैं और जो काल के भरोसे बैठे हुए पुरुषार्थ हीन व्यक्ति हैं उन्हें पुरुषार्थ शील बनाने वाले होते हैं।

     

    काल कभी लौटने और लौटाने की वस्तु नहीं है और जो काल के गाल में चले गये उसे कोई लौटा नहीं सकता है। कहने को सूर्य लौटता है, उदय होता है पर काल का नहीं। काल में कार्य होते हैं काल से नहीं। काल कब से है इसे ज्ञानी जान सकते हैं पर्याय बुद्धि वाले नहीं। पर्याय बुद्धि वालों को तो काल चक्कर में डालने वाला होता है। काल के बिना कुछ नहीं होता ऐसा जो जान कर काल का दास बना हुआ है वह पर्याय दृष्टि वाला पजय मूढ़ कहलाता है।

     

    जब ऊपर के क्षेत्र वाले ट्रस्टियों ने ऊपर क्षेत्र पर पधारने का श्रीफल चढ़ाकर आमंत्रण दिया और नीचे तपोवन वालों ने दूसरे रविवार की कही तब आचार्य श्री ने अपने प्रवचन में जवाब देते हुए कहा जब दो रवि एक साथ नहीं देख सकते तो दो रविवार की बात क्यों ? दूसरे रविवार की चिंता करने से वर्तमान के रविवार का महत्व कम हो जाता है। नीचे और ऊपर ये भी पर्याय है इन पर्यायों के ऊपर उठकर इन सिद्ध क्षेत्रों में आकर सोचना विचारना चाहिए कि हे भगवन् आप ऊपर चले गये किन्तु हम कितने बार ऊपर नीचे हुए पता नहीं और आत्मा की बात मनोयोग पूर्वक आत्मा से सुन लेना चाहिए तब आत्मा का कल्याण होता है।

    भेद भाव तज दे अरे, खून सभी का एक।

    जैन धर्म है, जाति ना, निज स्वरूप सब एक॥

    सर्वोदय जिन तीर्थ में, ऊँच नीच ना भेद।

    धर्म साधना के लिए, नहीं जाति का भेद॥

    आया क्यों, क्या साथ में लाया, क्या ले जाय।

    क्या क्या करता सोच तू, भेद ज्ञान हो जाय॥

    भेद ज्ञान ही ज्ञान है, व्यर्थ भौतिकी ज्ञान।

    भेद ज्ञान बिन मौत की, नहीं सही पहचान।

    (विद्या स्तुति शतक से.)

    Edited by admin


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    असफलताओं से हार नहीं मानना अपितु शिक्षा लेने का प्रयास करें

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