भारत में श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों ने जन्म लिया, जिन्होंने मानव ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों के भी प्राणों की रक्षा की है। नारायण श्रीकृष्ण की जन्माष्टमी को लोग पर्व के समान मानते हैं। उन्होंने संकट के क्षणों में प्राणियों की रक्षार्थ गोवर्धन पर्वत को उठाकर अपने बाहुओं पर उसको स्थित रखकर नीचे प्राणियों को शरण दी और दया धर्म का पालन किया था। उन्हीं के भारत में आज जीवों की हिंसा हो रही है जो घृणास्पद तथा शोचनीय है गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि पशुओं को बूचड़खाना में एक साथ लाखों की संख्या में समाप्त कर उनकी हड्डी, मांस, चर्बी आदि निर्यात करके विदेशी मुद्रा को इस राष्ट्र के कर्णधार शासक कमाना चाहते हैं। विचार कीजिये यह कैसा व्यापार है? गौवंश को समाप्त करके देश की कभी भी उन्नति नहीं की जा सकती।
अर्थ नीति को समझने संभालने वाले शासकों को अर्थ उत्पति के साधन जुटाने वालों को आदर्शकारी भारतीय संस्कृति से शिक्षा लेनी चाहिए उसके लिए और भी अन्य साधन हो सकते हैं। क्या किसी भी विकसित राष्ट्र ने गाय-बैलों को समाप्त करके उन्नति पाई है ? कृषि प्रधान कहलाने वाला देश आज पशु धन से कृषकाय क्षीण होता जा रहा है इस कारण हमारी संस्कृति भी क्रमश: समाप्त होती जा रही है। विदेशों से आयातित खाद्य आदि रसायनों से यहाँ की धरती भी बंजर होती जा रही है। मांस बेचकर, गायों को समाप्त कर कमाये जाने वाली मुद्रा की अपेक्षा उन मूकप्राणियों की मुद्राओं की ओर भी देखो। मुद्रा संग्रह अर्थ धनार्जन के नाम पर निरपराध जीवों का वध करके मांस बेचने वाला यह भारत देश कहाँ तक अपनी उन्नति कर पायेगा। यह विचारणीय तथ्य है।
आज के राजनेता साधु संतों के पास जाकर जहाँ इन मूकप्राणियों की रक्षा करने का वचन देते हैं, बाद में वे ही वचनों से मुकर भी जाते हैं। इस कारण से भारतीय संस्कृति के अध्ययन से वंचित, ऐसे राजनेता मात्र स्वार्थ सिद्धि के लिए देश को अंधकार की ओर ले जाते हैं। चोरी छिपे इन मूकप्राणियों को ट्रकों, रेलों में भर भरकर अन्यत्र कई मीलों दूर तक फैले आधुनिक मशीनीकृत बूचड़खाना तक ले जाया जाता है। जहाँ जानवरों को कई दिनों तक भूखा-प्यासा रखकर महीनों तक स्टाक विभिन्न प्रकार से कष्ट देते हुए निर्दयता पूर्वक दिन-प्रतिदिन समाप्त किया जाता है।
गोमाता के दुग्ध सम, भारत का साहित्य।
शेष देश के क्या कहें, कहने में लालित्य।
यह सरकार एक तरफ तो मोर, सिंह, चीते आदि की रक्षा के लिये कानून बनाती, शिकार करने पर प्रतिबंध लगाती है। वहीं दूसरी ओर इन मूक प्राणियों के वध हत्या के लिए खुल्लम-खुल्ला लाइसेंस दे रही है। ऐसा अंधेर क्यों ? आचार्य श्री ने लोगों को जागृत करते हुए कहा कि सरकार को आप चुनते हैं। अत: उस व्यक्ति को चुने जो योग्य, न्यायप्रिय तथा अहिंसक नीति का पालक हो, तभी देश से हिंसा के वातावरण की समाप्ति होगी। आप अपने-अपने परिवार के हित के बारे में सोचते हैं। उसकी सुख-सुविधा की आपूर्ति हेतु सरकार के समक्ष माँग रखते, हड़ताल, आन्दोलन आदि करते हैं तब क्या इन मूक पशुओं की रक्षा हेतु सरकार से माँग नहीं कर सकते हैं। श्रीकृष्ण जैसे शलाका पुरुष, जिन्हें 'गोपाल' कहते थे अर्थात् जो गौवंश के पालनहार कहलाते थे। वे भी इनकी रक्षा हेतु प्रतिपल तत्पर रहते थे तब आप भी सरकार से आग्रह करें। ताकि वह लाखों की संख्या में होने वाले पशुसंहार (हत्या) को बंद कराएँ जो प्रजातंत्र के नाम से नरकुण्ड जैसा घृणित कार्य कर रही है।
शास्त्रों में 'गौवत्स' को समप्रीति कहा गया है 'वत्स' शब्द से ही वात्सल्य शब्द बना है। अजीव वस्तु से राग तो हो सकता पर प्रेम, वात्सल्य, स्नेह जड़ पदार्थों से नहीं बल्कि सचेतन जीवित प्राणियों से होता है। जब बैल वत्सरूपी गाय का बछड़ा समाप्त हो जावेगा, तब वात्सल्य किससे करेंगे? धर्म शब्दों तक ही सीमित न रह जावे। महत्व तब है जब शब्दों से अर्थ एवं भाव स्पष्ट हो तब ही उसकी सार्थकता होती है। आपका नाम 'गोपाल” है। अत: शब्द का अर्थ गौ यानी गौवंश का पालनकर्ता और आप विध्वंश करने वालों को सम्मान दे रहे हैं। पशु-पक्षी तो निरपराधी है, उनका विध्वंस नहीं बल्कि उनके उत्थान के साधन जुटाने चाहिए। अपने जीवन में देखें, मात्र प्रचार-प्रसार में ही न उलझे। क्योंकि अहिंसा धर्म ही पूज्य है। भारतीय संस्कृति में हिंसा का स्थान नहीं है इसलिये इसका समूल नाश अनिवार्य है। आचार्यश्री ने कहा कि -
सुनते-सुनते शास्त्र को, बधिर हो गए कान।
तो भी तृष्णा नामिटी,प्रयाण-पथपरप्राण॥
आप संसार में अपने स्वार्थ के बारे में सोचते रहते हैं लेकिन जिसके कारण आपके जीवन का लालन-पालन एवं संवर्धन हुआ, उसके साथ क्रूरता पूर्ण किये जाने वाले कार्य-व्यवहार क्या सत्कार्य के योग्य है? इनका मूल्यांकन आप भले ही न कर सके परन्तु जानवर तो इसका मूल्यांकन कर लेते हैं इसीलिये तो वे हमारे कष्ट को दूर करने हेतु स्वयं कष्ट सहन करते रहते हैं। आपको बाहुबल मिला उसकी सार्थकता इसी में है कि उसका प्रयोग दूसरों की रक्षा करने में हो किन्तु जो निर्बल-असहाय निरपराध जनों की रक्षा में ही सक्षम नहीं वे जीवन में दया को अंगीकार करने वालों की रक्षा क्या करेंगे?
भगवान् महावीर, श्रीकृष्ण, राम आदि शलाकापुरुष कहलाते हैं। जिनका जीवन आदि से अंत तक कल्याण से जुड़ा होता वे ही शलाका पुरुष हैं। वे संख्या में ६३ माने गए यह संख्या भी महत्वपूर्ण है। छह के सामने तीन रखने से ६३ बनता जो मांगलिक महोत्सव तथा सुख-साधन जुटाने वाला होता किन्तु आज ६३ का नहीं बल्कि ३ की ओर पीठ करके बैठने वाले ३६ का युग आ गया है। अत: कलिकाल में धर्म कर्म उलटता ही जा रहा आज राजनीति में धर्म के नाम से काम लिया जा रहा है। ये ही दुखदायी है जिससे बचने का प्रयास कर भारत राष्ट्र की आदर्शपूर्ण संस्कृति की रक्षा हो सकती |
"अहिंसा परमो धर्म की जय !"
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