दीक्षा बाहरी नहीं भीतरी अन्तर्घटना है, जो लौकिक नहीं पारलौकिक है जिसे मन-वचन एवं काय के द्वारा उपयोग को उज्ज्वल बनाकर प्राप्त की जा सकती है। संसार में भी संवेग और निर्वेगमयी भाव बिरले ही जीवों के हो पाते हैं। संसार तथा शरीर की पहचान हो जाने से भोगों के प्रति उदासीनता आ जाती है और स्वयमेव आत्म-कल्याण की भावना से प्रसन्न चित ही दीक्षा को अंगीकार किया जाता है आचार्य श्री ने लिखा है- वैराग्य की दशा में स्वागत आभार भी भार सा लगता है। आँखों की पूजा आज तक किसी ने नहीं की, सदा चरणों की पूजा होती है यानि दूष्टि नहीं आचरण पूज्य होता है।
तन मिला तुम तप करो, करो कर्म का नाश।
रवि-शशि से भी अधिक है, तुममें दिव्य प्रकाश।
ब्रह्मचारी त्रिलोकजी के मंगलाचरण के उपरांत सदलगा की सौभाग्यवती महिलाओों ने मंच पर दीक्षार्थियों के बैठने हेतु स्वस्तिक का निर्माण किया। २३ वर्षीय स्व. श्री बंशीलाल एवं श्रीमती कमलाबाई जैन छिंदवाड़ा के सुपुत्र १० प्रतिमाधारी प्रथम दीक्षार्थी ब्रह्मचारी दिलीपजी विगत ८ वर्षों से आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के संघ में साधनारत थे। दीक्षा के पूर्व वैराग्यमय उद्बोधन में आपने कहा कि पढ़ाई, व्यापार एवं सामाजिक कार्य करते हुए मैं निर्णय नहीं कर पाता था कि भविष्य में मेरा क्या लक्ष्य होगा। तत्वज्ञान की प्राप्ति तथा साधु-संतों के समागम से अंतरंग में निर्मल परिणाम हुए। एक दिन प्रसंगवश मंच पर बैठे-बैठे ही मन में विचार आये कि भविष्य में क्या बनूँगा? इस विषय पर परिचर्चा में मैंने निर्णय किया कि मैं अपने आपको पाना चाहता हूँ और इस कार्य हेतु अपने आपको आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के श्री चरणों में समर्पित कर अपने आपको पाना चाहता हूँ। इस हेतु दीक्षा का निवेदन कर मोक्षमार्ग पर चल दिया।
द्वितीय ब्रह्मचारी कुलभूषणजी स्व. गणपतराय गोविंदजी बारे और श्रीमती फूलाबाई से ग्राम महातपुर, तालुका मोड़ा (शोलापुर) महाराष्ट्र में जन्मे, बीएससी, अध्ययन प्राप्त कर आप आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से ५ वर्ष पूर्व आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर विगत ३ वर्षी से आचार्यश्री के संघ में रहकर साधक के रूप में १० प्रतिमा के व्रतों का पालन कर रहे थे।
आत्महित की भावना रखने वाले तृतीय ब्रह्मचारी श्री रंजन जैन, उम्र २६ वर्ष, विदिशा जिले के मुरारिया निवासी सद्गृहस्थ श्रावक श्री निर्मलकुमार जैन एवं श्रीमती स्वर्णलताजी के पुत्र हैं। एम. काम. आर्ट तक लौकिक शिक्षा प्राप्त कर आप आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके श्री दिगंबर जैन उदासीन आश्रम इंदौर में धर्माराधनारत थे। सप्तम प्रतिमा की साधना करते हुए आपने ब्रह्मचारी श्री सुखलालजी, (क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी) तथा (क्षुल्लक श्री पुनीतसागर जी) महाराज का सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण कराने में पूर्ण योगदान दिया। अचानक इस दीक्षा महोत्सव के कार्यक्रम के प्रारंभ में ब्रह्मचारी अभयजी ने दीक्षार्थी त्रय का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर आचार्य श्री के चरणों में दीक्षा प्राप्ति हेतु निवेदन करने के लिए आह्वान किया। प्रातः ८ बजे दीक्षा का मांगलिक कार्यक्रम प्रारंभ हुआ जो लगभग पौने दो घंटे में पूर्ण हुआ। ब्रह्मचारी दिलीपजी,ब्रह्मचारी कुलभूषणजी तथा ब्रह्मचारी रंजन जी को आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर क्रमशः क्षुल्लक श्री निर्वेगसागर महाराज, क्षुल्लक श्री विनीतसागरजी महाराज तथा क्षुल्लक श्री निर्णयसागरजी महाराज के रूप में नामकरण किया। (तालियाँ) दीक्षा संस्कार करने के उपरांत आचार्य श्री ने संयमोपकरण रूपी मृदु पिच्छिका श्री संतोष सिंघई दमोह, महावीर अष्टगे सदलगा, ब्रह्मचारी चंद्रशेखरजी इंदौर से प्राप्त कर तीनों दीक्षार्थियों को प्रदान की। शास्त्रोपकरण श्री सुरेन्द्रकुमार जैन पानीपत, श्री कल्याणमल झांझरी कलकत्ता तथा श्री विजयकुमार जैन दिल्ली द्वारा पूज्य श्री क्षुल्लक महाराजों के लिये समर्पित किये गये तथा दीक्षार्थी की ओर से भावना भाई कि -
पूज्य-पाद गुरु पाद में प्रणाम हो सौभाग्य।
पाप ताप संताप घट, और बढ़े वैराग्य।
"भगवान् महावीर की जय!"
Edited by admin