दिन के आते ही रात भाग जाती है वैसे ही आत्म-ज्योति के प्रकट होने पर पापमयी जीवन समाप्त हो जाता। और नूतन जिन्दगी प्रारंभ हो जाती है। उस समय राग समाप्त होकर वीतरागता का नवप्रभात होता है। राग की दशा में व्यक्ति आत्म हित की बात भूल जाता फलस्वरूप वह सही को गलत अथवा गलत को सही जैसे सर्प को रस्सी और रस्सी को सर्प मानने लगता यह सब प्रबल राग का ही दुष्परिणाम है।
मुनि वन वन में तप सजा, मन पर लगा लगाम।
ललाम परमातम भजा, निज में किया विराम ||
जिस घटना को देखने से किसी को वैराग्य होता है उसी को देख दूसरे को विशेष राग ‘हो उठता है। जिसकी दृष्टि में जो होता है उसे सृष्टि भी वैसी ही दिखती है। किन्तु समीचीन बोध प्राप्त सम्यग्दृष्टि की भावना में, सदा अंतर्दूष्टि रहती है। जिससे वे सदा सभी के सुख या हित प्राप्ति की भावना करते हैं। पूर्वाचार्यों संतों ने चार पुरुषार्थों में धर्म पुरुषार्थ, अर्थ पुरुषार्थ के बाद काम पुरुषार्थ का उल्लेख किया है। इसके उपरांत ही मोक्ष पुरुषार्थ की ओर विशेष गति हो जाती है, धर्म के चलते गृहस्थ आचरण पालन करते हुए न्याय-नीति पूर्वक धनार्जन करके ही भोग-उपभोग की वस्तुओं का प्रयोग करता है किन्तु ध्येयभूत मोक्ष पुरुषार्थ के लक्ष्य को नहीं भूलता है।
आचार्य श्री ने पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव एवं दुष्परिणाम की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया कि आज चारों और पश्चिमी हवा के वातायन का प्रभाव जोरों से बढ़ता जा रहा है जिसके कारण धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ छूटते जा रहे हैं, इन्हें भुलाकर अर्थ और काम पुरुषार्थ की ओर ही लक्ष्य हो जाना उस हवा का रुख है, भारतीय संस्कृति सदा निवृत्ति प्रधान अर्थात् धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ प्रधान रहा इन पुरुषार्थों तक पहुँचने के लिए भूमिका के अनुसार शेष दो पुरुषार्थों का प्रयोग होता है। पश्चिमी प्रभाव ने भारतीय संस्कृति के गरिमामय माहौल में रंग में भंग या मंगल में दंगल कर अशांति उत्पन्न कर दी जिसमें आनंद के स्थान पर अब सर्वत्र क्रदन, रुदन ही प्रारंभ हो गया है।
यह निश्चित है कि गृहस्थ का जीवन अर्थ के बिना नहीं चलता। अत: वह उस द्रव्य (धन) से भोग–उपभोग की सामग्री प्राप्ति हेतु अर्थ को खर्च करता है किन्तु अर्थ की गति को अनर्थ से बचाये बिना तथा मूल कर्मबंधन, संसार से धर्म पुरुषार्थ को किये बिना मुक्ति मिलना संभव नहीं है। इसीलिये भारतीय परम्परा के अनुरूप पहले माता-पिता के द्वारा लड़के-लड़कियों के विवाह संबंध निश्चित किये जाते थे, पर पश्चिमी हवा के प्रभाव से आज पहले ही संबंध स्थापित हो जाते हैं। माता-पिता की स्वीकृति तो मात्र औपचारिकता रह गई है। इसी का दुष्परिणाम है कि पति-पत्नी में विवाह के उपरांत ही आपसी मनो-मालिन्य, तनाव कुठा की भावनायें दिनों-दिन बढ़ती जाती हैं।
आचार्य श्री ने हरिवंश पुराण कथा की और दृष्टि पात कर आकाश सौर मंडल में सूर्यमणि के समान चमकने वाले वैभव को प्रदर्शित करने वाले यदुवंशी नारायण श्री कृष्ण के भावी तीर्थकर के जीव, कुमार नेमिनाथ के दीक्षा ग्रहण एवं तपस्या को चित्रित करने वाले चित्र तो घरों-मंदिरों में सहज ही मिल सकते हैं। परंतु जिस घटना से उनके मन में वैराग्य के भाव दृढ़ हुए और उन्होंने दीक्षा ग्रहण की ऐसे व्याख्यान के चित्र बहुत कम देखने में आते है। उनकी बारात में आये कुछ जिह्वा लोलुपी व्यक्तियों के आस्वाद के लिये बाड़ी में बंद पशुओं को देखकर एवं चीत्कार सुनकर उन्हें वैराग्य हो गया और वे रथ से उतरकर गिरनारजी उर्जयन्त पर्वत पर जाकर दीक्षा लेकर श्रावक से श्रमण नेमिनाथ हो गए।
मुनि बन मुनिपन में निरत, हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनिव्रत का उपदेश दे, हमको किया कृतार्थ॥
यही भावना मम रही, मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी मुनिसुव्रत बनूँ, पावन पाय पदार्थ॥
विवाह की बेला में यह खबर ज्यों ही राजकुमारी राजुल तक पहुँची तो उन्होंने भी संसार की असारता व अस्थिरता जानकर स्वयं के लिये भी वैराग्य पथ पर मोड़ दिया और वह भी जिन आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने हेतु गिरनार पर्वत पर पहुँची, राजुल के उठते-गिरते रहने के कारण संभव हो नारी गिरी अथवा गिरि पर नारी के कारण गिरनारी/गिरनार पर्वत नाम पड़ गया, प्रभु नेमिनाथ और सती राजुल तो गिरनार चले गए किन्तु निरपराध-मूक-मृगादि पशु प्रतीक्षारत हो उस गिरनार की ओर दृष्टि ले जा रहे थे कि इन्हें तो संसार से मुक्ति मिल गई, हमें भी कोई मुक्ति दिला दे इस बंधन से। आचार्य श्री कहते हैं कि मनुष्य को पेट भरने के लिये डेढ़ पाव आटा पर्याप्त है, किन्तु उस पेट्रोल को भरने के लिये अनेक निरपराध पशुओं को मारकर भी उस गड़े की अतृप्त इच्छा को पूर्ण नहीं किया जा सकता। वस्तुत: पेट भरने के लिये अनर्थ नहीं किये जाते जितने कि मानसिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किये जाते। भगवान् नेमिनाथ के उपासक सोचते हैं कि उन्होंने शादी को बर्बादी की निशानी समझकर उसे छोड़ दिया। संभवत: इसी कारण शादी नहीं करायी हो। परन्तु दया का रहस्य समझने वाले प्रभु नेमिनाथ ने उस जीव हिंसा को पाप समझा। अहिंसा और शाकाहार के उपासक ने स्वयं को वैराग्य की ओर मोड़, हिंसा के पाँच कारणों का अभाव कर उपदेश दीक्षा के पूर्व ही प्रदान कर प्राणिमात्र का कल्याण किया ।
अहिंसा परमो धर्म की जय !
Edited by admin