अहिंसा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है जैनदर्शन में ज्ञान और दर्शन को अहिंसा के कारण ही धर्म की संज्ञा प्राप्त है। अहिंसा से ही ज्ञान समीचीन माना जाता है। उसकी स्वीकारता से ही रत्नत्रय की प्राप्ति होती है और इस नश्वर शरीर के माध्यम से वह अविनश्वर दशा प्राप्त की जाती है। जीवन में एक ओर पुरुषार्थ होता है तो दूसरी ओर भाग्य। बुद्धि पूर्वक किया गया पुरुषार्थ नहीं तथा शरीर को छोड़कर चले जाना मात्र ही मृत्यु नहीं है। संयोग-वियोग से ऊपर उठकर सोचने से ही जीवन का यथार्थ बोध हो सकता है, संयोग होने पर हर्ष तथा वियोग होने पर आँसू आ जाने मात्र से नहीं।
इस जड़ द्रव्य के दान के साथ कथचित् आदान का भी भाव आ जाता किन्तु चेतना/भावों का दान भी दान है। चिकित्सा के क्षेत्र में रोगी के प्रति अपनत्व, प्रेम वात्सल्य तथा अभयदान के कारण उसकी बाधा यूँ ही समाप्त हो जाती है, जिसे पैसे से दूर नहीं किया जा सकता। अत: वैद्य या चिकित्सक प्राणों की रक्षा तथा रोग को दूर करने का संकल्प करते हुए इस कार्य हेतु प्रभु स्मरण कर सफलता प्राप्ति हेतु कामना करते हैं।
इसलिये हमें शारीरिक चिकित्सा करने के पूर्व उसे अभयदान देना आवश्यक है। जीवन केवल रोटी, कपड़ा और मकान, आवास आदि से नहीं, उसके लिये तो ऐसे अनेक कारण हैं जिन्हें हम समझ ही नहीं पाते। हृष्ट-पुष्ट देह का धारक भी मरण को प्राप्त हो जाता-जबकि दुबले-पतले शरीर वाला वर्षों निकाल लेता है। मृत्यु आज ही नहीं हुई वह तो पहले भी हुई अत: मृत्यु से बचने के लिये मृत्यु और जीवन के वास्तविक कारणों को समझना अनिवार्य है।
हम ऐसी भावना करें ताकि दूध और पानी की मित्रता के समान सभी का संबंध परस्पर जुड़ सके। जो संकटों में है, उनके दुख दूर हों, ऐसा रचनात्मक प्रयास करना आवश्यक है। जीव को पहचानने के लिये सेवा, परोपकार, प्रेम या वात्सल्यमय भाव ही शाश्वत माध्यम है। जैन धर्मावलम्बियों को आह्वान करते हुए कहा है कि मात्र आत्मा-आत्मा की बात कर लेने से जैन धर्म की प्रभावना पूर्ण नहीं होगी। संगोष्ठी, शिविरों के माध्यम से अथवा शास्त्र-प्रकाशन करने मात्र से नहीं बल्कि ऐसे रचनात्मक कार्य जो शास्त्र के अनुरूप हैं उन्हें जीवन में उतार कर रुग्ण प्राणियों की सेवा कर स्वयं तप को अंगीकार करें। व्यक्ति त्यागी हो या गृहस्थ वह दया के बारे में अवश्य सोचे तथा अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार करे। अत: सेवा के, बंद द्वार को खोलकर सम्यग्दर्शन के अंगभूत अनुकंपा गुण को चरितार्थ करे और ऐसा पथ प्रशस्त करें ताकि पतित जीवन भी पावन बन जाये।
सीमा तक तो सहन हो अब तो सीमा पार।
पाप दे रहा दण्ड है, पड़े पुण्य पर मार॥
जीवन में सम्मान आवश्यक तो है, अनिवार्य नहीं। वह अनिवार्य इसलिए नहीं क्योंकि जिसका सम्मान होता है उसके कदम विकास हेतु कथचित् रुक जाते हैं। जबकि आगे बढ़ना अनिवार्य है, अत: वह पीछे या आजू-बाजू मुड़ सकता। ज्ञान के कारण प्रभावित होकर अभिमान में ढलकर पतन की ओर चला जाता है। ज्ञान का संयत नहीं होने से मान-सम्मान की भूख जागृत होती है, जबकि सफलता की प्राप्ति ही उसकी संतुष्टि है। ज्ञान जब पुष्ट या बलवान होता अनुभव की गहराई में उतरकर स्वयं अपने आप ही पुरस्कृत हो जाता है। वह अपने गुणों के कारण दूसरों से नहीं अपितु अपने कर्तव्य से ही गौरवान्वित होता है।
कृति स्वयं ही कर्ता का परिचय देती है। कर्तृत्व एवं कर्तव्य में यही भेद है। कर्म या कार्य करते हुए भी फल की इच्छा न करें, किन्तु कर्मयोगी बनें या नहीं, पर कर्म के फल को देखने की उत्कण्ठा बनी रहती है। वस्तुत: कार्य करते हुए फल की आकांक्षा नहीं होने पर वह अपनी सुगंध से स्वयं ही परिसर को सुवासित कर देता है। किन्तु आज तो एक्शन का प्रतिफल रिएक्शन में ही हो रहा है और इसी का बाजार गर्म है। कर्तृत्व अभिमान का तथा कर्तव्य सम्मान का प्रतीक है। राम कर्तव्य के तथा रावण कर्तृत्व के प्रतीक थे।
आज चारों ओर मारकाट चल रही है, कहते हैं कि ज्ञान का विकास चहुँमुखी हो रहा है? पर ज्ञान का फल क्या? यह ज्ञात नहीं, हम शासन की बात तो करते पर स्वयं अनुशासित नहीं हो पाते यही कमी है। युग के आदि में भगवान् वृषभनाथ ने सम्पूर्ण प्रजा को योग्यता के अनुरूप अनुशासित किया था परन्तु आज लगता है अनुशासन शब्द बोध में ही रह गया है। आत्मानुशासन तो महावीर के साथ ही चला गया-ऐसा लगता है। वस्तुत: अनुशासित हुए बिना विवेक ही नहीं होता। आज अनुशासन हीनता के कारण व्यक्ति एवं समाज का सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक पतन होता जा रहा है। आचार्य श्री ने मानव जीवन पर चोट करते हुए कहा कि-
साधना अभिशाप को वरदान बना देती है |
भावना पाषाण को भगवान् बना देती है ||
विवेक के स्तर से नीचे उतर जाने पर |
वासना इंसान को शैतान बना देती है ||
मनुष्य इंसानियत के बिना दुर्गति का पात्र होता और इंसानियत के साथ हो तो स्वयं ही ईश्वर बन सकता है। ऊधम से नहीं, उद्यम करने से सफलता प्राप्त होती परन्तु आज तो चारों ओर ऊधम ही ऊधम हो रहा है। सात्विक भावों के कारण उल्लास, संतुष्टि पूर्वक कर्म फल चिंतन करने से स्वास्थ्य में सुधार होता है जो भीतरी भावों में सुधार होने का परिचायक है। लोगों को यहाँ विश्व शांति की बात करने की अपेक्षा पहले स्वयं परिवार को संभालने से मिलकर रहने से विश्व शांति का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त हो जाता है। सफलता मिलने पर आनंद की लहर छा जाती, आनंद का अनुभव होता है तब बाहरी एवं भीतरी विकार निकल कर कार्य पूर्ण हो जाता और आत्मा-परमात्मा में परिणत हो जाती है। मानव के कर्तव्यों पर चोट कर पशुता की दुहाई दी है
"ये बखूबी ये कौन-सी बशर है। सारी शक्ल लंगूर की पर दुम की कसर है" अज्ञातदशा में किए अनर्थों को ज्ञात करके पश्चाताप करने से सुधार संभव है। ज्ञान-ज्ञान मात्र रहे तो ठीक है, अन्यथा वह ज्ञान मान के कारण प्रमाण या पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता और मान-अभिमान के कारण भवभव में भटकन का कारण हो जाता है। हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पा रहे उसकी बहुमूल्यता को नहीं आक रहे हैं। कर्तव्य को निष्ठा पूर्वक धर्म समझकर करने से समीचीनता प्राप्त होगी। किन्तु बीच में प्रतिष्ठा की बात नहीं करें, तभी सही पथ प्रशस्त होगा। मार्ग में इधर-उधर देखने पर व्यवधान पाकर गति ही बिगड़ सकती, अत: जीवन में ‘कहना' ही नहीं 'करना' भी महत्वपूर्ण है जिससे सफलता प्राप्त होती है।
महावीर भगवान् की जय!
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