सूर्य प्रतिदिन निकलता है और अपना प्रकाश फैलाता जाता है। जो सोकर उठ जाता वह प्रकाश पा जाता है तथा जो सोकर नहीं उठता वह उससे वंचित रह जाता है। कुछ लोग घर में बिस्तर में पड़े रहकर भी उठना नहीं चाहते, उनके लिये भी सूर्य के प्रकाश की किरणें छतों की सुराख से गर्मी पहुँचाकर उठा देती हैं अथवा सोते समय जो रजाई से मुख को ढाँककर रखें हों उसकी रजाई को ऊष्मा से तपाकर भीतर पसीना ला जगा देती हैं। सूर्य प्रकाश का लाभ उपयोग करने वाला ही ले पाता, सभी लाभ लें यह भावना अवश्य की जा सकती है।
उत्त विचार जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के कुण्डलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री श्री मुकेश नायक से साहित्यिक चर्चा के दौरान उस प्रश्न के उत्तर स्वरूप प्रदान किये, जिसमें उन्होंने जानना चाहा कि आज देश में जाति, वर्ग तथा क्षेत्र आदि की समस्याओं के कारण लोगों में बुद्धि, आनंद एवं शक्ति संचार के अवरुद्ध द्वार कैसे खुले?
व्यक्ति के अंदर सोयी शक्ति उद्घाटित हो सके और वह पतित दशा से ऊपर उठकर, पावन बन सके यह मूल उद्देश्य इस रचना का है। जब तक मिट्टी के कण बिखरे रहते वह निजीव मानी जाती है। किसी विशेष कार्य को संपन्न नहीं कर पाती न जल धारण कर सकती। घट का रूप होने पर ही वह जल धारण करने की योग्यता पाती है। संसारी प्राणी की बिखरी शक्ति पतित दशा में खोई-सी रहती है। किन्तु पुरुषार्थ करने से विश्व को भी जानने की क्षमता उसमें उद्घाटित हो जाती है। कणों के रूप में वह मिट्टी जल में घुलकर डूब जाती है जबकि घट के रूप में वह स्वयं भी जल में नहीं डूबती और डूबते को भी पार उतारने में सहायक बन जाती है। ऐसी क्षमता सबमें उद्घाटित हो यही मूल स्वरूप इस रचना का है।
उपादान की योग्यता, घट में ढलती सार |
कुंभकार का हाथ हो, निमित्त का उपकार ||
इसी प्रकार संसारी प्राणी की शक्ति जब तक बिखरी रहती है, पतित दशा में खोई रहती। वह पुरुषार्थ के द्वारा एक रूपता ग्रहण कर आत्म कल्याण करती है और पर के कल्याण में सहायक बनती है। वीतराग-विज्ञान विराट ज्ञान धारण करने की क्षमता उत्पन्न करता है, जिसकी प्राप्ति हेतु सर्व प्रथम राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, विषय-कषायों तथा पाप प्रवृत्तियों को त्याग कर उनसे ऊपर उठना होता है, तभी यह क्षमता उद्घाटित होती है। इसी वीतराग विज्ञान के माध्यम से ही पतित से पावन बनने का पथ प्रशस्त होता है। इस हेतु व्यक्ति को संयत एवं वीतरागी होना आवश्यक है, तभी अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति होगी। अन्यत्र इसे 'स्थित प्रज्ञ' भी कहा गया है। हमारी प्रज्ञा या बुद्धि यहाँ-वहाँ दौड़ती रहती, स्थित नहीं हो पाती। प्रज्ञा जब स्थित हो जाती है तो सही दिशा में प्रयास करती है, जिससे अपूर्व आनंद की उपलब्धि होती है।
ज्ञाता मूल द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है तथा ज्ञेय यानि जानने योग्य पदार्थ। हम ज्ञेय भूत जड़ पदार्थों की ओर देखते हैं किन्तु उसके भीतर जानने योग्य छुपी क्षमता को नहीं देख पाते। मूकमाटी में यह प्रेरणा दी गई है कि हमारी चेतना का विषय मात्र ज्ञान बन सके अथवा अनुभूति मात्र ज्ञान का विषय बन सके। इसके लिये हर्ष-विषादों से ऊपर उठकर तथा संघर्षों के बीच से गुजरते हुए आगे बढ़ने की आवश्यकता है तभी पतित से पावनता प्राप्त की जा सकती है और शुद्ध चेतन बनने का प्रयास किया जा सकता है।
संतों ने सर्वप्रथम संस्कृति को सामने लाने के लिए प्राकृत भाषा को माध्यम चुना था। जीवन के उत्थान में वही शिल्प विधान मुख्य है जो आत्म तत्व को स्वभाव की ओर मुड़ने की दिशा प्रदान करे। मूकमाटी में यही दिग्दर्शन कुंभकार के माध्यम से किया गया है। युग के आदि से ही शिल्पकार कुंभकार है जिसने अपने शिल्प को अपव्यय से दूर रखा। वही ऐसा शिल्पी है जिस पर सरकार का कोई टेक्स नहीं है। भारतीय संस्कृति में वही शिल्प अद्वितीय माना जाता है जो बिखराव में जुड़ाव के साथ, खंडित को अखंडित करने वाला हो। यही मूकमाटी का ध्येय है।
आचार्य श्री कहते हैं हम दूसरे पर उपकार करना चाहते हैं किन्तु जिस पर उपकार करना चाह रहे हैं उसमें ऐसी योग्यता भी होनी चाहिए। जैसे मिट्टी की योग्यता कुंभकार के द्वारा उदघाटित होती है। माटी में जो विराट योग्यता है वह अन्यत्र नहीं! उसके विकास एवं उन्नति का श्रेय कुंभकार को जाता है। ऐसे ही प्राणी मात्र को दिशा बोध प्राप्त हो, ताकि वह भी अपना कल्याण कर सके, यही इसका संदेश है।
उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर।
आत्मबोध हो तुरत ही,मुख संयम की ओरा॥
जैसे अंकुर फूटते ही उसका मुख अपने आदर्श, उर्जा स्त्रोत सूरज की और होता है वेसे ही अंदर उपादान में वैसी ही शक्ति छुपी है जो विभिन्न बाह्य निमित्तों/साधनों के माध्यम से उद्घाटित हो जाती है। उन्नति एवं विकास के लिए निमित्त की आवश्यकता होती है, जो धरती में पाई जाती है। ‘स्वर्गीय भूमि को उत्तम क्षेत्र नहीं माना अपितु पतित से पावन बनने के लिये धरती को ही उत्तम क्षेत्र माना-स्वर्ग को नहीं।'
आचार्य श्री ने बताया कि सजीव पात्रों की अपनी सीमायें होती हैं। किन्तु निर्जीव पात्र को प्राणवान बनाकर उसके माध्यम से उसकी वास्तविक वेदना को अभिव्यक्ति प्रदान की जा सकती है, जो सजीव दशा में व्यक्ति नहीं कर पाता है।
वैसे भूमि सभी को आश्रय प्रदान करती है, इसीलिये उसे धरा, पृथ्वी, जमीन, क्षमा आदि कहा जाता है। जबकि जल को साहित्य में जड़ कहा जाता है। वह जड़ होकर भी धरती का आधार/आश्रय पाकर ज्ञान पा लेता है, अपने आपको उपयोग शील बनाने पर कृतार्थ हो जाता है। सघन मेघों से गिरी हुई बूंदें सागर में गिरकर उसी में विलीन हो, खारी हो जाती हैं, जब तक वे बूंदें धरती का सहारा नहीं लेती वे मुता नहीं बन पातीं। मेघ से गिरा जल नीचे आकर सीप की गोद में जाकर मुक्ता का रूप धारण करता है। इसीलिए धरती की महत्ता है उसके कारण ही जलतत्व में पूज्यता/श्रेष्ठता आती है। मूकमाटी में धरती के अंश माटी को इसीलिए मुख्यता प्राप्त हुई हैं।
निज में यति ही नियति है, ध्येय 'पुरुष' पुरुषार्थ।
नियति और पुरुषार्थ का, सुन लो अर्थ यथार्थ॥
मूकमाटी सृजन यात्रा शब्द से अर्थ एवं अर्थ से भाव की ओर नहीं हुई बल्कि भीतर से बाहर की ओर हुई। भाव-संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली है। भारतीय संस्कृति में दृश्य नहीं दृष्टा महत्वपूर्ण है। दृश्य को देखकर कई प्रकार के भाव हो सकते हैं जो व्यक्ति की मन:स्थिति या उपयोग पर आधारित हैं। जो दिख जाता है उसमें देखने वाले के विचार मुख्य हैं। दृश्य को देखकर और भी अनेक प्रकार के भाव हो सकते हैं। वस्तुत: यह दृष्टा को नहीं समझ पाने का परिणाम है। मूकमाटी के एक प्रकरण में यह भाव स्पष्ट किया गया है कि पुरुष यानि आत्मा सब में है यह जो ऊपर दिख रही यही तो प्रकृति है। इस वास्तविकता को नहीं समझ पाने के कारण ही संसार में भटकन हो रही है। अत: उलझन के 'उ' को निकाल 'सु' करना ही सुलझन आत्म कल्याण का मार्ग है।
अहिंसा परमो धर्म की जय !
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