धर्म मन वचन काय या धन से नहीं वह तो चेतन से संबंध रखने वाला तत्व है। वह खरीदने बेचने या डिब्बे में रखकर बंद कर लेने की वस्तु नहीं अपितु धर्मात्मा के अंदर की परिणति है। धर्मात्मा होने की बात तो की जा सकती है परन्तु पहले स्वयं धर्मात्मा बनें, न कि धर्मात्मा बनाने के चक्कर में पड़े। किसी को मार्ग बताने के पूर्व स्वयं उसको पूर्णत: या अंशत: अपने जीवन में आचरित करें।
धर्म निर्जीव वस्तु नहीं जिसे यूँ ही स्थापित कर दिया जावे। उसकी आवाज सुनने की चेष्टा करें। तन-मन-धन या वचनों से डर लग सकता परंतु धर्म की शरण में जाकर भयावह प्रसंगों से अपने आपको बचाया जा सकता है। देश में जो सांस्कृतिक उत्सव होते हैं वे मात्र औपचारिकता पूर्ण नहीं बल्कि उनसे जनता की सुप्त चेतना जागृत होती है। इसीलिए धार्मिक या सामाजिक उत्सव पूर्ण आनंद और उत्साह से मनाये जाते हैं। मन में उत्साह उमंग होने पर वह वचनों से अभिव्यक्त होता है तथा वचनों में आ जाने पर यह अंग प्रत्यंग के हाव-भाव से प्रगट होने लगता है। उत्साह भीतर हो तो वह शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति को प्राप्त होता है, क्योंकि हृदय के भाव चेहरे पर भी झलकने लगते है।
समता भज तज प्रथम तू पक्षपात परमाद।
स्याद्वाद आधार ले समयसार पढ़ बाद।
वर्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था के संबंध में कहा कि राजकीय सत्ता में यथा 'राजा तथा प्रजा' की उक्ति चरितार्थ होती है पर लोकतंत्रीय व्यवस्था में यथा प्रजा तथा राजा की सार्थकता होनी चाहिए। जिस कारण जनता अयोग्य व्यक्तियों को हटाकर योग्य व्यक्तित्व को उस पद पर स्थापित करती है। अपने घर की व्यवस्था करने में जो फेल हो वह संपूर्ण भारत देश को क्या नियंत्रित करेगा? जो स्वयं ही अनुशासित-संयमित न हो। वस्तुत: प्रजा का कर्तव्य है कि यदि राजा (शासक) धर्मनीति से स्खलित हो रहा है तो उसमें सुधार करावें पर आज तो राजा ही नहीं रह गया और प्रजातंत्र के नाम पर आज मात्र स्टाप सा क्षतिपूर्ति ज्यों लग रहा है।
ये धर्मानुराग से प्रेरित नहीं बल्कि जातीयता, स्वार्थ या अपनत्व के कारण होता इसलिए उसे चेतन से अनुराग नहीं होता। जिनकी शरीर की ओर दृष्टि होती है उन्हें आत्मा की जाति का ज्ञान नहीं होता-वैसे चेतना तो सबके पास है। वेश बदलने मात्र से चेतना लुप्त नहीं हो जाती, वेश-परिवेश या देश की बदलाहट से जन्म-मरण की कुण्डली भले ही बदल जाये पर आत्मा की कुण्डली सदा एक सी रहती है। उसकी कोई भिन्न जाति अंश या वंश नहीं होता।
मात पिता रज वीरज मिलकर बनी देह तेरी।
मांस हाड़ नस लहूँ राधकी, प्रकट व्याधी घेरी॥
इस रज और वीर्य के संयोग से बने शरीर की बात अलग है। पर्याय बदल जाने पर ज्ञान भी पलट जाता है। पर धर्म के संस्कार जिसके जीवन में पड़ गये हों वह प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य दया से संयुक्त हो करुणामय भावों के साथ जीवन-यापन करते हैं उन्हीं का साक्षात्कार प्रभु से हो जाता है -
साक्षात्कार प्रभु से जबलों न होता,
संसारी जीव तबलों भव बीच रोता।
पट्टी सु साफ करता नहिं घाव धोता,
कैसे उसे सुख मिले, दुख-बीज बोता॥
"महावीर भगवान् की जय!"
Edited by admin