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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कुण्डलपुर देशना 7 - धर्म का आस्वादन

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    ‘वचन की शुचिता एवं शरीर की शुचिता के लिए सभी प्रयास करते हैं। वचनों में शब्दों और अर्थ की शुद्धि के साथ शरीर की शुद्धि कर, पर को प्रभावित/आकर्षित करने का प्रयास होता है। ये दोनों नहीं हों किन्तु मन की शुचिता हो तो वह भी पर्याप्त है। शुचिता के अभाव में हानि की हानि है। शरीर की शुचिता स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद तथा वाचनिक शुचिता पर को स्पष्ट बोध तथा आकर्षण का कारण होती है। मन की शुचिता नहीं कर पाने का दुष्परिणाम हमें आज तक भोगना पड़ रहा है। शौच धर्म, क्रोध, मान, माया लोभ आदि कषायों की प्रकर्षता को भी शुचिता में ढाल देता है, उसे कम या समाप्त कर देता है।'


    पूज्य-पाद गुरु पाद में, प्रणाम हो सौभाग्य।

    पाप ताप संताप घट, और बढ़े वैराग्य ||

    हम बाहर तो दीपावली मनाते, किन्तु भीतर होली खेलते रहते हैं। दीपावली पर्व पर सभी लोग अपने भवन को अन्दर/बाहर से रंगरोगन-वान बनाते हैं। होली पर्व पर नहीं परन्तु जब तक भीतरी क्षेत्र-वातावरण को साफ-सुथरा नहीं बनाया जाता, तब तक वह सारा प्रयास व्यर्थ है। हमारी वर्तमान दशा पूर्व में किए कार्यों के फलों को दर्शाती है। मल भले ही जल के भीतर किया जावे पर वह ऊपर तैरकर आता ही है वैसे ही हम भीतरी भावों/परिणामों को छुपाने का प्रयास भले ही करें, परन्तु वह बाहर प्रकट हो ही जाते हैं हमारे स्वयं के हावों-भावों से। आप प्रतिदिन साबुन से स्नान करके वस्त्र से पोंछ कर शरीर आदि को स्वच्छ बनाते हैं। धार्मिक क्षेत्र में शौच धर्म वह औषधि रसायन है जो इस लोक तथा परलोक दोनों को सुधारने वाला है। धर्म-अर्थ एवं काम तीन में से धर्म पुरुषार्थ गृहस्थों के लिए मुख्य है और जो ग्रहण किया था उसे त्याग करने रूप मोक्ष पुरुषार्थ श्रमणों के लिए है। साधु जीवन में उपकारी उपकरणों के प्रति मोह को त्यागने में ही धर्म का आस्वादन आता है। पर गृहस्थ कर्म को छोड़कर उससे दुगुना पाने के लिए धर्म करता है, परिग्रह के प्रति यही आसक्ति उसकी मानसिक अशुचिता का कारण बनती है।


    १० या २५ नहीं बल्कि ६० प्रतिशत अर्जित धन संपति को देना'दान' परन्तु त्याग तो सर्वथा छोड़ना है, जो रखा उसके रक्षण संवर्धन के भाव आते हैं। गृहस्थ एक-एक पैसा जोड़ने को अपने धन का विकास मानता है एवं खर्च करने पर उसे पसीना आता है। संत रूपी दर्शन-दर्पण में आत्म स्वरूप की निर्मल दशा झलकना ही प्रसन्नता है। भगवान् को देख हम भी प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मुखमुद्रा में लोभ, लालच या संक्लेश नहीं अपितु आनंद का सरोवर लहराता है। वह उनकी आंतरिक शुचिता का ही प्रतिफल है। जैसे स्वच्छ जल में भले ही लहरें उठ रही हों तब भी भीतरी वस्तु को देखा जा सकता है।


    पर आपकी लहरें अलग ही हैं जैसे कीचड़दार जल लहर रहित होने पर भी उसमें मलिनता होने के कारण भीतरी परिणति को नहीं आंका जा सकता। अत: मन को शुद्ध रखने के लिए ही धार्मिक अनुष्ठान किए जाते, इसके अलावा और कोई साधन नहीं है। हमारे अलावा अन्य के भी मन: परिणाम शुद्ध हों ऐसी भावना करने से भविष्य सुधरेगा पर यह तभी संभव हो सकेगा जब हमारा मन अन्तर से उज्ज्वल हो। शौच धर्म की पवित्रता-गहराई दूसरों के लिए नहीं अपितु स्वयं के लिए हैं। सूत्र/धर्म को पर के लिए कहना ही गलत धारणा है, अत: इसे मन से निकाल दें। दर्पण को देखकर जैसे स्वयं के मुख को साफ करते हैं, ऐसे ही पर के निमित से स्वयं को साफ-स्वच्छ किया जा सकता है। हम आज दूसरों की गंदगी को देखते हैं स्वयं की नाक में भरे हुए मल को नहीं, पर की आँख की लालिमा को तो देखते, पर स्वयं की आँख की लालिमा को महसूस ही नहीं करते। वस्तुतः दूसरों की ओर देखना जैनाचार्यों ने दोष माना है।
     


    संसारी प्राणी को मन धोने में पसीना आता और तन धोने में आनंद। तन को स्नपित कराने के उपरांत जैसे भूख खुलती है, वैसे ही मन को शुद्ध कर लेने पर आत्मानुभूति रूप भूख खुलती है। ‘समयसार" में कथन है कि हमने काम-भोग एवं बंध की कथायें तो बार-बार की हैं, अनादिकाल से करते आ रहे हैं पर शुद्ध आत्मतत्व का अनुभव, चिंतन कब हो, ऐसा प्रयास कभी नहीं किया। यह आत्म तत्व का अनुभव उसे ही प्राप्त होता है जो दूसरे के मन-वचन एवं काय की नहीं बल्कि स्वयं की भीतरी चेष्टा को देखता है।


    तीर उतारो तार दो, त्राता! तारक वीर।

    तत्त्व-तन्त्र हो तथ्य हो, देव-देवतरु, धीर॥

    आत्म तत्व को धोने/साफ करने के लिए घंटों या वर्षों नहीं बल्कि एक अंतर्मुहूर्त ही पर्याप्त है। मन गंदा होने का कारण यह है कि भीतर लोभ जागृत होता है। वस्तु मिले या न मिले पर वह उसे प्राप्त करने की योजना अवश्य बनाता है/उसी उधेड़ बुन मायाचार में लगा रहता है, उसके मिल जाने पर मान करता और नहीं मिलने पर क्रोध करता है। ऋण एवं अग्नि को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। अग्नि की छोटी-सी कणिका विशाल भवन को खाक कर देती है और छोटा-सा वृण बढ़कर घाव-नासूर बना जाता तथा छोटा-सा भी ऋण बढ़कर मूल की अपेक्षा ब्याज प्रतिफल बढ़ाता जाता है। मुंशी प्रेमचन्द्र की कहानी 'सवाशेर गेहूँ-बंधुआ मजदूर’ अत: इनके प्रति प्रमाद न करें बल्कि शीघ्र ही इन्हें समाप्त कर देना चाहिए। वैसे ही वचन व तन के साथ मन को भी शुचि बनायें अन्यथा हमारी चेष्टा सरोवर में स्नान करके बाहर आए हुए हाथी के समान ही होगी। जो बाहर आते ही धूल को अपने सिर पर डालता है।


    भगवान् महावीर का यही संदेश है कि परिग्रह के कारण कषाय जागृत होती है और उसी के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का वैभव फैलता है। संतोष रखने से अपने आपको स्वस्थ बनाया जा सकता है। मन को शुद्ध बनाये रखने के लिए अपने ऊपर जो परिग्रह का अंबार लाद रखा है उसे समाप्त करना होगा। सुख चाहने मात्र से दुख से छुटकारा नहीं होगा। छहढाला में कहा- सुख चाहें दुख ते भयवन्त - उसके लिये अथक प्रयास कर परिग्रह का विमोचन कर तप-त्याग के पथ पर आगे बढ़ेंगे, तभी परम सुख के लिये प्राप्त होंगे।


    महावीर भगवान् की जय!

    Edited by admin


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