शिष्य गुरु का सम्बन्ध आचार्य उमास्वामी महाराज हुए हैं जिन्होंने पूरी जिनवाणी को सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में सूत्र रूप में लिपिबद्ध किया है। उसमें एक सूत्र आता है -'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' यह सूत्र तीन शब्दों से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है परस्पर में एक दूसरे जीव पर उपकार करना जीव का लक्षण है। उपकार अजीव पर नहीं, जीव पर किया जाता है। किन्तु जिसके पास संवेदना शक्ति नहीं वह भी उपकार करता है। सूत्र में पर नहीं कहा किन्तु परस्पर कहा जो गहन अर्थ रखता है।
जो उपकार को जानता है उस पर उपकार होना चाहिए। सामने वाला उपकार माने न माने किन्तु उपकार करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। इस सूत्र पर आचार्य पूज्य पाद महाराज के द्वारा टीका लिखी गई। उसमें एक बात बड़ी विचित्र कही गई कि छोटों पर बड़ों का उपकार तो ठीक है; किन्तु छोटों का बड़ों पर उपकार कैसे हो सकता है। शिष्य का गुरु पर उपकार कैसे हो सकता है ? भक्त का भगवान् के ऊपर उपकार कैसे ? इस बात को मनोयोग पूर्वक ध्यान से सुनना, यह महावीर भगवान् की दिव्य देशना का सार तत्वार्थ सूत्र है। उसके एक-एक सूत्र की गहराई में जाना चाहें तो यह जीवन छोटा पड़ जायेगा।
भगवान् ने हमें मार्ग बताया यह उनका उपकार है, और भगवान् ने जो मार्ग बताया उस मार्ग पर चलना भगवान् के ऊपर हमारा उपकार है। गुरु की आज्ञा का पालन करना गुरु के ऊपर उपकार है। जब यह व्याख्या सामने आती है तब हम भगवान् से छोटे नहीं रह जाते हैं किन्तु यदि नहीं करते तो जैन धर्मानुयायी कहते लज्जा आनी चाहिए। जो भगवान् के मार्ग पर चलता है वही भगवान् का सही अनुयायी है। भक्त वह होता है जो भगवान् की खोज करता है और भगवान् की आज्ञा पालन करता है यही भत और भगवान् में सम्बन्ध होता है। जो करने योग्य कार्य को जानता है और अपना कर्तव्य समझकर करता है वही कृतकृत्य होता है। उसी कर्तव्य के पालन से हमारे भगवान् कृत कृत्य हुए हैं। कर्तव्य प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। सम्यग्ज्ञान और शोभा कर्तव्य पालन से है। कई लोग सुनते सुनते वृद्ध हो गये फिर भी कर्तव्य की बात समझ में नहीं आ रही है और मात्र नारे लगाये जा रहे हैं। बंधुओं नारे लगाये बिना भी हम कुछ कार्य कर सकते हैं। आज तो कुछ नारे राज नीति जैसे लगने लगे हैं अब इनको बंद करो। हम बोलकर शब्दों से ही भाव पहुँचा सकते हैं ऐसा भी नहीं है, किन्तु बिना बोले पहुँचा सकते हैं।
ज्ञानसागरजी हमारे गुरु हैं, उन्होंने जो कहा मैं उसे कहने में लगा हूँ। वे यह नहीं कह गये कि तुम्हारे ऊपर अजमेर वालों का ऋण लदा है उसे चुकाना है। मेरे ऊपर तो ज्ञानसागर जी का ऋण लदा है। ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ने कितने चातुर्मास आपके अजमेर में किये, उसका कर्ज कितना लदा है उसे आप लोगों को पहले चुकाना है। गुरु महाराज ने कहा जिन्होंने पहले कर्ज लिया है उन्हें अब कर्ज नहीं देना और उन्होंने यह भी कहा कि जहाँ दुकान न चले वहाँ नहीं रहना।
ज्ञानसागरजी महाराज वृद्ध थे फिर भी अपने आवश्यक पालन करते हुए जो पास था उसे यह लायक समझ कर मुझे दिया उसे लेकर मैंने अपनी गाड़ी वहाँ से रवाना कर दी। उन्होंने कहा मूलधन में कभी भी कमी नहीं आना चाहिए यह हमेशा ध्यान रखना। वह बात मैंने हमेशा याद रखी है तभी मूलधन आज तक सुरक्षित है। इसके लिए एक सूत्र ‘सुनना सब की करना मन की।' जो आकर कुछ कहे उसे हव-हव (हाँ-हाँ) कह कर टाल देना ग्राहक को तोड़ना भी नहीं और जल्दी जल्दी देना भी नहीं।
जैसे किसान बीज बोता है एक पानी दे देता है फिर उसकी तरफ देखता ही नहीं, किन्तु ताप के कारण जब पौधा सूखने की ओर होता है तब फिर एक पानी दे देता है परिणाम स्वरूप फसल लहलहाने लगती है। वैसे ही ज्ञानसागर जी ने कहा था जब सूखने लगे/साहस टूटने लगे तब थोड़ा पानी दे देना यही ध्यान रखते हुए सुधासागर जी महाराज को भेजा है।
अनंत सिद्ध परमेष्ठी हमारे सामने से निकल गये, ४-४ बार दिव्य देशना दी गई फिर भी कल्याण नहीं हुआ मात्र सुनते बैठे रहे। सुनने मात्र से कार्य सम्पन्न या कल्याण नहीं होता। आज लोग कहते ज्यादा हैं करते कम किन्तु पहले करते ज्यादा, कहते कम थे। आज तो कार्य होने से पूर्व ही पत्र पत्रिकाओं में निकल जाता है। पर ज्ञानसागर जी ऐसे नहीं थे। उन्होंने प्रवचन किये शास्त्र लिखे, जिन्हें देख विद्वान लोगों ने कहा ये प्रकाशन के योग्य हैं तब महाराज (ज्ञानसागरजी) ने कहा मैं साधक हूँ प्रकाशक नहीं। महाराज ने वीरोदय, जयोदय आदि ऐसे महान् ग्रन्थों की रचना की, जिसे समझने में विद्वानों को भी कठिनाई महसूस होती थी तब विद्वानों ने टीका लिखने की प्रार्थना की। गुरु महाराज ने टीका और अन्वयार्थ लिखकर सब की माँग पूर्ण कर दी। इस प्रकार ज्ञानसागर जी ने जो हमें दिया है वह ऋण हमारे और आपके ऊपर है उसे चुकाना है।
ज्ञानसागरजी का लक्ष्य था मैं कौन हूँ इसको जानना, और मेरा कर्तव्य क्या है उसे करना। जीवन को सफल बनाने के लिए अपना कर्तव्य करना चाहिए डयूटी ऑफ राइट नॉलेज वाली बात होना चाहिए। वे वृद्धों के साथ वृद्धों जैसे, युवाओं के साथ युवा जैसे, बालक के साथ बालकों जैसे हो जाते थे यह उनकी कुशलता थी। आज तो धारा प्रवाह स्पीच चाहिए, उस धारा प्रवाह स्पीच में इतना बोलते हैं कि उन्हें स्वयं ही कुछ पता नहीं रहता है कि क्या बोल रहा हूँ आज प्रवचन और शास्त्र स्वाध्याय में बहुत अंतर हो गया है।
ग्राहक आये आप माल (कपड़ा) दिखाये ढेर लग जाय फिर भी न ले तो सच-सच बताओ कैसा लगता है ? महाराज ऐसा लगता है कि हे भगवान् ऐसे ग्राहकों से बचाओ। अरे भैया ऐसे हमारे पास प्रतिदिन ग्राहक आये तो मुझे कैसा लगता होगा। ज्ञानसागर जी जब मिलेंगे तो हम यही कहेंगे, इन मारवाड़ी ग्राहकों से बचाओ।
ज्ञानसागरजी महाराज की हमारे ऊपर ऐसी कृपा हो गयी कि हम तो धन्य धन्य हो गये उनके हम ऋणी हैं और यह ऋण नहीं बल्कि अब कर्तव्य है। ज्ञानसागरजी ने जो अध्यात्म का ज्ञान इस युग को वैसा ही दिया जैसे दीपक बुझने वाला हो और उसमें तेल डाल दिया हो। मेरा तो पुण्य था जो भले ही अल्प काल के लिए मिला पर मिला है। जो मिला है उसे व्यक्त नहीं कर सकते। यदि २-३ वर्ष और देर कर जाता तो मेरा जीवन अंधकारमय हो जाता। जिनके स्मरण करने मात्र से प्रकाश मिल जाता है उनका स्मरण बार बार करते रहना चाहिए। उनमें ज्ञानसागरजी भी एक प्रकाश पुंज है वे ऐसा ही प्रकाश जीवन में देते रहें ऐसी मैं प्रार्थना करता हूँ।
(यह प्रवचन ज्ञानोदय तीर्थ अजमेर राजस्थान से पधारे ५०० श्रावकों के लिए दिया गया था। सुधा सागर जी महाराज की प्रेरणा से ज्ञानोदय तीर्थ बन रहा है। वहाँ पधारने के लिए आचार्य श्री को आमंत्रण देने आये थे।)
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